Jain Radio
Close

Play Jain Bhajan / Pooja / Path

Radio Next Audio
nikkyjain@gmail.com

🙏
श्री
Click Here

देव

शास्त्र

गुरु

धर्म

तीर्थ

कल्याणक

महामंत्र

अध्यात्म

पं दौलतराम कृत

पं भागचंद कृत

पं द्यानतराय कृत

पं सौभाग्यमल कृत

पं भूधरदास कृत

पं बुधजन कृत

पं मंगतराय कृत

पं न्यामतराय कृत

पं बनारसीदास कृत

पं ज्ञानानन्द कृत

पं नयनानन्द कृत

पं मख्खनलाल कृत

पं बुध महाचन्द्र

सहजानन्द वर्णी

पर्व

चौबीस तीर्थंकर

बाहुबली भगवान

बधाई

दस धर्म

बच्चों के भजन

मारवाड़ी

selected

प्रारम्भ

नित्य पूजा

तीर्थंकर

पर्व पूजन

विसर्जन

पाठ

छहढाला

स्तोत्र

ग्रंथ

आरती

द्रव्यानुयोग

चरणानुयोग

करणानुयोग

प्रथमानुयोग

न्याय

इतिहास

Notes

द्रव्यानुयोग

चरणानुयोग

करणानुयोग

प्रथमानुयोग

न्याय

इतिहास

Notes

द्रव्यानुयोग

चरणानुयोग

करणानुयोग

प्रथमानुयोग

न्याय

इतिहास

Notes

द्रव्यानुयोग

चरणानुयोग

करणानुयोग

प्रथमानुयोग

न्याय

इतिहास

Notes

Youtube -- शास्त्र गाथा

Youtube -- Animations

गुणस्थान

कर्म

बंध

प्रमाण

Other

Download

PDF शास्त्र

Jain Comics

Print Granth

Kids Games

Crossword Puzzle

Word Search

Exam

सोलहकारण-भावना
द्यानतरायजी कृत

सोलह कारण भाय तीर्थंकर जे भये
हरषे इन्द्र अपार मेरुपै ले गये ॥
पूजा करि निज धन्य लख्यो बहु चावसौं
हमहू षोडश कारन भावैं भावसौं ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणानि! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणानि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणानि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

कंचन-झारी निरमल नीर पूजों जिनवर गुन-गंभीर
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतीचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद् भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचनवात्सल्य इतिषोडशकारणेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा

चंदन घसौं कपूर मिलाय पूजौं श्रीजिनवरके पाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

तंदुल धवल सुंगध अनूप पूजौं जिनवर तिहुं जग-भूप
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः अक्षय पदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

फूल सुगन्ध मधुप-गुंजार पूजौं-जिनवर जग-आधार
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरू हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह, तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरू हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

सद नेवज बहुविधि पकवान पूजौं श्रीजिनवर गुणखान
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

दीपक-ज्योति तिमिर छयकार पूजूं श्रीजिन केवलधार
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

अगर कपूर गंध शुभ खेय श्रीजिनवर आगे महकेय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

श्रीफल आदि बहुत फलसार पूजौं जिन वांछित-दातार
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल फल आठों दरव चढ़ाय 'द्यानत' वरत करौं मन लाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(प्रत्येक भावना के अर्घ्य -- सवैया तेईसा)
दर्शन शुद्ध न होवत जो लग, तो लग जीव मिथ्याती कहावे
काल अनंत फिरे भव में, महादुःखनको कहुं पार न पावे ॥
दोष पचीस रहित गुण-अम्बुधि, सम्यग्दरशन शुद्ध ठरावे
'ज्ञान' कहे नर सोहि बड़ो, मिथ्यात्व तजे जिन-मारग ध्यावे ॥
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धि भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

देव तथा गुरुराय तथा, तप संयम शील व्रतादिक-धारी
पापके हारक कामके छारक, शल्य-निवारक कर्म-निवारी ॥
धर्म के धीर कषाय के भेदक, पंच प्रकार संसार के तारी
'ज्ञान' कहे विनयो सुखकारक, भाव धरो मन राखो विचारी ॥
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

शील सदा सुखकारक है, अतिचार-विवर्जित निर्मल कीजे
दानव देव करें तसु सेव, विषानल भूत पिशाच पतीजे ॥
शील बड़ो जग में हथियार, जू शीलको उपमा काहे की दीजे
'ज्ञान' कहे नहिं शील बराबर, तातें सदा दृढ़ शील धरीजे ॥
ॐ ह्रीं निरतिचार शीलव्रत भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

