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हम तो कबहूँ न हित उपजाये
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हम तो कबहूँ न हित उपजाये
सुकुल-सुदेव-सुगुरु सुसंग हित, कारन पाय गमाये! ॥

ज्यों शिशु नाचत, आप न माचत, लखनहारा बौराये
त्यों श्रुत वांचत आप न राचत, औरनको समुझाये ॥१॥

सुजस-लाहकी चाह न तज निज, प्रभुता लखि हरखाये
विषय तजे न रजे निज पदमें, परपद अपद लुभाये ॥२॥

पापत्याग जिन-जाप न कीन्हौं, सुमनचाप-तप ताये
चेतन तनको कहत भिन्न पर, देह सनेही थाये ॥३॥

यह चिर भूल भई हमरी अब कहा होत पछताये
'दौल' अजौं भवभोग रचौ मत, यौं गुरु वचन सुनाये ॥४॥



अर्थ : हमने कभी अपने हित का कार्य नहीं किया । हितकारी अच्छे कुल को पाया, श्रेष्ठ देव व गुरु का अच्छा साथ भी मिला पर ये सब पाकर खो दिये।
जैसे कोई बालक नाचता है, वह बालक स्वयं अपने नाच पर गर्व नहीं करता पर देखनेवाले उन्मत्त हो जाते हैं, वैसे ही हम शास्त्रों का वाचन करते हैं, पढ़ते हैं परन्तु उसके अनुरूप आचरण नहीं करते और केवल दूसरों को ही समझाते हैं, उपदेश देते हैं।
अपने सुयश की, लाभ की, अपनी बड़ाई की कामना-लालसा नहीं छोड़ते । सर्वत्र अपनी प्रशंसा और मान चाहते हैं। ऐसा होने पर प्रसन्न होते हैं। हम विषय-भोगों को नहीं छोड़ते न कभी अपने स्वरूप में लीन होते । स्वरूपचिंतवन नहीं करते और ग्रहण नहीं करने योग्य पर-पद में रीझते हैं, मोहित होते हैं ।
कभी पाप-क्रियाओं का त्याग नहीं किया, जिनेन्द्र के गुणों का जाप नहीं किया, उनका स्मरण-मनन नहीं किया। बस, कामरूपी अग्नि की तपन में दहकते रहे हैं। कहने को तो कहते रहे हैं कि ये चेतन देह से भिन्न है, पर सदैव हृदय से - आचरण से देह पर ही ममत्व करते रहे हैं।
अनादिकाल से हमारी यही भूल हो रही है, अब पछताने से क्‍या लाभ! दौलतराम कहते हैं कि गुरु की वाणी सुनो और अब आगे भवभोगों में रत मत होओ।