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श्रीमहावीर-पूजन
श्रीमत वीर हरें भवपीर, भरें सुखसीर अनाकुलताई
केहरि अंक अरीकरदंक, नमे हरि पंकति मौलि सुआई ॥
मैं तुमको इत थापत हौं प्रभु, भक्ति समेत हिये हरषाई
हे करुणा-धन-धारक देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहि आई ॥
अन्वयार्थ : [श्रीमत] श्रीमान (अंतरंग बहिरंग विभूतियों से युक्त) भगवान् महावीर [भव] संसार के [पीर] दुखों को [हरे] हरने वाले है, निराकुल सुख के [सीर] स्रोत है । उनका [केहरि-अंक] सिंह चिन्ह बताता है कि उन्होने [अरि] शत्रुओं (कर्मों) को [करदंक] नष्ट कर दिया है । [हरि पंकति] इन्द्रों की कतार अपने [मौलि] मुकटों को आप के [सुआई] चरणों में झुका कर [नमे] नमस्कार करते हैं । हे करुणा रुपी धन के धारक भगवन् । मैं आप की भक्ति पूर्वक [हिये] चित्त में हर्षित होकर यहाँ स्थापना करता हूँ । आप यहाँ शीघ्र आइये, आइये, [तिष्ठ] विराजमान होइये ।
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं

क्षीरोदधिसम शुचि नीर, कंचन भृंग भरौं
प्रभु वेगि हरो भवपीर, यातें धार करौं ॥
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ॥
अन्वयार्थ : [क्षीरोदधि] क्षीरसागर का [शुचि] पवित्र [नीर] जल के [सम] समान जल [कंचन] सोने की [भृंग] झारी में [भरौं] भरकर लाया हूँ । हे प्रभु मेरी [भवपीर] सांसारिक दुखों के [वेग] शीघ्र निवारण [यातें] के लिए, यह जल [धार] धारा आपके समक्ष [करौं] प्रवाहित कर रहा हूँ । आप श्री वीर, महावीर, [सन्मति] सुबुद्धि के नायक हैं, वर्धमान! आप की जय हो! आप अत्यंत गुणवान, धैर्यवान और [सन्मतिदायक] अच्छी बुद्धि के दाता हो ।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

मलयागिर चन्दनसार, केसर संग घसौं
प्रभु भवआताप निवार, पूजत हिय हुलसौं ॥
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ॥
अन्वयार्थ : मैं मलयागिरि का [सार] श्रेष्ठ चन्दन केसर के साथ घिसकर लाया हूँ । प्रभु [भव] संसार के [आताप] दुखों को [निवार] नष्ट कर दीजिये । आपकी पूजा करते हुए मेरा हृदय [हुलसौं] प्रसन्न/आनंदित हो रहा है ।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

तंदुल सित-शशिसम शुद्ध, लीनो थार भरी
तसु पुंज धरौं अविरुद्ध, पावौं शिवनगरी ॥
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ॥
अन्वयार्थ : [शशिसम] चंद्रमा के समान [सित] सफ़ेद [तंदुल] चावल थाली में भरकर लाया हूँ । मोक्ष नगरी की प्राप्ति के लिए उनके पुँज आपके समक्ष अर्पित करता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा

सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे
सो मनमथ भंजन हेत, पूजौं पद थारे ॥
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ॥
अन्वयार्थ : [सुरतरु] कल्पवृक्षों के [सुमन] पुष्पों सहित [सुमन] भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्पों से मन से प्रफुल्लित हो कर [मनमथ] कामदेव को [भंजन] नष्ट करने के लिए आपके चरणों की पूजा करता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

रसरज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी
पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी ॥
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ॥
अन्वयार्थ : रस से [रज्जत] भरे/डूबे हुए, [सद्य] ताज़े [सज्जत] बनाये हुए नैवेद्य [मज्जत] मंजे हुए [थार] थाल में भरकर लाया हूँ । [अद्य] आज उन नैवेद्य से [रज्जत] आनंदित होकर आपके चरणों में अर्पित करता हूँ जिसके [भज्जत] सेवन से भूख रुपी [अरी] शत्रु दूर हो जाए ।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा

