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समुच्चय-महाअर्घ्य
पूजूँ मैं श्री पंच परमगुरु, उनमें प्रथम श्री अरहन्त ।
अविनाशी अविकारी सुखमय, दूजे पूजूँ सिद्ध महंत ॥
तीजे श्री आचार्य तपस्वी, सर्व साधु नायक सुखधाम ।
उपाध्याय अरु सर्व साधु प्रति, करता हूँ मैं कोटि प्रणाम ॥
करूँ अर्चना जिनवाणी की, वीतराग विज्ञान स्वरूप ।
कृतिमाकृतिम सभी जिनालय, वन्दूँ अनुपम जिनका रूप ॥
पंचमेरु नन्दीश्वर वन्दूँ, जहाँ मनोहर हैं जिनबिम्ब ।
जिसमें झलक रहा है प्रतिपल, निज ज्ञायक का ही प्रतिबिम्ब ॥
भूत भविष्यत् वर्तमान की, मैं पूजूँ चौबीसी तीस ।
विदेह क्षेत्र के सर्व जिनेन्द्रों, के चरणों में धरता शीश ॥
तीर्थंकर कल्याणक वन्दूँ, कल्याणक अरु अतिशय क्षेत्र ।
कल्याणक तिथियाँ मैं चाहूँ, और धार्मिक पर्व विशेष ॥
सोलहकारण दशलक्षण अरु, रत्नत्रय वन्दूँ धर चाव ।
दानमयी जिनधर्म अनूपम, अथवा वीतरागता भाव ॥
परमेष्ठी का वाचक है जो, ॐकार वन्दूँ मैं आज ।
सहस्रनाम की करूँ अर्चना, जिनके वाच्य मात्र जिनराज ॥
जिसके आश्रय से ही प्रगटें, सभी पूज्यपद दिव्य ललाम ।
ऐसे निज ज्ञायक स्वभाव की, करूँ अर्चना मैं अभिराम ॥
(दोहा)
भक्तिमयी परिणाम का, अद्भुत अर्घ्य बनाय ।
सर्व पूज्य पद पूजहूँ, ज्ञायक दृष्टि लाय ॥

ॐ ह्रीं श्री अरहन्तसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो, द्वादशांगजिनवाणीभ्यो उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्माय, दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रेभ्य: त्रिलोकसम्बन्धी कृत्रिमाकृत्रिम जिनचैत्य चैत्यालयेभ्यो पंचमेरू अशीतिचैत्यालयेभ्यो, नन्दीश्वर द्वीपस्थद्विपंचाशज्जिनालयेभ्यो, श्री सम्मेदशिखर, गिरनारगिरि, कैलाशगिरि, चम्पापुर, पावापुर-आदिसिद्धक्षेत्रेभ्यो, अतिशयक्षेत्रेभ्यो, विदेहक्षेत्र स्थित सीमंधरादि विद्यमान विंशति तीर्थंकरेभ्यो, ऋषभादि चतुर्विंशति-तीर्थंकरेभ्यो, भगवज्जिन सहस्राष्ट नामेभ्येश्च अनर्घ्यपद प्राप्तये महाअर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा