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द्रव्यसंग्रह
























- नेमिचंद्र-सिद्धांतचक्रवर्ती



nikkyjain@gmail.com
Date : 02-Aug-2023

Index


अधिकार

मंगलाचरण छह-द्रव्य अधिकार सात-तत्त्व अधिकार मोक्ष-अधिकार







Index


गाथा / सूत्रविषय

मंगलाचरण

01) मंगलाचरण

छह-द्रव्य अधिकार

02) जीव द्रव्य के नव अधिकार
03) जीवत्व का लक्षण
04) उपयोग का वर्णन
05) ज्ञानोपयोग के भेद
06) उभयनय से उपयोग का लक्षण
07) जीव अमूर्तिक है
08) जीव कर्ता है
09) जीव भोक्ता है
10) जीव स्वदेह बराबर है
11) जीव संसारी है
12) चौदह जीव समास
13) उभयनय से संसारी जीव का स्वरूप
14) सिद्ध और ऊर्ध्वगमन का स्वरूप
15) अजीव द्रव्य और उनमें मूर्तिक-अमूर्तिक द्रव्य
16) पुद्गल द्रव्य की विभाव व्यंजन पर्यायें
17) धर्म द्रव्य का स्वरूप
18) अधर्म द्रव्य का स्वरूप
19) आकाश द्रव्य का स्वरूप
20) लोकाकाश-अलोकाकाश का स्वरूप
21) कालद्रव्य का स्वरूप
22) काल द्रव्य की संख्या
23) द्रव्य और अस्तिकाय के भेद
24) अस्तिकाय का स्वरूप और नाम की सार्थकता
25) द्रव्यों की प्रदेश संख्या
26) पुद्गल का परमाणु अस्तिकाय है
27) प्रदेश का लक्षण और उसकी योग्यता

सात-तत्त्व अधिकार

28) सात तत्त्व
29) भावास्रव और द्रव्यास्रव
30) भावास्रव के भेद
31) द्रव्यास्रव का स्वरूप और भेद
32) भावबंध और द्रव्यबंध
33) बन्ध के भेद और कारण
34) भावसंवर और द्रव्यसंवर का स्वरूप
35) भावसंवर के भेद
36) निर्जरा का स्वरूप
37) मोक्ष का स्वरूप और उसके भेद
38) पुण्य और पाप पदार्थ

मोक्ष-अधिकार

39) व्यवहार और निश्चय मोक्ष मार्ग
40) आत्मा ही निश्चयनय से मोक्ष मार्ग है
41) व्यवहार सम्यग्दर्शन
42) सम्यग्ज्ञान का स्वरूप
43) दर्शनोपयोग का स्वरूप
44) दर्शन और ज्ञान का क्रम
45) व्यवहार सम्यक्चारित्र और उसके भेद
46) निश्चयचारित्र का लक्षण
47) ध्यानाभ्यास की प्ररेणा
48) ध्यान का उपाय
49) ध्यान के योग्य मंत्र
50) अरिहंत परमेष्ठी का लक्षण
51) सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप
52) आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप
53) उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप
54) साधु परमेष्ठी का स्वरूप
55) निश्चयध्यान का लक्षण
56) परमध्यान का लक्षण
57) ध्यान का कारण
58) ग्रन्थकर्ता का लघुता प्रकाशन



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-भगवन्नेमिचन्द्र-प्रणीत

श्री
द्रव्यसंग्रह

मूल सौरसेणी प्राकृत गाथा और ब्रह्मदेव-सूरि (वि० सं० की १२वीं शताब्दी) कृत टीका सहित

आभार : पद्यानुवाद : आ. डाॅ. हुकमचंद भारिल्ल

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥


अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिराने वाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलाई से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।


॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-द्रव्यसंग्रह नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-नेमिचंद्र-देव विरचितं ॥

(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करने वाला यह शास्त्र द्रव्यसंग्रह नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथने वाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य श्रीनेमिचंद्रदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )


॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥

(देव वंदना)
सुध्यान में लवलीन हो जब, घातिया चारों हने ।
सर्वज्ञ बोध विरागता को, पा लिया तब आपने ॥
उपदेश दे हितकर अनेकों, भव्य निज सम कर लिये ।
रविज्ञान किरण प्रकाश डालो, वीर! मेरे भी हिये ॥
(शास्त्र वंदना)
स्याद्वाद, नय, षट् द्रव्य, गुण, पर्याय और प्रमाण का ।
जड़कर्म चेतन बंध का, अरु कर्म के अवसान का ॥
कहकर स्वरूप यथार्थ जग का, जो किया उपकार है ।
उसके लिये जिनवाणी माँ को, वंदना शत बार है ॥
(गुरु वंदना)
नि:संग हैं जो वायुसम, निर्लेप हैं आकाश से ।
निज आत्म में ही विहरते, जीवन न पर की आस से ॥
जिनके निकट सिंहादि पशु भी, भूल जाते क्रूरता ।
उन दिव्य गुरुओं की अहो! कैसी अलौकिक शूरता ॥


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शुद्धं प्रबुद्धं वसुकर्ममुक्तं,
निःसीमज्ञानादिकशक्तियुक्तम् ।
भव्येषु नन्द्यं भुवनेषु वन्द्यं,
अजितं जिनेशं प्रणमामि नित्यम् ॥ब्र.दे.सू.॥

प्रणम्य परमात्मानं सिद्धं त्रैलोक्यवन्दितं,
स्वाभाविक चिदानंदस्वरूपं निर्मलाव्ययम् ॥१॥
शुद्धजीवादि द्रव्याणां देशकं च जिनेश्वरं,
द्रव्यसंग्रहसूत्राणां वृत्तिं वक्ष्ये समासतः ॥२॥ युगमं

अन्वयार्थ : स्वाभाविक ज्ञान-आनन्दस्वरूप (केवलज्ञानी-अनन्तसुखी), निर्मल (कर्ममल रहित), अविनाशी शुद्ध जीव आदि द्रव्यों के उपदेशक, जिनेश्वर (गणधर आदि कषायविजेता जिनों के स्वामी), त्रिलोक-वन्दित (ऊर्ध्व, मध्य, अधोलोकवर्ती जीवों से वन्दनीक) सिद्ध परमात्मा को नमस्कार करके सूत्र (बहुत अर्थ को थोड़े शब्दों द्वारा प्रतिपादन करना) रूप द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की मैं (ब्रह्मदेव) संक्षेप से व्याख्या करूँगा।

ब्रह्मदेव सूरि :
मालवदेश में धारा नगरी के शासक कलिकालचक्रवर्ती 'भोजदेव' राजा का सम्बन्धी 'श्रीपाल' महामण्डलेश्वर (राज्य के कुछ अंश का शासक) था। उस श्रीपाल के 'आश्रम' नगर में श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के मन्दिर में 'सोम' सेठ के लिए 'श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव' ने लघु द्रव्यसंग्रह का पहले २६ गाथाओं में निर्माण किया था। वह सोम सेठ शुद्ध आत्म-ज्ञान द्वारा आत्मा के सुखामृत का अनुभव किया, इस कारण वह दुःखरूप नरकादि से भयभीत था और परमात्मा की भावना से प्रकट होने वाले सुखरूपी अमृत रस को पीना चाहता था, भेद-अभेद रूप रत्नत्रय (निश्चय व्यवहाररूप रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) भावना का बहुत प्रेमी था, अच्छा भव्य था तथा राजकोष (राज-खजाने) का कोषाध्यक्ष (खजांची) आदि अनेक राज-कार्यों का अधिकारी था। फिर श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने उस लघु द्रव्यसंग्रह को विशेष तत्त्वज्ञान कराने के लिए बढ़ाकर ५८ गाथाओं में रच डाला, उस बड़ी द्रव्यसंग्रह के अधिकारों का विभाजन करते हुए मैं (ब्रह्मदेव) वृत्ति प्रारम्भ करता हूँ।

उस बृहद्द्रव्य संग्रहनामक शास्त्र में पहले इसप्रकार अट्ठावन गाथाओं द्वारा तीन अधिकार जानने चाहिए। उन तीनों अधिकारों में भी आदि का जो पहला अधिकार है उसमें इस तरह प्रथम अधिकार में तीन अन्तराधिकार समझने चाहिए। प्रथम अधिकार के पहले अन्तराधिकार में जो १४ गाथायें हैं उनमें इस प्रकार नमस्कार गाथा से लेकर जो १४ गाथासूत्र हैं, उनका मेल करने से प्रथम अधिकार में समुदाय रूप से पातनिका का कथन है ।

अब गाथा के पूर्वार्ध द्वारा सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजन कहता हूँ और गाथा के उत्तरार्ध से मंगल के लिए इष्ट देवता को नमस्कार करता हूँ, इस अभिप्राय को मन में रखकर भगवान् (श्रीनेमिचन्द्र) प्रथमसूत्र कहते हैं -

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मंगलाचरण



+ मंगलाचरण -
जीवमजीवं दव्वं, जिणवरवसहेण जेण णिद्दिट्ठं
देविंदविंदवंदं, वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥1॥
कहे जीव अजीव जिन जिनवरवृषभ ने लोक में ।
वे वंद्य सुरपति वृन्द से बंदन करूं कर जोर मैं ॥१॥
अन्वयार्थ : [जेण जिणवरवसहेण] जिन जिनवर वृषभ ने [जीवं अजीवं दव्वं] जीव और अजीव द्रव्य को [णिट्ठि] कहा है [देविंदविंदवंदं] देवेन्द्रों के समूह से वन्दनीय हैं [तं] उनको [सव्वदा] सदा [सिरसा] मस्तक से [वंदे] मैं नमस्कार करता हूँ।

ब्रह्मदेव सूरि :
वंदे इत्यादि पदों का क्रियाकारकभाव सम्बन्ध से पदखण्डना रीति द्वारा व्याख्यान किया जाता है। वंदे (अर्थात् एकदेश शुद्धनिश्चयनय और असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से जिनेन्द्रदेव वन्दनीय हैं और मैं वन्दना करने वाला हूँ किन्तु परमशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा वन्द्यवन्दक भाव नहीं है, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् और मेरा आत्मा समान है।)

वह नमस्कार करने वाला कौन है?