ज्ञान सदा जिनराज को भाषित, आलस छोड़ पढ़े जो पढ़ावे
द्वादश दोउ अनेकहुँ भेद, सुनाम मती श्रुति पंचम पावे ॥
चारहुँ भेद निरन्तर भाषित, ज्ञान अभीक्षण शुद्ध कहावे
'ज्ञान' कहे श्रुत भेद अनेक जु, लोकालोक हि प्रगट दिखावे ॥
ॐ ह्रीं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

भ्रात न तात न पुत्र कलत्र न, संगम दुर्जन ये सब खोटो
मन्दिर सुन्दर, काय सखा सबको, हमको इमि अंतर मोटो ॥
भाउ के भाव धरी मन भेदन, नाहिं संवेग पदारथ छोटो
'ज्ञान' कहे शिव-साधन को जैसो, साह को काम करे जु बणोटो ॥
ॐ ह्रीं संवेग भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पात्र चतुर्विध देख अनूपम, दान चतुर्विध भावसुं दीजे
शक्ति-समान अभ्यागत को, अति आदर से प्रणिपत्य करीजे ॥
देवत जे नर दान सुपात्रहिं, तास अनेकहिं कारण सीझें
बोलत 'ज्ञान' देहि शुभ दान जु, भोग सुभूमि महासुख लीजे ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्याग भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कर्म कठोर गिरावन को निज, शक्ति-समान उपोषण कीजे
बारह भेद तपे तप सुन्दर, पाप जलांजलि काहे न दीजे ॥
भाव धरी तप घोर करी, नर जन्म सदा फल काहे न लीजे
'ज्ञान' कहे तप जे नर भावत, ताके अनेकहिं पातक छीजे ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्तप भावनयै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

साधुसमाधि करो नर भावक, पुण्य बड़ो उपजे अघ छीजे
साधु की संगति धर्मको कारण, भक्ति करे परमारथ सीजे ॥
साधुसमाधि करे भव छूटत, कीर्ति-छटा त्रैलोक में गाजे
'ज्ञान' कहे यह साधु बड़ो, गिरिश्रृंग गुफा बिच जाय विराजे ॥
ॐ ह्रीं साधुसमाधि भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कर्म के योग व्यथा उदये, मुनि पुंगव कुन्त सुभेषज कीजे
पित्त-कफानिल (वात) साँस, भगन्दर, ताप को शूल महागद छीजे ॥
भोजन साथ बनाय के औषध, पथ्य कुपथ्य विचार के दीजे
'ज्ञान' कहे नित वैय्यावृत्य करे तस देव पतीजे ॥
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

देव सदा अरिहन्त भजो जई, दोष अठारा किये अति दूरा
पाप पखाल भये अति निर्मल, कर्म कठोर किए चकचूरा ॥
दिव्य-अनन्त-चतुष्टय शोभित, घोर मिथ्यान्ध-निवारण सूरा
'ज्ञान' कहे जिनराज अराधो, निरन्तर जे गुण-मन्दिर पूरा ॥
ॐ ह्रीं अर्हद् भक्ति भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

देवत ही उपदेश अनेक सु, आप सदा परमारथ-धारी
देश विदेश विहार करें, दश धर्म धरें भव-पार- उतारी ॥
ऐसे अचारज भाव धरी भज, सो शिव चाहत कर्म निवारी
'ज्ञान' कहे गुरू-भक्ति करो नर, देखत ही मनमांहि विचारी ॥
ॐ ह्रीं आचार्य भक्ति भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

आगम छन्द पुराण पढ़ावत, साहित तर्क वितर्क बखाने
काव्य कथा नव नाटक पूजन, ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाने ॥
ऐसे बहुश्रुत साधु मुनीश्वर, जो मन में दोउ भाव न आने
बोलत 'ज्ञान' धरी मन सान जु, भाग्य विशेष तें ज्ञानहि साने ॥
ॐ ह्रीं बहुश्रुतिभक्ति भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

द्वादश अंग उपांग सदागम, ताकी निरंतर भक्ति करावे
वेद अनूपम चार कहे तस, अर्थ भले मन मांहि ठरावे ॥
पढ़ बहुभाव लिखो निज अक्षर, भक्ति करी बड़ि पूज रचावे
'ज्ञान कहे जिन आगम-भक्ति, करे सद्-बुद्धि बहुश्रुत पावे ॥
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्ति भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

