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अर्धकथानक
























- बनारसीदास



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022


Index


गाथा / सूत्रविषय



(दोहरा)

पानि-जुगुल-पुट सीस धरि, मानि अपनपौ दास ।
आनि भगति चित जानि प्रभु, बन्दौं पास-सुपास ॥१॥


(सवैया इकतीसा, बनारसी नगरी की सिफथ)

गङ्ग मांहि आइ धसी द्वै नदी बरुना आसी,
बीच बसी बनारसी नगरी बखानी है ।
कसीवार देस मध्य गांउ तातहिं कासी नांउ,
श्री सुपास-पास की जनम-भूमि मानी है ।
तहां दुहू जिन सिव-मारग प्रगट कीनौ,
तब सेती सिवपुरी जगत महिं जानी है ।
ऐसी बिधि नाम थपे नगरी बनारसी के,
और भान्ति कहै सो तौ मिथ्यामत-बानी है ॥२॥


(दोहरा)

जिन-पहिरी-जिन-जनमपुर-नाम-मुद्रिका-छाप ।
सो बनारसी निज कथा, कहै आप सौं आप ॥३॥


(चौपई)

जैन-धर्म श्रीमाल सुबंस, बानारसी नाम नर-हंस ।
तिन मन मांहि बिचारी बात, कहौं आपनी कथा बिख्यात ॥४॥

जैसी सुनी बिलोकी नैन, तैसी कछू कहौं मुख-बैन ।
कहौं अतीत-दोष-गुण-वाद, बरतमान तांई मरजाद ॥५॥

भावी दसा होइगी जथा, ग्यानी जानै तिस की कथा ।
तातहिं भई बात मन आनि, थूल-रूप कछु कहौं बखानि ॥६॥

मध्यदेस की बोली बोलि, गर्भित बात कहौं हिय खोलि ।
भाखूं पूरब-दसा-चरित्र, सुनहु कान धरि मेरे मित्र ॥७॥


(दोहरा)

याही भरत सुखेत महिं, मध्यदेस सुभ ठांउ ।
बसै नगर रोहतग-पुर, निकट बिहोली-गांउ ॥८॥

गांउ बिहोली महिं बसै, राज-बंस रजपूत ।
ते गुरु-मुख जैनी भए, त्यागि करम अदभूत ॥९॥

पहिरी माला मन्त्र की, पायौ कुल श्रीमाल ।
थाप्यौ गोत बिहोलिआ, बीहोली-रखपाल ॥१०॥

भई बहुत बंसावली, कहौं कहां लौं सोइ ।
प्रगटे पुर रोहतग महिं, गाङ्गा गोसल दोइ ॥११॥

तिन के कुल बस्ता भयौ, जा कौ जस परगास ।
बस्तपाल के जेठमल, जेठू के जिनदास ॥१२॥

मूलदास जिनदास के, भयौ पुत्र परधान ।
पढ़्यौ हिन्दुगी पारसी, भागवान बलवान ॥१३॥

मूलदास बीहोलिआ, बनिक वृत्ति के भेस ।
मोदी ह्वैकै मुगल कौ, आयौ मालव-देस ॥१४॥


(चौपई)

मालव-देस परम सुख-धाम, णरवर नाम नगर अभिराम ।
तहां मुगल पाई जागीर, साहि हिमाऊं कौ बर बीर ॥१५॥

मूलदास सौं बहुत कृपाल, करै उचापति सौं पै माल ।
सम्बत सोलह सै जब जान, आठ बरस अधिके परबान ॥१६॥

सावन सित पञ्चमी रबिबार, मूलदास-घर सुत अवतार ।
भयौ हरख खरचे बहु दाम, खरगसेन दीनौं यहु नाम ॥१७॥

सुख सौं बरस दोइ चलि गए.घनमल नाम और सुत भए ।
बरस तीन जब बीते और, घनमल काल कियौ तिस ठौर ॥१८॥


(दोहरा)

घनमल घन-दल उड़ि गए, काल-पवन-सञ्जोग ।
मात-तात तरुवर तए, लहि आतप सुत-सोग ॥१९॥


(चौपई)

लघु-सुत-सोक कियौ असराल, मूलदास भी कीनौं काल ।
तेरहोत्तरे सम्बत बीच, पिता-पुत्र कौं आई मीच ॥२०॥

खरगसेन सुत माता साथ, सोक-बिआकुल भए अनाथ ।
मुगल गयौ थो काहू गांउ, यह सब बात सुनी तिस ठांउ ॥२१॥


(दोहरा)

आयौ मुगल उतावलो, सुनि मूला कौ काल ।
मुहर-छाप घर खालसै, कीनौ लीनौ माल ॥२२॥

माता पुत्र भए दुखी, कीनौ बहुत कलेस ।
ज्यौं त्यौं करि दुख देखते, आए पूरब देस ॥२३॥


(चौपई)

पूरब-देस जौनपुर गांउ, बसै गोमती-तीर सुठांउ ।
तहां गोमती इहि बिध बहै, ज्यौं देखी त्यौं कवि-जन कहै ॥२४॥


(दोहरा)

प्रथम हि दक्खन-मुख बही, पूरब मुख परबाह ।
बहुर्ण् उत्तर-मुख बही, गोवै नदी अथाह ॥२५॥


(चौपई)

गोवै नदी त्रि-विधि-मुख बही, तट रवनीक सुविस्तर मही ।
कुल पठान जौनासह नांउ, तिन तहां आइ बसायो गांउ ॥२६॥

कुतबा पढ़्यौ छत्र सिर तानि, बैठि तखत फेरी निज आनि ।
तब तिन तखत जौनपुर नांउ, दीनौ भयौ अचल सो गांउ ॥२७॥

चारौं बरन बसहिं तिस बीच, बसहिं छतीस पौंनि कुल नीच ।
बाम्भन छत्री बैस अपार, सूद्र भेद छत्तीस प्रकार ॥२८॥


(सवैया इकतीसा, छत्तीस पौंन कथन.)

सीसगर, दरजी, तम्बोली, रङ्गबाल, ग्वाल,
बाढ़ई, सङ्गतरास, तेली, धोबी, धुनियां ।
कन्दोई, कहार, काछी, कलाल, कुलाल, माली,
कुन्दीगर, कागदी, किसान, पटबुनियां ।
चितेरा, बन्धेरा, बारी, लखेरा, ठठेरा, राज,
पटुवा, छप्परबन्ध, नाई, भारभुनियां ।
सुनार, लुहार, सिकलीगर, हवाईगर,
धीवर, चमार, एई छत्तीस पौनियां ॥२९॥


(चौपई)

नगर जौनपुर भूमि सुचङ्ग, मठ मण्डप प्रासाद उतङ्ग ।
सोभित सपतखने गृह घने, सघन पताका तम्बू तने ॥३०॥

जहां बावन सराइ पुर-कने, आसपास बावन परगने ।
नगर मांहि बावन बाजार, अरु बावन मण्डई उदार ॥३१॥

अनुक्रम भए तहां नव साहि, तिन के नांउ कहौं निरबाहि ।
प्रथम साहि जौनासह जानि, दुतिय बवक्करसाहि बखानि ॥३२॥

त्रितिय भयौ सुरहर सुलतान, चौथा डोस महम्मद जान ।
पञ्चम भूपति साहि णिजाम, छट्ठम साहि बिराहिम नाम ॥३३॥

सत्तम साहिब साहि हुसैन, अठ्ठम गाजी सज्जित सैन ।
नवम साहि बख्या सुलतान, बरती जासु अखण्डित आन ॥३४॥

ए नव साहि भए तिस ठांउ, यातौं तखत जौनपुर नांउ ।
पूरब दिसि पटना लौं आन, पच्छिम हद्द ईटावा थान ॥३५॥

दक्खन बिन्ध्याचल सरहद्द, उत्तर परमित घाघर नद्द ।
इतनी भूमि राज विख्यात, बरिस तीनि सै की यहु बात ॥३६॥

हुते पुब्ब पुरखा परधान, तिन के बचन सुने हम कान ।
बरनी कथा जथा-स्रुत जेम, मृषा-दोष नहिं लागै एम ॥३७॥


(दोहरा)

यह सब बरनन पाछिलौ, भयौ सुकाल बितीत ।
सोरह सै तेरै अधिक, समै कथा सुनु मीत ॥३८॥

नगर जौनपुर महिं बसै, मदनसिङ्घ श्रीमाल ।
जैनी गोत चिनालिया, बनजै हीरा-लाल ॥३९॥

मदन जौंहरी कौ सदनु, ढूंढ़त बूझत लोग ।
खरगसेन माता-सहित, आए करम-सञ्जोग ॥४०॥

च्हजमल नाना सेन कौ, ता कौ अग्रज एह ।
दीनौ आदर अधिक तिन, कीनौ अधिक सनेह ॥४१॥


(चौपई)

मदन कहै पुत्री सुनु एम, तुमहिं अवस्था व्यापी केम ।
कहै सुता पूरब बिरतन्त, एहि बिधि मुए पुत्र अर कन्त ॥४२॥

सरबस लूटि लियो ज्यौं मीर, सो सब बात कही धरि धीर ।
कहै मदन पुत्री सौं रोइ, एक पुत्र सौं सब किछु होइ ॥४३॥

पुत्री सोच न करु मन मांह, सुख-दुख दोऊ फिरती छांह ।
सुता दोहिता कण्ठ लगाइ, लिए बस्त्र भूखन पहिराइ ॥४४॥

सुख सौं रहहि न ब्यापै काल, जैसा घर तैसी नन-साल ।
बरिस तीनि बीते इह भान्ति, दिन दिन प्रीति रीति सुख सान्ति ॥४५॥

आठ बरस कौ बालक भयौ, तब चटसाल पढ़न कौं गयौ ।
पढ़ि चटसालभयौ बितपन्न, परखै रजत-टका-सोवन्न ॥४६॥

गेह उचापति लिखै बनाइ, अत्तो जमा कहै समुझाइ ।
लेना देना बिधि सौं लिखै, बैठै हाट सराफी सिखै ॥४७॥

बरिस च्यारि जब बीते और, तब सु करै उद्दम की दौर ।
पूरब दिसि बङ्गाला थान, सुलेमान सुलतान पठान ॥४८॥

ता कौ साला ऌओदी खान, सो तिन राख्यौ पुत्र समान ।
सिरीमाल ता कौ दीवान, नांउ राइ ढीना जग जान ॥४९॥

सीङ्घड़ गोत्र बङ्गाले बसै, सेवहिं सिरीमाल पाञ्च सै ।
पोतदार कीए तिन सर्व, भाग्य-सञ्जोग कमावहिं दर्व ॥५०॥

करै बिसास न लेखा लेइ, सब कौं फारकती लिखी देइ ।
पोसह-पड़िकौंना सौं पेम, नौतन गेह करन कौ नेम ॥५१॥


(दोहरा)

खरगसेन बीहोलिया, सुनी राइ की बात ।
निज माता सौं मन्त्र करि, चले निकसि परभात ॥५२॥

माता किछु खरची दई, नाना जानै नांहि ।
ले घोरा असवार होइ, गए राइ-जी पांहि ॥५३॥

जाइ राइ-जी कौं मिल्यौ, कह्यौ सकल बिरतन्त ।
करी दिलासा बहुत तिन, धरी बात उर अन्त ॥५४॥

एक दिवस काहू समै, मन महिं सोचि बिचारि ।
खरगसेन कौं राय नहिं, दिए परगने च्यारि ॥५५॥


(चौपाई)

पोतदार कीनौं निज सोइ, दीनै साथि कारकुन दोइ ।
जाइ परगनें कीनौं काम, करहि अमल तहसीलहि दाम ॥५६॥

जोरि खजाना भेजहि तहां, राइ तथा ऌओदी खां जहां ।
इहि बिधि बीते मास छे सात, चले समेत-सिखरि की जात ॥५७॥


(दोहरा)

सङ्घ चलायौ राय-जी, दियौ हुकम सुलतान ।
उहां जाइ पूजा करी, फिरि आए निज थान ॥५८॥

आइ राइ पट-भौन महिं, बैठे सन्ध्या-काल ।
बिधि सौं सामाइक करी, लीनौं कर जप-माल ॥५९॥

चौबिहार करि मौन धरि, जपै पञ्च नवकार ।
उपजी सूल उदर-विषहिं, हूओ हाहाकार ॥६०॥

कही न मुख सौं बात किछु, लही मृत्यु ततकाल ।
गही और थिति जाइ तिनि, ढही देह-दीवाल ॥६१॥


(सवैया तेईसा)

पौंन सञ्जोग जुरे रथ पाइक, माते मतङ्ग तुरङ्ग तबेले ।
मानि बिभौ अङ्गयौ सिर भार, कियौ बिसतार परिग्रह ले ले ।
बन्ध बढ़ाइ करी थिति पूरन, अन्त चले उठि आपु अकेले ।
हारे हमाल की पोट-सी डारिकै, और दिवाल की ओट हो खेले ॥६२॥


(चौपई)

एहि बिधि राइ अचानक मुआ, गांउ गांउ कोलाहल हुआ ।
खरगसेन सुनि यहु बिरतन्त, गयौ भागि घर त्यागि तुरन्त ॥६३॥

कीनौं दुखी दरिद्री भेख, लीनौं ऊबट पन्थ अदेख ।
नदी गांउ बन परबत घूमि, आए नगर जौनपुर-भूमि ॥६४॥

रजनी समै गेह निज आइ, गुरुजन-चरनन महिं सिर नाइ ।
किछु अन्तर-धनु हुतौ जु साथ, सो दीनौं माता के हाथ ॥६५॥

एहि बिधि बरस च्यारि चलि गए, बरस अठारह के जब भए ।
कियौ गवन तब पच्छिम दिसा, संवत सोलह सै छब्बिसा ॥६६॥

आए नगर आगरे मांहि, सुन्दरदास पीतिआ पांहि ।
खरगसेन सौं राखै प्रेम, करै सराफी बेचै हेम ॥६७॥

खरगसेन भी थैली करी, दुहू मिलाइ दाम सौं भरी ।
दोऊ सीर करहिं बेपार, कला निपुन धनवन्त उदार ॥६८॥

उभय परस्पर प्रीति गहन्त, पिता पुत्र सब लोग कहन्त ।
बरस च्यारि ऐसी बिधि भए, तब मेरठि-पुर ब्याहन गए ॥६९॥


(छप्पै)

सूरदास श्रीमालढोर मेरठी कहावै ।
ता की सुता बियाहि, सेन आर्गलपुर आवै ।
आइ हाट बैठे कमाइ, कीनी निज सम्पति ।
चाची सौं नहिं बनी, लियौ न्यारो घर दम्पति ।
इस बीचि बरस द्वै तीनि महिं, सुन्दरदास कलत्र-जुत ।
मरि गए त्यागि धन धाम सब, सुता एक, नहिं कोउ सुत ॥७०॥

(दोहरा)

सुता कुमारी जो हुती, सो परनाई सेनि ।
दान मान बहु-बिधि दियौ, दीनी कञ्चन रेंनि ॥७१॥

सम्पति सुन्दरदास की, जु कछु लिखी मिलि पञ्च ।
सो सब दीनी बहिनि कौं, सेन न राखी रञ्च ॥७२॥

तेतीसै सम्बत समै, गए जौनपुर गाम ।
एक तुरङ्गम एक रथ, बहु पाइक बहु दाम ॥७३॥

दिन दस बीते जौनपुर, नगर मांहि करि हाट ।
साझी करि बैठे तुरित, कियौ बनज कौ ठाट ॥७४॥


(चौपई)

रामदास बनिआ धनपती, जाति अगरबाला सिव-मती ।
सो साझी कीनौं हित मान, प्रीति रीति परतीति मिलान ॥७५॥

करहिं सराफी दोऊ गुनी, बनजहिं मोती मानिक चुनी ।
सुख सौं काल भली बिधि गमै, सोलह सै पैन्तीस समै ॥७६॥

खरगसेन घर सुत अवतर्यौ, खरच्यौ दरब हरस मन धर्यौ ।
दिन दसम पहुच्यौ परलोक, कीना प्रथम पुत्र कौ सोक ॥७७॥

सैन्तीसै सम्बत की बात, रुहतग गए सती की जात ।
चोरन्ह लूटि लियौ पथ मांहि, सर्वस गयौ रह्मौ कछु नांहि ॥७८॥