मैं द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ का निर्माता श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव हूँ।

कैसे नमस्कार करता हूँ ?

[सव्वदा] सदा [शिरसा] सिर झुका करके नमस्कार करता हूँ।

[तं] वन्दना क्रिया के कर्मपने को प्राप्त किसको नमस्कार करता हूँ?

उस वीतरागसर्वज्ञ को ।

वह वीतरागसर्वज्ञ देव कैसे हैं ?

[देविंदविंदवंदं] मोक्ष पद के अभिलाषी देवेन्द्रादि से वन्दनीक हैं। ऐसे सब मिलकर १०० इन्द्र हैं ॥१॥ इस गाथा में कहे १०० इन्द्रों से वंदनीय है।

इन भगवान् ने क्या किया है?

[णिद्दिट्ठं] कहा है।

क्या कहा है?

[जीवमजीवं दव्वं] जीव और अजीव दो द्रव्य कहे हैं। जैसे कि उन सबका स्वरूप कहा है।

पुनः वे भगवान् कैसे हैं?

[जिणवरवसहेण] मिथ्यात्व तथा राग आदि को जीतने के कारण असंयतसम्यग्दृष्टि आदि एकदेशी जिन हैं, उनमें जो वर-श्रेष्ठ हैं वे जिनवर यानि गणधरदेव हैं, उन जिनवरों-गणधरों में भी जो प्रधान है; वह जिनवर वृषभ अर्थात् तीर्थंकर परमदेव हैं। उन जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे गये हैं, इति।

आध्यात्मिक शास्त्र में यद्यपि सिद्ध परमेष्ठियों को नमस्कार करना उचित है तो भी व्यवहारनय का अवलम्बन लेकर जिनेन्द्र के उपकार-स्मरण करने के लिए अर्हत्परमेष्ठी को ही नमस्कार किया है। ऐसा कहा भी है कि अर्हत्परमेष्ठी के प्रसाद से मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है। इसलिए प्रधान मुनियों ने शास्त्र के प्रारम्भ में अर्हत् परमेष्ठी के गुणों की स्तुति की है ॥१॥

यहाँ गाथा के उत्तरार्ध से
  1. नास्तिकता का त्याग,
  2. सभ्य पुरुषों के आचरण का पालन
  3. पुण्य की प्राप्ति और
  4. विघ्नविनाश
इन चार लाभों के लिए शास्त्र के आरम्भ में इष्टदेव की स्तुति की जाती है । इस तरह श्लोक में कहे हुए चार फलों को देखते हुए शास्त्रकार तीन प्रकार के देवता के लिए मन, वचन और काय द्वारा नमस्कार करते हैं । तीन प्रकार के देवता कहे जाते हैं। किस प्रकार? इष्ट, अधिकृत और अभिमत ये तीन भेद हैं।
  1. इष्ट - अपने द्वारा पूज्य इष्ट है।
  2. अधिकृत - ग्रन्थ अथवा प्रकरण के आदि में नमस्कार करने के लिए जिसकी विवक्षा की जाती है वह अधिकृत है।
  3. अभिमत - विवाद बिना सब लोगों को सम्मत हो; वह अभिमत है।
इस तरह मंगल का व्याख्यान किया।

यहाँ मंगल यह उपलक्षण पद है। कहा भी है कि आचार्य
  1. मंगलाचरण,
  2. शास्त्र बनाने का निमित्त-कारण,
  3. शास्त्र का प्रयोजन,
  4. शास्त्र का परिमाण यानि श्लोक संख्या,
  5. शास्त्र का नाम और
  6. शास्त्र का कर्ता
इन छह अधिकारों को बतला करके शास्त्र का व्याख्यान करे ॥१॥ इस गाथा में कहे हुए मंगल आदि छह अधिकार भी जानने चाहिए। गाथा के पूर्वार्ध से सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजन सूचित किया है। कैसे सूचित किया है? इसका उत्तर यह है कि इस तरह पहली नमस्कार-गाथा का व्याख्यान किया है।

अब "नमस्कार गाथा में जो प्रथम ही जीवद्रव्य कहा गया है, उस जीवद्रव्य के सम्बन्ध में नौ अधिकारों को मैं संक्षेप से सूचित करता हूँ।" यह अभिप्राय मन में धारण करके जीव आदि नौ अधिकारों का कथन करने वाले सूत्र का निरूपण करते हैं --


आर्यिका ज्ञानमती :
जिनवर में श्रेष्ठ सुतीर्थंकर, जिनने जग को उपदेशा है
बस जीव अजीव सुद्रव्यों को, विस्तार सहित निर्देशा है ॥
सौ इन्द्रों से वंदित वे प्रभु, उनको मैं वंदन करता हूँ
भक्ती से शीश झुका करके, नितप्रति अभिनंदन करता हूँ ॥१॥

प्रश्न – मंगलाचरण में किसे नमस्कार किया है?

उत्तर – मंगलाचरण में जिनवरों में श्रेष्ठ तीर्थंकर भगवान को नमस्कार किया है।

प्रश्न – जिनवर किन्हें कहते हैं ?

उत्तर – कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले जिन, जिनवर अथवा जिनेन्द्र देव कहलाते हैं।

प्रश्न – तीर्थंकर किन्हें कहते हैं ?

उत्तर – धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं।

प्रश्न – द्रव्य कितने हैं?

उत्तर – मुख्यरूप से द्रव्य के दो भेद हैं-१. जीव द्रव्य २. अजीव द्रव्य।

प्रश्न – जीव किसे कहते हैं?

उत्तर – जिसमें चेतना गुण पाया जाता है, उसे जीव कहते हैं। जैसे-मनुष्य, पशु-पक्षी, देव, नारकी आदि।

प्रश्न – अजीव किसे कहते हैं?

उत्तर – जिसमें ज्ञान-दर्शन चेतना नहीं हो, वह अजीव है। अजीव के पाँच भेद हैं-(१) पुद्गल द्रव्य (२) धर्मद्रव्य (३) अधर्म द्रव्य (४) आकाशद्रव्य (५) कालद्रव्य।

प्रश्न – तीर्थंकर भगवान कितने इन्द्रों से वंदनीय होते हैं?

उत्तर – तीर्थंकर भगवान सौ इन्द्रों से वंदनीय होते हैं?

प्रश्न – सौ इन्द्र कौन-कौन से हैं?

उत्तर –
भवणालय चालीसा, विंतरदेवाण होंति बत्तीसा।
कप्पामर चउवीसा, चन्दो सूरो णरो तिरिओ॥
भवनवासियों के ४० इन्द्र, व्यन्तरों के ३२, कल्पवासियों के २४, ज्योतिषियों के २-चन्द्र और सूर्य, मनुष्यों का १-चक्रवर्ती तथा पशुओं का १-सिंह। ये कुल (४०+३२+२४+२+१+१) १०० इन्द्र होते हैं


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छह-द्रव्य अधिकार



+ जीव द्रव्य के नव अधिकार -
जीवो उवओगमओ, अमुत्तिकत्ता सदेहपरिमाणो
भोत्ता संसारत्थो, सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥2॥
जीव कर्ता भोक्ता अर अमूर्तिक उपयोगमय ।
अर सिद्ध भवगत देहमित निजभाव से ही ऊर्ध्वगत ॥२॥
अन्वयार्थ : [सो] वह (आत्मा) जीव उपयोगमयी, अमूर्तिक, कर्ता, स्वदेह परिमाण रहने वाला, भोक्ता, संसारी, सिद्ध और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है ।

ब्रह्मदेव सूरि :
सो वह इस प्रकार के गुणों से युक्त जीव है। [विस्ससोडढ्गई] यद्यपि व्यवहार से चार गतियों को उत्पन्न करने वाले कर्मों के उदय-वश ऊँचा, नीचा तथा तिरछा गमन करने वाला है, फिर भी निश्चयनय से केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों की प्राप्ति स्वरूप जो मोक्ष है उसमें पहुँचने के समय स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है। यहाँ खण्डान्वय के ढंग से शब्दों का अर्थ कहा; तथा शुद्ध, अशुद्ध नयों के विभाग से नय का भी अर्थ कहा है।

