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आ.अमितगति कृत, हिंदी पद्यानुवाद - युगलजी
सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१॥
((अमितगति आचार्य कृत; हिंदी पद्यानुवाद पं रविन्द्रजी))

मेरा आतम सब जीवों पर, मैत्री भाव करे
गुण-गण मंडित भव्य जनों पर, प्रमुदित भाव रहे ॥
दीन दुखी जीवों पर स्वामी, करुणा भाव करे
और विरोधी के ऊपर नित, समता भाव धरे ॥१॥
अन्वयार्थ : हे भगवन् ! मेरी आत्मा हमेशा संपूर्ण जीवों में मैत्रीभाव, गुणीजनों में हर्षभाव, दु:खी जीवों के प्रति दयाभाव और विपरीत व्यवहार करने वाले शत्रुओं के प्रति माध्यस्थभाव को धारण करे।
शरीरत: कर्तुमनंतशक्तिं विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम्
जिनेंद्र कोषादिव खड्गयष्टिं, तव प्रसादेन ममास्तु शक्ति: ॥२॥
तुम प्रसाद से हो मुझमें वह, शक्ति नाथ जिससे
अपने शुद्ध अतुल बलशाली, चेतन को तन से ॥
पृथक कर सकूं पूर्णतया मैं, ज्यों योद्धा रण में
खींचे निज तलवार म्यान से, रिपु सन्मुख क्षण में ॥२॥
अन्वयार्थ : हे जिनेंद्रदेव ! म्यान से तलवार को निकालने के समान दोषों से रहित और अनंत शक्तिमान इस आत्मा को शरीर से पृथक् करने में आपके प्रसाद से मुझे शक्ति प्राप्त होवे।
दु:खे सुखे वैरिणि बंधुवर्गे, योगे वियोगे भवने वने वा
निराकृताशेष-ममत्व-बुद्धे:, समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ ॥३॥
छोडा है सब में अपनापन, मैनें मन मेरा
बना रहे नित सुख में दुख में, समता का डेरा ॥
शत्रु मित्र में मिलन विरह में, भवन और वन में
चेतन को जाना न पडे फिर, नित नूतन तन में ॥३॥
अन्वयार्थ : हे नाथ ! संपूर्ण वस्तु में ममत्व बुद्धि से रहित मेरा मन दु:ख-सुख में, बैरी और बंधुजनों में, संयोग-वियोग में अथवा महल में या वन में निरंतर ही समता भाव धारण करे ।
मुनीश! लीनाविव कीलिताविव, स्थिरौ निखाताविव विम्बिताविव
पादौ त्वदीयौ मम तिष्ठतां सदा, तमो-धुनानौ हृदि दीपिकाविव ॥४॥
अंधकार नाशक दीपक सम, अडिग चरण तेरे
अहो विराजे रहें हमेशा, उर में ही मेरे ॥
हो मुनीश वे घुले हुए से या कीलित जैसे
अथवा खुदे हुए से हों या प्रतिबिंबित जैसे ॥४॥
अन्वयार्थ : हे मुनियों के ईश ! आपके दोनों चरण-कमल मेरे हृदय में हमेशा के लिये लीन के समान, कीलित हुए के समान, गढे हुए के समान, प्रतिबिंबित हुये के समान और अंधकार को दूर करते हुये दीपक के समान स्थित हो जावें ।
एकेन्द्रियाद्या यदि देव! देहिन:, प्रमादत: संचरता इतस्तत:
क्षता: विभिन्ना मिलिता निपीडितास्-तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥५॥
हो प्रमादवश जहां तहां यदि, मैनें गमन किया
एकेंद्रिय आदिक जीवों को, घायल बना दिया ॥
प्रथक किया या भिडा दिया हो, अथवा दबा दिया
मिथ्या हो दुष्कृत वह मेरा, प्रभुपद शीश किया ॥५॥
अन्वयार्थ : हे भगवन् ! इधर-उधर संचार करते हुये एकेंद्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों को यदि मैने प्रमाद से क्षति पहुंचाई हो (नष्ट किया हो), अलग-अलग किया हो, मिला दिया हो या दु:ख दिया हो तो वह मेरा असत् व्यवहार मिथ्या हो ।
विमुक्तिमार्गप्रतिकूलवर्तिना:, मया कषायाक्षवशेन दुर्धिया
चारित्र शुद्धेर्यदकारि लोपनं, तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो ॥६॥
चल विरुद्ध शिवपथ के मैने, जो दुर्मति होके
होके वश में दुष्ट इन्द्रियों, और कषायों के ॥