रहे बस्त्र अरु दम्पति-देह, ज्यौं त्यौं करि आए निज गेह ।
गए हुते माङ्गन कौं पूत, यहु फल दीनौं सती अऊत ॥७९॥

तऊ न समुझे मिथ्या बात, फिरि मानी उनही की जात ।
प्रगट रूप देखै सब फोक, तऊ न समुझै मूरख लोक ॥८०॥

घर आए फिर बैठे हाट.मदनसिङ्घ चित भए उचाट ।
माया तजी भई सुख सान्ति, तीन बरस बीते इस भान्ति ॥८१॥

सम्बत सोलह सै इकताल, मदनसिङ्घ नहिं कीनौं काल ।
धर्म-कथा फैली सब ठौर, बरस दोइ जब बीते और ॥८२॥

तब सुधि करी सती की बात, खरगसेन फिर दीनी जात ।
सम्बत सोलह सै तेताल, माघ मास सित पक्ष रसाल ॥८३॥

एकादसी बार रबिनन्द, नखत रोहिनी वृष कौ चन्द ।
रोहिनि त्रितिय चरन अनुसार, खरगसेन-घर सुत अवतार ॥८४॥

दीनौं नाम विक्रमाजीत, गावहिं कामिनि मङ्गल-गीत ।
दीजहि दान भयौ अति हर्ष, जनम्यौ पुत्र आठएं वर्ष ॥८५॥

एहि बिधि बीते मास छे सात, चले सु पार्श्वनाथ की जात ।
कुल कुटुम्ब सब लीनौ साथ, बिधि सौं पूजे पारसनाथ ॥८६॥

पूजा करि जोरे जुग पानि, आगें बालक राख्यौ आनि ।
तब कर जोरि पुजारा कहै, बालक चरन तुम्हारे गहै ॥८७॥

चिरञ्जीवि कीजै यह बाल, तुम्ह सरनागत के रखपाल ।
इस बालक पर कीजै दया, अब यहु दास तुम्हारा भया ॥८८॥

तब सु पुजारा साधैपौन, मिथ्या ध्यान कपट की मौन ।
घड़ी एक जब भई बितीत, सीस घुमाइ कहै सुनु मीत ॥८९॥

सुपिनन्तर किछु आयौ मोहि, सो सब बात कहौं महिं तोहि ।
प्रभु पारस-जिनवर कौ जच्छ, सो मो पै आयौपरतच्छ ॥९०॥

तिन यहु बात कही मुझ पांहि, इस बालक कौं चिन्ता नांहि ।
जो प्रभु पास-जनम कौ गांउ, सो दीजै बालक कौ नांउ ॥९१॥

तौ बालक चिरजीवी होइ, यहु कहि लोप भयौ सुर सोइ ।
जब यहु बात पुजारे कही, खरगसेन जिय जानी सही ॥९२॥


(दोहरा)

हरषित कहै कुटुम्ब सब, स्वामी पास सुपास ।
दुहु कौ जनम बनारसी, यहु बनारसीदास ॥९३॥


(चौपई)

एहि बिधि धरि बालक कौ नांउ, आए पलटि जौनपुर गांउ ।
सुख समाधि सौं बरतै बाल, सम्बत सोलह सै अठताल ॥९४॥

पूरब करम उदै सञ्जोग, बालक कौं सङ्ग्रहनी रोग ।
उपज्यौ औषध कीनी घनी, तऊ न बिथा जाइ सिसुतनी ॥९५॥

बरस एक दुख देख्यौ बाल, सहज समाधि भई ततकाल ।
बहुर्ण् बरस एक लौं भला, पञ्चासै निकसी सीतला ॥९६॥


(दोहरा)

बिथा सीतला उपसमी, बालक भयौ अरोग ।
खरगसेन के घरि सुता, भई करम-सञ्जोग ॥९७॥


(चौपई)

आठ बरस कौ हूओ बाल, विद्या पढ़न गयौ चटसाल ।
गुर पाणृए सौं विद्या सिखै, अक्खर बाञ्चै लेखा लिखहिं ॥९८॥

बरस एक लौं विद्या पढ़ी, दिन दिन अधिक अधिक मति बढ़ी ।
विद्या पढ़ि हूओ बितपन्न, सम्बत सोलह सै बावन्न ॥९९॥


(दोहरा)

खरगसेन बनिज रतन, हीरा मानिक लाल ।
इस अन्तर नौ बरस कौ, भयौ बनारसि बाल ॥१००॥

खैराबाद नगर बसै, टाम्बी परबत नाम ।
तासु पुत्र कल्यानमल, एक सुता तस धाम ॥१०१॥

तासु पुरोहित आइओ, लीनहिं नाऊ साथ ।
पुत्र लिखत कल्यान कौ, दियौ सेन के हाथ ॥१०२॥

करी सगाई पुत्र की, कीनौ तिलक लिलाट ।
बरस दोइ उपरान्त लिखि, लगन ब्याह कौ ठाट ॥१०३॥

भई सगाई बावनें, पर्यौ त्रेपनें काल ।
महघा ईन न पाइयौ, भयौ जगत बेहाल ॥१०४॥


(चौपई)

गयौ काल बीते दिन घने, सम्बत सोलह सै चौवने ।
माघ मास सित पख बारसी, चले बिवाहन बानारसी ॥१०५॥

करि बिवाह आए निज धाम, दूजी और सुता अभिराम ।
खरगसेन के घर अवतरी, तिस दिन वृद्धा नानी मरी ॥१०६॥


(दोहरा)

नानी मरन सुता जनम, पुत्र-बधू आगौन ।
तीनौं कारज एक दिन, भए एक ही भौन ॥१०७॥

यह संसार बिडम्बना, देखि प्रगट दुख खेद ।
चतुर चित्त त्यागी भए, मूढ़ न जानहि भेद ॥१०८॥


(चौपई)

इहि बिधि दोइ मास बीतिया, आयौ दुलिहिनि कौ पीतिया ।
टाराचन्द नाम श्रीमाल, सो ले चल्यौ भतीजी नाल ॥१०९॥

खैराबाद नगर सो गयौ, इहां जौनपुर बीतिक भयौ ।
बिपदा उदै भई इस बीच, पुर-हाकिम णौवाब किलीच ॥११०॥


(दोहरा)

तिन पकरे सब जौंहरी, दिए कोठेरी मांहि ।
बड़ी बस्तु माङ्गै कछू, सो तौ इन पै नांहि ॥१११॥

एक दिवस तिनि कोप करि, कियौ हुकम उठि भोर ।
बान्धि बान्धि सब जौंहरी, खड़े किए ज्यौं चोर ॥११२॥

हने कटीले कोररे, कीने मृतक समान ।
दिए छोड़ तिस बार तिन, आए निज निज थान ॥११३॥

आइ सबनि कीनौ मतौ, भागि जाहु तजि भौन ।
निज निज परिगह साथ ले, परै काल-मुख कौन ॥११४॥


(चौपई)

यहु कहि भिन्न भिन्न सब भए, फूटि फाटिकै चहौं-दिसि गए ।
खरगसेन लै निज परिवार, आए पच्छिम गङ्गा-पार ॥११५॥

नगरी साहिजादपुर नांउ, निकट कड़ा मानिकपुर गांउ ।
आए साहिजादपुर बीच, बरसै मेघ भई अति कीच ॥११६॥



निसा अन्धेरी बरसा घनी, आइ सराइ बसे गृह-धनी ।
खरगसेन सब परिजन साथ, करहिं रुदन ज्यौं दीन अनाथ ॥११७॥


(दोहरा)

पुत्र कलत्र सुता जुगल, अरु सम्पदा अनूप ।
भोग-अन्तराई-उदै, भए सकल दुख-रूप ॥११८॥


(चौपई)

इस अवसर तिस पुर थानिया, करमचन्द माहुर बानिया ।
तिन अपनौं घर खाली कियौ, आपु निवास और घर लियौ ॥११९॥

भई बितीत रेंनि इक जाम, टेरै खरगसेन कौ नाम ।
टेरत बूझत आयौ तहां, खरगसेनजी बैठे जहां ॥१२०॥

"राम-राम" करि बैठ्यौ पास, बोल्यौ "तुम साहब महिं दास ।
चलहु कृपा करि मेरे सङ्ग, महिं सेवक तुम चढ़ौ तुरङ्ग ॥१२१॥

जथा-जोग है डेरा एक, चलिए तहां न कीजै टेक" ।
आए हित सौं तासु निकेत, खरगसेन परिवार-समेत ॥१२२॥

बैठे सुख सौं करि विश्राम, देख्यौ अति विचित्र सो धाम ।
कोरे कलस धरे बहु माट, चादरि सोरि तुलाई खाट ॥१२३॥

भरयौ ईन सौं कोठा एक, भख्य पदारथ और अनेक ।
सकल बस्तु पूरन करि गेह, तिन दीनौं करि बहुत सनेह ॥१२४॥

खरगसेन हठ कीनै महा, चरन पकरि तिन कीनी हहा ।
अति आग्रह करि दीनौ सर्व, बिनय बहुत कीनी तजि गर्व ॥१२५॥


(दोहरा)

घन बरसै पावस समै, जिन दीनौ निज भौन ।
ता की महिमा की कथा, मुख सौं बरनै कौन ॥१२६॥


(चौपई)

खरगसेन तहां सुख सौं रहै, दसा बिचारि कबीसुर कहै ।
वह दुख दियौ नवाब किलीच, यह सुख साहिजादपुर-बीच ॥१२७॥

एक दिष्टि बहु अन्तर होइ, एक दिष्टि सुख-दुख सम दोइ ।
जो दुख देखैसो सुख लहै, सुख भुञ्जै सोई दुख सहै ॥१२८॥


(दोहरा)

सुख महिं मानै महिं सुखी, दुख महिं दुखमय होइ ।
मूढ़ पुरुष की दिष्टि महिं, दीसै सुख दुख दोइ ॥१२९॥

ग्यानी सम्पति विपति महिं, रहै एक-सी भान्ति ।
ज्यौं रबि ऊगत आथवत, तजै न राती कान्ति ॥१३०॥

करमचन्द माहुर बनिक, खरगसेन श्रीमाल ।
भए मित्र दोऊ पुरुष, रहहिं रयनि दिन नाल ॥१३१॥

इहि बिधि कीनौ मास दस, साहिजादपुर बास ।
फिर उठि चले प्रयाग-पुर, बसै त्रिबेणी पास ॥१३२॥


(चौपई)

बसै प्रयाग त्रिबेणी पास, जा कौ नांउ ईलाहाबास ।
तहां डानि वसुधा-पुरहूत, आकबर पातिसाह कौ पूत ॥१३३॥

खरगसेन तहां कीनौ गौंन, रोजगार कारन तजि भान ।
बनारसी बालक घरि रह्यौ, कौड़ी-बेच बनिज तिन गह्यौ ॥१३४॥

एक टका द्वै टका कमाइ, काहू की ना धरै तमाइ ।
जोरै नफा एकठा करै, लै दादी के आगें धरै ॥१३५॥


(दोहरा)

दादी बाण्टै सीरनी, लाडू नुकती नित्त ।
प्रथम कमाई पुत्र की, सती अऊत निमित्त ॥१३६॥


(चौपई)

दादी मानै सती अऊत, जानै तिन दीनौ यह पूत ।
देख सुपिन करै जब सैन, जागे कहै पितर के बैन ॥१३७॥

तासु बिचार करै दिन राति, ऐसी मूढ़ जीव की जाति ।
कहत न बनै कहै का कोइ, जैसी मति तैसी गति होइ ॥१३८॥


(दोहरा)

मास तीनि औरौं गए, बीते तेरह मास ।
चीठी आई सेन की, करहु फतेपुर बास ॥१३९॥

डोली द्वै भाड़ै करी, कीनहिं च्यारि मजूर ।
सहित कुटुम्ब बनारसी, आए फत्तेपूर ॥१४०॥


(चौपई)

फत्तेपुर महिं आए तहां, Oसवाल के घर हहिं जहां ।
बासू साह आध्यातम-जान, बसै बहुत तिन्ह की सन्तान ॥१४१॥

बासू-पुत्र भगौतीदास, तिन दीनौ तिन्ह कौ आवास ।
तिस मन्दिर महिं कीनौ बास, सहित कुटम्ब बनारसिदास ॥१४२॥


(दोहरा)

सुख समाधि सौं दिन गए, करत सु केलि बिलास ।
चीठी आई बाप की, चले ईलाहाबास ॥१४३॥

चले प्रयाग बनारसी, रहे फतेपुर लोग ।
पिता-पुत्र दोऊ मिले, आनन्दित बिधि-जोग ॥१४४॥


(चौपई)

खरगसेन जौंहरी उदार, करै जबाहर कौ बेपार ।
डानि साहि-जी की सरकार, लेवा देई रोक-उधार ॥१४५॥

चारि मास बीते इस भान्ति, कबहूं दुख कबहूं सुख सान्ति ।
फिरि आए फत्तेपुर गांउ, सकल कुटम्ब भयौ इक ठांउ ॥१४६॥

मास दोइ बीते इस बीच, सुनी आगरे गयौ किलीच ।
खरगसेन परिवार-समेत, फिरि आए आपनै निकेत ॥१४७॥

जहां तहां सौं सब जौंहरी, प्रगटे जथा गुपत भौंहरी ।
सम्बत सोलह सै छप्पनै, लोगे सब कारज आपनै ॥१४८॥

बरस एक लौं बरती छेम, आए साहिब साहि सलेम ।
बड़ा साहिजादा जगबन्द, आकबर पातिसाहि कौ नन्द ॥१४९॥

आखेटक कोल्हूबन काज, पातिसाहि की भई अवाज ।
हाकिम इहां जौनपुर थान, लघु किलीच णूरम सुलतान ॥१५०॥

ताहि हुकम आकबर कौ भयौ, सहिजादा कोल्हूबन गयौ ।
तातहिं सो किछूकर तू जेम, कोल्हूबन नहिंजाय सलेम ॥१५१॥

एहि बिधि आकबर कौ फुरमान, सीस चढ़ायौ णूरम खान ।
तब तिन नगर जौनपुर बीच, भयौ गढ़पती ठानी मीच ॥१५२॥

जहां तहां रूधी सब बाट, नांउ न चलै गौमती-घाट ।
पुल दरवाजे दिए कपाट, कीनौ तिन विग्रह कौ ठाठ ॥१५३॥

राखे बहु पायक असबार, चहु दिसि बैठे चौकीदार ।
कोट कङ्गूरेन्ह राखी नाल, पुर महिं भयौ ऊचलाचाल ॥१५४॥

करी बहुत गढ़ सञ्जोवनी, ईन बस्त्र जल की ढोवनी ।
जिरह जीन बन्दूक अपार, बहु दारू नाना हथियार ॥१५५॥

खोलि खजाना खरचै दाम, भयौ आपु सनमुख सङ्ग्राम ।
प्रजा-लोग सब ब्याकुल भए, भागे चहू और उठि गए ॥१५६॥

महा नगरि सो भई उजार, अब आई अब आई धार ।
सब जौंहरी मिले इक ठौर, नगर मांहि नर रह्यौ न और ॥१५७॥

क्या कीजै अब कौन बिचार, मुसकिल भई सहित परिबार ।
रहे न कुसल न भागे छेम, पकरी साम्प छछून्दरि जेम ॥१५८॥

तब सब मिलि णूरम के पास, गए जाइ कीनी अरदास ।
णूरम कहै सुनहु रे साहु, भावै इहां रहौ कै जाहु ॥१५९॥

मेरौ मरन बन्यौ है आइ, महिं क्या तुम कौं कहौं उपाइ ।
तब सब फिरि आए निज धाम, भागहु जो किछु करहि सो राम ॥१६०॥


(दोहरा)

आपु आप कौं सब भगे, एकहि एक न साथ ।
कोऊ काहू की सरन, कोऊ कहूं अनाथ ॥१६१॥


(चौपई)

खरगसेन आए तिस ठांउ, डूलह साहु गए जिस गांउ ।
ऌअछिमनपुरा गांउ के पास, तहां चौधरी लछिमनदास ॥१६२॥