अब मत का अर्थ कहते हैं। चार्वाक के लिए जीव की सिद्धि की गई है। नैयायिक के लिए जीव के ज्ञान तथा दर्शन उपयोगमय लक्षण का कथन है। भट्ट तथा चार्वाक के प्रति जीव का अमूर्त स्थापन है, 'आत्मा कर्म का कर्ता है' ऐसा कथन सांख्य के प्रति है। 'आत्मा अपने शरीर प्रमाण है', यह कथन नैयायिक, मीमांसक और सांख्य इन तीनों के प्रति है। 'आत्मा कर्मों का भोक्ता है' यह कथन बौद्ध के प्रति है। 'आत्मा संसारस्थ है' ऐसा वर्णन सदाशिव के लिए है। 'आत्मा सिद्ध है' यह कथन भट्ट और चार्वाक के प्रति है। 'जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव है' यह कथन मण्डलीक मतानुयायी के लिए है। इस तरह मत का अर्थ जानना चाहिए। 'अनादिकाल से कर्मों से बंधा हुआ आत्मा है' इत्यादि आगम का अर्थ तो प्रसिद्ध ही है। शुद्ध नय के आश्रित जो जीव स्वरूप है, वह तो उपादेय यानि ग्रहण करने योग्य है और शेष सब त्याज्य है। इस प्रकार हेयोपादेयरूप से भावार्थ भी समझना चाहिए। इस तरह शब्द, नय, मत, आगमार्थ, भावार्थ यथासंभव व्याख्यान के समय में सब जगह जानना चाहिए। इस तरह जीव आदि नौ अधिकारों को सूचित करने वाली यह सूत्र गाथा है ॥२॥

अब इसके आगे १२ गाथाओं द्वारा नौ अधिकारों का विवरण कहते हैं। उनमें पहले जीव का स्वरूप कहते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – जीव के नौ अधिकारों के नाम कौन-कौन से हैं?

उत्तर – १. जीवत्व २. उपयोगमयत्व ३. अमूर्तिकत्व ४. कर्तृत्व ५. स्वदेहपरिमाणत्व ६. भोक्तृत्व ७. संसारित्व ८. सिद्धत्व ९. ऊध्र्वगमनत्व।

प्रश्न – आत्मा का ऊर्ध्वगमन स्वभाव क्यों कहा गया है ?

उत्तर – कोई ऐसा मानता है कि आत्मा जिस स्थान से मुक्त होता है- उसी स्थान पर रह जाता है। इसलिए उस सिद्धान्त का निराकरण करने के लिए जीव ऊर्ध्वगमन करता है, ऐसा कहा गया है।

प्रश्न – अन्य ग्रंथों में जीव को उपयोगमय माना है और इस ग्रंथ में जीव के नौ अधिकार हैं, यह भेद क्यों किया है ?

उत्तर – यद्यपि उपयोगमय जीव का लक्षण ही वास्तविक है, तथापि शिष्यों को विशेषरूप से समझाने के लिए नौ अधिकार कहे हैं।

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+ जीवत्व का लक्षण -
तिक्काले चदुपाणा, इंदिय बलमाउ आणपाणो य
ववहारा सो जीवो, णिच्चयणयदोदु चेदणाजस्स ॥3॥
जो सदा धारें श्वास इन्द्रिय आयु बल व्यवहार से ।
वे जीव निश्चय जीव वे जिनके रहे नित चेतना ॥३॥
अन्वयार्थ : [ववहारा] व्यवहारनय से [जस्स] जिसके [तिक्काले] तीनों कालों में [इंदियबलमाउ य आणपाणो] इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये [चदुपाणा] चार प्राण [दु] तथा [णिच्छय-णयदो] निश्चय नय से जिसके [चेदणा] चेतना हो [सो जीवो] वह जीव है।

ब्रह्मदेव सूरि :
[तिक्काले चदुपाणा] तीन काल में जीव के चार प्राण होते हैं। वे कौन से? [इंदियबलमाउआणपाणो य] इन्द्रियों के अगोचर जो शुद्ध चैतन्य प्राण है उसके प्रतिपक्षभूत क्षायोपशमिक (क्षयोपशम से होने वाले) इन्द्रिय प्राण है, अनन्तवीर्यरूप जो बलप्राण है उसके अनन्तवें भाग के प्रमाण मनोबल, वचनबल और कायबल प्राण हैं, अनादि, अनन्त तथा शुद्ध जो चैतन्य प्राण है, उससे विपरीत एवं विलक्षण सादि (आदि सहित) और सान्त (अन्त सहित) आयु प्राण है, श्वासोच्छ्वास के आने जाने से उत्पन्न खेद से रहित जो शुद्ध चित्-प्राण है उससे विपरीत श्वासोच्छ्वास प्राण है। [ववहारा सो जीवो] व्यवहारनय से, इस प्रकार के चार द्रव्य व भाव प्राणों से जो जीता है, जीवेगा या पहले जी चुका है, वह जीव है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा द्रव्येन्द्रिय आदि द्रव्य प्राण हैं और अशुद्ध निश्चयनय से भावेन्द्रिय आदि क्षायोपशमिक भावप्राण हैं और निश्चयनय से सत्ता, चैतन्य, बोध आदि शुद्धभाव जीव के प्राण हैं। [णिच्छयणयदो दुचेदणा जस्स] शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा उपादेयभूत यानि ग्रहण करने योग्य शुद्ध चेतना जिसके हो वह जीव है।

वच्छक्खभवसारिच्छ सग्गणिरय पियराय ।
चुल्लय हंडिय पुण मडउणव दिटुंता जाय ॥

  1. [वत्स]-जन्म लेते ही बछड़ा पूर्वजन्म के संस्कार से, बिना सिखाये अपने आप ही माता के स्तन पीने लगता है।
  2. [अक्षर] - जीव जानकारी के साथ अक्षरों का उच्चारण आवश्यकतानुसार करता है, जड़ पदार्थों में यह विशेषता नहीं होती।
  3. [भव] - आत्मा यदि एक स्थायी पदार्थ न हो तो जन्म-ग्रहण किसका होगा?
  4. [सादृश्य] - आहार, परिग्रह, भय, मैथुन, हर्ष, विषाद आदि सब जीवों में एक समान दृष्टिगोचर होते हैं।
  5. [स्वर्ग] जीव यदि स्वतंत्र पदार्थ न हो तो स्वर्ग में जाना किसके सिद्ध होगा।
  6. [नरक] जीव यदि स्वतंत्र पदार्थ न हो तो नरक में जाना किसके सिद्ध होगा।
  7. [पितर] - अनेक मनुष्य मरकर भूत आदि हो जाते हैं और फिर अपने पुत्र, पत्नी आदि को कष्ट, सुख आदि देकर अपने पूर्व भव का हाल बताते हैं।
  8. [चूल्हा हंडी] - जीव यदि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पाँच भूतों से बन जाता हो तो दाल बनाते समय चूल्हे पर रक्खी हुई हंडिया में पाँचों भूत पदार्थों का संसर्ग होने के कारण वहाँ भी जीव उत्पन्न हो जाना चाहिए किन्तु ऐसा होता नहीं है।
  9. [मृतक] - मुर्दा शरीर में पाँचों भूत पदार्थ पाये जाते हैं किन्तु फिर भी उसमें जीव के ज्ञान आदि नहीं होते।
इस तरह जीव एक पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध होता है। इस दोहे में कहे हुए नौ दृष्टान्तों द्वारा चार्वाक मतानुयायी शिष्यों को समझाने के लिए जीव की सिद्धि के व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई। अब अध्यात्म भाषा द्वारा नयों के लक्षण कहते हैं। विशेष इस प्रकार है -यह नयचक्र का मूल है। संक्षेप में यह छह नय जानने चाहिए ॥३॥

अब तीन गाथा पर्यंत ज्ञान तथा दर्शन इन दो उपयोगों का वर्णन करते हैं?। उनमें भी पहली गाथा में मुख्य रूप से दर्शनोपयोग का व्याख्यान करते हैं। जहाँ पर यह कथन हो कि 'अमुक विषय का मुख्यता से वर्णन करते हैं', वहाँ पर 'गौण रूप से अन्य विषय का भी यथासंभव कथन प्राप्त होता है' यह जानना चाहिए --

आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – व्यवहारनय किसे कहते हैं?

उत्तर – वस्तु के अशुद्ध स्वरूप को ग्रहण करने वाले ज्ञान को व्यवहारनय कहते हैं।

प्रश्न- व्यवहारनय से जीव का लक्षण बताइये?

उत्तर – जिसमें तीनों कालों में चार प्राण पाये जाते हैं, व्यवहारनय से वह जीव है।

प्रश्न – चार प्राण कौन से हैं ?

उत्तर – इन्द्रिय, बल, आयु और स्वासोच्छ्वास।

प्रश्न – निश्चयनय किसे कहते हैं?

उत्तर – वस्तु के शुद्ध स्वरूप का कथन करने वाले नय को निश्चयनय कहते हैं।

प्रश्न – निश्चयनय से जीव का लक्षण बताइये?