तमखंडित मंडित नेह, दीपक जोवत हौं
तुम पदतर हे सुखगेह, भ्रमतम खोवत हौं ॥
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ॥
अन्वयार्थ : आप [सुखगेह] सुख के भण्डार है । मैं [तम] अंधकार को [खंडित] नष्ट करने वाले, [नेह] घी / चिकनाई से [मंडित] भरे / सुशोभित दीपक को [जोवत] जलाकर कर [भ्रमतम] मोह रुपी अन्धकार को [खोवत] नष्ट करने के लिए उसे आपके चरणों में अर्पित कर रहा हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

हरिचंदन अगर कपूर, चूर सुगंध करा
तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा ॥
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ॥
अन्वयार्थ : मैं हरिचंदन / श्रेष्ठ चंदन, अगर, कपूर का सुगन्धित चूर्ण आठों कर्म नष्ट करने के लिए आपके चरणों के समक्ष भली प्रकार खेता हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

ऋतु-फल कल-वर्जित लाय, कंचन थाल भरौं
शिव फलहित हे जिनराय, तुम ढिग भेंट धरौं ॥
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र भगवान् ! [रितुफल] ऋतू के, [कल] शरीर/जीव [वर्जित] रहित, फल [कंचन] स्वर्ण के थाल में भरकर मोक्षफल की प्राप्ति के लिए आपके [ढिग] समक्ष अर्पित कर रहा हूँ ।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा

जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरौं
गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरौं ॥
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ॥
अन्वयार्थ : जल से फल तक [वसु] अष्ट द्रव्यों को [हिम] सोने के थाल में [सजि] सजाकर, शरीर और मन में अत्यन्त [मोद] प्रसन्नता धारण कर के आपके गुणों को गा रहा हूँ, मुझे संसार सागर से पार लगा दीजिये, आपकी पूजा करने से पापों का नाश हो जाय (ऐसा वरदान दीजिये)
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

पंचकल्याणक अर्घ्यावली
मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी ॥टेक॥
गरभ साढ़ सित छट्ट लियो थित, त्रिशला उर अघ-हरना
सुर सुरपति तित सेव करी नित, मैं पूजूं भवतरना ॥
मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी, मोहि राखो हो शरणा
अन्वयार्थ : आप [साढ] आषाढ़ [सित] शुक्ला छठ तिथि को गर्भ में आये थे, त्रिशला माता के उदर में पधारे थे, आपका गर्भकल्याणक [अघ] पापों को हरने वाला था ! [सुर] देवता, [सुरपति] इंद्र [तित] आपकी [नित] नित्य [सेव] सेवा करते थे ! मैं आपको [भवतरना] संसार को पार करने के लिए पूजता हूँ । भगवान् आप मुझे अपनी शरण में ले लीजिये । हे भगवन वर्धमान जी मुझे अपनी शरण में रखिये ।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लाषष्ठ्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

जनम चैत सित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन वरना
सुरगिरि सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजौं भवहरना ॥मोहि॥
अन्वयार्थ : आपका जन्म चैत [सित] शुक्ल तेरस को कुन्डलपुर में [कन वरना] स्वर्ण शरीर के वर्ण सहित हुआ था । [सुरगिरि] समेरु पर्वत पर [सुरगुरु] वृहस्पति इंद्र आदि ने आपकी पूजा रचाई थी । मैं भी आपके जन्म-कल्याणक की पूजा, संसार के जन्म मरण के संकट को नष्ट करने के लिए करता हूँ । भगवान् आप मुझे अपनी शरण में ले लीजिये । हे भगवन वर्धमान जी मुझे अपनी शरण में रखिये ।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लात्रयोदश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

मंगसिर असित मनोहर दशमी, ता दिन तप आचरना
नृपति कूल घर पारन कीनों, मैं पूजौं तुम चरना ॥मोहि॥
अन्वयार्थ : मंगसिर [असित] कृष्णा की मनोहर दशमी को निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण करी थी । कूल नामक राजा के घर आपने [पारन] पारणा करी । (देवों ने तो पञ्चाशचर्य कर वंदना कर ली थी) मैं (आपके आहार को समरण करके) आपके चरणों की पूजा करता हूँ । भगवान् आप मुझे अपनी शरण में रख लीजिये । हे भगवन वर्धमान जी मुझे अपनी शरण में रखिये ।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णादशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