भाव धरे समता सब जीवसु, स्तोत्र पढ़े मुख से मनहारी
कायोत्सर्ग करे मन प्रीतसु, वंदन देव-तणों भव तारी ॥
ध्यान धरी मद दूर करी, दोउ बेर करे पड़कम्मन भारी
'ज्ञान' कहे मुनि सो धनवन्त जु, दर्शन ज्ञान चरित्र उघारी ॥
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जिन-पूजा रचे परमारथसूं जिन आगे नृत्य महोत्सव ठाणे
गावत गीत बजावत ढोल, मृदंगके नाद सुधांग बखाणे ॥
संग प्रतिष्ठा रचे जल-जातरा, सद् गुरू को साहमो कर आणे
'ज्ञान' कहे जिन मार्ग-प्रभावन, भाग्य-विशेषसु जानहिं जाणे ॥
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावना भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

गौरव भाव धरो मन से मुनि-पुंगव को नित वत्सल कीजे
शीलके धारक भव्य के तारक, तासु निरंतर स्नेह धरीजे ॥
धेनु यथा निजबालक को, अपने जिय छोड़ि न और पतीजे
'ज्ञान' कहे भवि लोक सुनो, जिन वत्सल भाव धरे अघ छीजे ॥
ॐ ह्रीं प्रवचन-वात्सल्य भावनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जाप्य मंत्र :-
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयै नमः,
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नतायै नमः,
ॐ ह्रीं शीलव्रताय नमः,
ॐ ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगाय नमः,
ॐ ह्रीं संवेगाय नमः,
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागाय नमः,
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपसे नमः,
ॐ ह्रीं साधुसमाध्यै नमः,
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरणाय नमः,
ॐ ह्रीं अर्हद् भक्त्यै नमः,
ॐ ह्रीं आचार्यभक्त्यै नमः,
ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्त्यै नमः,
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्त्यै नमः,
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाण्यै नमः,
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावनायै नमः,
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यै नमः

(जयमाला)
षोडश कारण गुण करै, हरै चतुरगति-वास
पाप पुण्य सब नाशके, ज्ञान-भान परकाश॥

दरश विशुद्धि धरे जो कोई, ताको आवागमन न होई
विनय महाधारे जो प्राणी, शिव-वनिता की सखी बखानी ॥
शील सदा दृढ़ जो नर पाले, सो औरनकी आपद टाले
ज्ञानाभ्यास करै मनमाहीं, ताके मोह-महातम नाहीं ॥

जो संवेग-भाव विस्तारे, सुरग-मुकति-पद आप निहारे
दान देय मन हरष विशेषे, इह भव जस परभव सुख पेखे ॥
जो तप तपे खपे अभिलाषा, चूरे करम-शिखर गुरु भाषा
साधु-समाधि सदा मन लावे, तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावे ॥

निश-दिन वैयावृत्य करैया, सो निहचै भव-नीर तिरैया
जो अरहंत-भगति मन आने, सो जन विषय कषाय न जाने ॥
जो आचारज-भगति करै है, सो निर्मल आचार धरै है
बहुश्रुतवंत-भगति जो करई, सो नर संपूरन श्रुत धरई ॥

प्रवचन-भगति करै जो ज्ञाता, लहे ज्ञान परमानंद-दाता
षट् आवश्य काल सों साधे, सोही रत्न-त्रय आराधे ॥
धरम-प्रभाव करे जे ज्ञानी, तिन शिव-मारग रीति पिछानी
वत्सल अंग सदा जो ध्यावै, सो तीर्थंकर पदवी पावै ॥

एही सोलह भावना, सहित धरे व्रत जोय
देव-इन्द्र-नर-वंद्य पद, 'द्यानत' शिव-पद होय ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यः पूणार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

सुन्दर षोडशकारण भावना निर्मल चित्त सुधारक धारे
कर्म अनेक हने अति दुर्द्धर जन्म जरा भय मृत्यु निवारे ॥
दुःख दरिद्र विपत्ति हरे भव-सागर को पार उतारे
'ज्ञान' कहे यही षोडशकारण, कर्म निवारण, सिद्ध सु धारें ॥
(इत्याशीर्वाद - पुष्पांजलिं क्षिपेत्)