उत्तर – जिसमें चेतना पायी जाती है, निश्चयनय से वह जीव है।

प्रश्न – एकेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर – एकेन्द्रिय जीव के चार प्राण होते हैं-स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास।

प्रश्न – द्वीन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर – १. स्पर्शन इन्द्रिय २. रसना इन्द्रिय ३. वचनबल ४. कायबल ५. आयु ६. श्वासोच्छ्वास ये कुल ६ प्राण द्वीन्द्रिय जीव के होते हैं।

प्रश्न – तीन इन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर – तीन इन्द्रिय जीव के सात प्राण होते हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास।

प्रश्न – चार इन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर – स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु ये चार इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास इस प्रकार कुल ८ प्राण चार इन्द्रिय जीव के होते हैं।

प्रश्न – असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं।

उत्तर – स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये कुल ९ प्राण असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के होते हैं।

प्रश्न – संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर – संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के दस प्राण होते हैं-पाँचों इन्द्रियाँ, तीनों बल, आयु और श्वासोच्छ्वास।

प्रश्न – एक मात्र चेतना प्राण किनके होता है?

उत्तर – सिद्ध भगवान के दस प्राणों में से कोई भी प्राण नहीं है। उनको मात्र एक चेतना प्राण माना है।

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+ उपयोग का वर्णन -
उवओगो दुवियप्पो, दंसण णाणं च दंसणं चदुधा
चक्खु अचक्खू ओही, दंसणमध केवलं णेयं ॥4॥
उपयोग दो हैं ज्ञान-दर्शन चार दर्शन जानिये ।
चक्षु चक्षु अवधि केवल नाम से पहिचानिये ॥४॥
अन्वयार्थ : [उवओगो दुवियप्पो] उपयोग दो प्रकार का है [दंसणणाणं] दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग [च] तथा [दंसणं चदुधा] दर्शनोपयोग चार प्रकार का [चक्खु अचक्खू ओही अध केवलं दंसणं] चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन और केवलदर्शन [णेयं] जानना चाहिए ।

ब्रह्मदेव सूरि :
उपयोग दो प्रकार का है -- दर्शन और ज्ञान । दर्शन तो निर्विकल्पक है और ज्ञान सविकल्पक है । दर्शनोपयोग चार प्रकार का होता है - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन, ऐसा जानना चाहिए । विशेष विवरण - आत्मा तीन लोक और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान इन तीनों कालों में रहने वाले संपूर्ण द्रव्य सामान्य को ग्रहण करने वाला जो पूर्ण निर्मल केवलदर्शन स्वभाव है उसका धारक है किन्तु अनादि कर्मबन्ध के अधीन होकर चक्षुदर्शनावरण के क्षयोपशम से तथा बहिरंग द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन से मूर्तिक पदार्थ के सत्ता सामान्य को संव्यवहार से प्रत्यक्ष है किन्तु निश्चय से परोक्षरूप है, उसको एक देश से विकल्परहित जो देखता है वह चक्षुदर्शन है, उसी तरह स्पर्शन, रसना, घ्राण तथा कर्णइन्द्रिय के आवरण के क्षयोपशम से और अपनी-अपनी बहिरंग द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन से मूर्तिक सत्तासामान्य को परोक्षरूप एक देश से जो विकल्परहित देखता है वह अचक्षुदर्शन है और इसी प्रकार मन इन्द्रिय के आवरण के क्षयोपशम से तथा सहकारी कारण रूप जो आठ पाँखुड़ी के कमल के आकार द्रव्य मन है, उसके अवलंबन से मूर्त तथा अमूर्त समस्त द्रव्यों में विद्यमान सत्तासामान्य को परोक्ष रूप से जो विकल्परहित देखता है वह मानस अचक्षुदर्शन है । वही आत्मा अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से मूर्त वस्तु में सत्तासामान्य को एक देश प्रत्यक्ष से विकल्परहित जो देखता है, वह अवधिदर्शन है । तथा सहज शुद्ध अविनाशी आनन्द रूप एक स्वरूप के धारक परमात्म तत्त्व के ज्ञान तथा प्राप्ति के बल से केवल-दर्शनावरण के क्षय होने पर समस्त मूर्त, अमूर्त वस्तु के सत्तासामान्य को सकल प्रत्यक्ष रूप से एक समय में विकल्परहित जो देखता है उसको उपादेय रूप क्षायिक केवलदर्शन जानना चाहिए ॥४॥

अब आठ भेद सहित ज्ञानोपयोग का प्रतिपादन करते हैं --


आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – उपयोग किसे कहते हैं?

उत्तर – चैतन्यानुविधायी आत्मा के परिणाम को उपयोग कहते हैं।

प्रश्न – दर्शनोपयोग किसे कहते हैं?

उत्तर – जो वस्तु के सामान्य अंश को ग्रहण करे उसे दर्शनोपयोग कहते हैं।

प्रश्न – ज्ञानोपयोग किसे कहते हैं?

उत्तर – जो वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करे उसे ज्ञानोपयोग कहते हैं।

प्रश्न – चक्षुदर्शनोपयोग किसे कहते हैं?

उत्तर – चक्षु इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले ज्ञान के पहले जो वस्तु का सामान्य प्रतिभास होता है, उसे चक्षुदर्शनोपयोग कहते हैं।

प्रश्न – अचक्षुदर्शनोपयोग किसे कहते हैं?

उत्तर – चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र तथा मन से होने वाले ज्ञान के पहले जो वस्तु का सामान्य आभास होता है उसे अचक्षुदर्शनोपयोग कहते हैं।

प्रश्न – अवधिदर्शन किसे कहते हैं?

उत्तर – अवधिज्ञान के पहले जो वस्तु का सामान्य आभास होता है उसे अवधिदर्शन कहते हैं।

प्रश्न – केवलदर्शन किसे कहते हैं?

उत्तर – केवलज्ञान के साथ होने वाले दर्शन को केवलदर्शन कहते हैं।

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+ ज्ञानोपयोग के भेद -
णाणं अट्ठवियप्पं, मदिसुदओही अणाणणाणाणी
मणपज्जयकेवलमवि, पच्चक्ख परोक्खभेयं च ॥5॥
ज्ञान आठ मतिश्रुतावधि ज्ञान भी कुज्ञान भी ।
मन:पर्यय और केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष भी ॥५॥
अन्वयार्थ : [मदिसुदओही अणाणणाणाणि] मति, श्रुत, अवधि ये तीनों अज्ञान/ मिथ्याज्ञानरूप और ज्ञान/सम्यग्ज्ञानरूप हैं तथा [मणपजवकेवलमवि] मनःपर्यय और केवलज्ञान सम्यग्ज्ञानरूप ही हैं इस तरह यह सभी [अट्ठवियप्पं णाणं] आठ प्रकार का ज्ञान है [च] और [पच्चक्ख परोक्ख भेयं] प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से वह ज्ञान दो प्रकार का भी है ।

ब्रह्मदेव सूरि :
[णाणं अट्ठवियप्पं] ज्ञान आठ प्रकार का है । [मदिसुदिओही अणाणणाणाणि] उन आठ प्रकार के ज्ञानों में मति, श्रुत तथा अवधि ये तीन मिथ्यात्व के उदय के वश से विपरीताभिनिवेश रूप अज्ञान होते हैं इसी से कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि (विभंगावधि) इनके नाम हैं, तथा वे ही मति, श्रुत तथा अवधि ज्ञान आत्मा आदि तत्त्व के विषय में विपरीत श्रद्धा न होने के कारण सम्यग्दृष्टि जीव के सम्यग्ज्ञान होते हैं । इस तरह कुमति आदि तीन अज्ञान और मति आदि तीन ज्ञान, ज्ञान के ये ६ भेद हुए तथा [मणपज्जवकेवलमवि] मनःपर्यय और केवलज्ञान ये दोनों मिलकर ज्ञान के सब आठ भेद हुए । [पच्चक्खपरोक्खभेयं च] प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद रूप है । इन आठों में अवधि और मनःपर्यय ये दोनों तथा विभंगावधि तो देशप्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल-प्रत्यक्ष है, शेष कुमति, कुश्रुत, मति और श्रुत ये चार परोक्ष हैं ।

विस्तार -- जैसे आत्मा निश्चयनय से पूर्ण, विमल, अखण्ड, एक, प्रत्यक्ष, केवलज्ञानस्वरूप है; वही आत्मा व्यवहारनय से अनादिकालीन कर्मबन्ध से आच्छादित हुआ, मतिज्ञान के आवरण के क्षयोपशम से तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से और बहिरंग पाँच इन्द्रिय तथा मन के अवलम्बन से मूर्त और अमूर्त वस्तु को एक देश से विकल्पाकार परोक्ष रूप से अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप से जो जानता है वह क्षायोपशमिक 'मतिज्ञान' है । छद्मस्थों के तो वीर्यान्तराय का क्षयोपशम सर्वत्र ज्ञानचारित्र आदि की उत्पत्ति में सहकारी कारण है और केवलियों के वीर्यान्तराय का सर्वथा क्षय, ज्ञानचारित्र आदि की उत्पत्ति में सर्वत्र सहकारी कारण है, ऐसा सर्वत्र जानना चाहिए ।