तिन लै राखे जङ्गल मांहि, कीनौं कौल बोल दै बांहि ।
इहि बिधि बीते दिवस छ सात, सुनी जौनपुर की कुसलात ॥१६३॥

साहि सलेम गोमती तीर, आयौ तब पठयौ इक मीर ।
ऌआलाबेग मीर कौ नांउ, ह्वै वकील आयौ तिस ठांउ ॥१६४॥

नरम गरम कहि ठाढ़ौ भयौ, णूरम कौं लिबाइ लै गयौ ।
जाइ साहि के डारौ पाइ, निरभै कियौ गुनह बकसाइ ॥१६५॥

जब यह बात सुनी इस भान्ति, तब सब के मन बरती सान्ति ।
फिरि आए निज निज घर लोग, निरभै भए गयौ भय-रोग ॥१६६॥

खरगसेन अरु डूलह साह, इनहू पकरी घर की राह ।
स-परिवार आए निज धाम, लागे आप आपने काम ॥१६७॥

इस अवसर बानारसी बाल, भयौ प्रवांन चतुर्दस साल ।
पण्डित डेवदत्त के पास, किछु विद्या तिन करी अभ्यास ॥१६८॥

पढ़ी (णाममाला) सै दोइ, और (आनेकारथ) अवलोइ ।
जोतिस अलङ्कार लघु-कोक, खण्ड-स्फुट सै च्यारि सिलोक ॥१६९॥

विद्या पढ़ि विद्या महिं रमै, सोलह सै सतावने समै ।
तजि कुल-कान लोक की लाज, भयौ बनारसि आसिख-बाज ॥१७०॥

करै आसिखी धरि मन धीर, दरद-बन्द ज्यौं सेख फकीर ।
इकटक देखि ध्यान सो धरै, पिता आपने कौ धन हरै ॥१७१॥

चोरै चूंनी मानिक मनी, आनै पान मिठाई घनी ।
भेजै पेसकसी हित पास, आपु गरीब कहावै दास ॥१७२॥

इस अन्तर चौ-मास बितीत, आई हिम-रितु ब्यापी सीत ।
खरतर आभैधरम उबझाइ, दोइ सिष्य-जुत प्रकटे आइ ॥१७३॥

भानचन्द मुनि चतुर विशेष, रामचन्द बालक गृह-भेष ।
आए जती जौनपुर मांहि, कुल श्रावक सब आवहिं जांहि ॥१७४॥

लखि कुल-धरम बनारसि बाल, पिता साथ आयौ पोसाल ।
भानचन्द सौं भयौ सनेह, दिन पोसाल रहै निसि गेह ॥१७५॥

भानचन्द पै विद्या सिखै, (पञ्चसन्धि) की रचना लिखै ।
पढ़ै सनातर-बिधि अस्तोन, फुट सिलोक बहु कौन ॥१७६॥

सामाइक पडिकौना पन्थ, (च्हन्दकोस) (स्रुतबोध) गरन्थ ।
इत्यादिक विद्या मुख-पाठ, पढ़ै सुद्ध साधै गुन आठ ॥१७७॥

कबहू आइ सबद उर धरै, कबहू जाइ आसिखी करै ।
पोथी एक बनाई नई, मित हजार दोहा चौपई ॥१७८॥

ता महिं णवरस-रचना लिखी, पै बिसेस बरनन आसिखी ।
ऐसे कुकबि बनारसि भए, मिथ्या ग्रन्थ बनाए नए ॥१७९॥


(दोहरा)

कै पढ़ना कै आसिखी, मगन दुहू रस मांही ।
खान-पान की सुध नहीं, रोजगार किछु नांहि ॥१८०॥


(चौपई)


ऐसी दसा बरस द्वै रही, मात पिता की सीख न गही ।
करि आसिखी पाठ सब पठे, सम्बत सोलह सै उनसठे ॥१८१॥


(दोहरा)

भए पञ्च-दस बरस के, तिस ऊपर दस मास ।
चले पाउजा करन कौं, कवि बनारसीदास ॥१८२॥

चढ़ि डोली सेवक लिए, भूषन बसन बनाइ ।
खैराबाद नगर-विषै, सुख सौं पहुचे आइ ॥१८३॥


(चौपई)

मास एक जब भयौ बितीत, पौष मास सित पख रितु सीत ।
पूरब करम उदै सञ्जोग, आकसमात बात कौ रोग ॥१८४॥


(दोहरा)

भयौ बनारसिदास-तनु, कुष्ठ-रूप सरबङ्ग ।
हाड़ हाड़ उपजी बिथा, केस रोम भुव-भङ्ग ॥१८५॥

बिस्फोटक अगनित भए, हस्त चरन चौर्-अङ्ग ।
कोऊ नर साला ससुर, भोजन करै न सङ्ग ॥१८६॥

ऐसी असुभ दसा भई, निकट न आवै कोइ ।
सासू और बिवाहिता, करहिं सेव तिय दोइ ॥१८७॥

जल-भोजन की लहि सुध, दहिंहि आनि मुख मांहि ।
ओखद लावहिं अङ्ग महिं, नाक मून्दि उठि जांहि ॥१८८॥


(चौपई)

इस अवसर नर नापित कोइ, ओखद-पुरी खबावै सोइ ।
चने अलूनै भोजन दोइ, पैसा टका किछू नहि लेइ ॥१८९॥

चारि मास बीते इस भान्ति, तब किछु बिथा भई उपसान्ति ।
मास दोइ औरौ चलि गए, तब बनारसी नीके भए ॥१९०॥


(दोहरा)

न्हाइ धोइ ठाढ़े भए, दै नाऊ कौं दान ।
हाथ जोड़ि बिनती करी, तू मुझ मित्र समान ॥१९१॥

नापित भयौ प्रसीन अति, गयौ आपने धाम ।
दिन दस खैराबाद महिं, कियौ और बिसराम ॥१९२॥

फिरि आए डोली चढ़े, नगर जौनपुर मांहि ।
सासु ससुर अपनी सुता, गौंने भेजी नांहि ॥१९३॥

आइ पिता के पद गहे, मां रोई उर ठोकि ।
जैसे चिरी कुरीज की, त्यौं सुत-दसा बिलोकि ॥१९४॥

खरगसेन लज्जित भए, कुबचन कहे अनेक ।
रोए बहुत बनारसी, रहे चकित छिन एक ॥१९५॥

दिन दस बीस परे दुखी, बहुरि गए पोसाल ।
कै पढ़ना कै आसिखी, पकरी पहिली चाल ॥१९६॥


(चौपई)

मासि चारि ऐसी बिधि भए, खरगसेन पटनै उठि गए ।
फिरि बनारसी खैराबाद, आए मुख लज्जित स-बिषाद ॥१९७॥

मास एक फिरि दूजी बार, घर महिं रहें न गए बजार ।
फिरि उठि चले नारि लै सङ्ग, एक सु-डोली एक तुरङ्ग ॥१९८॥

आए नगर जौनपुर फेरि, कुल कुटम्ब सब बैठे घेरि ।
गुरु-जन लोग दहिंहि उपदेस, आसिख-बाज सुनें दरबेस ॥१९९॥

बहुत पढ़हिं बाम्भन अरु भाट, बनिक-पुत्र तौ बैठे हाट ।
बहुत पढ़ै सो माङ्गै भीख, मानहु पूत बड़े की सीख ॥२००॥


(दोहरा)

इत्यादिक स्वारथ बचन, कहे सबनि बहु भान्ति ।
मानै नहीं बनारसी, रह्यौ सहज-रस मान्ति ॥२०१॥


(चौपई)

फिरि पोसाल भान पै पढ़ै, आसिख-बाजी दिन दिन बढ़ै ।
कोऊ कह्यौ न मानै कोइ, जैसी गति तैसी मति होइ ॥२०२॥

कर्माधिन बनारसि रमै, आयौ सम्बत साठा समै ।
साठै सम्बत एती बात, भई जु कछू कहौं बिख्यात ॥२०३॥

साठै करि पटनें सौं गौन, खरगसेन आए निज भौन ।
साठै ब्याही बेटी बड़ी, बितरी पहिली सम्पति गड़ी ॥२०४॥

बनारसी कहिं बेटी हुई, दिवस छ-सात मांहि सो मुई ।
जहमति परे बनारसिदास, कीनहिं लङ्घन बीस उपास ॥२०५॥

लागी छुधा पुकारै सोइ, गुरुजन पथ्य देइ नहि कोइ ।
तब माङ्गै देखन कौं रोइ, आध सेर की पूरी दोइ ॥२०६॥

खाट हेठ ल धरी दुराइ, सो बनारसी भखी चुराइ ।
वाही पथ सौं नीकौ भयौ, देख्यौ लोगनि कौतुक नयौ ॥२०७॥

साठै सम्बत करि दिढ़ हियौ, खरगसेन इक सौदा लियौ ।
ता महिं भए सौगुने दाम, चहल पहल हूई निज धाम ॥२०८॥

यह साठे सम्बत की कथा, ज्यौं देखी महिं बरनी तथा ।
समै मै उनसठे सावन बीच, कोऊ सीन्यासी नर नीच ॥२०९॥

आइ मिल्यौ सो आकसमात, कही बनारसि सौं तिन बात ।
एक मन्त्र है मेरे पास, सो बिधि-रूप जपै जो दास ॥२१०॥

बरस एक लौं साधै नित्त, दिढ़ प्रतीति आनै निज चित्त ।
जपै बैठि छरछोभी मांहि, भेद न भाखै किस ही पांहि ॥२११॥

पूरन होइ मन्त्र जिस बार, तिस के फलका कहूं बिचार ।
प्रात समय आवै गृह-द्वार, पावै एक पड़्या दीनार ॥२१२॥

बरस एक लौं पावै सोइ, फिरि साधै फिरि ऐसी होइ ।
यह सब बात बनारसि सुनी, जान्या महापुरुष है गुनी ॥२१३॥

पकरे पाइ लोभ के लिए, माङ्गै मन्त्र बीनती किए ।
तब तिन दीनौं मन्त्र सिखाइ, अक्खर कागद मांहि लिखाइ ॥२१४॥

वह प्रदेस उठि गयौ स्वतन्त्र, सठ बनारसी साधै मन्त्र ।
बरस एक लौं कीनौ खेद, दीनौं नांहि और कौं भेद ॥२१५॥

बरस एक जब पूरा भया, तब बनारसी द्वारै गया ।
नीची दिष्टि बिलोकै धरा, कहौं दीनार न पावै परा ॥२१६॥

फिरि दूजै दिन आयौ द्वार, सुपने नहि देखै दीनार ।
ब्याकुल भयौ लोभ के काज, चिन्ता बढ़ी न भावै नाज ॥२१७॥

कही भान सौं मन की दुधा, तिनि जब कही बात यह मुधा ।
तब बनारसी जानी सही, चिन्ता गई छुधा लहलही ॥२१८॥

जोगी एक मिल्यौ तिस आइ, बनारसी दियौ भौन्दाइ ।
दीनी एक सङ्खोली हाथ, पूजा की सामग्री साथ ॥२१९॥

कहै सदासिव मूरति एह, पूजै सो पावै सिव-गेह ।
तब बनारसी सीस चढ़ाइ, लीनी नित पूजै मन लाइ ॥२२०॥

ठानि सनानि भगति चित धरै, अष्ट-प्रकारी पूजा करै ।
सिव सिव नाम जपै सौ बार, आठ अधिक मन हरख अपार ॥२२१॥


(दोहरा)

पूजै तब भोजन करै, अनपूजै पछिताइ ।
तासु दण्ड अगिले दिवस, रूखा भोजन खाइ ॥२२२॥

ऐसी बिधि बहु दिन गए, करत गुपत शिव-पूज ।
आयौ सम्बत इकसठा, चैत मास सित दूज ॥२२३॥

साहिब साहि सलीम कौ, हीरानन्द मुकीम ।
ओसवाल कुल जौंहरी, बनिक बित्त की सीम ॥२२४॥

तिनि प्रयाग-पुर नगर सौं, कीनौ उद्दम सार ।
सङ्घ चलायौ सिखिर कौं, उतर्यौ गङ्गा-पार ॥२२५॥

ठौर ठौर पत्री दई, भई खबर जित-तित्त ।
चीठी आई सेन कौं, आवहु जात-निमित्त ॥२२६॥

खरगसेन तब उठि चले, ह्वै तुरङ्ग असबार ।
जाइ णन्दजी कौं मिले, तजि कुटुम्ब घरबार ॥२२७॥


(चौपई)

खरगसेन जात्रा कौं गए, बानारसी निरङ्कुस भए ।
करहिं कलह माता सौं नित्त.पारस-जिन की जात निमित्त ॥२२८॥

दही दूध घृत चावल चने, तेल तम्बोल पहुप अनगने ।
इतनी बस्तु तजी ततकाल, पन लीनौ कीनौ हठ बाल ॥२२९॥


(दोहरा)

चैत महीने पन लियौ, बीते मास छ सात ।
आई पून्यौ कातिकी, चलै लोग सब जात ॥२३०॥

चले सिव-मती न्हान कौं, जैनी पूजन पास ।
तिन्ह के साथ बनारसी, चले बनारसिदास ॥२३१॥

कासी नगरी महिं गए, प्रथम नहाए गङ्ग ।
पूजा पास सुपास की, कीनी धरि मन रङ्ग ॥२३२॥

जे जे पन की बस्तु सब, ते ते मोल मङ्गाइ ।
नेवज ज्यौं आगें धरै, पूजै प्रभु के पाइ ॥२३३॥

दिन दस रहे बनारसी, नगर बनारस मांहि ।
पूजा कारन द्योहरे, नित प्रभात उठि जांहि ॥२३४॥

एहि बिधि पूजा पास की, कीनी भगति-समेत ।
फिरि आए घर आपनै, लिएं सङ्खोली सेत ॥२३५॥

पूजा सङ्ख महेस की, करकै तौ किछु खांहि ।
देस विदेस इहां उहां, कबहूं भूली नांहि ॥२३६॥


(सोरठा)

सङ्ख-रूप सिव-देव, महासङ्ख बानारसी ।
दोऊ मिले अबेव, साहिब सेवक एक-से ॥२३७॥


(दोहरा)

इस ही बीचि उरे परे, खरगसेन के भौन ।
भयौ एक अलपायु सुत, ताहि बखानै कौन ॥२३८॥


(चौपई)

सम्बत सोलह सै इकसठे, आए लोग सङ्घ सौं नठे ।
केई उबरे केई मुए, केई महा जहमती हुए ॥२३९॥

खरगसेन पटनें महिं आइ, जहमति परे महा दुख पाइ ।
उपजी बिथा उदरम रोग, फिरि उपसमी आउबल-जोग ॥२४०॥

सङ्घ साथ आए निज धाम, णन्द जौनपुर कियौ मुकाम ।
खरगसेन दुख पायौ बाट, घरम आइ परे फिरि खाट ॥२४१॥

हीरानन्द लोग-मनुहारि, रहे जौनपुर महिं दिन चारि ।
पञ्चम दिवस पार के बाग, छट्ठे दिन उठि चले प्रयाग ॥२४२॥


(दोहरा)

सङ्घ फूटि चहौं दिसि गयौ, आप आप कौ होइ ।
नदी नांव सञ्जोग ज्यौं, बिछुरि मिलै नहिं कोइ ॥२४३॥


(चौपई)

इहि बिधि दिवस कैकु चलि गए, खरगसेन-जी नीके भए ।
सुख समाधि बीते दिन घनें, बीचि बीचि दुख जांहि न गनें ॥२४४॥


(दोहरा)

इस अवसर सुत अवतर्यौ, बानारसि के गेह ।
भव पूरन करि मरि गयौ, तजि दुल्लभ नर-देह ॥२४५॥


(चौपई)

सम्बत सोलह स बासठा, आयौ कातिक पावस नठा ।
छत्रपति आकबर साहि जलाल, नगर आगरे कीनौं काल ॥२४६॥

आई खबर जौनपुर मांह, प्रजा अनाथ भई बिनु नाह ।
पुरजन लोग भए भय-भीत, हिरद ब्याकुलता मुख पीत ॥२४७॥


(दोहरा)

