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चेतन नागर हो तुम चेतो
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चेतन नागर हो तुम, चेतो चतुर सुजान, आपहित कीजिये हो ॥

प्रथम प्रणमु अरहन्त जिनेश्वर, अनंत चतुष्टयधारी ।
सिद्ध सूरि गुरु मुनिपद बन्दों, पंच परम उपगारी ॥
बन्दों शारद भवदधिपारद, कुमतिविनाशनहारी ।
देहु सुबुद्धि मेरे घट अन्तर, कहों कथा हितकारी ॥
चेतन नागर हो तुम, चेतो चतुर सुजान, आपहित कीजिये हो ॥१॥

यह संसार अनादि अनन्त, अपार असार बतायो ।
जीव अनादि कालसों ले करि, मिथ्यासों लपटायो ॥
ता भ्रमत चहूँगति भीतर, सुख नहिं दुख बहु पायो ।
जिनवानी सरधान बिना तैं, काल अनन्त गुमायो ॥
चेतन नागर हो तुम, चेतो चतुर सुजान, आपहित कीजिये हो ॥२॥

काम भोगकै सुख मानत है, विषय रोग की पीरा ।
तासु विपाक अनन्त गुणा तोहि, नरकमाहिं है धीरा ॥
पाप करमकरि सुख चाहत है, सुख नहिं ह्वै है वीरा ।
बोये आक आम किमि खैहो, काँच न ह्वै है हीरा ॥
चेतन नागर हो तुम, चेतो चतुर सुजान, आपहित कीजिये हो ॥३॥

पाप करम करि दरब कमायो, पापहि हेत लगायो ।
दोनों पाप कौन भोगैगो, सो कछु भेद न पायो ॥
दुशमन पोषि हरष बहु मान्यो, मित्र न संग सुहायो ।
नरभव पाय कहा कीनों, मानुष वृथा कहायो ॥
चेतन नागर हो तुम, चेतो चतुर सुजान, आपहित कीजिये हो ॥४॥

सात नरक के दुख भूले अरू गरभ जनम हू भूले ।
काल दाढ़ विच कौन अशुचि तन, कहा जान जिय फूले ॥
जान बूझ तुम भये बावरे, भरम हिंडोले झूले ।
राई सम दुख सह न सकत हो, काम करत दुखमूले ॥
चेतन नागर हो तुम, चेतो चतुर सुजान, आपहित कीजिये हो ॥५॥

साता होत कछुक सुख माने, होत असाता रोवै ।
ये दोनों हैं कर्म अवस्था, आप नहीं किन जोवै ॥
औरन सीख देत बहु नीकी, आप न आप सिखावै ।
सांच साच कछु झूठ रंच नहिं, याही दुख पावै ॥
चेतन नागर हो तुम, चेतो चतुर सुजान, आपहित कीजिये हो ॥६॥

पाप करत बहु कष्ट होत है, धरम करत सुख भाई !
बाल गुपाल सबै इम भाषै, सो कहनावत आई !
दुहि में जो तोकौं हित लागै, सो कर मन-वच-काई ।
तुमको बहुत सीख क्या दीजे, तुम त्रिभुवन के राई ॥
चेतन नागर हो तुम, चेतो चतुर सुजान, आपहित कीजिये हो ॥७॥

बस पंचेन्द्री सेती मानुष, औसर फिर नहिं पै है ।
तन धन आदि सकल सामग्री देखत देखत जे है ॥
समझ समझ अब ही तू प्राणी! दुरगति में पछतैहै ।
भज अरहन्तचरण जुग 'धानत', बहुरि न जगमें ऐ है ॥
चेतन नागर हो तुम, चेतो चतुर सुजान, आपहित कीजिये हो ॥८॥



अर्थ : हे विवेकी सुजन ! तुम चैतन्य राजा हो, अब तो चेतो। अपना हित करो।

सर्वप्रथम अनन्त चतुष्टय के धारी अरहंत देव को प्रणाम करो । फिर सिद्ध, आचार्य, गुरु अर्थात् उपाध्याय और मुनि के चरणों में नमन करो । ये पाँचों ही उपकार करनेवाले हैं । फिर सरस्वती जो इस भव-समुद्र से पार उतारनेवाली है और कुमति का नाश करनेवाली है, का वंदन करो । वे मुझे मेरे अन्तर में सुबुद्धि दें। ऐसी हितकारी कथा कहें कि जिससे उनके गुणों की अनुभूतिरूप पहचान हो।

