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महावीराष्टक-स्तोत्र
पं भागचंदजी कृत, हिंदी अनुवाद डा. वीरसागर
यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचित: ।
समं भान्ति ध्रौव्य-व्ययजनि-लसंतोऽन्तरहिता: ॥
जगत्साक्षी मार्ग-प्रकटनपरो भानुरिव यो ।
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥१॥
जिनके चेतन में दर्पणवत सभी चेतनाचेतन भाव
युगपद झलकें अंतरहित हो ध्रुव-उत्पाद-व्ययात्मक भाव
जगत्साक्षी शिवमार्ग प्रकाशक जो हैं मानो सूर्य-समान
वे तीर्थंकर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥१॥
अन्वयार्थ : [ध्रौव्य-व्यय-जनि-लसन्त:] ध्रुवता, विनाश, उत्पत्ति से शोभायमान [अन्तरहिता:] अन्त से रहित [चित-अचित: भाव:] चेतन अचेतन पदार्थ [मुकुर] दर्पण [इव] समान [यदीये चैतन्ये] जिनके चैतन्य में [समं भान्ति] एक साथ झलकते हैं [य:] जो [जगत्साक्षी] संसार का प्रत्यक्ष करने वाले [भानु इव] सूर्य के समान [मार्गप्रकटनपर:] मोक्षमार्ग के प्रकाशक हैं [महावीर स्वामी] महावीर जिनेन्द्र [मे] मेरी [नयनपथगामी भवतु] दृष्टी के सामने रहें ॥१॥
अताम्रं यच्चक्षु: कमलयुगलं स्पन्दरहितं ।
जनान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यन्तरमपि ॥
स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वाति विमला ।
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥२॥
जिनके लोचनकमल लालिमा रहित और चंचलताहीन
समझाते हैं भव्यजनों को बाह्याभ्यन्तर क्रोध-विहीन
जिनकी प्रतिमा प्रकट शान्तिमय और अहो है विमल अपार
वे तीर्थंकर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥२॥
अन्वयार्थ : [यत्] जिनके [अ-ताम्रं] ललाई से रहित [चक्षु: कमल-युगलं] नेत्ररूपी कमल का जोड़ा [स्पन्द रहितं] टिमकार रहित हैं [जनान्] लोगों को [आभ्यन्तरम् अपि] अन्तरंग में भी [कोप-अपाय] क्रोध का अभाव [प्रकटयति] प्रकट करते हैं । [यस्य-मूर्ति:] जिनकी मूर्ति [स्फुटं] स्पष्ट या प्रकट [प्रशमितमयी] प्रशान्तरस से युक्त [वा] और [अति विमला] अत्यन्त निर्मल [महावीर स्वामी] महावीर भगवान् [मे] मेरी [नयनपथगाममी भवतु] दृष्टि के सामने रहें ॥२॥
नमन्नाकेन्द्राली-मुकुट-मणि-भाजालजटिलं ।
लसत्पादाम्भोज-द्वयमिह यदीयं तनुभृतां ॥
भवज्वाला-शान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि ।
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥३॥
नमते देवों की पंक्ति की मुकुटमणि का प्रभासमूह
जिनके दोनों चरणकमल पर झलके देखो जीवसमूह
सांसारिक ज्वाला को हरने जिनका स्मरण बने जलधार
वे तीर्थंकर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥३॥
अन्वयार्थ : [यदीयं] जिनके [पादाम्भोज द्वयम्] दोनों चरण-कमल [नमन्नाकेन्द्राली] नमस्कार करते हुए स्वर्ग के देवों की पंक्ति के [मुकुट मणि-भाजाल जटिलं] मुकुटों के मणियों के प्रकाश समूह से घनीभूत [लसत्] शोभते हुए [इह] इस जगत में [स्मृतम अपि] स्मरण-मात्र से भी [तनुभृताम्] संसारी जीवों के [भवज्ज्वालाशान्त्यै] संसार ज्वाला की शान्ति के लिए [जलं प्रभवति] जल बन जाता है [महावीर स्वामी] महावीर भगवान् [मे] मेरी [नयन-पथ-गामी भवतु] दृष्टि के सामने रहें ॥३॥
यदर्चाभावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह ।
क्षणादासीत्स्वर्गी गुणगणसमृद्ध: सुखनिधि: ॥
लभंते सद्भक्ता: शिवसुखसमाजं किमु तदा ।
महावीरस्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥४॥
जिनके अर्चन के विचार में मेंढक भी जब हर्षितवान
क्षण भर में बन गया देवता गुणसमूह और सुक्ख निधान
तब अचरज क्या यदि पाते हैं सच्चे भक्त मोक्ष का द्वार ?
