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श्री-गोम्टेश्वर-स्तुति
विसट्ट कंदोट्ट दलाणुयारं, सुलोयणं चंद समाण तुण्डं
घोणाजियं चम्पय पुप्फसोहं, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥१॥
अन्वयार्थ : [सुलोयणं] जिनके उत्तम नेत्र [कंदोट्ट] नील कमल के [दलाणुयारं] पत्र (पंखुड़ी) के अनुशरण को [विसट्ट] छोड़ने वाले अर्थात उससे भी सुन्दर हैं, [तुण्डं] मुख [चंद-समाण] चन्द्रमा के समान सौम्य तथा [घोणा] नासिका [चम्पय पुप्फसोहं] चम्पक पुष्प की शोभा को [जियं] जीतती है (पराजित करती है), [तं] उन [गोम्मटेसं] गोम्मट स्वामी को [णिच्चं] (मैं) नित्य [पणमामि] प्रणाम करता हूँ ॥१॥
अच्छाय-सच्छं जलकंत गंडं, आबाहु दोलंत सुकण्ण पासं
गइंद-सुण्डुज्जल बाहुदण्डं, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥२॥
अन्वयार्थ : [जलकंत गंडं] जल के समान स्वच्छ कपोल [सुकण्ण पासं] कर्णपाश [आबाहु दोलंत] कंधो तक दोलयित हैं, [बाहुदण्डं] दोनों भुजाएँ [गइंद-सुण्डुज्जल] गजराज की सूंड के समान सुन्दर लम्बी हैं, [तं] उन [अच्छाय-सच्छं] आकाश के समान निर्मल [गोम्मटेसं] गोम्मट स्वामी को [णिच्चं] (मैं) नित्य [पणमामि] प्रणाम करता हूँ ॥२॥
सुकण्ठ-सोहा जियदिव्व संखं, हिमालयुद्दाम विसाल कंधं
सुपेक्ख णिज्जायल सुट्ठुमज्झं, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥३॥
अन्वयार्थ : [सुकण्ठ-सोहा] अद्वितीय कंठ की शोभा से जिन्होंने [दिव्व संखं] दिव्य (अनुपम) शंख की शोभा को [जिय] जीत लिया है, [यस्य कंधं] जिनका वक्ष स्थल [हिमालयुद्दाम] हिमालय की भाँति उन्नत [च] और [विसाल] विशाल है, [यस्य] जिनका [सुट्ठुमज्झं] सुन्दर मध्यभाग/ कटिप्रदेश [सुपेक्ख णिज्जायल] सम्यक् अवलोकनीय और अचल है, [तं] उन [गोम्मटेसं] गोम्मट स्वामी को [णिच्चं] (मैं) नित्य [पणमामि] प्रणाम करता हूँ ॥३॥
विज्झाय लग्गे पविभासमाणं, सिहामणि सव्व-सुचेदियाणं
तिलोय-संतोसय-पुण्णचंदं, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥४॥
अन्वयार्थ : [विज्झाय लग्गे] विंध्यगिरी के अग्रभाग में [पविभासमाणं] जो प्रकाशमान हो रहे हैं, [सव्व-सुचेदियाणं] सभी सुन्दर चैत्यों के [सिहामणि] शिखामणि तथा [तिलोय-संतोसय] तीन लोक के जीवों को आनंद देने में [पुण्णचंदं] जो पूर्ण चन्द्रमा हैं, [तं] उन [गोम्मटेसं] गोम्मट स्वामी को [णिच्चं] (मैं) नित्य [पणमामि] प्रणाम करता हूँ ॥४॥
लया-समक्कंत-महासरीरं, भव्वावलीलद्ध सुकप्परुक्खं
देविंदविंदच्चिय पायपोम्मं, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥५॥
अन्वयार्थ : [लया-समक्कंत] लताओं से आक्रांत (जिनका) [महासरीरं] विशाल शरीर है, [भव्वावलीलद्ध] जो भव्य समूह के लिए प्राप्त [सुकप्परुक्खं] कल्पवृक्ष के समान है तथा [देविंदविंदच्चिय] देवेंद्रों के द्वारा अर्चित जिनके [पायपोम्मं] पाद-पद्म (चरण कमल) हैं, [तं] उन [गोम्मटेसं] गोम्मट स्वामी को [णिच्चं] (मैं) नित्य [पणमामि] प्रणाम करता हूँ ॥५॥
दियंबरो जो ण भीइ जुत्तो, ण चांबरे सत्तमणो विसुद्धो
सप्पादि जंतुप्फुसदो ण कंपो, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥६॥
अन्वयार्थ : [दियंबरो जो] जो दिगंबर हैं, [च] और [ण भीइ जुत्तो] भययुक्त नहीं हैं अर्थात निर्भय हैं, [ण च अंबरे] और न वस्त्रादि में [सत्तमणो] आसक्त मन वाले हैं [विसुद्धो] विशुद्ध हैं, [सप्पादि जंतुप्फुसदो] सर्पादि जंतुओं से स्पर्श होने पर भी [ण कंपो] कम्पायमान नहीं हैं अर्थात अडोल-अकम्प हैं, [तं] उन [गोम्मटेसं] गोम्मट स्वामी को [णिच्चं] (मैं) नित्य [पणमामि] प्रणाम करता हूँ ॥६॥
आसां ण जो पोक्खदि सच्छदिट्ठी, सोक्खे ण वंछा हयदोसमूलं
विराय भावं भरहे विसल्लं, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥७॥
अन्वयार्थ : [जो सच्छदिट्ठी] जो स्वच्छ (सम) दृष्टि होने से [आसां] आशा तृष्णा को [ण पोक्खदि] पुष्ट नहीं करते [हयदोसमूलं] दोषों का मूल (मोह) नाश करने में [सोक्खे] जिनकी सुख में [ण वंछा] वांछा नहीं और [विराय भावं] विराग भाव होने से [भरहे] भरत में [विसल्लं] जो निशल्य हैं, [तं] उन [गोम्मटेसं] गोम्मट स्वामी को [णिच्चं] (मैं) नित्य [पणमामि] प्रणाम करता हूँ ॥७॥
उपाहि मुत्तं धण-धाम-वज्जियं, सुसम्मजुत्तं मय-मोह-हारयं
वस्सेय पज्जंतमुववास-जुत्तं, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ॥८॥
अन्वयार्थ : [उपाहि मुत्तं] जो उपाधि से रहित हैं, [धण-धाम] धन मकान आदि से [वज्जियं] रहित हैं, [सुसम्मजुत्तं] समता भाव सहित हैं तथा [मय-मोह-हारयं] मद मोह को हरने (नष्ट करने) वाले हैं, [वस्सेय पज्जंतं] एक वर्ष पर्यन्त [उववास-जुत्तं] उपवास धारण करने वाले, [तं] उन [गोम्मटेसं] गोम्मट स्वामी को [णिच्चं] (मैं) नित्य [पणमामि] प्रणाम करता हूँ ॥८॥