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वा दिन को कर सोच
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वा दिन को कर सोच जिय मन में ।
बनज किया व्यापारी तूने, टांडा लादा भारी ॥टेक॥

ओछी पूंजी जूआ खेला, आख़िर बाजी हारी ।
आखिर बाजी हारी, करले चलने की तय्यारी ॥
इक दिन डेरा होयगा वन में ॥वा...१॥

झूठै नैना उलफत बांधी, किसका सोना किसकी चांदी ।
इक दिन पवन चलेगी आंधी, किसकी बीबी किसकी बांदी ॥
नाहक चित्त लगावे धन में ॥वा...२॥

मिट्टी सेती मिट्टी मिलियो, पानी से पानी ।
मूरख सेती मूरख मिलियौ, ज्ञानी से ज्ञानी ॥
यह मिट्टी है तेरे तन में ॥वा...२॥

कहत 'बनारसि' सुनि भवि प्राणी, यह पद है निरवाना ।
जीवन मरन किया सो नांही, सिर पर काल निशाना ।
सूझ पड़ेगी बुढापेपन में ॥वा...४॥



अर्थ : आत्मन्‌ ! तुम अपने मन में उस दिन की कल्पना तो करो ।
तुमने व्यापारी के रूप में व्यापार किया और एक बहुत बड़ा खाड़्‌ लादा; पर थोड़ी-सी पूँजी होने पर भी जुआ जैसे दुर्व्यसन के शिकार हुए और अन्त में दांव हार गय । अन्त में जब दांव हार गये तो आत्मन्‌ ! अब प्रस्थान की तयारी करना है । यहाँ से प्रस्थान कर तुम्हें वन में डेरा डालना होगा (मरकर श्मशान भूमि में जाना होगा) ।

आत्मन्‌ ! तुमने अपने नेत्रों से व्यर्थ तथा मिथ्या ही प्रेम बांधा । संसार में सोना और चाँदी किसका रहा है ? आत्मा के परलोकवासी होते ही सब कुछ यहाँ ही रह जाता है, उसके साथ कुछ भी नहीं जाता । कुटुम्बीजन तथा स्त्री-पुत्रादि और परिजन भी सब यहाँ ही रह जाते हैं । आत्मन ! तुम इन परकीय पदार्थों तथा धन में व्यर्थ ही अपना मन डुलाते हो ।

हे आत्मन्‌ ! जिस प्रकार मूर्ख से मूर्ख मिल जाता है और ज्ञानी से ज्ञानी पुरुष मिल जाता है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद इस शरीर का पार्थिव अंश पृथिवी में मिल जाता है और जलांश जल में । आत्मन्‌ ! तुम्हारा शरीर तो मिट्टी का बना हुआ है, फिर वह तुम्हारे साथ कैसे जायेगा ? वह तो मिट्टी में मिलकर रहेगा ।

हे भव्य आत्मन्‌ ! तुम्हारा गौरव एवं प्रतिष्ठा इसमें है कि तुम अपने शाश्वत एवं निष्कलंक निर्वाण पद को प्राप्त करो । यह पद भी तुम्हारी सम्पूर्ण विशुद्ध चिन्मय दशा के सिवाय अन्य कुछ नहीं है । जन्म और मरण -- यह तुम्हारा स्वरूप नहीं है । यह तो तुम्हारे सर पर कलंक है और इसे धोकर ही तुम्हारी तेजोमय गौरवश्री का प्रकाश होगा ।

आत्मन्‌ ! यदि तुमन सर्वतः समर्थ अपनी यौवनावस्था में अपने परमपद (निर्वाण लाभ) के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया तो वृद्धावस्था में अपनी अकर्मण्यता पर तुम्हें गहरा पश्चात्ताप करना पड़ेगा । उस समय तुम्हें रह-रहकर याद आवेगी कि -- 'मेंने आत्म-स्वरूप के लाभ के लिए कुछ नहीं किया । खेद !'

हे आत्मन्‌ ! तुम अपने मन में उस दिन की कल्पना तो करो, जब तुम आत्म-कल्याण की दिशा में कुछ भी प्रयत्न न करके भवान्तर में जाने के लिए जीवन की अन्तिम घडियाँ गिन रहे होंगे ।