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नैननि को वान परी
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राग : ख्याल

नैननि को वान परी, दरसन की ।
जिन मुखचन्द चकोर चित मुझ, ऐसी प्रीति करी ॥टेक॥

और अदेवन के चितवनको अब चित चाह टरी ।
ज्यों सब धूलि दबै दिशि दिशिकी, लागत मेघझरी ॥१॥

छबि समाय रही लोचनमें, विसरत नाहिं घरी ।
'भूधर' कह यह टेव रहो थिर, जनम जनम हमरी ॥२॥



अर्थ : हे प्रभु! इन नयनों को आपके दर्शन करने की आदत पड़ गई हैं । जैसे चकोर पक्षी चन्द्रमा को देखकर आह्लादित होता है, उसी प्रकार मेरा चित्त आपके दर्शन पाकर मग्न हो जाता है, आपसे ऐसी प्रीति, ऐसा लगाव हो गया है। चित्त में अब अन्य देवों को देखने की, उनके दर्शन को कोई चाह नहीं रह गई है। वह चाह वैसे ही मिट गई, जैसे - चारों ओर उड़ रहे धूल के कण वर्षा होने पर भीगकर दब जाते हैं, नीचे आ जाते हैं। मेरे नयनों में आपकी ही मद्रासमा रही है, भा रही है, एक क्षण के लिए भी उसे भुलाया नहीं जाता। भूधरदास कहते हैं कि हमारी यह आदत जन्म-जन्म तक ऐसी ही स्थिर अर्थात् स्थायी बनी रहे, यही भावना है।