वे तीर्थंकर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥४॥
अन्वयार्थ : [यत् अर्चा भावेन] जब पूजा करने के भाव से [प्रमुदितमना] आनन्दित चित्त वाला [इह] इस लोक में [दर्दुर] मेंढक [क्षणात्] क्षण भर में ही [गुण-गण समृद्ध:] गुणों के समुदाय से सम्पन्न [स्वर्गी आसीत्] स्वर्ग में देव बना था [तदा] तब [सद्भक्ता:] जो सद्भक्त हैं वे [शिव-सुख-समाजं] मोक्ष की निधि [लभन्ते] पाते हैं [किमु] इसमें क्या आश्चर्य है [महावीर स्वामी] महावीर भगवान् [मे] मेरी [नयनपथगामी भवतु] दृष्टि के सामने रहें ॥४॥
कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगत तनुर्ज्ञान-निवहो,
विचित्रात्माप्येको नृपति-वर सिद्दार्थ-तनय:।
अजन्मापि श्रीमान् विगतभवरागोद्भुत-गति:,
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥५॥
तप्तस्वर्ण-सा तन है फिर भी तनविरहित जो ज्ञानशरीर
एक रहें होकर विचित्र भी, सिद्धारथ राजा के वीर
होकर भी जो जन्मरहित हैं, श्रीमन फिर भी न रागविकार
वे तीर्थंकर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥५॥
अन्वयार्थ : [कनत्स्वर्णाभास: अपि] चमकते हुए स्वर्ण के समान कान्तिमान होने पर भी [अपगततनु:] शरीर रहित [ज्ञान-निवहो] ज्ञानसमूह [विचित्र आत्मा] अनेक गुणों युक्त होने से अनेक रूप [अपि एक] भी एक [नृपति-वर-सिद्धार्थ-तनय:] श्रेष्ठ राजा सिद्धार्थ के पुत्र [अपि] फिर भी [अजन्म] जन्म रहित [श्रीमान्] लक्ष्मीवान् [अपि] फिर भी [विगत-भव-राग] संसार का राग निकल चुका है [अद्भुत गति:] अद्भुत ऐसी मोक्षगति को प्राप्त [महावीर स्वामी] महावीर भगवान् [मे] मेरी [नयनपथगामी भवतु] दृष्टि के सामने रहें ॥५॥
यदीया वाग्गङ्गा विविध-नय कल्लोल-विमला,
वृहज्ज्ञानांभोभिर्जगति जनतां या स्नपयति ।
इदानीमप्येषा बुध-जनमरालै: परिचिता,
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥६॥
जिनकी वाणीरूपी गंगा नयलहरों से हीनविकार
विपुल ज्ञानजल से जनता का करती है जग में स्नान
अहो ! आज भी इससे परिचित ज्ञानी रूपी हंस अपार
वे तीर्थंकर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥६॥
अन्वयार्थ : [यदीया] जिनकी [विविध-नय-कल्लोल-विमला] विविध प्रकार के नयरूपी तरंगों से स्वच्छ, [वाग्गङ्गा] वाणी रूपी गंगा [या] जो [जगति] जगत् के [जनतां] जीवों को [वृहज्ज्ञानाम्भोभि:] विशिष्ट ज्ञानरूपी जल से [स्नपयति] नहलाती, [इदानीम् अपि] अब भी [बुध-जन-मरालै:] हंस सामान ज्ञानीजनों के द्वारा [परिचिता] परिचित है ऐसे [महावीर स्वामी] महावीर भगवान् [मे] मेरी [नयनपथगामी भवतु] दृष्टि के सामने रहें ॥६॥