खंडित की जो चरित शुद्धि वह, दुष्कृत निष्फल हो
मेरा मन भी दुर्भावों को तजकर निर्मल हो ॥६॥
अन्वयार्थ : मोक्षमार्ग के प्रतिकूल चलने वाले दुर्बुद्धि से मैंने कषाय और इंद्रियों के आधीन होकर चारित्र की शुद्धि का जो लोप किया है हे प्रभो ! वह मेरा सब दुष्कृत मिथ्या होवे ।
विनिन्दनालोचनगर्हणैरहं, मनोवच: कायकषायनिर्मितम्
निहन्मि पापं भवदु:खकारणं, भिषग्विषं मंत्रगुणैरिवाखिलम् ॥७॥
मंत्र शक्ति से वैद्य उतारें, ज्यों अहिविष सारा
त्यों अपनी निंदा गर्हा व, आलोचन द्वारा ॥
मन वच तन से या कषाय से, संचित अघ भारी
भव दुख कारण नष्ट करूं मैं, होकर अविकारी ॥७॥
अन्वयार्थ : मन, वचन, काय और कषाय से निर्मित चतुर्गति दु:ख के कारण ऐसे सर्व पापों का मैं मंत्र गुणों के द्वारा जैसे वैद्य विष को दूर कर देता है वैसे नाश करता हूं ।
अतिक्रमं यद्विमतेर्व्यतिक्रमं, जिनातिचारं सुचरित्र-कर्मण:
व्यधामनाचारमपि प्रमादत:, प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये ॥८॥
धर्म क्रिया में मुझे लगा जो, कोइ अघकारी
अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार या अनाचार भारी ॥
कुमति प्रमाद निमित्तक उसका, प्रतिक्रमण करता
प्रायश्चित्त बिना पापों को कौन कहाँ धरता ॥८॥
अन्वयार्थ : हे जिनराज ! सम्यक् चारित्र में जो मोह और प्रमाद से मैंने अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार किया है, उस दोष की शुद्धि के लिये मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ।
क्षतिं मन:-शुद्धि-विधेरतिक्रमं, व्यतिक्रमं शील-व्रतेर्विलङ्घनम्
प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं, वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ॥९॥
चित्त शुद्धि की विधि की क्षति को, अतिक्रमण कहते
शील बाढ के उल्लंघन को, व्यतिक्रमण कहते ॥
त्यक्त विषय के सेवन को प्रभु, अतिचार कहते
विषयासक्तपने को जगमें अनाचार कहते ॥९॥
अन्वयार्थ : हे प्रभो ! मन की शुद्धि की हानि को अतिक्रम, शील की बाढ़ का उल्लंघन कर देने को व्यतिक्रम, विषयों में प्रवृत्ति करने को अतिचार और इन विषयों में ही अति आसक्ति होने को अनाचार ऐसा-आपके शासन में कहते हैं ।
यदर्थमात्रापदवाक्यहीनं, मया प्रमादाद्यदि किञ्चनोक्तम्
तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी, सरस्वती केवलबोधलब्धिम् ॥१०॥
शास्त्र पठन में मेरे द्वारा, यदि जो कहीं कहीं
प्रमाद से कुछ अर्थ वाक्य पद मात्रा छूट गई ॥
सरस्वती मेरी उस त्रुटि को कृप्या क्षमा करे
और मुझे कैवल्यधाम में माँ अविलम्ब धरे ॥१०॥
अन्वयार्थ : मैंने प्रमाद से जो कुछ भी अर्थ, मात्रा, पद और वाक्य से हीन कहा हो उस कमी को क्षमा करके सरस्वती देवी तुम मुझे केवलज्ञान-लब्धि प्रदान करो ।
बोधि: समाधि: परिणामशुद्धि:, स्वात्मोपलब्धि: शिवसौख्यसिद्धि:
चिन्तामणिं चिन्तितवस्तुदाने, त्वां वंद्यमानस्य ममास्तु देवि! ॥११॥
वांछित फलदात्री चिंतामणि सदृश मात! तेरा
वंदन करने वाले मुझको मिले पता मेरा ।
बोधि, समाधि, विशुद्ध भावना, आत्मसिद्धि मुझको
मिले और मैं पा जाऊं माँ! मोक्ष-महासुख को ॥११॥
अन्वयार्थ : हे सरस्वती देवि ! चिंतित वस्तु को देने में चिंतामणि स्वरूप ऐसी आपकी वन्दना करने वाले मुझे रत्नत्रय की प्राप्ति, समाधि, परिणामों की शुद्धि, अपने शुद्ध आत्मा की प्राप्ति और मोक्षसुख की सिद्धि होवे ।