शुक्ल दशैं वैशाख दिवस अरि, घाति चतुक क्षय करना
केवल लहि भवि भवसर तारे, जजौं चरन सुख भरना ॥मोहि॥
अन्वयार्थ : वैसाख शुक्ल दशमी को आपने चार घातिया कर्मों का क्षय कर के केवल ज्ञान प्राप्त करके [भवि] भव्य जीवों को [भवसर] संसार सागर से [तारे] पार किया । मैं आपके सुख [भरना] प्रदान करने वाले चरणों की पूजा करता हूँ । भगवान् आप मुझे अपनी शरण में रख लीजिये । हे भगवन वर्धमान जी मुझे अपनी शरण में रखिये ।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

कार्तिक श्याम अमावस शिव तिय, पावापुर तैं वरना
गणफनिवृन्द जजें तित बहुविध, मैं पूजौं भयहरना ॥मोहि॥
अन्वयार्थ : कार्तिक [श्याम] वदि / कृष्ण अमावस्या को पावापुर से मोक्ष मोक्ष [वरना] प्राप्त किया । [गन] गणधर, [फनि] धरणेन्द्र आदि देवों के [वृन्द] समूह ने [तित] वहाँ [बहुविध] अनेक प्रकार से [जजे] पूजा करी, मैं भी भगवन संसार का भय नष्ट करने के लिए आपकी पूजा करता हूँ । भगवान् आप मुझे अपनी शरण में रख लीजिये । हे भगवन वर्धमान जी मुझे अपनी शरण में रखिये ।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाअमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