अब सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का लक्षण कहते हैं -- समीचीन अर्थात् ठीक जो व्यवहार है वह संव्यवहार कहलाता है, संव्यवहार का लक्षण प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप है । संव्यवहार में जो हो सो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । जैसे–'घट का रूप मैंने देखा' इत्यादि । ऐसे ही श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से और नोइन्द्रिय मन के अवलम्बन से प्रकाश और अध्यापक आदि बहिरंग सहकारी कारण के संयोग से मूर्तिक तथा अमूर्तिक वस्तु को, लोक तथा अलोक को व्याप्ति रूप ज्ञान से जो अस्पष्ट जानता है उसको परोक्ष श्रुतज्ञान कहते हैं । इसमें विशेष यह है कि शब्दात्मक जो श्रुतज्ञान है वह तो परोक्ष है ही तथा स्वर्ग, मोक्ष आदि बाह्य विषयों का बोध कराने वाला विकल्परूप जो ज्ञान है वह भी परोक्ष है और जो अभ्यन्तर में 'सुख-दुख विकल्परूप मैं हूँ' अथवा 'मैं अनंत ज्ञान आदि रूप हूँ', इत्यादिक ज्ञान है वह ईषत् (किंचित्) परोक्ष है तथा जो निश्चय भावश्रुत ज्ञान है वह शुद्ध आत्मा के अभिमुख (सन्मुख) होने से सुख संवित्ति-सुखानुभव-स्वरूप है और वह निज आत्मज्ञान के आकार से सविकल्प है तो भी इन्द्रिय तथा मन से उत्पन्न जो रागादि विकल्पसमूह हैं, उनसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है और अभेद नय से वही ज्ञान 'आत्मा' शब्द से कहा जाता है तथा वह वीतराग सम्यक्चारित्र के बिना नहीं होता, वह ज्ञान यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष है, तथापि संसारियों को क्षायिकज्ञान का अभाव होने से क्षायोपशमिक होने पर भी 'प्रत्यक्ष' कहलाता है ।

यहाँ पर शिष्य शंका करता है कि आद्ये परोक्षम् कहकर तत्त्वार्थसूत्र में मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है, फिर श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? इस शंका का उत्तर देते हैं कि तत्त्वार्थ सूत्र में जो श्रुत को परोक्ष कहा है सो उत्सर्ग व्याख्यान है और 'भाव श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष है' यह अपवाद की अपेक्षा से कथन है । यदि 'तत्त्वार्थसूत्र' में उत्सर्ग का कथन न होता तो 'तत्त्वार्थसूत्र' में मतिज्ञान को परोक्ष कैसे कहा जाता? और यदि वह सूत्र में परोक्ष ही कहा गया है तो तर्कशास्त्र में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कैसे हुआ? इसलिए जैसे अपवाद व्याख्यान से परोक्ष होने पर भी मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है वैसे ही अपने आत्मा के सन्मुख जो भावश्रुत-ज्ञान है वह परोक्ष है तो भी उसको प्रत्यक्ष कहा जाता है । यदि एकान्त से ये मति, श्रुत दोनों परोक्ष ही हों तो सुख-दुःख आदि का जो स्व-संवेदन-स्वानुभव है वह भी परोक्ष ही होगा किन्तु वह स्व-संवेदन परोक्ष नहीं है । उसी तरह वही आत्मा अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से मूर्तिक पदार्थ को जो एकदेश प्रत्यक्ष द्वारा सविकल्प जानता है वह अवधिज्ञान है तथा जो मनःपर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम से, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से अपने मन के अवलम्बन द्वारा पर के मन में प्राप्त हुए मूर्त पदार्थ को एकदेश प्रत्यक्ष से सविकल्प जानता है वह ईहा मतिज्ञान पूर्वक मनःपर्यय ज्ञान है एवं अपने शुद्ध आत्म-द्रव्य के यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप एकाग्र ध्यान द्वारा केवल-ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर जो उत्पन्न होता है, वह एक समय में समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव को ग्रहण करने वाला और सब प्रकार से उपादेय [ग्रहण करने योग्य] 'केवलज्ञान' है ॥५॥

अब ज्ञान, दर्शन दोनों उपयोगों के व्याख्यान का नय-विभाग द्वारा उपसंहार कहते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – मिथ्याज्ञान कितने होते हैं?

उत्तर – मिथ्या ज्ञान तीन हैं-१. कुमति २. कुश्रुत ३. कुअवधि।

प्रश्न – सम्यक्ज्ञान कितने होते हैं?

उत्तर – सम्यक्ज्ञान पाँच हैं-१. मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मन:पर्ययज्ञान ५. केवलज्ञान।

प्रश्न – मतिज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर – पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है।

प्रश्न – श्रुतज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर – मतिज्ञान पूर्वक होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है।

प्रश्न – अवधिज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर – द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक जो रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है वह अवधिज्ञान है।

प्रश्न – मन:पर्ययज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर – द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक जो दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है, उसे मन: पर्ययज्ञान कहते हैं।

प्रश्न – केवलज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर – त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को एकसाथ जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं।

प्रश्न – प्रत्यक्षज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर – इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है।

प्रश्न – परोक्षज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर – इन्द्रिय और आलोक आदि की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे परोक्षज्ञान कहते हैं।

प्रश्न – प्रत्यक्ष ज्ञान कौन-कौन से हैं?

उत्तर – अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। इनमें भी अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान एक देश प्रत्यक्ष कहलाते हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष कहलाता है।

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+ उभयनय से उपयोग का लक्षण -
अट्ठचदुणाण दंसण, सामण्णं जीवलक्खणं भणियं
ववहारा सुद्धणया, सुद्धं पुण दंसणं णाणं ॥6॥
सामान्यतः चऊ-आठ दर्शन-ज्ञान जिय लक्षण कहे ।
व्यवहार से पर शुद्धनय से शुद्धदर्शन-ज्ञान हैं ॥६॥
अन्वयार्थ : [ववहारा] व्यवहार नय से [अट्ठणाण] आठ प्रकार का ज्ञान [चदुदंसण] चार प्रकार का दर्शन [सामण्णं] सामान्य से [पुण] और [सुद्धणया] शुद्ध नय से [सुद्धं दंसणं णाणं] शुद्धदर्शन व शुद्धज्ञान [जीवलक्खणं] जीव का लक्षण [भणियं] कहा है ।

ब्रह्मदेव सूरि :
[अट्ठ चदुणाण सण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं] आठ प्रकार का ज्ञान तथा चार प्रकार का दर्शन सामान्य रूप से जीव का लक्षण कहा गया है । यहाँ पर 'सामान्य' इस कथन का यह तात्पर्य है कि इस लक्षण में संसारी तथा मुक्त जीव की विवक्षा नहीं है, अथवा शुद्ध अशुद्ध ज्ञान दर्शन की भी विवक्षा नहीं है । सो कैसे? इस शंका का उत्तर यह है कि 'विवक्षा का अभाव ही सामान्य का लक्षण है' ऐसा कहा है । किस अपेक्षा से जीव का सामान्य लक्षण कहा है? इसका उत्तर यह है कि [ववहारा] अर्थात् व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा है । यहाँ [सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणंणाणं] शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध अखण्ड केवलज्ञान तथा केवलदर्शन ये दोनों जीव के लक्षण हैं । यहाँ ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग की विवक्षा में उपयोग शब्द से विवक्षित पदार्थ के जानने रूप वस्तु के ग्रहण रूप व्यापार का ग्रहण किया जाता है और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों उपयोगों की विवक्षा में उपयोग से शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना में एक रूप अनुष्ठान जानना चाहिए । यहाँ सहज शब्द शुद्ध निर्विकार परमानन्द रूप साक्षात् उपादेय जो अक्षय सुख है उसका उपादान कारण होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों उपादेय हैं । इस प्रकार नैयायिक के प्रति गुण, गुणी अर्थात् ज्ञान और आत्मा इन दोनों के एकान्त रूप से भेद के निराकरण के लिए उपयोग के व्याख्यान द्वारा तीन गाथाएँ समाप्त हुईं ॥६॥

अब, अमूर्तिक तथा अतीन्द्रिय निज आत्मा के ज्ञान से रहित होने के कारण मूर्त जो पाँचों इन्द्रियों के विषय हैं उनमें आसक्ति के द्वारा जीव ने जो मूर्तिक उपार्जित किये हैं उनके उदय से व्यवहार नय की अपेक्षा से जीव मूर्तिक है तथापि निश्चयनय से अमूर्तिक है, ऐसा उपदेश देते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – शुद्ध निश्चयनय किसे कहते हैं?

उत्तर – वस्तु के शुद्धस्वरूप का कथन करने की प्रक्रिया को शुद्ध निश्चयनय कहते हैं।

प्रश्न – शुद्ध निश्चयनय से जीव किसे कहते हैं?

उत्तर – जिसमें शुद्ध दर्शन और ज्ञान पाया जाता है, शुद्ध निश्चयनय से वह जीव है।

प्रश्न – व्यवहारनय से (सामान्य) जीव का लक्षण क्या है?

उत्तर – व्यवहारनय से आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन जीव का लक्षण है।

प्रश्न – सामान्य किसको कहते हैं ?