य: स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दै, र्य: स्तूयते सर्वनराऽमरेन्द्रै:
यो गीयते वेदपुराणशास्त्रै:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१२॥
सब मुनिराजों के समूह भी, जिनका ध्यान करें
सुरों नरों के सारे स्वामी, जिन गुणगान करें ॥
वेद पुराण शास्त्र भी जिनके, गीतों के डेरे
वे देवों के देव विराजें, उर में ही मेरे ॥१२॥
अन्वयार्थ : जिनका सर्व मुनिनाथ स्मरण करते हैं, जिनकी सर्व मनुष्य और सुरेंद्रगण स्तुति करते हैं, जिनका वेद, पुराण और शास्त्रों में वर्णन किया जाता है, वे देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान होवें ।
यो दर्शनज्ञानसुखस्वभाव:, समस्त-संसार-विकारबाह्य:
समाधिगम्य: परमात्मसञ्ज्ञ:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१३॥
जो अनंत द्रग ज्ञान स्वरूपी सुख स्वभाव वाले
भव के सभी विकारों से भी जो रहे निराले ॥
जो समाधि के विषयभूत हैं परमातम नामी
वे देवों के देव विराजें मम उर में स्वामी ॥१३॥
अन्वयार्थ : जो अनंतदर्शन, अनंतज्ञान और अनंत सुख-स्वभावी हैं, संपूर्ण संसार के विकारों से बहिर्भूत हैं, योगियों के ध्यान में ही जाने जाते हैं और 'परमात्मा' इस नाम को प्राप्त है वे देवाधिदेव मेरे हृदय में निवास करें ।
निषूदते यो भवदु:खजालं, निरीक्षते यो जगदन्तरालम्
योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीय:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१४॥
जो भव दुख का जाल काटकर, उत्तम सुख वरतें
अखिल विश्व के अंत:स्थल का अवलोकन करते ॥
जो निज में लवलीन हुए प्रभू ध्येय योगियों के
वे देवों के देव विराजें मम उर के होके ॥१४॥
अन्वयार्थ : जिन्होंने भवदु:खों के समूह को नष्ट कर दिया है, जो सर्व-जगत के अंतराल को देखते हैं, जो अध्यात्म ध्यान में रत हुए योगियों के द्वारा देखे जाते हैं, वे देवाधिदेव मेरे हृदय में निवास करें ।
विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो, यो जन्ममृत्युव्यसनाद्यतीत:
त्रिलोकलोकी विकलोऽकलङ्क:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१५॥
मोक्ष मार्ग के जो प्रतिपादक, सब जग उपकारी
जन्म मरण के संकटादि से, रहित निर्विकारी ॥
त्रिलोकदर्शि दिव्यशरीरी, सब कलंक नाशी
वे देवों के देव विराजें मम उर में अविनाशि ॥१५॥
अन्वयार्थ : जो मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने वाले हैं, जो जन्म-मृत्यु के दु:ख से छूट चुके हैं, तीनों-लोकों को देखने वाले हैं, शरीर-रहित हैं और कर्म-कलंक रहित हैं वे देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान रहें ।
क्रोडीकृताऽशेष-शरीरिवर्गा, रागादयो यस्य न सन्ति दोषा:
निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपाय:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१६॥
आलिंगित हैं जिनके द्वारा, जग के सब प्राणी
वे रागादिक न जिनके, सर्वोत्तम ध्यानी ॥
इन्द्रिय रहित परम ज्ञानी जो, अविचल अविनाशी
वे देवों के देव विराजें मम उर के ही वासी ॥१६॥
अन्वयार्थ : जिन्होंने सर्व संसारी जीवों को अपने अधीन कर रखा है, ऐसे ये राग-द्वेष आदि दोष जिनके नहीं हैं, जो इंद्रियों से रहित ज्ञानस्वरूप और दु:खरहित हैं, वे देवदेव मेरे हृदय में निवास करें ।
यो व्यापको विश्वजनीनवृत्ते:, सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्ध:।
