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सिद्धपूजा
(दोहा)
चिदानंद स्वातम रसी, सत शिव सुंदर जान ।
ज्ञाता दृष्टा लोक के, परम सिद्ध भगवान ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

(वीर छंद)
ज्यों-ज्यों प्रभुवर जलपान किया, त्यों त्यों तृष्णा की आग जली ।
थी आस कि प्यास बुझेगी अब, पर यह सब मृगतृष्णा निकली ॥
आशा तृष्णा से जला ह्रदय, जल लेकर चरणों में आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

तन का उपचार किया अब तक, उस पर चंदन का लेप किया ।
मलमल कर खूब नहा कर के, तन के मल का विक्षेप किया ॥
अब आतम के उपचार हेतु, तुमको चंदन सम है पाया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

सचमुच तुम अक्षत हो प्रभुवर, तुम ही अखंड अविनाशी हो ।
तुम निराकार अविचल निर्मल, स्वाधीन सफल सन्यासी हो ॥
ले शालिकणों का अवलंबन , अक्षयपद तुमको अपनाया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा

जो शत्रु जगत का प्रबल काम, तुमने प्रभुवर उसको जीता ।
हो हार जगत के बैरी की, क्यों नहीं आनंद बढ़े सब का ॥
प्रमुदित मन विकसित सुमन नाथ, मनसिज को ठुकराने आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

मैं समझ रहा था अब तक प्रभु, भोजन से जीवन चलता है ।
भोजन बिन नरकों में जीवन, भरपेट मनुज क्यों मरता है?
तुम भोजन बिन अक्षय सुखमय, यह समझ त्यागने हूं आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा

आलोक ज्ञान का कारण है, इंद्रिय से ज्ञान उपजता है ।
यह मान रहा था पर क्यों कर, जड़ चेतन सर्जन करता है ॥
मेरा स्वभाव है ज्ञानमयी, यह भेदज्ञान पा हर्षाया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

मेरा स्वभाव चेतनमय है, इसमें जड़ की कुछ गंध नहीं ।
मैं हूँ अखंड चिदपिण्ड चंड, पर से कुछ भी संबंध नहीं ॥
यह धूप नहीं जड़ कर्मों की रज, आज उड़ाने मैं आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

शुभ कर्मों का फल विषय भोग, भोगों में मानस रमा रहा ।
नित नई लालसाएं जागी, तन्मय हो उनमें समा रहा ॥
रागादि विभाव किये जितने, आकुलता उनका फल पाया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल पिया और चंदन चर्चा, मालाएं सुरभित सुमनों की ।
पहनी तंदुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की ॥
सुरभि धूपायन की फैली, शुभ कर्मों का सब फल पाया ॥
आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया ॥
जब दृष्टि पड़ी प्रभु जी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ ।
सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुआ ॥
जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूं आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ॥9 ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(जयमाला)
(दोहा)
आलोकित हो लोक में, प्रभु परमात्म प्रकाश ।
आनंदामृत पान कर, मिटे सभी की प्यास ॥

(पद्धरि)
जय ज्ञानमात्र ज्ञायक स्वरूप, तुम हो अनंत चैतन्य भूप ।
तुम हो अखंड आनंद पिंड मोहारि दलन को तुम प्रचंड ॥
राग आदि विकारी भाव जार, तुम हुए निरामय निर्विकार ।
निर्द्वंद निराकुल निराधार, निर्मम निर्मल हो निराकार ॥

नित करत रहत आनंद रास, स्वाभाविक परिणति में विलास ।
प्रभु शिव रमणी के हृदय हार, नित करत रहत निज में विहार ॥
प्रभु भवदधि यह गहरो अपार, बहते जाते सब निराधार ।
निज परिणति का सत्यार्थ भान, शिव पद दाता जो तत्वज्ञान ॥

पाया नहीं मैं उसको पिछान, उल्टा ही मैंने लिया मान ।
चेतन को जड़-मय लिया जान, पर में अपनापा लिया मान ॥
शुभ-अशुभ राग जो दुःखखान, उसमें माना आनंद महान ।
प्रभु अशुभ कर्म को मान हेय, माना पर शुभ को उपादेय ॥

जो धर्म ध्यान आनंद रूप, उसको माना मैं दुख स्वरूप ।
मनवांछित चाहे नित्य भोग, उनको ही माना है मनोज्ञ ॥
इच्छा निरोध की नहीं चाह, कैसे मिटता भव विषय दाह ।
आकुलतामय संसार सुख, जो निश्चय से है महा दुख ॥

उसकी ही निशदिन करी आस, कैसे कटता संसार पास ।
भव दुख का पर को हेतु जान, पर से ही सुख को लिया मान ॥
मैं दान दिया अभिमान ठान, उसके फल पर नहीं दिया ध्यान ।
पूजा कीनी वरदान मांग, कैसे मिटता संसार स्वांग?

तेरा स्वरूप लख प्रभु आज, हो गए सफल संपूर्ण काज ।
मो उर प्रगट्यो प्रभु भेद ज्ञान, मैंने तुमको लीना पिछान ॥
तुम पर के कर्ता नहीं नाथ, ज्ञाता हो सबके एक साथ ।
तुम भक्तों को कुछ नहीं देत, अपने समान बस बना लेत ॥

यह मैंने तेरी सुनी आन, जो लेवे तुमको बस पिछान ।
वह पाता है कैवल्य ज्ञान, होता परिपूर्ण कला निधान ॥
विपदामय पर-पद है निकाम, निज पद ही है आनंद धाम ।
मेरे मन में बस यही चाह, निज पद को पाऊं हे जिनाह ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अनर्घ्य पद प्राप्ताय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(दोहा)
पर का कुछ नहीं चाहता, चाहूं अपना भाव ।
निज स्वभाव में थिर रहूं, मेटो सकल विभाव ॥
(पुष्पांजलिम् क्षिपामि)