उत्तर – जिसमें संसारी, मुक्त, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय आदि जीवों की विवक्षा न हो, उसको सामान्य जीव कहते हैं।

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+ जीव अमूर्तिक है -
वण्ण रस पंच गंधा, दो फासा अट्ठणिच्चया जीवे
णो संति अमुत्ति तदो, ववहारा मुत्ति बंधादो ॥7॥
स्पर्श रस गंध वर्ण जिय में नहीं हैं परमार्थ से ।
अत: जीव अमूर्त मूर्तिक बंध से व्यवहार से ॥७॥
अन्वयार्थ : [णिच्छया] निश्चय से [जीवे] जीव में [पंच वण्ण रस दो गंधा अट्ठ फासा] पाँच वर्ण व पाँच रस, दो गंध तथा आठ स्पर्श [णो] नहीं [संति] हैं [तदो] इसलिए [अमुत्ति] जीव अमूर्तिक है [ववहारा] व्यवहार से [बंधादो] कर्मबन्ध होने के कारण [मुत्ति] जीव मूर्तिक है ।

ब्रह्मदेव सूरि :
[वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ट णिच्छया जीवे णो संति] सफेद, पीला, नीला, लाल तथा काला ये पाँच वर्ण; चरपरा, कड़वा, कषायला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस; सुगन्ध और दुर्गन्ध ये दो गंध तथा ठंडा, गर्म, चिकना, रूखा, कड़ा, नरम, भारी और हल्का ये आठ प्रकार के स्पर्श शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध-बुद्ध स्वभाव-धारक शुद्ध जीव में नहीं हैं । [अमुत्ति तदो] इस कारण यह जीव अमूर्तिक (मूर्ति-रहित) है ।

शंका – यदि जीव अमूर्तिक है तो इस जीव के कर्म का बन्ध कैसे होता है?

उत्तर – [ववहारा मुत्ति] क्योंकि अनुपचरितअसद्भूत-व्यवहारनय से जीव मूर्तिक कर्म-बन्ध होता है; अतः कर्म-बन्ध होता है ।

शंका – जीव मूर्त भी किस कारण से है ?

उत्तर – [बंधादो] अनंतज्ञान आदि की प्राप्ति रूप जो मोक्ष है उस मोक्ष से विपरीत अनादि कर्मों के बन्धन के कारण जीव मूर्त है ।

कथंचित् मूर्त तथा कथंचित् अमूर्त जीव का लक्षण है । कहा भी है --

कर्मबंध के प्रति जीव की एकता है और लक्षण से उस कर्मबंध की भिन्नता है इसलिए एकांत से जीव के अमूर्तभाव नहीं है ॥१॥

इसका तात्पर्य यह है कि जिस अमूर्त आत्मा की प्राप्ति के अभाव से इस जीव ने अनादि संसार में भ्रमण किया है उसी अमूर्तिक शुद्धस्वरूप आत्मा का मूर्त पाँचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके ध्यान करना चाहिए । इस प्रकार भट्ट और चार्वाक के प्रति जीव को मुख्यता से अमूर्त सिद्ध करने वाला सूत्र कहा ॥७॥

अब क्रिया-शून्य, अमूर्तिक, टंकोत्कीर्ण (टाँकी से उकेरी हुई मूर्ति के समान अविचल) ज्ञायक एक स्वभाव से जीव यद्यपि कर्म आदि के कर्त्तापने से रहित है, फिर भी व्यवहार आदि नय की अपेक्षा कर्ता होता है, ऐसा कहते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – मूर्तिक किसे कहते हैं?

उत्तर – जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण पाया जाता है उसे मूर्तिक कहते हैं।

प्रश्न – अमूर्तिक किसे कहते हैं?

उत्तर – जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण नहीं पाये जाते हैं, उसे अमूर्तिक कहते हैं।

प्रश्न – जीव मूर्तिक है या अमूर्तिक?

उत्तर – जीव मूर्तिक भी है और अमूर्तिक भी है।

प्रश्न – जीव मूर्तिक किस अपेक्षा से है?

उत्तर – संसारी जीव व्यवहारनय से मूर्तिक है। क्योंकि यह अनादिकाल से कर्मों से बंधा हुआ है। कर्म पुद्गल है और पुद्गल मूर्तिक है। मूर्तिक के साथ रहने से अमूर्तिक आत्मा भी मूर्तिक कहा जाता है।

प्रश्न – जीव अमूर्तिक किस अपेक्षा से है?

उत्तर – निश्चयनय से जीव अमूर्तिक है, क्योंकि उसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण नहीं पाये जाते हैं।

प्रश्न – स्पर्श के कितने भेद हैं?

उत्तर – स्पर्श आठ प्रकार का होता है-रूखा, चिकना, ठंडा, गरम, हल्का, भारी, कड़ा (कठोर), नरम (मुलायम)

प्रश्न – रस के कितने भेद हैं?

उत्तर – रस के पाँच भेद हैं-खट्टा, मीठा, कड़वा, चरपरा और कषायला।

प्रश्न – गंध के कितने भेद हैं?

उत्तर – गंध दो प्रकार की होती है-सुगंध और दुर्गंध।

प्रश्न – वर्ण के कितने भेद हैं?

उत्तर – वर्ण पाँच प्रकार के होते हैं-काला, पीला, नीला, लाल और सफेद।

प्रश्न – हम सभी की आत्मा मूर्तिक है या अमूर्तिक है ?

उत्तर – हमारी आत्मा मूर्तिक है, क्योंकि हम अभी कर्म से बद्ध संसारी जीव हैं।

प्रश्न – सिद्ध भगवान की आत्मा कैसी है?

उत्तर – सिद्ध भगवान अमूर्तिक हैं क्योंकि पुद्गल-कर्मबंध से सर्वथा रहित (छूट गये) हैं।

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+ जीव कर्ता है -
पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्चयदो
चेदणकम्माणादा, सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥8॥
चिद्कर्म कर्ता नियत से द्रव कर्म का व्यवहार से ।
शुधभाव का कर्ता कहा है आत्मा परमार्थ से ॥८॥
अन्वयार्थ : [आदा] आत्मा [ववहारदो] व्यवहार से [पुग्गलकम्मादीणं] पुद्गल कर्म-ज्ञानावरणादि का [णिच्छयदो] निश्चय से [चेदणकम्माण] चेतनकर्म (रागद्वेष आदि) का [सुद्धणया] शुद्धनय से [सुद्धभावाणं] शुद्ध भाव (शुद्ध ज्ञान-दर्शन) का [कत्ता] कर्ता है ।

ब्रह्मदेव सूरि :
इस सूत्र में भिन्न प्रक्रमरूप व्यवहित सम्बन्ध से बीच के पद को ग्रहण करके व्याख्यान किया जाता है । [आदा] आत्मा [पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु] व्यवहारनय की अपेक्षा से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है । जैसे -- मन, वचन तथा शरीर की क्रिया से रहित निज शुद्ध आत्मतत्त्व की जो भावना है उस भावना से शून्य होकर अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों का तथा आदि शब्द से औदारिक, वैक्रियिक और आहारक रूप तीन शरीर तथा आहार आदि ६ पर्याप्तियों के योग्य जो पुद्गल पिंड रूप नोकर्म हैं उनका तथा उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से बाह्य विषय घट, पट आदि का भी यह जीव कर्ता होता है । [णिच्छयणयदो चेदणकम्मणादा] और निश्चय नय की अपेक्षा से यह आत्मा चेतन कर्मों का कर्ता है । वह इस तरह राग आदि विकल्प उपाधि से रहित निष्क्रिय, परमचैतन्य भावना से रहित होने के कारण जीव ने राग आदि को उत्पन्न करने वाले कर्मों का जो उपार्जन किया है उन कर्मों का उदय होने पर निष्क्रिय और निर्मल आत्मज्ञान को नहीं प्राप्त होता हुआ, यह जीव भावकर्म इस शब्द से वाच्य जो रागादि विकल्प रूप चेतन-कर्म हैं उनका अशुद्ध निश्चयनय से कर्ता होता है ।

अशुद्ध निश्चय का अर्थ यह है -- कर्म-उपाधि से उत्पन्न होने से अशुद्ध कहलाता है और उस समय अग्नि में तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय (उसी रूप) होने से निश्चय कहा जाता है, इस रीति से अशुद्ध और निश्चय इन दोनों को मिलाकर अशुद्ध निश्चय कहा जाता है । [सुद्धणया सुद्धभावाणं] जब जीव शुभ, अशुभ, मन, वचन, काय इन तीनों योगों के व्यापार से रहित शुद्ध, बुद्ध, एक स्वभाव से परिणमन करता है तब अनंतज्ञान, सुख आदि शुद्ध भावों का छद्मस्थ अवस्था में भावना रूप से विवक्षित एक देश शुद्ध निश्चयनय से कर्ता होता है और मुक्त अवस्था में शुद्ध निश्चय नय से अनन्तज्ञान-सुखादि शुद्ध भावों का कर्ता है । किन्तु परिणमन करते हुए शुद्ध, अशुद्ध भावों का कर्तृत्व जीव में जानना चाहिए और हस्त आदि के व्यापाररूप परिणमनों का कर्तापन न समझना चाहिए क्योंकि नित्य; निरंजन; निष्क्रिय ऐसे अपने आत्मस्वरूप की भावना से रहित जीव के कर्म आदि का कर्तृत्व कहा गया है; इसलिए उस निज शुद्ध आत्मा में ही भावना करनी चाहिए । इस तरह सांख्यमत के प्रति 'एकान्त से जीव कर्ता नहीं है' इस मत के निराकरण की मुख्यता से गाथा समाप्त हुई ॥८॥

अब यद्यपि आत्मा शुद्ध नय से विकार रहित परम आनंद रूप लक्षण वाले ऐसे सुखरूपी अमृत को भोगने वाला है तो भी अशुद्धनय से सांसारिक सुख-दुःख का भी भोगने वाला है, ऐसा कहते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – पुद्गल कर्म कौन-कौन से हैं?