ध्यातो धुनीते सकलं विकारं, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१७॥
जग कल्याणी परिणति से जो, व्यापक गुण राशी
भावी सिद्ध विबुद्ध जिनेश्वर, करुण पाश नाशी ॥
जिसने ध्येय बनाया उसके, सकल दोष हारी
वे देवों के देव विराजें, मम उर में अविकारी ॥१७॥
अन्वयार्थ : जो संसार के संपूर्ण व्यापारों में व्यापक हैं, सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, कर्मबंध से रहित हैं और जिनका ध्यान करने से संपूर्ण विभाव भाव नष्ट हो जाते हैं, वे देवाधिदेव मेरे हृदय में निवास करें ।
न स्पृश्यते कर्मकलङ्कदोषै:, यो ध्वान्तसङ्घैरिव तिग्मरश्मि:
निरञ्जनं नित्यमनेकमेकं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१८॥
कर्म कलंक दोष भी जिनको, कभी न छू पाते
ज्यों रवि के सन्मुख न कभी भी, तम समूह आते ॥
नित्य निरंजन जो अनेक हैं, और एक भी हैं
उन अरहंत देव की मैनें सुखद शरण ली है ॥१८॥
अन्वयार्थ : जो अंधकार-समूह से स्पर्शित नहीं हुये सूर्य के समान कर्मरूपी कलंक दोषों से स्पर्शित नहीं होते हैं, कर्मांजन से रहित हैं, नित्य हैं,अनेक हैं और एक हैं उन सच्चे-देव की मैं शरण लेता हूँ ।
विभासते यत्र मरीचिमाली, न विद्यमाने भुवनावभासी
स्वात्मस्थितं बोधमयप्रकाशं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१९॥
जगत प्रकाशक जिनके रहते सूर्य प्रभाधारी,
किंचित भी ना शोभा पाता जिनवर अविकारी ॥
निज आतम में हैं जो सुस्थित, ज्ञान प्रभाशाली
उन अरहंत देव की मैनें सुखद शरण पा ली ॥१९॥
अन्वयार्थ : जिनके विद्यमान रहने पर सूर्य भी शोभायमान नहीं होता है, जो अपनी आत्मा में ही स्थित हैं, ज्ञानरूप प्रकाश से युक्त हैं, उन आप्त देव की मैं शरण लेता हूँ ।
विलोक्यमाने सति यत्र विश्वं, विलोक्यते स्पष्टमिदं विविक्तम्
शुद्धं शिवं शान्तमनाद्यनन्तं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥२०॥
जिनका दर्शन पा लेने पर, प्रकट झलक आता
अखिल विश्व से भिन्न आत्मा, जो शाश्वत ज्ञाता
शुद्ध शांत शिवरूप आदि या अंत विहीन बली
उन अरहंत देव की मुझको अनुपम शरण मिली ॥२०॥
अन्वयार्थ : जिनको देख लेने पर यह लोक-अलोक से भेदरूप जगत् स्पष्ट देख लिया जाता है, जो शुद्ध हैं, शांत हैं, शिव हैं, अनादि और अनंत हैं, उन सच्चे देव की मैं शरण लेता हूँ ।
येन क्षता मन्मथमानमूर्छा, विषादनिद्राभय-शोक-चिन्ता:
क्षतोऽनलेनेव तरुप्रपञ्चस्, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥२१॥
जो मद मदन ममत्व शोक भय, चिंता दुख निद्रा
जीत चुके हैं निज पौरुष से, कहती जिनमुद्रा ॥
ज्यों दावानल तरु समूह को शीघ्र जला देता
उन अरहंत देव की मैं भी सुखद शरण लेता ॥२१॥
अन्वयार्थ : जैसे अग्नि से वृक्षों का समूह जल जाता है वैसे ही जिन्होंने काम, मान, मूर्च्छा, विषाद, निद्रा, भय, शोक और चिंता को नष्ट कर दिया है उन आप्तदेव की मैं शरण लेता हूँ ।
न संस्तरोऽश्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मित:
यतो निरस्ताक्षकषाय-विद्विष:, सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मत: ॥२२॥
ना पलाल पाषाण न धरती, हैं संस्तर कोई
ना विधि पूर्वक रचित काठ का पाटा भी कोई ॥
कारण इन्द्रिय वा कषाय रिपु, जीते जो ध्यानी
उसका आतम ही शुचि संस्तर माने सब ज्ञानी ॥२२॥