(जयमाला)
गणधर, अशनिधर, चक्रधर, हलधर, गदाधर, वरवदा
अरु चापधर, विद्यासुधर तिरशूलधर सेवहिं सदा ॥
दुखहरन आनंदभरन तारन, तरन चरन रसाल हैं
सुकुमाल गुण मनिमाल उन्नत भालकी जयमाल हैं ॥
अन्वयार्थ : गणधर, [असनिधर] वज्रधारक/इंद्र, [चक्रधर] चक्रवर्ती, [हलधर] हलधारक/बलदेव/बलभद्र, गदाधारक, [वदा] वक्ताओं में [वर] श्रेष्ठ, [चापधर] धनुष धारक, [विद्यासुधर] विद्याधारी, [तिरशूलधर] त्रिशूलधारी सैदव आपकी सेवा/करते है । आप दुखों को हरने वाले है,आनंद प्रदान करने वाले है, आप [तारन] स्वयं तरने और [तरन] अन्यों को तारने वाले है,आपके चरण बहुत [रसाल] सुंदर है । ऐसे सुकुमाल भगवान् वर्धमान जिनका [भाल] मस्तक गुण रुपी [मनिमाल] मणियों की माला से [उन्नत] ऊँचा हो रहा है,के गुणानुवाद की जयमाला कही जा रही है ।
जय त्रिशलानंदन, हरिकृतवंदन, जगदानंदन चंदवरं
भवतापनिकंदन, तनमननंदन, रहित सपंदन नयन धरं ॥
अन्वयार्थ : हे माता [त्रिशलानंदन] त्रिशला के पुत्र ! [हरिकृतवंदन] इन्द्रों द्वारा वंदित [जगदानंदन] जगत को आनंद प्रदान करने के लिए [चंदवरं] श्रेष्ठ चंद्रमा के समान है (चंद्रमा की चांदनी अत्यंत शीतलता प्रदान करती है), संसार के [ताप] दुखों को [निकंदन] नष्ट करने वाले है, [तनमन] शरीर और मन को [नन्दन] आनंद प्रदान करने वाले है, नेत्रों की पलके [सपंदन] स्पंदन रहित है अर्थात झपकती नहीं है, स्थिर नेत्रों के [धरं] धारक है ।
जय केवलभानु-कला-सदनं, भवि-कोक-विकाशन कंदवनं
जगजीत महारिपु मोहहरं, रजज्ञान-दृगांवर चूर करं
अन्वयार्थ : आपकी जय हो ! आप [केवल] केवल-ज्ञान रुपी [भानु] सूर्य की [कला] किरणों के [सदनं] स्थान है, [भवि] भव्य जीव रुपी [कोक] चकवों, (रात्रि होते ही चकवे चकवी का वियोग हो जाता है सूर्य निकलते ही प्रात; उनका संयोग हो जाता है) और [कंदवनं] कमलों के वन को [विकाशन] प्रफ्फुलित करने के लिए सूर्य के समान हो, [जगजीत]संसार को जीतने वाले, [महारिपु] महान क्षत्रु [मोहहरं] मोहनीय-कर्म को हरने वाले है, [रज] धूल के समान ज्ञानावरण, [दृगांवर] दर्शनावरण और अंतराय कर्म को [चूर] नष्ट करने वाले है ।
गर्भादिक मंगल मंडित हो, दुखदारिद को नित खंडित हो
जग माहिं तुम्हीं सतपंडित हो, तुम ही भवभाव-विहंडित हो
अन्वयार्थ : गर्भादिक पांच [मंगल] कल्याणकों से आप [मंडित] सुशोभित है, दुखों और दरिद्रता को [नित] सदा [खंडित] नाशक है,जगत [माहि] में आप ही [सतपंडित] सच्चे विद्वान् है, आप ही संसारीं भावों (राग,द्वेष,मिथ्यात्व आदि) के [विहंडित] नाशक हैं ।
हरिवंश सरोजन को रवि हो, बलवंत महंत तुम्हीं कवि हो
लहि केवलधर्म प्रकाश कियो, अबलों सोई मारग राजतियो
अन्वयार्थ : [हरिवंश] इन्द्रों के समूह रूपी [सरोजन] कमलों को प्रकाशित करने के लिए आप [रवि] सूर्य के समान है (आपको देखकर इन्द्रों का समूह प्रसन्न हो जाता है ) । आप ही [बलवंत] बलवान, [महंत] महान और [कवि] सर्वज्ञ है!केवलज्ञान [लहि] प्राप्त कर आपने धर्म का प्रकाश किया था । [अबलो] आज तक वही मार्ग [राजतियो] सुशोभित हो रहा है ।
पुनि आप तने गुण माहिं सही, सुरमग्न रहैं जितने सबही
तिनकी वनिता गुनगावत हैं, लय-ताननिसों मनभावत हैं
अन्वयार्थ : [पुनि] और आपके गुणों में अच्छी प्रकार सभी [सुर मग्न] देवता भक्ति भाव से मग्न रहते है । उनकी [वनिता] देवियाँ तरह तरह से आपके गुणों का गान करती है। भिन्न भिन्न लयों से [ताननिसों] और तानों से [मनभावत] मन को प्रसन्न करती है ।
पुनि नाचत रंग उमंग-भरी, तुअ भक्ति विषै पग एम धरी
झननं झननं झननं झननं, सुर लेत तहां तननं तननं
अन्वयार्थ : और वे देवांगनाएँ रंग और उमग से भरी हुई आपकी भक्ति में नाचती हैं, वे अपने झुमरुओं से बंधे पैरों को स्थान स्थान पर चुन चुन कर रखती है जिससे झनन-झनन-झनन-झनन आवाज़ आती है और देवता भिन्न-भिन्न वाद्य यंत्रो को बजते है ।
घननं घननं घनघंट बजै, दृमदं दृमदं मिरदंग सजै
गगनांगन-गर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता
अन्वयार्थ : कही घंटे के बजने की घननं घननं शब्द की आवाज़ आ रही है, कोई मृदंग बजा रहा है तो दृमदं दृमदं दृमदं की आवाज़ आ रही है, [गगनांगन] आकाश के आंगन के [गर्भगता] गर्भ में [सुगता] सारंगी बज रही है जिससे उसमे से [ततता ततता] तरह तरह के शब्द [अतता] उसमे से [वितता] निकल रहे है ।