उत्तर – ज्ञानावरण, दर्शनावरणादि आठ द्रव्य कर्म और छ: पर्याप्ति और तीन शरीर-ये नौ नोकर्म पुद्गल कर्म कहलाते हैं।

प्रश्न – भाव कर्म कौन से हैं?

उत्तर – राग, द्वेष, मोह आदि भावकर्म हैं।

प्रश्न – जीव के शुद्ध भाव कौन से हैं?

उत्तर – केवलज्ञान और केवलदर्शन जीव के शुद्धभाव हैं।

प्रश्न – कर्ता किसको कहते हैं ?

उत्तर – क्रिया या कार्य को करने वाले को कर्ता कहते हैं।

प्रश्न – नोकर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर – तीन शरीर और छह पर्याप्ति के योग्य पुद्गल वर्गणा को नोकर्म कहते हैं।

प्रश्न – जीव व्यवहार नय से किसका कर्ता है ?

उत्तर – व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का, नोकर्म का तथा घट-पटादिक का कर्ता है।

प्रश्न – अशुद्ध व शुद्ध निश्चयनय से किसका कर्ता है ?

उत्तर – अशुद्ध निश्चयनय से रागद्वेष आदि भाव कर्मों का कर्ता है, शुद्ध निश्चयनय से अपने शुद्ध चेतन भावों का कर्ता है, सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से कर्ता-कर्म-क्रिया का भेद ही नहीं है-तीनों एक हैं।

प्रश्न – राग-द्वेषादि को अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा के क्यों कहते हैं ?

उत्तर – कर्मोपाधि से राग-द्वेष उत्पन्न होता है इसलिए अशुद्ध है। जिस समय राग-द्वेष होते हैं, उस समय अग्नि से तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होकर होते हैं। राग-द्वेष आदि विकारों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आत्मा से भिन्न नहीं रहता है अत: निश्चय है। इन दोनों से मिलकर अशुद्ध निश्चयनय शब्द की निष्पत्ति हुई है।

प्रश्न – जीव को घट-पट आदि का कर्ता क्यों कहा जाता है ?

उत्तर – व्यवहारनय से लौकिक दृष्टि से निमित्त-नैमित्तिक संबंध से जीव को घट-पट आदि का कर्ता कहा जाता है, क्योंकि घट-पट की निष्पत्ति में जीव का योग (मन-वचन-काय) उपयोग (ज्ञान) निमित्त है। निश्चयनय से पुद्गल की परिणति पुद्गल में है और आत्मा की परिणति आत्मा में है अत: आत्मा घट-पट आदि का कर्ता नहीं है। जैसे निश्चयनय से पुद्गल पिण्डरूप उपादान कारण से उत्पन्न घट व्यवहार में वुंâभकारकृत कहलाता है, क्योंकि उसमें कुंभकार निमित्त है, उसी प्रकार अपने उपादान से कर्मरूप परिणाम निमित्त होते हैं, अत: निमित्त की अपेक्षा से जीव कर्मों का कर्ता और तज्जन्य कर्मों का अनुभव करने वाला होने से भोक्ता भी कहलाता है।

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+ जीव भोक्ता है -
ववहारा सुहदुक्खं, पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि
आदा णिच्चयणयदो, चेदणभावं खु आदस्स ॥9॥
कर्मफल सुख-दुक्ख भोगे जीव नय व्यवहार से ।
किन्तु चेतनभाव को भोगे सदा परमार्थ से ॥९॥
अन्वयार्थ : [आदा] आत्मा [ववहारा] व्यवहार से [सुहदुक्खं] सुख-दुःखरूप [पुग्गलकम्मप्फलं] पुद्गल कर्म के फल को [पभुंजेदि] भोगता है [खु] और [णिच्छयणयदो] निश्चयनय से [आदस्स चेदणभावं] आत्मा के चेतनभाव (ज्ञान, दर्शन, सुख आदि) को भोगता है ।

ब्रह्मदेव सूरि :
[ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं पभुजेदि] व्यवहार नय की अपेक्षा से सुख-दुःख रूप पुद्गल कर्म फलों को भोगता है । वह कर्म फलों का भोक्ता कौन है? [आदा] आत्मा । [णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स] और निश्चय-नय से तो स्पष्ट-रीति से चेतन-भाव का ही भोक्ता आत्मा है । वह चेतन-भाव किस सम्बन्धी है? आत्मा का अपना ही है । वह ऐसे - यहाँ पर जिस स्वाभाविक सुखामृत के भोजन के अभाव से आत्मा इन्द्रियों के सुखों को भोगता हुआ संसार में भ्रमण करता है, वही अतीन्द्रिय सुख सब प्रकार से ग्रहण करने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है । इस प्रकार कर्त्ता कर्म के फल को नहीं भोगता है', इस बौद्ध मत का खण्डन करने के लिए 'जीव कर्म फल का भोक्ता है' यह व्याख्यान रूप सूत्र समाप्त हुआ ॥९॥

आत्मा यद्यपि निश्चयनय से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशों का धारक है फिर भी व्यवहारनय से अपनी देह के बराबर है - यह बतलाते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – आत्मा सुख-दु:ख का भोगने वाला किस अपेक्षा से है?

उत्तर – व्यवहारनय की अपेक्षा से।

प्रश्न – शुद्ध ज्ञान और शुद्ध दर्शन कौन से हैं?

उत्तर – केवलज्ञान और केवलदर्शन शुद्ध ज्ञान-दर्शन हैं। इन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन अथवा क्षायिकज्ञान-क्षायिकदर्शन भी कहते हैं।

प्रश्न – शुद्ध ज्ञान-दर्शन किस जीव के पाये जाते हैं?

उत्तर – अरहंत-केवली भगवान व सिद्धों में शुद्ध ज्ञान-दर्शन पाया जाता है।

प्रश्न – आत्मा शुद्ध ज्ञान-दर्शन का भोगने वाला किस नय की अपेक्षा से है?

उत्तर –निश्चयनय की अपेक्षा से।

प्रश्न – भोक्ता किसे कहते हैं ?

उत्तर – वस्तुओं को भोगने वाला, अनुभव करने वाला भोक्ता कहलाता है।

प्रश्न – सुख किसको कहते हैं ?

उत्तर – साता कर्म के उदय से उत्पन्न आल्हादरूप परिणाम को सुख कहते हैं।

प्रश्न – दु:ख किसको कहते हैं ?

उत्तर – असाता कर्म के उदय से उत्पन्न खेदरूप परिणाम को दु:ख कहते हैं। विशेष-यह आत्मा निज शुद्ध आत्मीय ज्ञान से उत्पन्न परमार्थिक सुखामृतपान से शून्य हो उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से पंचेन्द्रियजन्य इष्ट-अनिष्ट विषयों से उत्पन्न सुख-दु:ख का भोक्ता है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से साता-असातारूप कर्म फल का भोक्ता है। अशुद्ध निश्चयनय से हर्ष-विषादरूप सुख-दु:ख परिणामों को भोक्ता है। शुद्ध निश्चयनय से निश्चयरत्नत्रय से उत्पन्न अविनाशी आनन्दामृत का भोक्ता है।

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+ जीव स्वदेह बराबर है -
अणुगुरुदेह-पमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा
असमुहदो ववहारा, णिच्चयणयदोअसंखदेसो वा ॥10॥
समुद्घात विन तनमापमय संकोच से विस्तार से ।
व्यवहार से यह जीव असंख्य प्रदेशमय परमार्थ से ॥१०॥
अन्वयार्थ : [चेदा] आत्मा [व्यवहारा] व्यवहार से [असमुहदो] समुद्घात के सिवाय अन्य सब समयों में [उवसंहारप्पसप्पदो] संकोच विस्तार गुण के कारण [अणुगुरुदेहपमाणो] अपने छोटे बड़े शरीर के बराबर [वा] और [णिच्छयणयदो] निश्चयनय से [असंखदेसो] असंख्यात प्रदेशों वाला (लोक के बराबर असंख्यात प्रदेशी) है ।

ब्रह्मदेव सूरि :
[अणुगुरुदेहपमाणो] निश्चयनय से अपने देह से भिन्न तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों की राशि से अभिन्न, ऐसे शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति के अभाव से तथा देह की ममता के मूलभूत आहार, भय, मैथुन, परिग्रह रूप संज्ञा आदि; समस्त राग आदि विभावों में आसक्ति के होने से जीव ने जो शरीर नामकर्म उपार्जन किया उसका उदय होने पर अपने छोटे तथा बड़े देह के बराबर होता है ।

प्रश्न – शरीर प्रमाण वाला कौन है?

उत्तर – [चेदा] चेतन अर्थात् जीव है ।

प्रश्न – किस कारण से?

उत्तर – [उवसंहारप्पसप्पदो] संकोच तथा विस्तार स्वभाव से । यानि-शरीर नामकर्म से उत्पन्न हुआ विस्तार तथा संकोच रूप जीव के धर्म हैं; उनसे यह जीव अपने देह के प्रमाण होता है ।

प्रश्न – यहाँ दृष्टान्त क्या है?