अन्वयार्थ : साधु के लिये संस्तर न पत्थर की शिला है, न घास-पुवाल है, न पृथ्वी है और विधान से बनाया गया पाटा भी नहीं है क्योंकि बुद्धिमानों ने इंद्रिय और कषायों को जीतने वाला आत्मा ही अत्यंत निर्मल माना है ।
न संस्तरो भद्र! समाधिसाधनं, न लोकपूजा न च सङ्घमेलनम्
यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं, विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनाम् ॥२३॥
ना समाधि का साधन संस्तर, नहीं लोकपूजा
ना मुनिसंघों का सम्मेलन, या कोइ दूजा ॥
इसीलिये हे भद्र सदा तुम, आतम लीन बनों
तज बाहर की सभी वासना, कुछ ना कहो सुनो ॥२३॥
अन्वयार्थ : हे भद्र ! ये संस्तर समाधि के साधन नहीं हैं, न लोक पूजा और न संघ का संमेलन ही समाधि का साधन है, जिस कारण ऐसा है उसी कारण तुम सदा अध्यात्म में लीन होवो, सभी बाह्य वासना को छोड़कर ।
न सन्ति बाह्या मम केचनार्था, भवामि तेषां न कदाचनाहम्
इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्यं, स्वस्थ: सदा त्वं भव भद्र! मुक्त्यै ॥२४॥
पर पदार्थ कोई ना मेरे, थे होंगे ना हैं
और कभी उनका त्रिकाल में हो पाऊँगा मैं ॥
ऐसा निर्णय करके पर के, चक्कर को छोडो
स्वस्थ रहो नित भद्र मुक्ति से तुम नाता जोडो ॥२४॥
अन्वयार्थ : बाहरी कोई भी पदार्थ मेरे नहीं हैं और मैं भी उन किसी का नहीं हूँ ऐसा निश्चय करके हे भव्य ! तुम बाह्य पदार्थों को छोड़कर मुक्ति प्राप्ति के लिये सदा अपने आत्मा में स्थित होवो ।
आत्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्, त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्ध:
एकाग्रचित्त: खलु यत्र तत्र, स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम् ॥२५॥
तुम अपने में अपना दर्शन, करने वाले हो
दर्शन ज्ञानमयी शुद्धातम, पर से न्यारे हो ॥
जहाँ कहीं भी बैठे मुनिवर, अविचल मनधारी
वहीं समाधी लगे उनकी जो, उनको अति प्यारी ॥२५॥
अन्वयार्थ : आत्मा को आत्मा में देखते हुये तुम दर्शन ज्ञानमय हो, विशुद्ध हो क्योंकि जिस समय साधु एकाग्रचित्त होते हैं, उस समय समाधि को प्राप्त कर लेते हैं ।
एक: सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मल: साधिगमस्वभाव:
बहिर्भवा: सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वता: कर्मभवा: स्वकीया: ॥२६॥
नित एकाकी मेरा आतम, नित अविनाशी है
निर्मल दर्शन ज्ञान स्वरूपी, स्वपर प्रकाशी है ॥
देहादिक या रागादिक जो, कर्म जनित दिखते
क्षण भंगुर हैं वे सब मेरे, कैसे हो सकते ॥२६॥
अन्वयार्थ : मेरा आत्मा सदा अकेला है, अविनाशी है, कर्ममल से रहित है और ज्ञान-स्वभावी है अन्य सभी बाहरी भाव या पदार्थ अविनाशी नहीं हैं (क्षणिक हैं) और ये अपने द्वारा संचित कर्म के निमित्त से ही हुये हैं ।
यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्द्ध, तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रैः।
पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपा, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ॥२७॥
जहाँ देह से नहीं एकता, तो जीवन साथी
वहाँ मित्र सुत वनिता कैसे हो मेरे साथी ॥
इस काया से ऊपर से यदि, चर्म निकल जाए
रोम छिद्र तब कैसे इसके बीच ठहर पाए ॥२७॥
अन्वयार्थ : जिसका शरीर के साथ भी ऐक्य नहीं है उसका पुत्र, स्त्री, मित्रों से कैसा ऐक्य ? क्योंकि चमड़े को अलग कर देने पर शरीर में रोमछिद्र कैसे रहेंगे ?