अकसमात बानारसी, सुनि आकबर कौ काल ।
सीढ़ी परि बठ्यौ हुतो, भयौ भरम चित चाल ॥२४८॥

आइ तवाला गिरि पर्यौ, सक्यौ न आपा राखि ।
फूटि भाल लोहू चल्यौ, कह्यौ "देव" मुख-भाखि ॥२४९॥

लगी चोट पाखान की, भयौ गृहाङ्गन लाल ।
"हाइ हाइ" सब करि उठे, मात तात बेहाल ॥२५०॥


(चौपई)

गोद उठाय माइ नहिं लियौ, अम्बर जारि घाउ महिं दियौ ।
खाट बिछाइ सुबायौ बाल, माता रुदन करै असराल ॥२५१॥

इस ही बीच नगर महिं सोर, भयौ उदङ्गल चारिहु ओर ।
घर घर दर दर दिए कपाट, हटवानी नहिं बैठे हाट ॥२५२॥

भले बस्त्र अरु भूसन भले, ते सब गाड़े धरती तले ।
हण्डवाई गाड़ी कहौं और, नगदी माल निभरमी ठौर ॥२५३॥

घर घर सबनि बिसाहे सस्त्र, लोगन्ह पहिरे मोटे बस्त्र ।
ओढ़े कम्बल अथवा खेस, नारिन्ह पहिरे मोटे बेस ॥२५४॥

ऊञ्च नीच कोउ न पहिचान, धनी दरिद्री भए समान ।
चोरि धारि दीसै कहौं नांहि, यौं ही अपभय लोग डरांहि ॥२५५॥


(दोहरा)

धूम-धाम दिन दस रही, बहुरौ बरती सान्ति ।
चीठी आई स-बनिक, समाचार इस भान्ति ॥२५६॥

प्रथम पातिसाही करी, बावन बरस जलाल ।
अब सोलह सै बासठे, कातिक हूओ काल ॥२५७॥

आकबर कौ नन्दन बड़ौ, साहिब साहि सलेम ।
नगर आगरे महिं तखत, बैठौ आकबर जेम ॥२५८॥

नांउ धरायौ णूरदीं, जहाङ्गीर सुलतान ।
फिरि दुहाई मुलक महिं, बरती जही तही आन ॥२५९॥

इहि बिधि चीठी महिं लिखी, आई घर घर बार ।
फिरि दुहाई जौनपुर, भयौ सु जय-जय-कार ॥२६०॥


(चौपई)

खरगसेन के घर आनन्द, मङ्गल भयौ गयौ दुख-दन्द ।
बानारसी कियौ असनान, कीजै उत्सव दीजै दान ॥२६१॥

एक दिवस बानारसिदास, एकाकी ऊपर आवास ।
बैठ्यौ मन महिं चिन्तै एम, महिं सिव-पूजा कीनी केम ॥२६२॥

जब महिं गिर्यौ पर्यौ मुरछाइ, तब सिव किछू न करी सहाइ ।
यहु बिचारि सिव-पूजा तजी, लखी प्रगट सेवा महिं कजी ॥२६३॥

तिस दिन सौं पूजा न सुहाइ, सिव-सङ्खोली धरी उठाइ ।
एक दिवस मित्रन्ह के साथ, नौकृत पोथी लीनी हाथ ॥२६४॥

नदी गोमती के बिच आइ, पुल के ऊपरि बैठे जाइ ।
बाञ्चे सब पोथी के बोल, तब मन महिं यहु उठी कलोल ॥२६५॥

एक झूठ जो बोलै कोइ, नरक जाइ दुख देखै सोइ ।
महिं तो कलपित बचन अनेक, कहे झूठ सब साचु न एक ॥२६६॥

कैसहिं बनै हमारी बात, भई बुद्धि यह आकसमात ।
यहु कहि देखन लाग्यौ नदी, पोथी डार दई ज्यौं रदी ॥२६७॥

"हाइ हाइ" करि बोले मीत, नदी अथाह महा-भय-भीत ।
ता महिं फैलि गए सब पत्र, फिरि कहु कौन करै एकत्र ॥२६८॥

घरी द्वक पछितानहिं मित्र, कहहिं कर्म की चाल विचित्र ।
यहु कहिकहिं सब न्यारे भए, बनारसी आपुन घर गए ॥२६९॥

खरगसेन सुनि यहु बिरतन्त, हूए मन महिं हरषितवन्त ।
सुत के मन ऐसी मति जगै, घर की नांउ रही-सी लगै ॥२७०॥


(दोहरा)

तिस दिन सौं बानारसी, करै धरम की चाह ।
तजी आसिखी फासिखी, पकरी कुल की राह ॥२७१॥

कहहिं दोष कोउ न तजै, तजै अवस्था पाइ ।
जैसहिं बालक की दसा, तरुन भए मिटि जाइ ॥२७२॥

उदै होत सुभ करम के, भई असुभ की हानि ।
तातहिं तुरित बनारसी, गही धरम की बानि ॥२७३॥


(चौपई)

नित उठि प्रात जाइ जिन-भौन, दरसनु बिनु न करै दन्तौन ।
चौदह नेम बिरति उच्चरै, सामाइक पड़िकौना करै ॥२७४॥

हरी जाति राखी परवांन, जावजीव बैङ्गन-पचखान ।
पूजा-बिधि साधै दिन आठ, पढ़ै बीनती पद मुख-पाठ ॥२७५॥


(दोहरा)

इहि बिधि जैन-धरम कथा, कहै सुनै दिन रात ।
होनहार कोउ न लखै, अलख जीव की जात ॥२७६॥

तब अपजसी बनारसी, अब जस भयौ विख्यात ।
आयौ सम्बत चौसठा, कहौं तहां की बात ॥२७७॥

खरगसेन श्रीमाल कहिं, हुती सुता द्वै ठौर ।
एक बियाही जौनपुर, दुतिय कुमारी और ॥२७८॥

सोऊ ब्याही चौसठे, सम्बत फागुन मास ।
गई पाडलीपुर-विषहिं, करि चिन्ता-दुख-नास ॥२७९॥

बानारसि के दूसरौ, भयौ और सुत कीर ।
दिवस कैकु महिं उड़ि गयौ, तजि पिञ्जरा सरीर ॥२८०॥


(चौपई)

कबहूं दुख कबहूं सुख सान्ति, तीनि बरस बीते इस भान्ति ।
लच्छन भले पुत्र के लखे, खरगसेन मन मांहि हरखे ॥२८१॥

सम्बत सोलह सै सतसठा, घर कौ माल कियौ एकठा ।
खुला जवाहर और जड़ाउ, कागद मांहि लिख्यौ सब भाउ ॥२८२॥

द्वै पहुची द्वै मुद्रा बनी, चौबिस मानिक चौतिस मनी ।
नौ नीले पन्ने दस-दून, चारि घाण्ठि चूंनी परचून ॥२८३॥

एती बस्तु जवाहर-रूप, घृत मन बीस तेल द्वै कूप ।
लिए जौनपुर होइ दुकूल, मुद्रा द्वै सत लागी मूल ॥२८४॥

कछु घर के कछु पर के दाम, रोक उधार चलायौ काम ।
जब सब सौञ्ज भई तैयार, खरगसेन तब कियौ बिचार ॥२८५॥

सुत बनारसी लियौ बुलाय, ता सौं बात कही समुझाय ।
लेहु साथ यहु सौञ्ज समस्त, जाइ आगरे बेचहु बस्त ॥२८६॥

अब गृह-भार कन्ध तुम लेहु, सब कुटम्ब कौं रोटी देहु ।
यहु कहि तिलक कियौ निज हाथ, सब सामग्री दीनी साथ ॥२८७॥


(दोहरा)

गाड़ी भार लदाइकै, रतन जतन सौं पास ।
राखे निज कच्छा-विषहिं, चले बनारसिदास ॥२८८॥

मिली साथ गाड़ी बहुत, पाञ्च कोस नित जांहि ।
क्रम क्रम पन्थ उलङ्घकरि, गए ईटाए मांहि ॥२८९॥

नगर ईटाए के निकट, करि गाड़िन्ह कौ घेर ।
उतरे लोग उजार महिं, हूई सन्ध्या-बेर ॥२९०॥

घन घमण्डि आयौ बहुत, बरसन लाग्यौ मेह ।
भाजन लागे लोग सब, कहां पाइए गेह ॥२९१॥

सौरि उठाइ बनारसी, भए पयादे पाउ ।
आए बीचि सराइ महिं, उतरे द्वै उम्बराउ ॥२९२॥

भई भीर बाजार महिं, खाली कोउ न हाट ।
कहूं ठौर नहिं पाइए, घर घर दिए कपाट ॥२९३॥

फिरत फिरत फावा भए, बैठन कहै न कोइ ।
तलै कीच सौं पग भरे, ऊपर बरसै तोइ ॥२९४॥

अन्धकार रजनी समै, हिम रितु अगहन मास ।
नारि एक बैठन कह्यौ, पुरुष उठ्यौ लै बांस ॥२९५॥

तिनि उठाइ दीनहिं बहुरि, आए गोपुर पार ।
तहां झौम्परी तनक-सी, बैठे चौकीदार ॥२९६॥

आए तहां बनारसी, अरु श्रावक द्वै साथ ।
ते बूझहिं तुम कौन हौ, दुःखित दीन अनाथ ॥२९७॥

तिन सौं कहै बनारसी, हम ब्यौपारी लोग ।
बिना ठौर व्याकुल भए, फिरहिं करम सञ्जोग ॥२९८॥


(चौपई)

तब तिनक चित उपजी दया, कहहिं इहां बैठौ करि मया ।
हम सकार अपने घर जांहि, तुम निसि बसौ झौम्परी मांहि ॥२९९॥

औंरौं सुनौ हमारी बात, सरियति खबरि भएं परभात ।
बिनु तहकीक जान नहि देहि, तब बकसीस देहु सो लेहि ॥३००॥

मानी बात बनारसि ताम, बैठे तही पायौ विश्राम ।
जल मङ्गाइकै धोए पाउ, भीजे बस्त्रन्ह दीनी बाउ ॥३०१॥

त्रिन बिछाए सोए तिस ठौर, पुरुष एक जोरावर और ।
आयौ कहै इहां तुम कौन, यह झौम्परी हमारौ भौन ॥३०२॥

सैन करौं महिं खाट बिछाइ, तुम किस ठाहर उतरे आइ ।
कै तौ तुम अब ही उठि जाहु, कै तौ मेरी चाबुक खाहु ॥३०३॥

तब बनारसी ह्वै हलबले, बरसत मेहु बहुरि उठि चले ।
उनि दयाल होइ पकरी बांह, फिरि बैठाए छाया मांह ॥३०४॥

दीनौ एक पुरानो टाट, ऊपर आनि बिछाई खाट ।
कहै टाट पर कीजै सैन, मुझे खाट बिनु परै न चैन ॥३०५॥

"एवम् अस्तु" बानारसि कहै, जैसी जाहि परै सो सहै ।
जैसा कातै तैसा बुनै, जैसा बोवै तैसा लुनै ॥३०६॥

पुरुष खाट पर सोया भले, तीनौ जनें खाट के तले ।
सोए रजनी भई बितीत, ओढ़ी सौरि न ब्यापी सीत ॥३०७॥

भयौ प्रात आए फिरि तहां, गाड़ी सब उतरी ही जहां ।
बरसा गई भई सुख सान्ति, फिरि उठि चले नित्य की भान्ति ॥३०८॥

आए नगर आगरे बीच, तिस दिन फिरि बरसा अरु कीच ।
कपरा तेल घीउ धरि पार, आपु छरे आए उर पार ॥३०९॥

मन चिन्तवै बनारसिदास, किस दिसि जांहि कहां किस पास ।
सोचि सोचि यह कीनौ ठीक, मोती-कटका कियौ रफीक ॥३१०॥

तहां च्आम्पसी के घर पास, लघु बहनेऊ बन्दीदास ।
तिस के डेरै जाइ तुरन्त, सुनिए "भला सगा अरु सन्त" ॥३११॥

यह बिचारि आए तिस पांहि, बहनेऊ के डेरे मांहि ।
हित सौं बूझै बन्दीदास, कपरा घीउ तेल किस पास ॥३१२॥

तब बनारसी बोलै खरा, उधरन की कोठी मौं धरा ।
दिवस कैकु जब बीते और, डेरा जुदा लिया इक ठौर ॥३१३॥

पट-गठरी राखी तिस मांहि, नित्य नखासे आवहि जांहि ।
बस्त्र बेचि जब लेखा किया, ब्याज-मूर दै टोटा दिया ॥३१४॥

एक दिवस बानारसिदास, गए पार उधरन के पास ।
बेचा घीऊ तेल सब झारि, बढ़ती नफा रुपैया च्यारि ॥३१५॥

हुण्डी आई दीनहिं दाम, बात उहां की जानै राम ।
बेञ्चि खोञ्चि आए उर पार, भए जबाहर बेञ्चन-हार ॥३१६॥

देहिं ताहि जो माङ्गै कोइ, साधु कुसाधु न देखै टोइ ।
कोऊ बस्तु कहूं लै जोइ, कोऊ लेइ गिरौं धरि खाइ ॥३१७॥

नगर आगरे कौ ब्यौपार, मूल न जानै मूढ़ गीवार ।
आयौ उदै असुभ कौ जोर, घटती होत चली चहु ओर ॥३१८॥


(दोहरा)

नारे मांहि इजार के, बन्ध्यौ हुतौ दुल म्यान ।
नारा टूट्यौ गिरि पर्यौ, भयौ प्रथम यह ग्यान ॥३१९॥

खुलौ जबहार जो हुतौ, सो सब थौ उस मांहि ।
लगी चोट गुपती सही, कही न किस ही पांहि ॥३२०॥

मानिक नारे के पले, बान्ध्यौ साटि उचाटि ।
धरी इजार अलङ्गनी, मूसा लै गयौ काटि ॥३२१॥

पहुञ्ची दोइ जड़ाउ की, बैञ्ची गाहक पांहि ।
दाम करोरी लेइ रह्यौ, परि देवाले मांहि ॥३२२॥

मुद्रा एक जड़ाउ की, ऐसहिं डारी खोइ ।
गाण्ठि देत खाली परी, गिरी न पाई सोइ ॥३२३॥

रेज-परेजी बस्तु कछु, बुगचा बागे दोइ ।
हण्डवाई घर महिं रही, और बिसाति न कोइ ॥३२४॥


(चौपई)

इहि बिधि उदै भयौ जब पाप, हलहलाइकै आई ताप ।
तब बनारसी जहमति परे, लङ्घन दस निकोररे करे ॥३२५॥

फिर पथ लीनौं नीके भए, मास एक बाजार न गए ।
खरगसेन की चीठी घनी, आवहिं पै न देइ आपनी ॥३२६॥


(दोहरा)

ऊत्तमचन्द जबाहरी, डूलह कौ लघु पूत ।
सो बनारसी का बड़ा, बहनेऊ अरिभूत ॥३२७॥

तिनि अपने घर कौं दिए, समाचार लिखि लेख ।
पूञ्जी खोइ बनारसी, भए भिखारी भेख ॥३२८॥

उहां जौंनपुर महिं सुनी, खरगसेन यह बात ।
हाइ हाइ करि आइ घर, कियौ बहुत उतपात ॥३२९॥

कलह करी निज नारि सौं, कही बात दुख रोइ ।
हम तौ प्रथम कही हुती, सुत आवै घर खोइ ॥३३०॥

कहा हमारा सब थया, भया भिखारी पूत ।
पूञ्जी खोई बेहया, गया बनज का सूत ॥३३१॥

भए निरास उसास भरि, करि घर महिं बक-बाद ।
सुत बनारसी की बहू, पठई खैराबाद ॥३३२॥

ऐसी बीती जौंनपुर, इहां आगरे मांहि ।
घर की बस्तु बनारसी, बेञ्चि बेञ्चि सब खांहि ॥३३३॥

लटा-कुटा जो किछु हुतौ, सो सब खायौ झारि ।
हण्डवाई खाई सकल, रहे टका द्वै चारि ॥३३४॥

तब घर महिं बैठे रहहिं, जांहि न हाट बाजार ।
(मधुमालति) (मिरगावती), पौथी दोइ उदार ॥३३५॥

ते बाञ्चहिं रजनी-समै, आवहिं नर दस बीस ।
गावहिं अरु बातहिं करहिं, नित उठि देंहि असीस ॥३३६॥

