!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥


अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिरानेवाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलार्इ से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।


॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-प्रवचनसार नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-कुन्द-कुन्दाचार्य-देव विरचितं ॥

(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करनेवाला यह शास्त्र प्रवचनसार नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथनेवाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )


॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


आर्हत भक्ति
पण्डित-जुगल-किशोर कृत
तुम चिरंतन, मैं लघुक्षण
लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

जागरण तुम, मैं सुषुप्ति, दिव्यतम आलोक हो प्रभु,
मैं तमिस्रा हूँ अमा की, क्षीण अन्तर, क्षीण तन-मन ।
लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

शोध तुम, प्रतिशोध रे ! मैं, क्षुद्र-बिन्दु विराट हो तुम,
अज्ञ मैं पामर अधमतम, सर्व जग के विज्ञ हो तुम,
देव ! मैं विक्षिप्त उन्मन, लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

चेतना के एक शाश्वत, मधु मंदिर उच्छ्वास ही हो
पूर्ण हो, पर अज्ञ को तो, एक लघु प्रतिभास ही हो
दिव्य कांचन, मैं अकिंचन, लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

व्याधि मैं, उपचार अनुपम, नाश मैं, अविनाश हो रे !
पार तुम, मँझधार हूँ मैं, नाव मैं, पतवार हो रे !
मैं समय, तुम सार अर्हन् !, लक्ष वंदन, कोटी वंदन

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य