अनिर्वारोद्रेकस्त्रिभुवनजयी काम-सुभट:,
कुमारावस्थायामपि निजबलाद्येन विजित: ।
स्फुरन्नित्यानन्द-प्रशम-पद-राज्याय स जिन:,
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥७॥
तीव्रवेग त्रिभुवन का जेता कामयोद्धा बड़ा प्रबल
वयकुमार में जिनने जीता उसको केवल निज के बल
शाश्वत सुख-शान्ति के राजा बनकर जो हो गये महान
वे तीर्थंकर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥७॥
अन्वयार्थ : [अनिर्वारोद्रेक:] दुर्निवार [त्रिभुवनजयी] तीन लोक को जितने वाले [काम-सुभट:] कामदेव योद्धा को [अपि] भी [येन] जिसने [कुमारावस्थायां अपि] यौवन किशोर अवस्था में ही [निजबलात्] अपने आत्मबल से [विजित:] जीता है [स्फुरन्] स्फुरायमान होते हुए [नित्यानन्दप्रशम-पद राज्याय] नित्य, आनन्दमय, प्रशान्तपदस्वरूप [स जिन:] वे जिनेश्वर [महावीर स्वामी] महावीर भगवान् [मे] मेरी [नयनपथगामी भवतु] दृष्टि के सामने रहें ॥७॥
महामोहातङक-प्रशमनपरा-कस्मिकभिषङ् ,
निरापेक्षो बन्धुर्विदित-महिमा मङ्गलकर: ॥
शरण्य: साधूनां भवभयभृतामुत्तमगुणो।
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥८॥
महामोह आतंक शमन को जो हैं आकस्मिक उपचार
निरापेक्ष बन्धु हैं, जग में जिनकी महिमा मंगलकार
भवभव से डरते सन्तों को शरण तथा वर गुण भंडार
वे तीर्थंकर महावीर प्रभु, मम हिय आवें नयनद्वार ॥८॥
अन्वयार्थ : [महामोह-आतंक प्रशमन] महामोहरूपी रोग को शान्त करने वाले [आकस्मिक भिषङ्] आकस्मिक वैद्य, [निरापेक्षो बन्धु:] अपेक्षा रहित बंधु, [विदित-महिमा] जिनकी महानता प्रकट है, [मङ्गलकर:] मङ्गल करने वाले, [भवभयभृताम्] संसार से भय धारण करने वाले [साधूनां] साधुओं को [शरण्य:] शरण रूप [उत्तम गुणा:] उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न [महावीर स्वामी] महावीर भगवान् [मे] मेरा [नयनपथगामी भवतु] मार्ग-दर्शन करें ॥८॥
(अनुष्टुप् छंद)
महावीराष्टकं स्तोत्रं, भक्त्या भागेन्दुना कृतम् ।
य: पठेच्छ्रणुयाच्चापि, स याति परमां गतिम् ॥९॥
महावीराष्टक स्तोत्र को, 'भाग' भक्ति से कीन
जो पढ़ ले अथवा सुने, परमगति वह लीन
अन्वयार्थ : [भक्त्या] भक्ति से [भागेन्दुना] भागचंद जी के द्वारा [कृतम्] रचा गया [महावीराष्टक] महावीर स्वामी का आठ श्लोकों का अष्टक [य:] जो [पठेत्] पढ़ता है [च] और [श्रृणुयात् अपि] सुनता भी है [स] वह [परमां गतिम् याति] मोक्ष गति को जाता है ॥९॥