संयोगतो दु:खमनेकभेदं, यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी
ततस्त्रिधासौ परिवर्जनीयो, यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् ॥२८॥
भव वन में संयोगों से यह, संसारी प्राणी
भोग रहा है कष्ट अनेकों कह न सके वाणी ॥
अत: त्याज्य है मन वच तन से वह संयोग सदा
उसको जिसको इष्ट हितैषी मुक्ति विगत विपदा ॥२८॥
अन्वयार्थ : यह संसारी प्राणी जिस हेतु से इस जन्मरूपी वन में संयोग से अनेक प्रकार के दु:ख भोगता है, उसी कारण आत्मा से संबंधित सुख को प्राप्त करने के इच्छुक को वह संयोग मन, वचन, काय से छोड़ देना चाहिये ।
सर्वं निराकृत्य विकल्प-जालं, संसार-कान्तार- निपातहेतुम्
विविक्तमात्मानमवेक्ष्य-माणो, निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ॥२९॥
भव वन में पडने के कारण, हैं विकल्प सारे
उनका जाल हटाकर पहुँचो शिवपुर के द्वारे ॥
अपने शुद्धातम का दर्शन तुम करते करते
लीन रहो परमात्म तत्त्व में दु:खो को हरते ॥२९॥
अन्वयार्थ : संसाररूपी वन में गिराने में कारण ऐसे संपूर्ण विकल्प समूह को दूर करके अपनी आत्मा को पर से भिन्न देखने वाले, तुम परमात्म तत्त्व में लीन हो जाओ ।
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥३०॥
किया गया जो कर्म पूर्व में, स्वयं जीव द्वारा
उसका ही फल मिले शुभाशुभ, अन्य नहीं चारा
औरों के कारण यदि प्राणी, सुख दुख को पाता
तो निज कर्म अवश्य ही, निष्फल हो जाता ॥३०॥
अन्वयार्थ : पहले इस जीव ने कर्म जो स्वयं किये हैं उन्हीं का अच्छा या बुरा फल प्राप्त करता है यदि पर के द्वारा दिये गये फल को भोगता है तब तो अपने द्वारा किये हुये कर्म व्यर्थ हो जावेंगे ?
निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन
विचारयन्नेव-मनन्यमानस:, परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम् ॥३१॥
अपने अर्जित कर्म बिना इस प्राणी को जग में
कोइ अन्य न सुख दुख देता, कहीं किसी डग पे ॥
ऐसा अडिग विचार बनाकर, तुम निज को मोडो
अन्य मुझे सुख दुख देता है ऐसी हठ छोडो ॥३१॥
अन्वयार्थ : प्राणियों को अपने द्वारा अर्जित कर्म को छोड़कर कोई भी किसी को कुछ नहीं देता है; ऐसा विचार करते हुये अन्य में मन न लगाकर दूसरा देता है ऐसी बुद्धि को छोड़ो ।
यै: परमात्माऽमितगतिवन्द्य:, सर्वविविक्तो भृशमनवद्य:
शश्वदधीतो मनसि लभन्ते, मुक्तिनिकेतं विभववरं ते ॥३२॥
परमातम सबसे न्यारे हैं, अतिशय अविकारी
संत अमितगति से वंदित हैं, शम दम समधारी ॥
जो भी भव्य मनुज प्रभुवर को, नित उर में लाते
वे निश्चित ही उत्तम वैभव मोक्ष महल पाते ॥३२॥
अन्वयार्थ : जो अमितगति से वंदनीय, सर्व पर-पदार्थों से भिन्न, अत्यंत निर्दोष, परमात्मा का हमेशा मन में चिंतवन करते हैं, वे वैभव से परिपूर्ण मुक्ति-स्थान को प्राप्त कर लेते हैं ।
इति द्वात्रिंशतावृत्तै:, परमात्मानमीक्षते
योऽनन्यगत-चेतस्को, यात्यसौ पदमव्ययम् ॥३३॥
(दोहा)
जो ध्याता जगदीश को, लेय पद बत्तीस
अचल चित्त होकर वही, बने अचल पद ईश ॥३३॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार इन बत्तीस पद्यों के द्वारा जो एकाग्रचित्त होकर परमात्मा का अवलोकन करता है, वह कभी नष्ट नहीं होने वाले अविनाशी पद को प्राप्त कर लेता है ।