सो सामा घर महिं नहीं, जो प्रभात उठि खाइ ।
एक कचौरी-बाल नर, कथा सुनै नित आइ ॥३३७॥

वाकी हाट उधार करि, लेंहि कचौरी सेर ।
यह प्रासुक भोजन करहिं, नित उठि साञ्झ सबेर ॥३३८॥

कबहू आवहिं हाट मीहि, कबहू डेरा मांहि ।
दसा न काहू सौं कहहिं, करज कचौरी खांहि ॥३३९॥

एक दिवस बानारसी, समै पाइ एकन्त ।
कहै कचौरी-बाल सौं, गुपत गेह-बिरतन्त ॥३४०॥

तुम उधार दीनौ बहुत, आगै अब जिनि देहु ।
मेरे पास किछू नहिं, दाम कहां सौं लेहु ॥३४१॥

कहै कचौरी-बाल नर, बीस रुपया खाहु ।
तुम सौं कोउ न कछु कहै, जही भावै तही जाहु ॥३४२॥

तब चुप भयौ बनारसी, कोउ न जानै बात ।
कथा कहै बैठौ रहै, बीते मास छ-सात ॥३४३॥

कहौं एक दिन की कथा, टाम्बी टाराचन्द ।
ससुर बनारसिदास कौ, परबत कौ फरजन्द ॥३४४॥

आयौ रजनी के समै, बानारसि के भौन ।
जब लौं सब बैठे रहे, तब लौं पकरी मौन ॥३४५॥

जब सब लोग बिदा भए, गए आपने गेह ।
तब बनारसी सौं कियौ, टाराचन्द सनेह ॥३४६॥

करि सनेह बिनती करी, तुम नेउते परभात ।
कालि उहां भोजन करौ, आवस्सिक यह बात ॥३४७॥


(चौपई)

यह कहि निसि अपने घर गयौ, फिरि आयौ प्रभात जब भयौ ।
कहै बनारसि सौं तब सोइ, उहां प्रभात रसोई होइ ॥३४८॥

तातहिं अब चलिए इस बार, भोजन करि आवहु बाजार ।
टाराचन्द कियौ छल एह, बानारसी गयौ तिस गेह ॥३४९॥

भेज्यौ एक आदमी कोइ, लटा-कुटा ल आयौ सोइ ।
घर का भाड़ा दिया चुकाइ, पकरे बानारसि के पाइ ॥३५०॥

कहै बिनै सौं टारा साहु, इस घर रहौ उहां जिन जाहु ।
हठ करि राखे डेरा मांहि, तहां बनारसि रोटी खांहि ॥३५१॥

इहि बिधि मास दोइ जब गए, ढरमदास के साझी भए ।
जसू आमरसी भाई दोइ, Oसवाल डिल-वाली सोइ ॥३५२॥

करहिं जबाहर-बनज बहूत, ढरमदास लघु बन्धु कपूत ।
कुबिसन करै कुसङ्गति जाइ, खोवै दाम अमल बहु खाइ ॥३५३॥

यह लखि कियौ सिर कौ सञ्च, दी पूञ्जी मुद्रा सै पञ्च ।
ढरमदास बानारसि यार, दोऊ सीर करहिं ब्यौपार ॥३५४॥

दोऊ फिरहिं आगरे माञ्झ, करहिं गस्त घर आवहिं साञ्झ ।
ल्यावहिं चूंनी मानिक मनी, बेञ्चहिं बहुरि खरीदहिं घनी ॥३५५॥

लिखहिं रोजनामा खतिआइ, नामी भए लोग पतिआइ ।
बेञ्चहिं लेंहिं चलावहिं काम, दिए कचौरी-वाले दाम ॥३५६॥

भए रुपया चौदह ठीक, सब चुकाइ दीनै तहकीक ।
तीनि बार करि दीनौं माल, हरषित कियौ कचौरी-बाल ॥३५७॥


(दोहरा)

बरस दोइ साझी रहे, फिर मन भयौ विषाद ।
तब बनारसी की चली, मनसा खैराबाद ॥३५८॥

एक दिवस बानारसी, गयौ साहु के धाम ।
कहै चलाऊ हम भए, लेहु आपने दाम ॥३५९॥


(चौपई)

जसू साह तब दियौ जुआब, बेचहु थैली कौ असबाब ।
जब एकठे हौंहि सब थोक, हम कौं दाम देहु तब रोक ॥३६०॥

तब बनारसी बेची बस्त, दाम एकठे किए समस्त ।
गनि दीनहिं मुद्रा सै पञ्च, बाकी कछू न राखी रञ्च ॥३६१॥


(दोहरा)

बरस दोइ महिं दोइ सै, अधिके किए कमाइ ।
बेची बस्तु बजार महिं, बढ़ता गयौ समाइ ॥३६२॥

सोलह सै सत्तरि समै, लेखा कियौ अचूक ।
न्यारे भए बनारसी, करि साझा द्वै टूक ॥३६३॥


(चौपई)

जो पाया सो खाया सर्व, बाकी कछू न बाञ्च्या दर्व ।
करी मसक्कति गई अकाथ, कौड़ी एक न लागी हाथ ॥३६४॥

निकसी घौङ्घी सागर मथा, भई हीङ्ग-वाले की कथा ।
लेखा किया रूख-तल बैठि, पूञ्जी गई गाणृइ महिं पैठि ॥३६५॥

सो बनारसी की गति भई, फिरि आई दरिद्रता नई ।
बरस डेढ़ लौं नाचे भले, ह्वै खाली घर कौं उठि चले ॥३६६॥

एक दिवस फिरि आए हाट, घर सौं चले गली की बाट ।
सहज दिष्टि कीनी जब नीच, गठरी एक परी पथ बीच ॥३६७॥

सो बनारसी लई उठाइ, अपने डेरे खाली आइ ।
मोति आठ और किछु नांहि, देखत खुसी भए मन मांहि ॥३६८॥

ताइत एक गढ़ायौ नयौ, मोती मेले सम्पुट दयौ ।
बन्ध्यौ कटि कीनौ बहु यत्न, जनु पायौ चिन्तामनि रत्न ॥३६९॥

अन्तर-धनु राख्यौ निज पास, पूरब चले बनारसिदास ।
चले चले आए तिस ठांउ, खराबाद नाम जहां गांउ ॥३७०॥

कल्ला साहु ससुर के धाम, सन्ध्या आइ कियौ विश्राम ।
रजनी बनिता पूछै बात, कहौ आगरे की कुसलात ॥३७१॥

कहै बनारसि माया-बैन, बनिता कहै झूठ सब फैन ।
तब बनारसी साञ्ची कही, मेरे पास कछू नहिं सही ॥३७२॥

जो कभु दाम कमाए नए, खरच खाइ फिरि खाली भए ।
नारी कहै सुनौ हो कन्त, दुख सुख कौ दाता भगबन्त ॥३७३॥


(दोहरा)

समै पाइकै दुख भयौ, समै पाइ सुख होइ ।
होनहार सो ह्वै रहै, पाप पुन्न फल दोइ ॥३७४॥


(चौपई)

कहत सुनत आर्गलपुर-बात, रजनी गई भयौ परभात ।
लहि एकन्त कन्त के पानि, बीस रुपैया दीए आनि ॥३७५॥

ए महिं जोरि धरे थे दाम, आए आज तुम्हारे काम ।
साहिब चिन्त न कीज कोइ, पुरुष जिए तो सब कछु होइ ॥३७६॥

यह कहि नारि गई मां पास, गुपत बात कीनी परगास ।
माता काहू सौं जिनि कहौ, निज पुत्री की लज्जा बहौ ॥३७७॥


(दोहरा)

थोरे दिन महिं लेहु सुधि, तो तुम मा महिं धीय ।
नाहीं तौ दिन कैकु महिं, निकसि जाइगौ पीय ॥३७८॥


(चौपई)

ऐसा पुरुष लजालू बड़ा, बात न कहै जात है गड़ा ।
कहै माइ जिनि होइ उदास, द्वै सै मुद्रा मेरे पास ॥३७९॥

गुपत देौं तेरे कर मांहि, जो वै बहुरि आगरे जांहि ।
पुत्री कहै धन्य तू माइ, महिं उन कौं निसि बूझा जाइ ॥३८०॥

रजनी समै मधुर मुख भास, बनिता कहै बनारसि पास ।
कन्त तुम्हारौ कहा बिचार, इहां रहौ कै करौ बिहार ॥३८१॥

बानारसी कहै तिय पांहि, हम तू साथ जौनपुर जांहि ।
बनिता कहै सुनहु पिय बात, उहां महा बिपदा उतपात ॥३८२॥

तुम फिर जाहु आगरे मांहि, तुम कौं और ठौर कहौं नांहि ।
बानारसी कहै सुन तिया, बिनु धन मानुष का धिग जिया ॥३८३॥

दे धीरज फिरि बोलै बाम, करहु खरीद दैौं महिं दाम ।
यह कहि दाम आनि गनि दिए, बात गुपत राखी निज हिए ॥३८४॥

तब बनारसी बहुरौ जगे, एती बात करन कौं लगे ।
करहिं खरीद धोवाबहिं चीर, दूणृहहिं मोती मानिक हीर ॥३८५॥

जोरहिं (आजितनाथ के छन्द), लिखहिं (णाममाला) भरि बन्द ।
च्यारहिं काज करहिं मन लाइ, अपनी अपनी बिरिया पाइ ॥३८६॥

इहि बिधि च्यारि महीनें गए, च्यारि काज सम्पूरन भए ।
करी (णाममाला) सै दोइ, राखे (आजित छन्द) उर पोइ ॥३८७॥

कपरा धोइ भयौ तैयार, लियौ मोल मोती कौ हार ।
अगहन मास सुकल बारसी, चले आगरै बानारसी ॥३८८॥


(दोहरा)

बहुरौं आए आगरै, फिरिकै दूजी बार ।
तब कटले परबेज के, आनि उतार्यौ भार ॥३८९॥


(चौपई)

कटले मांहि ससुर की हाट, तहां करहि भोजन कौ ठाठ ।
रजनी सोबहिं कोठी मांहि, नित उठि प्रात नखासे जांहि ॥३९०॥

फरि बैठहिं बहु करै उपाइ, मन्दा कपरा कछु न बिकाइ ।
आवहि जाहि करहि अति खेद, नहि समुझै भावी कौ भेद ॥३९१॥


(दोहरा)

मोती-हार लियौ हुतौ, दै मुद्रा चालीस ।
सौ बेच्यौ सत्तरि उठे, मिले रुपैआ तीस ॥३९२॥


(चौपई)

तब बनारसी करै बिचार, भला जबाहर का ब्यापार ।
हुए पौन दूनें इस मांहि, अब सौ बस्त्र खरीदहि नांहिं ॥३९३॥

च्यारि मास लौं कीनौ धन्ध, नहिं बिकाइ कपरा पग बन्ध ।
बैनीदास खोबरा गोत, ता कौ "डास णरोत्तम" पोत ॥३९४॥


(दोहरा)

सो बनारसी कौ हितू, और बदलिआ "ठान" ।
रात दिवस क्रीड़ा करहिं, तीनौं मित्र समान ॥३९५॥


(चौपई)

चढ़ि गाड़ी पर तीनौं डौल, पूजा हेतु गए भर कौल ।
कर पूजा फिरि जोरे हाथ, तीनौं जनें एक ही साथ ॥३९६॥

प्रतिमा आगै भाखहिं एहु, हम कौं नाथ लच्छिमी देहु ।
जब लच्छिमी देहु तुम तात, तब फिरि करहिं तुम्हारी जात ॥३९७॥

यह कहिक आए निज गेह, तीनौं मित्र भए इक देह ।
दिन अरु रात एकठे रहहिं, आप आपनी बातहिं कहहिं ॥३९८॥

आयौ फागुन मास बिख्यात, बालचन्द की चली बरात ।
टाराचन्द मौठिया गोत, णेमा कौ सुत भयौ उदोत ॥३९९॥

कही बनारसि सौं तिन बात, तू चलु मेरे साथ बरात ।
तब अन्तर-धन मोती काढ़ि, मुद्रा तीस और द्वै बाढ़ि ॥४००॥

बेञ्चि खोञ्चिकै आनै दाम, कीनौ तब बराति कौ साम ।
चले बराति बनारसिदास, दूजा मित्र णरोत्तम पास ॥४०१॥

मुद्रा खरच भए सब तिहां, ह्वै बरात फिरि आए इहां ।
खैराबादी कपरा झारि, बेच्यौ घटे रुपैया च्यारि ॥४०२॥

मूल-ब्याज दै फारिक भए, तब सु णरोत्तम के घर गए ।
भोजन करकै दोऊ यार, बैठे कियौ परस्पर प्यार ॥४०३॥


(दोहरा)

कहै णरोत्तमदास तब, रहौ हमारे गेह ।
भाई सौं क्या भिन्नता, कपटी सौं क्या नेह ॥४०४॥


(चौपई)

तब बनारसी ऊतर भनै, तेरे घर सौं मोहि न बनै ।
कहै णरोत्तम मेरे भौन, तुम सौं बोलै ऐसा कौन ॥४०५॥

तब हठ करि राखे घर मांहि, भाई कहै जुदाई नांहि ।
काहू दिवस णरोत्तमदास, टाराचन्द मौठिए पास ॥४०६॥

बैठे तब उठि बोले साहु, तुम बनारसी पटनें जाहु ।
यह कहि रासि देइ तिस बार, टीका काढ़ि उतारे पार ॥४०७॥

आइ पार बूझे दिन भले, तीनि पुरुष गाड़ी चढ़ी चले ।
सेवक कोउ न लीनौं गैल, तीनौं सिरीमाल नर छैल ॥४०८॥


(दोहरा)

प्रथम णरोत्तम कौ ससुर, दुतिय णरोत्तमदास ।
तीजा पुरुष बनारसी, चौथा कोउ न पास ॥४०९॥


(चौपई)

भाड़ा किया पिरोजाबाद, साहिजादपुर लौं मरजाद ।
चले साहिजादेपुर गए, रथ सौं उतरि पयादे भए ॥४१०॥

रथ का भाड़ा दिया चुकाइ, साञ्झि आइकै बसे सराइ ।
आगै और न भाड़ा किया, साथ एक लीया बोझिया ॥४११॥

पहर डेढ़ रजनी जब गई, तब तही मकर चान्दनी भई ।
इन के मन आई यह बात, कहहिं चलहु हूवा परभात ॥४१२॥

तीनौं जनें चले ततकाल, दै सिर बोझ बोझिया नाल ।
चारौं भूलि परे पथ मांहि, दच्छिन दिसि जङ्गल महिं जांहि ॥४१३॥

महा बीझ बन आयौ जहां, रोवन लग्यौ बोझिया तहां ।
बोझ डारि भाग्यौ तिस ठौर, जहां न कोऊ मानुष और ॥४१४॥

तब तीनिहु मिलि कियौ बिचार, तीनि भाग कीन्हा सब भार ।
तीनि गाण्ठि बन्धी सम भाइ, लीनी तीनिहु जनें उठाइ ॥४१५॥

कबहूं कान्धै कबहूं सीस, यह विपत्ति दीनी जगदीस ।
अरध रात्रि जब भई बितीत, खिन रोवहिं खिन गावहिं गीत ॥४१६॥

चले चले आए तिस ठांउ, जहां बसै चोरन्ह कौ गांउ ।
बोला पुरुष एक तुम कौन, गए सूखि मुख पकरी मौन ॥४१७॥

इन्ह परमेसुर की लौ धरी, वह था चोरन्ह का चौधरी ।
तब बनारसी पढ़ा सिलोक, दी असीस उन दीनी धोक ॥४१८॥

कहै चौधरी आवहु पास, तुम णारायण महिं तुम्ह दास ।
आइ बसहु मेरी चौपारि, मोरे तुम्हरे बीच मुरारि ॥४१९॥

तब तीनौं नर आए तहां, दिया चौधरी थानक जहां ।
तीनौं पुरुष भए भय-भीत, हिरदै मांहि कम्प मुख पीत ॥४२०॥


(दोहरा)

सूत काढ़ि डोरा बट्यौ, किए जनेऊ चारि ।
पहिरे तीनि तिहूं जनें, राख्यौ एक उबारि ॥४२१॥

माटी लीनी भूमि सौं, पानी लीनौं ताल ।
बिप्र भेष तीनौं बनहिं, टीका कीनौं भाल ॥४२२॥


(चौपई)

पहर दोइ लौं बैठे रहे, भयौ प्रात बादर पहपहे ।
हय-आरूढ़ चौधरी-ईस, आयौ साथ और नर बीस ॥४२३॥

उनि कर जोरि नबायौ सीस, इन उठिकै दीनी आसीस ।
कह चौधरी पण्डित-राइ, आवहु मारग देहौं दिखाइ ॥४२४॥

पराधीन तीनौं उठि चले, मस्तक तिलक जनेऊ गले ।
सिर पर तीनिहु लीनी पोट, तीन कोस जङ्गल की ओट ॥४२५॥

गयौ चौधरी कियौ निबाह, आई फत्तेपुर की राह ।
कहै चौधरी इस मग मांहि, जाहु हमहिं आग्या हम जांहि ॥४२६॥

फत्तेपुर इन्ह रूखन तले, "चिरं जीव" कहि तीनौं चले ।
कोस दोइ दीसै ऌअखरांउ, फिर द्वै कोस फतेपुर-गांउ ॥४२७॥

आइ फतेपुर लीनी ठौर, दोइ मजूर किए तहां और ।
बहुरौं त्यागि फतेपुर-बास, गए छ कोस ईलाहाबास ॥४२८॥

जाइ सराइ उतारा लिया, गङ्गा के तट भोजन किया ।
बानारसी नगर मै गयौ, खरगसेन कौ दरसन भयौ ॥४२९॥

दौरि पुत्र नहिं पकरे पाइ, पिता ताहि लीनौ उर लाइ ।
पूछै पिता बात एकन्त, कह्यौ बनारसि निज बिरतन्त ॥४३०॥

सुत के बचन हिए महिं धरे, खाइ पछार भूमि गिरि परे ।
मूर्छा-गति आई ततकाल, सुख महिं भयौ ऊचलाचाल ॥४३१॥

घरी चारि लौं बेसुध रहे, स्वासा जगी फेरि लहलहे ।
बानारसी णरोत्तमदास, डोली करी ईलाहाबास ॥४३२॥

खरगसेन कीनौं असबार, बेगि उतारे गङ्गा-पार ।
तीनौं पुरुष पियादे पाइ, चले जौनपुर पहुञ्चे आइ ॥४३३॥

बानारसी णरोत्तम मित्त, चले बनारसि बनज-निमित्त ।
जाइ पास-जिन पूजा करी, ठाढ़े होइ बिरति उच्चरी ॥४३४॥


(अडिल्ल)

साञ्झ-समै दुबिहार, प्रात नौकारसहि ।
एक अधेला पुन्न, निरन्तर नेम गहि ।
नौकरवाली एक, जाप नित कीजिए ।
दोष लगै परभात, तौ घीउ न लीजिए ॥४३५॥


(दोहरा)

मारग बरत जथा-सकति, सब चौदसि उपवास ।
साखी कीनौं पास जिन, राखी हरी पचास ॥४३६॥

दोइ बिवाह सुरित द्वै, आगहिं करनी और ।
परदारा-सङ्गति तजी, दुहू मित्र इक ठौर ॥४३७॥

सोलह सै इकहत्तरे, सुकल पच्छ बैसाख ।
बिरति धरी पूजा करी, मानहु पाए लाख ॥४३८॥


(चौपई)

पूजा करि आए निज थान, भोजन कीना खाए पान ।
करै कछू ब्यौपार बिसेख, खरगसेन कौ आयौ लेख ॥४३९॥

चीठी मांहि बात बिपरीत, बाञ्चन लागे दोऊ मीत ।
बानारसीदास की बाल, खैराबाद हुती पिउ-साल ॥४४०॥

ता के पुत्र भयौ तीसरौ, पायौ सुख तिनि दुख बीसरौ ।
सुत जन महिं दिन पन्द्रह हुए, माता बालक दोऊ मुए ॥४४१॥

प्रथम बहू की भगिनी एक, सो तिन भेजी कियौ विवेक ।
नाऊ आनि नारिअर दियौ, सो हम भले मूहूरत लियौ ॥४४२॥

एक बार ए दोऊ कथा, सण्डासी लुहार की जथा ।
छिन मीहि अगिनि छिनक जल-पात, त्यौं यह हरख-शोक की बात ॥४४३॥


यह चीठी बाञ्ची तब दौंहू, जुगुल मित्र रोए करि उहूं ।
बहुतै रुदन बनारसि कियौ, चुप ह्वै रहे कठिन करि हियौ ॥४४४॥

बहुरौं लागे अपने काज, रोजगार कौ करन इलाज ।
लेंहि देंहि थोरा अरु घना, चूंनी मानिक मोती पना ॥४४५॥

कबहूं एक जौनपुर जाहि, कबहूं रहै बनारस माहि ।
दोऊ सकृत रहहिं इक ठौर, ठानहिं भिन्न भिन्न पग दौर ॥४४६॥

करहिं मसक्कति आलस नांहि, पहर तीसरे रोटी खांहि ।
मास छ सात गए इस भान्ति, बहुरौं कछु पकरी उपसान्ति ॥४४७॥

घोरा दौरहि खाइ सबार, ऐसी दसा करी करतार ।
च्ईनी किलिच खान उमराउ, तिन बुलाइ दीयौ सिरपाउ ॥४४८॥


(दोहरा)

बेटा बड़ो किलीच कौ, च्यार हजार मार ।
नगर जौनपुर कौ धनी, दाता पण्डित बीर ॥४४९॥

च्ईनी किलिच बनारसी, दोऊ मिले बिचित्र ।
वह या सौं किरिपा करै, यह जानै महिं मित्र ॥४५०॥

एहि बिधि बीते बहुत दिन, बीती दसा अनेक ।
बैरी पूरब जनम कौ, प्रगट भयौ नर एक ॥४५१॥

तिनि अनेक बिधि दुख दियौ, कहौं कहां लौं सोइ ।
जैसी उनि इन सौं करी, ऐसी करै न कोइ ॥४५२॥


(चौपई)

बानारसी णरोत्तमदास, दुहु कौं लेन न देइ उसास ।
दोऊ खेद खिन्न तिनि किए, दुख भी दिए दाम भी लिए ॥४५३॥

मास दोइ बीते इस बीच, कहूं गयौ थौ च्ईनि किलीच ।
आयौ गढ़ मौवासा जीति, फिरि बनारसी सेती प्रीति ॥४५४॥


(दोहरा)

कबहौं (णाममाला) पढ़ै, (च्हन्दकोस) (स्रुतबोध)
करै कृपा नित एक-सी, कबहौं न होइ विरोध ॥४५५॥


(चौपई)

बानारसी कही किछु नांहि, पै उनि भय मानी मन मांहि ।
तब उन पञ्च बदे नर च्यारि, तिन्ह चुकाइ दीनी यह रारि ॥४५६॥

चूक्यौ झगरा भयौ अनन्द, ज्यौं सुछन्द खग छूटत फन्द ।
सोलह सै बहत्तरै बीच, भयौ काल-बस च्ईनि किलीच ॥४५७॥

बानारसी णरोत्तमदास, पटनें गए बनज की आस ।
मास छ सात रहे उस देस, थोरा सौदा बहुत किलेस ॥४५८॥

फिरि दोऊ आए निज ठांउ, बानारसी जौनपुर गांउ ।
इहां बनज कीनौ अधिकाइ, गुपत बात सो कही न जाइ ॥४५९॥


(दोहरा)

आउ बित्त निज गृह-चरित, दान मान अपमान ।
औषध मैथुन मन्त्र निज, ए नव अकह-कहान ॥४६०॥


(चौपई)

तातहिं यह न कही विख्यात, नौ बातन्ह महिं यह भी बात ।
कीनी बात भली अरु बुरी, पटनें कासी जौनापुरी ॥४६१॥

रहे बरस द्वै तीनिहु ठौर, तब किछु भई और की और ।
आगानूर नाम उमराउ, तिस कौं साहि दियौ सिरपाउ ॥४६२॥

सो आवतौ सुन्यौ जब सोर, भागे लोग गए चहु ओर ।
तब ए दोऊ मित्र सुजान, आए नगर जौनपुर थान ॥४६३॥

घर के लोग कहूं छिपि रहे, दोऊ यार उतर दिसि बहे ।
दोऊ मित्र चले इक साथ, पांउ पियादे लाठी हाथ ॥४६४॥

आए नगर आजोध्या मांहि, कीनी जात रहे तहां नांहि ।
चले चले रौनांही गए, ढर्मनाथ के सेवक भए ॥४६५॥


(दोहरा)

पूजा कीनी भगति सौं, रहे गुपत दिन सात ।
फिरि आए घर की तरफ, सुनी पन्थ मीह बात ॥४६६॥

आगानूर बनारसी, और जौनपुर बीच ।
कियौ उदङ्गल बहुत नर, मारे करि अध-मीच ॥४६७॥

हक नाहक पकरे सबै, जड़िया कोठीबाल ।
हुण्डीबाल सराफ नर, अरु जौंहरी दलाल ॥४६८॥

काहू मारे कोररा, काहू बेड़ी पाइ ।
काहू राखे भाखसी, सब कौं देइ सजाइ ॥४६९॥


(चौपई)

सुनी बात यह पन्थिक पास, बानारसी णरोत्तमदास ।
घर आवत हे दोऊ मीत, सुनि यह खबरि भए भय-भीत ॥४७०॥

सुरहुरपुर कौं बहुरौं फिरे, चढ़ि घड़नाई सरिता तिरे ।
जङ्गल मांहि हुतौ मौवास, जहां जाइ करि कीनौ बास ॥४७१॥

दिन चालीस रहे तिस ठौर, तब लौं भई और की और ।
आगानूर गयौ आगरे, छोड़ि दिए प्रानी नागरे ॥४७२॥

नर द्वै चारि हुते बहु-धनी, तिन्ह कौं मारि दई अति घनी ।
बान्धि ल गयौ अपने साथ, इक नाहक जानै जिननाथ ॥४७३॥

इस अन्तर ए दोऊ जनें, आए निरभय घर आपनें ।
सब परिवार भयौ एकत्र, आयौ सबलसिङ्घ कौ पुत्र ॥४७४॥

सबलसिङ्घ मौठिआ मसन्द, णेमीदास साहु कौ नन्द ।
लिख्यौ लेख तिन अपने हाथ, दोऊ साझी आवहु साथ ॥४७५॥


(दोहरा)

अब पूरब महिं जिनि रहौ, आवहु मेरे पास ।
यह चीठी साहू लिखी, पढ़ी बनारसिदास ॥४७६॥

और णरोत्तम के पिता, लिख दीनौ बिरतन्त ।
सो कागद आयौ गुपत, उनि बाञ्च्यौ एकन्त ॥४७७॥

बाञ्चि पुत्र बानारसी, के कर दीनौ आनि ।
बाञ्चहु ए चाचा लिखे, समाचार निज पानि ॥४७८॥

पढ़ने लगे बानारसी, लिखी आठ दस पान्ति ।
हेम-खेम ता के तले, समाचार इस भान्ति ॥४७९॥

खरगसेन बानारसी, दोऊ दुष्ट विशेष ।
कपट-रूप तुझ कौं मिले, करि धूरत का भेष ॥४८०॥

इन के मत जो चलहिगा, तौ माङ्गहिगा भीख ।
तातहिं तू हुसियार रहु, यहै हमारी सीख ॥४८१॥

समाचार बानारसी, बाञ्चे सहज सुभाउ ।
तब सु णरोत्तम जोरि कर, पकरे दोऊ पाउ ॥४८२॥

कहै बनारसिदास सौं, तू बन्धव तू तात ।
तू जानहि उस की दसा, क्या मूरख की बात ॥४८३॥

तब दोऊ खुसहाल ह्वै, मिले होइ इक चित्त ।
तिस दिन सौं बानारसी, नित्त सराहै मित्त ॥४८४॥

रीझि णरोत्तमदास कौ, कीनौ एक कबित्त ।
पढ़हिं रैन दिन भाट-सौ, घर बजार जित-कित्त ॥४८५॥


(सवैया इकतीसा, णरोत्तमदास-स्तुति)

नव-पद ध्यान गुन-गान भगवन्त-जी कौ,

करत सुजान दिढ़-ग्यान जग मानियै ।

रोम-रोम अभिराम धर्म-लीन आठौ जाम,

रूप-धन-धाम काम-मूरति बखानियै ।

तन कौ न अभिमान सात खेत देत दान,

महिमान जा के जस कौ बितान तानियै ।

महिमा-निधान प्रान प्रीतम बनारसी कौ,

चहु-पद आदि अच्छरन्ह नाम जानियै ॥४८६॥



(चौपई)

बानारसि चिन्तहिं मन मांहि, ऐसो मित्त जगत महिं नांहि ।
इस ही बीच चलन कौ साज, दोऊ साझी करहिं इलाज ॥४८७॥

खरगसेन-जी जहमति परे, आइ असाधि बैद नहिं करे ।
बानारसी णरोत्तमदास, लाहनि कछू कराई तास ॥४८८॥

सम्बत तिहत्तरे बैसाख, सातहिं सोमवार सित पाख ।
तब साझे का लेखा किया, सब असबाब बाण्टिकै लिया ॥४८९॥


(दोहरा)

दोइ रोजनामहिं किए, रहे दुहू के पास ।
चले णरोत्तम आगरै, रहे बनारसिदास ॥४९०॥

रहे बनारसि जौनपुर, निरखि तात बेहाल ।
जेठ अन्धेरी पञ्चमी, दिन बितीत निसि-काल ॥४९१॥

खरगसेन पहुचे सुरग, कहवति लोग विख्यात ।
कहां गए किस जोनि महिं, कहै केवली बात ॥४९२॥

कियौ सोक बानारसी, दियौ नैन भरि रोइ ।
हियौ कठिन कीनौ सदा, जियौ न जग महिं कोइ ॥४९३॥


(चौपई)

मास एक बीत्यौ जब और, तब फिरि करी बनज की दौर ।
हुण्डी लिखी रजत सै पञ्च, लिए करन लागे पट सञ्च ॥४९४॥

पट खरीदि कीनौं एकत्र, आयौ बहुरि साहु कौ पत्र ।
लिखा सिङ्घ-जी चीठी मांहि, तुझ बिनु लेखा चूकै नाहिं ॥४९५॥

तातहिं तू भी आउ सिताब, महिं बूझहिं सो देहि जुवाब ।
बानारसी सुनत बिरतन्त, तजि कपरा उठि चले तुरन्त ॥४९६॥

बाम्भन एक नाम सिवराम, सौम्प्यौ ताहि बस्त्र का काम ।
मास असाढ़ मांहि दिन भले, बानारसी आगरै चले ॥४९७॥


(दोहरा)

एक तुरङ्गम नौं नफर, लीनें साथि बनाइ ।
नांउ घैसुआ गांउ महिं, बसे प्रथम दिन आइ ॥४९८॥

ताही दिन आयौ तहां, और एक असबार ।
कोठीबाल महेसुरी, बसै आगरै बार ॥४९९॥


(चौपई)

षट सेबक इक साहिब सोइ, मथुरा-बासी बाम्भन दोइ ।
नर उनीस की जुरी जमाति, पूरा साथ मिला इस भान्ति ॥५००॥

कियौ कौल उतरहिं इक-ठौर, कोऊ कहूं न उतरै और ।
चले प्रभात साथ करि गोल, खेलहिं हंसहिं करहिं कल्लोल ॥५०१॥


(दोहरा)

गांउ नगर उल्लङ्घि बहु, चलि आए तिस ठांउ ।
जहां घटमपुर के निकट, बसै कोररा गांउ ॥५०२॥

उतरे आइ सराइ महिं, करि अहार विश्राम ।
मथुरा-बासी बिप्र द्वै, गए अहीरी-धाम ॥५०३॥

दुहु महिं बाम्भन एक उठि, गयौ हाट महिं जाइ ।
एक रुपैया काढ़ि तिनि, पैसा लिए भनाइ ॥५०४॥

आयौ भोजन साज ले, गयौ अहीरी-गेह ।
फिरि सराफ आयौ तहां, कहै रुपैया एह ॥५०५॥



गैरसाल है बदलि दै, कहै बिप्र मम नांहि ।
तेरा तेरा यौं कहत, भई कलह दुहु मांहि ॥५०६॥

मथुरा-बासी बिप्र नहिं, मार्यौ बहुत सराफ ।
बहुत लोग बिनती करी, तऊ करै नहिं माफ ॥५०७॥

भाई एक सराफ कौ, आइ गयौ इस बीच ।
मुख मीठी बातें करै, चित कपटी नर नीच ॥५०८॥

तिन बाम्भन के बस्त्र सब, टकटोहे करि रीस ।
लखे रुपैया गाण्ठि महिं, गिनि देखे पच्चीस ॥५०९॥

सब के आगै फिरि कहै, गैरसाल सब दर्व ।
कोतवाल पै जाइके, नजरि गुजारौ सर्व ॥५१०॥

बिप्र जुगल मिसु करि परे, मृतक-रूप धरि मौन ।
बनिया सबनि दिखाइ लै, गयौ गाण्ठि निज भौन ॥५११॥

खरे दाम घर महिं धरे, खोटे ल्यायौ जोरि ।
मिही कोथली मांहि भरि, दीनी गाण्ठि मरोरि ॥५१२॥

लेइ कोथली हाथ महिं, कोतबाल पै जाइ ।
खोटे दाम दिखाइकै, कही बात समुझाइ ॥५१३॥


(चौपई)

साहिब-जी ठग आये घनें, फैले फिरहिं जांहि नहिं गनें ।
सन्ध्या-समै हौंहि इक ठौर, ह्वै असबार करहु तब दौर ॥५१४॥

यह कहि बनिक निरालो भयौ, कोतबाल हाकिम पै गयौ ।
कही बात हाकिम के कान, हाकिम साथ दियौ दीबान ॥५१५॥

कोतबाल दीबान समेत, साञ्झ समै आए ज्यौं प्रेत ।
पुरजन लोक साथि सै चारि, जनु सराइ महिं आई धारि ॥५१६॥

बैठे दोऊ खाट बिछाइ, बाम्भन दोऊ लिए बुलाइ ।
पूछै मुगल कहहु तुम कौन, कहै बिप्र मथुरा मम भौन ॥५१७॥

फिरि महेसरी लियौ बुलाय, कही तू जाहि कहां सौं आइ ।
तब सो कहे जौनपुर गांउ, कोठीबाल आगरे जांउ ॥५१८॥

फिरि बनारसी बोलै बोल, महिं जौंहरी करौं मनि-मोल ।
कोठी हुती बनारस मांहि, अब हम बहुरि आगरै जांहि ॥५१९॥


(दोहरा)

साझी णेमा साहु के, तखत जौनपुर भौन ।
ब्यौपारी जग महिं प्रकट, ठग के लच्छन कौन ॥५२०॥


(चौपई)

कही बात जब बानारसी, तब वे कहन लगे पारसी ।
एक कहै ए ठग तहकीक, एक कहै ब्यौपारी ठीक ॥५२१॥

कोतवाल तब कहै पुकारि, बान्धहु बेग करहु क्या रारि ।
बोलै हाकिम कौ दीबान, अहमक कोतबाल नादान ॥५२२॥

राति समै सूझ नहिं कोइ, चोर साहु की निरख न होइ ।
कछु जिन कहौ राति की राति, प्रात निकसि आवैगी जाति ॥५२३॥

कोतबाल तब कहै बखानि, तुम ढूणृहहु अपनी पहिचानि ।
कोररा घाटमपुर अरु बरी, तीनि गांउ की सरियति करी ॥५२४॥

और गांउ हम मानहिं नांहि, तुम यह फिकिर करहु हम जांहि ।
चले मुगल बादा बदि भोर, चौकी बैठाई चहु-ओर ॥५२५॥


(दोहरा)

सिरीमाल बानारसी, अरु महेसुरी-जाति ।
करहिं मन्त्र दोऊ जनें, भई छ-मासी राति ॥५२६॥


(चौपई)

पहर राति जब पिछली रही, तब महेसुरी ऐसी कही ।
मेरो लहुरा भाई हरी, नांउ सु तौ ब्याहा है बरी ॥५२७॥

हम आए थे इहां बरात, भली यादि आई यह बात ।
बानारसी कहै रे मूढ़, ऐसी बात करी क्यौं गूढ़ ॥५२८॥


(दोहरा)

तब महेसुरी यौं कहै, भय सौं भूली मोहि ।
अब मो कौं सुमिरन भई, तू निचिन्त मन होहि ॥५२९॥


(चौपई)

तब बनारसी हरषित भयौ, कछु इक सोच रह्यौ कछु गयौ ।
कबहू चित की चिन्ता भगै, कबहू बात झूठ-सी लगै ॥५३०॥

यौं चिन्तवत भयौ परभात, आइ पियादे लागे घात ।
सूली दै मजूर के सीस, कोतवाल भेजी उनईस ॥५३१॥

ते सराइ महिं डारी आनि, प्रगट पियादे कहहिं बखानि ।
तुम उनीस प्रानी ठग लोग, ए उनीस सूली तुम जोग ॥५३२॥


(दोहरा)

घरी एक बीते बहुरि, कोतबाल दीबान ।
आए पुरजन साथ सब, लोग करन निदान ॥५३३॥


(चौपई)

तब बनारसी बोलै बानि, बरी मांहि निकसी पहचानि ।
तब दीबान कहै स्याबास, यह तो बात कही तुम रास ॥५३४॥

मेरे साथ चलो तुम बरी, जो किछु उहां होइ सो खरी ।
महेसुरी हूओ असबार, अरु दीबान चला तिस लार ॥५३५॥

दोऊ जनें बरी महिं गए, समधी मिले साहु तब भए ।
साहु साहु-घर कियौ निवास, आयौ मुगल बनारसी पास ॥५३६॥

आइ कह्यौ तुम साञ्चे साहु, करहु माफ यह भया गुनाहु ।
तब बनारसी कहै सुभाउ, तुम साहिब हाकिम उमराउ ॥५३७॥

जो हम कर्म पुरातन कियौ, सो सब आइ उदै रस दियौ ।
भावी अमिट हमारा मता, इस महिं क्या गुनाह क्या खता ॥५३८॥

दोऊ मुगल गए निज धाम, तही बनारसी कियौ मुकाम ।
दोऊ बाम्भन ठाढ़े भए, बोलहिं दाम हमारे गए ॥५३९॥


(दोहरा)

पहर एक दिन जब चढ़्यौ, तब बनारसीदास ।
सेर छ सात फुलेल ले, गए मुगल के पास ॥५४०॥

हाकिम कौं दीबान कौं, कोतबाल के गेह ।
जथा-जोग सब कौं दियौ, कीनौं सबसन नेह ॥५४१॥

तब बनारसी यौं कहै, आजु सराफ ठगाइ ।
गुनहगार कीजै उस हि, दीजै दाम मङ्गाइ ॥५४२॥

कहै मुगल तुझ बिनु कहहिं, महिं कीन्हौं उस खोज ।
वह निज सब ही साथ लै, भागा उस ही रोज ॥५४३॥


(सोरठा)

मिला न किस ठौर, तुम निज डेरे जाइ करि ।
सिरिनी बाण्टहु और, इन दामनि की क्या चली ॥५४४॥


(चौपई)

तब बनारसी चिन्तै आम, बिना जोर नहिं आवहि दाम ।
इहां हमारा किछु न बसाय, तातहिं बैठि रहै घर जाय ॥५४५॥

यह विचार करि कीनी दुवा, कही जु होना था सो हुवा ।
आए अपने डेरे मांहि, कही बिप्र सौं दमिका नाहिं ॥५४६॥


(दोहरा)

भोजन कीनौ सबनि मिलि, हूऔ सन्ध्या-काल ।
आयौ साहु महेसुरी, रहे राति खुसहाल ॥५४७॥


(चौपई)

फिरि प्रभात उठि मारग लगे, मनहु काल के मुख सौं भगे ।
दूजै दिन मारग के बीच, सुनी णरोत्तम हित की मीच ॥५४८॥


(दोहरा)

चीठी बैनीदास की, दीनी काहू आनि ।
बाञ्चत ही मुरछा भई, कहूं पांउ कहौं पानि ॥५४९॥

बहुत भान्ति बानारसी, कियौ पन्थ महिं सोग ।
समुझावै मानै नहीं, घिरे आइ बहु लोग ॥५५०॥

लोभ मूल सब पाप कौ, दुख कौ मूल सनेह ।
मूल अजीरन ब्याधि कौ, मरन मूल यह देह ॥५५१॥

ज्यौं त्यौं कर समुझे बहुरि, चले होहि असबार ।
क्रम क्रम आए आगरै, निकट नदी के पार ॥५५२॥

तहां बिप्र दोऊ भए, आड़े मारग बीच ।
कहहिं हमारे दाम बिनु, भई हमारी मीच ॥५५३॥


(चौपई)

कही सुनी बहुतेरी बात, दोऊ बिप्र करहिं अपघात ।
तब बनारसी सोचि बिचारि, दीनहिं दामनि मेटी रारि ॥५५४॥


(दोहरा)

बारह दिए महेसुरी, तेरह दीनहिं आप ।
बाम्भन गए असीस दै, भए बनिक निष्पाप ॥५५५॥

अपने अपने गेह सब, आए भए निचीत ।
रोए बहुत बनारसी, हाइ मीत हा मीत ॥५५६॥

घरी चारि रोए बहुरि, लगे आपने काम ।
भोजन करि सन्ध्या समय, गए साहु के धाम ॥५५७॥


(चौपई)

आवीहि जांहि साहु के भौन, लेखा कागद देखै कौन ।
बैठे साहु बिभौ-मदमान्ति, गावहिं गीत कलावत-पान्ति ॥५५८॥

धुरै पखावज बाजै तान्ति, सभा साहिजादे की भान्ति ।
दीजहि दान अखण्डित नित्त, कवि बन्दीजन पढ़हि कबित्त ॥५५९॥

कही न जाइ साहिबी सोइ, देखत चकित होइ सब कोइ ।
बानारसी कहै मन मांहि, लेखा आइ बना किस पांहि ॥५६०॥

सेवा करी मास द्वै चारि, कैसा बनज कहां की रारि ।
जब कहिए लेखे की बात, साहु जुवाब देहि परभात ॥५६१॥

मासी घरी छ-मासी जाम, दिन कैसा यह जानै राम ।
सूरज उदै अस्त है कहां, विषयी विषय-मगन है जहां ॥५६२॥


(दोहरा)

एहि बिधि बीते बहुत दिन, एक दिवस इस राह ।
चाचा बेनीदास के, आए आङ्गा साह ॥५६३॥

आङ्गा चङ्गा आदमी, सज्जन और बिचित्र ।
सो बहनेऊ सिङ्घ के, बानारसि का मित्र ॥५६४॥

ता सौं कही बनारसी, निज लेखे की बात ।
भैया हम बहुतै दुखी, दुखी णरोत्तम तात ॥५६५॥

तातहिं तुम समुझाइकै, लेखा डारहु पारि ।
अगिली फारकती लिखौ, पिछिलो कागद फारि ॥५६६॥


(चौपई)

तब तिस ही दिन आङ्गनदास, आए सबलसिङ्घ के पास ।
लेखा कागद लिए मङ्गाइ, साझा पाता दिया चुकाइ ॥५६७॥

फारकती लिखि दीनी दोइ, बहुरौ सुखुन करै नहिं कोइ ।
मता लिखाइ दुहू पै लिया, कागद हाथ दुहू का दिया ॥५६८॥

न्यारे न्यारे दोऊ भए, आप अपने घर उठि गए ।
सोलह सै तिहत्तरे साल, अगहन कृष्ण-पक्ष हिम-काल ॥५६९॥



लिया बनारसि डेरा जुदा, आया पुन्य करम का उदा ।
जो कपरा था बाम्भन हाथ, सो उनि भेज्या आछे साथ ॥५७०॥

आई जौनपुरी की गाण्ठि, धरि लीनी लेखे म्ण् साण्ठि ।
नित उठि प्रात नखासे जांहि, बेचि मिलावहिं पूञ्जी मांहि ॥५७१॥

इस ही समय ईति बिस्तरी, परी आगरै पहिली मरी ।
जहां तहां सब भागे लोग, परगट भया गाण्ठि का रोग ॥५७२॥

निकसै गाण्ठि मरै छिन मांहि, काहू की बसाइ किछु नांहि ।
चूहे मरहिं बैद मरि जांहि, भय सौं लोग ईन नहिं खांहि ॥५७३॥

नगर निकट बाम्भन का गांउ, सुखकारी आजीजपुर नांउ ।
तहां गए बानारसिदास, डेरा लिया साहु के पास ॥५७४॥

रहहिं अकेले डेरे मांहि, गर्भित बात कहन की नांहि ।
कुमति एक उपजी तिस थान, पूरब-कर्म-उदै परवांन ॥५७५॥

मरी निबर्त्त भई बिधि जोग, तब घर घर आए सब लोग ।
आए दिन केतिक इक भए, बानारसी आमरसर गए ॥५७६॥

उहां णिहालचन्द कौ ब्याह, भयौ बहुरि फिरि पकरी राह ।
आए नगर आगरे मांहि, सबलसिङ्घ के आवहिं जांहि ॥५७७॥


(दोहरा)

हुती जु माता जौनपुर, सो आई सुत पास ।
खैराबाद बिवाहकौं,चले बनारसिदास ॥५७८॥


(चौपई)

करि बिवाह आए घर मांहि, मनसा भई जात कौं जांहि ।
बरधमान कौंअरजी दलाल, चल्यौ सङ्घ इक तिन्ह के नाल ॥५७९॥

आहिछत्ता-हथनापुर-जात, चले बनारसि उठि परभात ।
माता और भारजा सङ्ग, रथ बैठे धरि भाउ अभङ्ग ॥५८०॥

पचहत्तरे पोह सुभ घरी, आहिछत्ते की पूजा करी ।
फिरि आए हथनापुर जहां, सान्ति कुन्थु आर पूजे तहां ॥५८१॥


(दोहरा)

सान्ति-कुन्थ-आर-नाथ कौ, कीनौ एक कबित्त ।
ता कौं पढ़ै बनारसी, भाव भगति सौं नित्त ॥५८२॥


(छप्पै)

श्री बिससेन नरेस, सूर नृप राइ सुदंसन ।
आचिरा सिरिआ डेवि, करहिं जिस देव प्रसंसन ।
तसु नन्दन सारङ्ग, छाग नन्दावत लञ्छन ।
चालिस पैन्तिस तीस, चाप काया छबि कञ्चन ।
सुख-रासि बनारसिदास भनि, निरखत मन आनन्दई ।
हथिनापुर गजपुर णागपुर, सान्ति कुन्थ आर बन्दई ॥५८३॥


(चौपई)

करी जात मन भयौ उछाह, फिर्यौ सङ्घ डिल्ली की राह ।
आई मेरठि पन्थ बिचाल, तहां बनारसी की न्हन-साल ॥५८४॥

उतरा सङ्घ कोट के तले, तब कुटुम्ब जात्रा करि चले ।
चले चले आए भर कोल, पूजा करी कियौ थौ कौल ॥५८५॥

नगर आगरै पहुचे आइ, सब निज निज घर बैठै जाइ ।
बानारसी गयौ पौसाल, सुनी जती श्रावक की चाल ॥५८६॥

बारह ब्रत के किए कबित्त, अङ्गीकार किए धरि चित्त ।
चौदह नेम सम्भालै नित्त, लागै दोष करै प्राछित्त ॥५८७॥

नित सन्ध्या पड़िकौना करै, दिन दिन ब्रत बिशेषता धरै ।
गहै जैन मिथ्या-मत बमै, पुत्र एक हूवा इस समै ॥५८८॥

छिहत्तरे सम्बत आसाढ़, जनम्यौ पुत्र धरम-रुचि बाढ़ ।
बरस एक बीत्यौ जब और, माता मरन भयौ तिस ठौर ॥५८९॥

सतहत्तरे समै मा मरी, जथा-सकति कछु लाहनि करी ।
उनासिए सुत अरु तिय मुई, तीजी और सगाई हुई ॥५९०॥