यह संसार अनादि व अनन्त है, इसका कोई पार नहीं है, किन्तु यह निस्सार (साररहित) है । अनादिकाल से मिथ्यात्व के कारण जीव इसमें लिपटा हुआ है, जिसके कारण चारों गतियों में भटककर सुख नहीं, बहुत दुःख पाये हैं । जिनेन्द्र वचन / जिनवाणी का श्रद्धान किए बिना अनन्तकाल व्यर्थ में व्यतीत हो गए, बिता दिए ।

काम और भोग को सुख मानकर जीव इन्द्रिय-विषयों की पीड़ा को सहन करता रहा । जिसके परिणाम-स्वरूप उससे भी अनन्तगुणा फल पाकर नरकगति में दुर्दशा को प्राप्त हुआ । पाप करके सुख की कामना करता रहा । हे भाई! उससे सुख नहीं होता । जरा सोच! आकड़ा बोकर आम किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? जैसे काँच कभी भी हीरा नहीं हो सकता ।

पाप क्रिया करके ध्यान अर्जित किया और उसे फिर पाप-कार्यों में ही लगा दिया । इन दोनों क्रियाओं के पाप का भागी - भोगनेवाला कौन होगा ? इस भेद की बात को जीव समझ ही नहीं पाया । दुश्मन को पोषण देकर, उसे पाल-पोसकर हर्षित हुआ और कल्याणकारी व उपयोगी मित्रों का साथ मन को रुचिकर नहीं लगा । इस प्रकार नरभव पाकर तूने क्या किया? (कुछ भी भला नहीं किया।) तू तो नाहक ही मनुष्य कहलाया ।

जीव सातों नरकों के दुःखों को, गर्भकाल व जन्म के दुःखों को (जो उसने भोगे थे उन) सभी को भूल गया। इस अशुचि (मैल से भरे) तन को जो सदा नाशवान है, जो सदा मृत्यु की दाढ़ में रहता है, उसे पाकर जीव फूला हुआ रहता है, फूला जाता है, प्रसन्न होता है । हे जीव ! तू जान-बूझकर भ्रम में पड़ा हिण्डोले की भाँति इधर-उधर झूल रहा है। यह जीव राई के समान थोड़ा सा दुःख भी सहन नहीं कर पाता, पर काम दु:ख उपजाने के करता रहता है।

साता का (सुख का) थोड़ा-सा उदय होने पर सुख मानता है और असाता होने पर दुःखी होकर रोता है । ये दोनों अवस्थाएँ तो कर्म-जन्य हैं, कर्मों के कारण हैं, परन्तु जीव अपने आप की ओर नहीं देखता । दूसरों को तो भली प्रकार सीख व शिक्षा देता है, पर स्वयं उस पर आचरण नहीं करता । यह ही सत्य है । इसमें कुछ भी झूठ नहीं है । इस ही के कारण दुःख पाता है ।

हे जीव ! पाप से पीड़ा व कष्ट होता है, धर्म से सुख होता है । सभी यह कहते हैं कि छोटे से लेकर बड़े तक सब इस बात को समझते हैं । इन दोनों (पाप और धर्म) में जो तुझे हितकर लगे उसे मन-वचन-काय सहित कर । तू स्वयं तीन-भुवनपति होने की क्षमता रखता है । इसलिए तुझको क्या सीख दी जावे ?

त्रसकाय में पंचेन्द्री मनुष्य होने का अवसर फिर नहीं मिलेगा । देखते-देखते तन-धन आदि सब सामग्री चली जावेगी । हे प्राणी! तू अब तो समझ, वरना फिर दुर्गति में पड़कर पछताएगा । द्यानतराय कहते हैं कि तू अरहंत चरण का भजन कर, जिससे जगत में फिर से आगमन ही न हो ।