धृगतां धृगतां गति बाजत है, सुरताल रसालजु छाजत है
सननं सननं सननं नभ में, इकरुप अनेक जु धारि भ्रमें
अन्वयार्थ : [गति] तबले के बजने से धृगतां-धृगतां ध्वनि आ रही है, [सुरताल] देवों की तालिया [रसाल] सुंदर लग रही है । उनके, आकाश में इधर से उधर दौड़ते हुए, छाने से सननं सननं सननं की आवाज़ आ रही है । वे है तो एक रूप किन्तु भिन्न-भिन्न रूप धारण कर कार्य करते रहते है ।
किन्नर सुर बीन बजावत हैं, तुमरो जस उज्जवल गावत हैं
करताल विषै करताल धरैं, सुरताल विशाल जु नाद करैं
अन्वयार्थ : किन्नर जाती के देव बीन बजा कर आपके उज्ज्वल यश को गा रहे हैं । हाथ की ताली बजने से कोई हाथ की ताली की आवाज़ कर रहा है, देवों के हाथ की तालियां विशाल शब्द कर रही है ।
इन आदि अनेक उछाह भरी, सुरभक्ति करें प्रभुजी तुमरी
तुमही जग जीवन के पितु हो, तुमही बिनकारनतें हितु हो
अन्वयार्थ : इस प्रकार अनेक उत्साह से भरे हुए देवता भगवन आपकी भक्ति कर रहे है । हे भगवन आप ही संसार के प्राणियों के पिता हैं, आप ही [बिनकारन] निस्वार्थ संसारी जीवों का कल्याण चाहने वाले है ।
तुमही सब विघ्न विनाशन हो, तुमही निज आनंदभासन हो
तुमही चितचिंतितदायक हो, जगमाहिं तुम्हीं सब लायक हो
अन्वयार्थ : आप ही समस्त विघ्नों का विनाश करने वाले हैं, आप ही [निज आनंदभासन] आत्मा के आनंद लेने वाले हैं आप ही [चितचिंतितदायक] चित में चिंतन करने योग्य है । संसार में आप ही सब के लायक हो । आप से आगे कोई नहीं है ।
तुमरे पन मंगल माहिं सही, जिय उत्तम पुन्य लियो सबही
हमतो तुमरी शरणागत हैं, तुमरे गुन में मन पागत है
अन्वयार्थ : आपके [पन] पांच कल्याणकों से असंख्य जीवों ने उत्तम पुण्य का संचय किया था, हम उनमें शामिल नहीं हो पाये, किन्तु आपकी शरण में आये है तथा हमारा मन आपके गुणों में [पागत] उत्साहित/लीन है ।
प्रभु मो हिय आप सदा बसिये, जबलों वसु कर्म नहीं नसिये
तबलों तुम ध्यान हिये वरतों, तबलों श्रुतचिंतन चित्त रतो
अन्वयार्थ : भक्त भगवान् से प्रार्थना कर रहा कि आप मेरे हृदय में सदा बसिये, जब तक अष्टकर्मों का नाश नहीं हो जाए, तब तक मैं आपका ध्यान अपने हृदय में धारण रखू । तब तक शास्त्रों के चिंतवन में मेरा चित्त लगा रहे ।
तबलों व्रत चारित चाहतु हों, तबलों शुभभाव सुगाहतु हों
तबलों सतसंगति नित्त रहो, तबलों मम संजम चित्त गहो
अन्वयार्थ : मैं जब तक संसार में हूँ, तब तक व्रत और चारित्र की भावना चाहता रहूँ, तब तक मैं शुभ भावों को ही ग्रहण करूँ, (अशुभ भावों से बचा रहूं) तब तक मेरी नित्य सतसंगति रहे, तब तक मेरे चित्त संयम को धारण करने में लगा रहे ।
जबलों नहिं नाश करौं अरिको, शिव नारि वरौं समता धरिको
यह द्यो तबलों हमको जिनजी, हम जाचतु हैं इतनी सुनजी
अन्वयार्थ : जब तक मैं कर्म शत्रु का नाश न कर लूं और जब तक समता धारण करके मोक्ष स्त्री का वरण न कर लूं तब तक भगवन हमे ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि हमे यह सब (सत्संगति, संयम, व्रत, चारित्र, जिनवाणी की सेवा) आपकी सेवा करने का अवसर आदि दीजिये, हमारी इतनी सुन लीजिये ।
(धत्ता)
श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा, नाग नरेशा भगति भरा
'वृन्दावन' ध्यावै विघन नशावै, वाँछित पावै शर्म वरा ॥
अन्वयार्थ : महावीर जिनेन्द्र भगवान्, आपको (सुरेशा) इन्द्र, (नाग) धरणेन्द्र, (नरेशा) मध्य लोक के राजा भक्ति भाव से नमस्कार करते है । वृदावन कवि कहते है कि जो आपका ध्यान करते है उनके विघ्न नष्ट हो जाते है और श्रेष्ठ वांछित (शर्म वरा) मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

श्री सन्मति के जुगल पद, जो पूजैं धरि प्रीत
वृन्दावन सो चतुर नर, लहैं मुक्ति नवनीत ॥
(इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)
अन्वयार्थ : भगवान् महावीर के दोनों चरणों को प्रीती/भक्ति पूर्वक पूजता है वह चतुर नर मुक्ति रूपी नवनीत को प्राप्त करता है । अर्थात उसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है ।