बेगा साहु कूकड़ी गोत, खैराबाद तीसरी पोत ।
समय अस्सिए ब्याहन गए, आए घर गृहस्थ फिरि भए ॥५९१॥

तब तहां मिले आरथमल ढोर, करहिं आध्यातम बातहिं जोर ।
तिनि बनारसी सौं हित कियौ, (समैसार णाटक) लिखि दियौ ॥५९२॥

राजमल्ल नहिं टीका करी, सो पोथी तिनि आगै धरी ।
कहै बनारसि सौं तू बाञ्चु, तेरे मन आवेगा साञ्चु ॥५९३॥

तब बनारसि बाञ्चै नित्त, भाषा अरथ बिचारै चित्त ।
पावै नेहीं अध्यातम पेच, मानै बाहिज किरिआ हेच ॥५९४॥


(दोहरा)

करनी कौ रस मिटि गयौ, भयौ न आतम-स्वाद ।
भई बनारसि की दसा, जथा ऊण्ठ कौ पाद ॥५९५॥


(चौपई)

बहुरौं चमत्कार चित भयौ, कछु वैराग भाव परिनयौ ।
(ग्यानपचीसी) कीनी सार, (ढ्यानबतीसी) ध्यान विचार ॥५९६॥

कीनहिं (आध्यातम के गीत), बहुत कथन बिबहार-अतीत ।
(सिवमन्दिर) इत्यादिक और, कबित अनेक किए तिस ठौर ॥५९७॥

जप तप सामायिक पड़िकौन, सब करनी करि डारी बौन ।
हरी-बिरति लीनी थी जोइ, सोऊ मिटी न परमिति कोइ ॥५९८॥

एसी दसा भई एकन्त, कहौं कहां लौं सो बिरतन्त ।
बिनु आचार भई मति नीच, साङ्गानेर चले इस बीच ॥५९९॥

बानारसी बराती भए, टिपुरदास कौं ब्याहन गए ।
ब्याहि ताहि आए घर मांहि, देव-चढ़ाया नेबज खांहि ॥६००॥

कुमती चारि मिले मन मेल, खेला पैजारहु का खेल ।
सिर की पाग लहिंहि सब छीनि, एक एक कौं मारहिं तीनि ॥६०१॥


(दोहरा)

च्अन्द्रभान बानारसी, ऊदैकरन अरु ठान ।
चारौं खेलहिं खेल फिरि, करहिं अध्यातम ग्यान ॥६०२॥

नगन ह्ण्हिं चारौं जनें, फिरहिं कोठरी मांहि ।
कहहिं भए मुनि-राज हम, कछू परिग्रह नांहि ॥६०३॥

गनि गनि मारहिं हाथ सौं, मुख सौं करहिं पुकार ।
जो गुमान हम करत हे, ता के सिर पैजार ॥६०४॥

गीत सुनहिं बातहिं सुनहिं, ता की बिङ्ग बनाइ ।
कहहिं अध्यातम महिं अरथ, रहहिं मृषा लौ लाइ ॥६०५॥


(चौपई)

पूरब कर्म उदै सञ्जोग, आयौ उदय असाता भोग ।
तातहिं कुमत भई उतपात, कोऊ कहै न मानै बात ॥६०६॥

जब लौं रही कर्म-बासना, तब लौं कौन बिथा नासना ।
असुभ उदय जब पूरा भया, सहजहि खेल छूटि तब गया ॥६०७॥
कहहिं लोग श्रावक अरु जति, बानारसी खोसरामती ।
तीनि पुरुष की चलै न बात, यह पण्डित तातहिं विख्यात ॥६०८॥

निन्दा थुति जैसी जिस होइ, तैसी तासु कहै सब कोइ ।
पुरजन बिना कहे नहि रहै, जैसी देखै तैसी कहै ॥६०९॥


(दोहरा)

सुनी कहै देखी कहै, कलपित कहै बनाइ ।
दुराराधि ए जगत जन, इन्ह सौं कछु न बसाइ ॥६१०॥


(चौपई)

जब यह धूम-धाम मिटि गई, तब कछु और अवस्था भई ।
जिन-प्रतिमा निन्दै मन मांहि, भुख सौं कहै जो कहनी नांहि ॥६११॥

करै बरत गुरु सनमुख जाइ, फिरि भानहि अपने घर आइ ।
खाहि रात दिन पसु की भान्ति, रहै एकन्त मृषा-मदमान्ति ॥६१२॥


(दोहरा)

यह बनारसी की दसा, भई दिनहु दिन गाढ़ ।
तब सम्बत चौरासिया, आयौ मास असाढ़ ॥६१३॥

भयौ तीसरी नारि कै, प्रथम पुत्र अवतार ।
दिवस कैकु रहि उठि गयौ, अलप-आयु संसार ॥६१४॥


(चौपई)

छत्रपति जहाङ्गीर डिल्लीस, कीनौ राज बरस बाईस ।
कासमीर के मारग बीच, आवत हुई अचानक मीच ॥६१५॥

मासि चारि अन्तर परवांन, आयौ साहि जिहां सुलतान ।
बैठ्यौ तखत छत्र सिर तानि, चहू चक्क महिं फेरी आनि ॥६१६॥


(दोहरा)

सोलह सै चौरासिए, तखत आगरे थान ।
बैठ्यौ नाम धराय प्रभु, साहिब साहि किरान ॥६१७॥

फिरि सम्बत पच्चासिए, बहुरि दूसरी बार ।
भयौ बनारसि के सदन, दुतिय पुत्र अवतार ॥६१८॥


(चौपई)

बरस एक द्वै अन्तर काल, कथा-शेष हूऔ सो बाल ।
अलप आउ ह्वै आवहिं जांहि, फिर सतासिए सम्बत मांहि ॥६१९॥

बानारसीदास आबास, त्रितिय पुत्र हूऔ परगास ।
उनासिए पुत्री अवतरी, तिन आऊषा पूरी करी ॥६२०॥

सब सुत सुता मरन-पद गहा, एक पुत्र कोऊ दिन रहा ।
सो भी अलप आउ जानिए, तातहिं मृतक-रूप मानिए ॥६२१॥

क्रम क्रम बीत्यौ इक्यानवा, आयौ सोलह सै बानवा ।
तब तांई धरि पहिली दसा, बानारसी रह्यौ इकरसा, ॥६२२॥

(दोहरा)

आदि अस्सिआ बानवा, अन्त बीच की बात ।
कछु औरौं बाकी रही, सो अब कहौं बिख्यात ॥६२३॥

चले बरात बनारसी, गए च्आतसू गांउ ।
बच्छा-सुत कौं ब्याहकै, फिरि आए निज ठांउ ॥६२४॥

अरु इस बीचि कबीसुरी, कीनी बहुरि अनेक ।
नाम (सुक्तिमुकतावली), किए कबित सौ एक ॥६२५॥

(आध्यातमबत्तीसिका), (पैड़ी), (फागु धमाल)
कीनी (सिन्धुचतुर्दसी), फूटक कबित रसाल ॥६२६॥

(शिवपच्चीसी) भावना, (सहस अठोत्तर नाम)
(करमछतीसी), (झूलना), अन्तर रावन राम ॥६२७॥

बरनी (आङ्खहिं दोइ बिधि), करि बचनिका दोइ ।
अष्टक, गीत बहुत किए, कहौं कहा लौं सोइ ॥६२८॥

सोलह सै बानवै लौं, कियौ नियत-रस-पान ।
पै कबीसुरी सब भई, स्यादवाद-परवांन ॥६२९॥

अनायास इस ही समय, नगर आगरे थान ।
रूपचन्द पण्डित गुनी, आयौ आगम-जान ॥६३०॥


(चौपई)

टिहुना साहु देहुरा किया, तहां आइ तिनि डेरा लिया ।
सब आध्यातमी कियौ बिचार, ग्रन्थ बञ्चायौ (गोमटसार) ॥६३१॥

ता महिं गुनथानक परवांन, कह्यौ ग्यान अरु क्रिया-बिधान ।
जो जिय जिस गुनथानक होइ, तैसी क्रिया करै सब कोइ ॥६३२॥

भिन्न भिन्न बिबरन बिस्तार, अन्तर नियत बहिर बिबहार ।
सब की कथा सबै बिधि कही, सुनिकै संसै कछुव न रही ॥६३३॥

तब बनारसी औरै भयौ, स्यादवाद परिनति परिनयौ ।
पाण्डे रूपचन्द गुर पास, सुन्यौ ग्रन्थ मन भयौ हुलास ॥६३४॥

फिरि तिस समै बरस द्वै बीच, रूपचन्द कौं आई मीच ।
सुनि सुनि रूपचन्द के बैन, बानारसी भयौ दिढ़ जैन ॥६३५॥


(दोहरा)

तब फिरि और कबीसुरी, करी अध्यातम मांहि ।
यह वह कथनी एक-सी, कहौं विरोध किछु नांहि ॥६३६॥

हृदै मांहि कछु कालिमा, हुती सर-दहन बीच ।
सोऊ मिटि समता भई, रही न ऊञ्च न नीच ॥६३७॥


(चौपई)

अब सम्यक्-दरसन उनमान, प्रगट रूप जानै भगवान ।
सोलह सै तिरानवै वर्ष, (समैसार णाटक) धरि हर्ष ॥६३८॥

भाषा कियौ भान के सीस, कबित सात सै सत्ताईस ।
अनेकान्त परनति परिनयौ, सम्बत आइ छानवा भयौ ॥६३९॥

तब बनारसी के घर बीच, त्रितिय पुत्र कौं आई मीच ।
बानारसी बहुत दुख कियौ, भयौ सोक सौं ब्याकुल हियौ ॥६४०॥

जग महिं मोह महा बलबान, करै एक सम जान अजान ।
बरस दोइ बीते इस भान्ति, तऊ न मोह होइ उपसान्ति ॥६४१॥


(दोहरा)

कही पचावन बरस लौं, बानारसि की बात ।
तीनि बिवाहीं भारजा, सुता दोइ सुत सात ॥६४२॥

नौ बालक हूए मुए, रहे नारि नारि नर दोइ ।
ज्यौं तरवर पतझार ह्वै, रहहिं ठूण्ठ-से होइ ॥६४३॥

तत्त्व-दृष्टि जो देखिए, सत्या-रथ की भान्ति ।
ज्यौं जा कौ परिगह घटै, त्यौं ता कौं उपसान्ति ॥६४४॥

संसारी जानै नहीं, सत्या-रथ की बात ।
परिगह सौं मानै बिभौ, परिगह बिन उतपात ॥६४५॥

अब बनारसी के कहौं, बरतमान गुन दोष ।
विद्यमान पुर आगरे, सुख सौं रहै स-जोष ॥६४६॥


(चौपई)

भाषा-कबित अध्यातम मांहि, पटतर और दूसरौ नांहि ।
छमावन्त सन्तोषी भला, भली कबित पढ़िवे की कला ॥६४७॥

पढ़ै संसकृत प्राकृत सुद्ध, विविध-देसभाषा-प्रतिबुद्ध ।
जानै सबद अरथ कौ भेद, ठानै नही जगत कौ खेद ॥६४८॥

मिठ-बोला सब ही सौं प्रीति, जैन-धरम की दिढ़ परतीति ।
सहनसील नहिं कहै कुबोल, सुथिर-चित्त नहिं डावाण्डोल ॥६४९॥

कहै सबनि सौं हित उपदेस, हृदै सुष्ट न दुष्टता लेस ।
पर-रमनी कौ त्यागी सोइ, कुबिसन और न ठानै कोई ॥६५०॥

हृदय सुद्ध समकित की टेक, इत्यादिक गुन और अनेक ।
अलप जघन्न कहे गुन जोइ, नहि उतकिष्ट न निर्मल कोइ ॥६५१॥


(अथ दोष-कथन)

कहे बनारसि के गुन जथा, दोष-कथा अब बरनौं तथा ।
क्रोध मान माया जल-रेख, पै लछिमी कौ लोभ बिसेख ॥६५२॥

पोतै हास कर्म का उदा, घर सौं हुवा न चाहै जुदा ।
करै न जप तप सञ्जम रीति, नही दान-पूजा सौं प्रीति ॥६५३॥

थोरे लाभ हरख बहु धरै, अलप हानि बहु चिन्ता करै ।
मुख अवद्य भाषत न लजाइ, सीखै भण्ड-कला मन लाइ ॥६५४॥

भाखै अकथ-कथा बिरतन्त, ठानै नृत्य पाइ एकन्त ।
अनदेखी अनसुनी बनाइ, कुकथा कहै सभा मीहि आइ ॥६५५॥

होइ निमग्न हास रस पाइ, मृषा-वाद बिनु रहा न जाइ ।
अकस्मात भय ब्यापै घनी, ऐसी दसा आइ करि बनी ॥६५६॥

कबहूं दोष कबहौं गुन कोइ, जा कौ उदौ सो परगट होइ ।
यह बनारसी-जी की बात, कही थूल जो हुती बिख्यात ॥६५७॥

और जो सूछम दसा अनन्त, ता की गति जानै भगवन्त ।
जे जे बातहिं सुमिरन भीई, ते ते बचन-रूप परिनीई ॥६५८॥

जे बूझी प्रमाद इह मांहि, ते काहू पै कही न जांहि ।
अलप थूल भी कहै न कोइ, भाषै सो जु केवली होइ ॥६५९॥


(दोहरा)

एक जीव की एक दिन, दसा होहि जेतीक ।
सो कहि सकै न केवली, जानै जद्यपि ठीक ॥६६०॥

मन-पर-जै-धर अबधि-धर, करहिं अलप चिन्तौन ।
हम-से कीट पतङ्ग की, बात चलावै कौन ॥६६१॥

तातहिं कहत बनारसी, जी की दसा अपार ।
कछू थूल महिं थूल-सी, कही बहिर बिबहार ॥६६२॥

बरस पञ्च पञ्चास लौं, भाख्यौ निज बिरतन्त ।
आगै भावी जो कथा, सो जानै भगवन्त ॥६६३॥

बरस पचाबन ए कहे, बरस पचाबन और ।
बाकी मानुष आउ महिं, यह उतकिष्टी दौर ॥६६४॥

बरस एक सौ दस अधिक, परमित मानुष आउ ।
सोलह सै अट्ठानबै, समै बीच यह भाउ ॥६६५॥

तीनि भान्ति के मनुज सब, मनुज-लोक के बीच ।
बरतहिं तीनौं काल महिं, उत्तम मध्यम नीच ॥६६६॥


(अथ उत्तम नर यथा)

जे पर-दोष छिपाइकै, पर-गुन कहहिं विशेष ।
गुन तजि निज दूषन कहहिं, ते नर उत्तम भेष ॥६६७॥


(अथ मध्यम नर यथा)

जे भाखहिं पर-दोष-गुन, अरु गुन-दोष सुकीउ ।
कहहिं सहज ते जगत महिं, हम-से मध्यम जीउ ॥६६८॥


(अथ अधम नर यथा)

जे पर-दोष कहहिं सदा, गुन गोपहिं उर बीच ।
दोष लोपि निज गुन कहहिं, ते जग महिं नर नीच ॥६६९॥

सोलह सै अट्ठानबै, सम्बत अगहन-मास ।
सोमबार तिथि पञ्चमी, सुकल पक्ष परगास ॥६७०॥

नगर आगरे महिं बसै, जैन-धर्म श्रीमाल ।
बानारसी बिहोलिआ, अध्यातमी रसाल ॥६७१॥


(चौपई)

ता के मन आई यह बात, अपनौ चरित कहौं बिख्यात ।
तब तिनि बरस पञ्च पञ्चास, परमित दसा कही मुख भास ॥६७२॥

आगै जु कछु होइगी और, तैसी समुझहिंगे तिस ठौर ।
बरतमान नर-आउ बखान, बरस एक सौ दस परवांन ॥६७३॥


(दोहरा)

तातहिं अरध कथान यह, बानारसी चरित्र ।
दुष्ट जीव सुनि हंसहिंगे, कहहिं सुनहिंगे मित्र ॥६७४॥

सब दोहा अरु चौपाई, छ सै पिचत्तरि मान ।
कहहिं सुनहिं बाञ्चहिं पढ़हिं, तिन सब कौ कल्याण ॥६७५॥

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