उत्तर – जैसे दीपक किसी बड़े पात्र से ढक दिया जाता है तो दीपक उस पात्र के भीतर सबको प्रकाशित करता है और यदि छोटे पात्र में रख दिया जाता है तो उस पात्र के भीतर प्रकाशित करता है ।

प्रश्न – फिर अन्य किस कारण से यह जीव देहप्रमाण है?

उत्तर – [असमुहदो] समुद्घात के न होने से । वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली नामक सात समुद्घातों के न होने से जीव शरीर के बराबर होता है । (समुद्घात की दशा में तो जीव देह से बाहर भी रहता है किन्तु समुद्घात के बिना देहप्रमाण ही रहता है)। सात समुद्घातों का लक्षण इस प्रकार कहा है- १. वेदना, २. कषाय, ३. विक्रिया, ४. मारणान्तिक,५. तैजस, ६. आहारक और ७. केवली-ये सात समुद्घात हैं ।

इनका स्वरूप इस प्रकार है --

अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेश देह से बाहर निकलकर उत्तर देह के प्रति जाते हैं उसको समुद्घात कहते हैं ।
  1. तीव्र पीड़ा के अनुभव से मूल शरीर न छोड़ते हुए जो आत्मा के प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना, सो वेदना समुद्घात है ॥१॥
  2. तीव्र क्रोधादिक कषाय के उदय से अपने धारण किये हुए शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के प्रदेश दूसरे को मारने के लिए शरीर के बाहर जाते हैं उसको कषाय समुद्घात कहते हैं ॥२॥
  3. किसी प्रकार की विक्रिया (छोटा या बड़ा शरीर अथवा अन्य शरीर) उत्पन्न करने के लिए मूल शरीर को न त्याग कर जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर जाना है उसको विक्रिया समुद्घात कहते हैं ॥३॥
  4. मरण के समय में मूल शरीर को न त्याग कर जहाँ इस आत्मा ने आगामी आयु बाँधी है उसके छूने के लिए जो आत्मप्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना सो मारणान्तिक समुद्घात है ॥४॥
  5. अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी कारण को देखकर क्रोधित संयम के निधान महामुनि के बाएँ कन्धे से सिन्दूर के ढेर जैसी क्रान्ति वाला, बारह योजन लम्बा, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मूल-विस्तार और नौ योजन के अग्र-विस्तार वाला, काहल (विलाव) के आकार का धारक पुरुष (पुतला) निकल करके बायीं प्रदक्षिणा देकर, मुनि जिस पर क्रोधी हो उस विरुद्ध पदार्थ को भस्म करके और उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जावे । जैसे द्वीपायन मुनि के शरीर से पुतला निकल कर द्वारिकानगरी को भस्म करने के बाद उसी ने द्वीपायन मुनि को भस्म किया और वह पुतला आप भी भस्म हो गया । सो अशुभ तैजस समुद्घात है । तथा जगत् को रोग, दुर्भिक्ष आदि से दुःखित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई ऐसे परम संयम निधान महाऋषि के मूल शरीर को न त्याग कर पूर्वोक्त देह के प्रमाण, सौम्य आकृति का धारक पुरुष दाएँ कंधे से निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा करके रोग, दुर्भिक्ष आदि को दूरकर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश कर जावे वह शुभ तैजस समुद्घात है ॥५॥
  6. पद और पदार्थ में जिसको कुछ संशय उत्पन्न हुआ हो, उस परम ऋद्धि के धारक महर्षि के मस्तक में से मूल शरीर को न छोड़कर, निर्मल स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकलकर अंतर्मुहूर्त में जहाँ कहीं भी केवली को देखता है तब उन केवली के दर्शन से अपने आश्रय मुनि को पद और पदार्थ का निश्चय उत्पन्न कराकर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जावे, सो आहारक समुद्घात है ॥६॥
  7. केवलियों के जो दंड-कपाट-प्रतर लोकपूरण होता है सो सातवाँ केवलिसमुद्घात है ॥७॥
अब नयों का विभाग कहते हैं । [ववहारा] अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से जीव अपने शरीर के बराबर है तथा [णिच्छयणयदो असंखदेसो वा] निश्चयनय से लोकाकाश प्रमाण जो असंख्य प्रदेश हैं उन प्रमाण असंख्यात प्रदेशों का धारक यह आत्मा है । [असंखदेसो वा] यहाँ जो वा शब्द दिया है उस शब्द से ग्रन्थकर्ता ने यह सूचित किया है कि स्वसंवेदन (आत्मानुभूति) से उत्पन्न हुए केवलज्ञान की उत्पत्ति की अवस्था में ज्ञान की अपेक्षा से व्यवहार नय द्वारा आत्मा लोक, अलोक व्यापक है । किन्तु नैयायिक, मीमांसक तथा सांख्य मत अनुयायी जिस तरह आत्मा के प्रदेशों की अपेक्षा से व्यापक मानते हैं, वैसा नहीं है । इसी तरह पाँचों इन्द्रियों और मन के विषयों के विकल्पों से रहित जो ध्यान का समय है उस समय आत्म-अनुभव रूप ज्ञान के विद्यमान होने पर भी बाहरी विषय रूप इन्द्रिय ज्ञान के अभाव से आत्मा जड़ माना गया है परन्तु सांख्य मत की तरह आत्मा सर्वथा जड़ नहीं है । इसी तरह आत्मा राग, द्वेष आदि विभाव परिणामों की अपेक्षा से (उनके न होने से) शून्य होता है किन्तु बौद्ध मत के समान अनन्त ज्ञानादि की अपेक्षा शून्य नहीं है ।

और भी अणुमात्र शरीर आत्मा है, यहाँ अणु शब्द से उत्सेधघनांगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण जो लब्धि-अपर्याप्तक सूक्ष्म-निगोद शरीर है, उस शरीर का ग्रहण करना चाहिए किन्तु पुद्गल परमाणु का ग्रहण न करना चाहिए एवं गुरु शरीर शब्द से एक हजार योजन प्रमाण जो महामत्स्य का शरीर है, उसको ग्रहण करना चाहिए और मध्यम अवगाहना से मध्यम शरीरों का ग्रहण है । तात्पर्य यह है-जीव देह के साथ ममत्व के निमित्त से देह को ग्रहण कर संसार में भ्रमण करता है, इसलिए देह आदि के ममत्व को छोड़कर निर्मोह अपने शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिए । इस प्रकार जीव स्वदेह-मात्र है इस व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ॥१०॥

अब तीन गाथाओं द्वारा नयविभाग पूर्वक संसारी जीव का स्वरूप और उसके अन्त में शुद्ध जीव का स्वरूप कहते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :
वेदना-कषाय-विक्रिया आदि के निमित्त से मूल शरीर को बिना छोड़े आत्मा के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है। इसके अतिरिक्त यह जीव हमेशा अपने शरीर प्रमाण ही रहता है ।

प्रश्न – जीव छोटे-बड़े शरीर के बराबर प्रमाण को धारण करने वाला कैसे है?

उत्तर – जीव में संकोच-विस्तार गुण स्वभाव से पाया जाता है। इसलिए व्यवहारनय की अपेक्षा से वह अपने द्वारा कर्मोदय से प्राप्त शरीर के आकार प्रमाण को धारण करता है।

प्रश्न – इस बात को किस उदाहरण से समझा जा सकता है?

उत्तर – जिस प्रकार एक दीपक को यदि छोटे कमरे में रखा जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा और यदि वही दीपक किसी बड़े कमरे में रख दिया जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा। ठीक उसी प्रकार एक जीव जब चींटी के रूप में जन्म लेता है तो वह उसके शरीर में समा जाता है और जब वही जीव हाथी के रूप में जन्म लेता है तो उसके शरीर में समा जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जीव छोटे शरीर में पहुँचने पर उसके बराबर और बड़े शरीर में पहुँचने पर उस बड़े शरीर के बराबर हो जाता है। इसी दृष्टि से जीव को व्यवहारनय से अणुगुरु-देह प्रमाण वाला बतलाया है। समुद्घात में ऐसा नहीं होता है।

प्रश्न – समुद्घात के समय ऐसा क्यों नहीं होता?

उत्तर – इसका कारण यह है कि समुद्घात के समय जीव शरीर के बाहर फैल जाता है।

प्रश्न – जीव असंख्यातप्रदेशी किस नय की अपेक्षा से है?

उत्तर – जीव निश्चयनय की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशी होता है।

प्रश्न – समुद्घात किसे कहते हैं?

उत्तर – मूल शरीर से संबंध छोड़े बिना आत्मप्रदेशों का तैजस व कार्मण शरीर के साथ बाहर फैल जाना समुद्घात कहलाता है।

प्रश्न – समुद्घात कितने प्रकार का होता है?

उत्तर – समुद्घात सात प्रकार का होता है-१-वेदना समुद्घात, २-कषायसमुद्घात, ३-विक्रिया-समुद्घात, ४-मारणांतिक समुद्घात, ५-तैजस समुद्घात, ६-आहारक समुद्घात और ७-केवली समुद्घात।

प्रश्न – वेदना समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर – तीव्र वेदना (पीड़ा) के अनुभव से मूल शरीर का त्याग न करके आत्मा के प्रदेशों का शरीर से बाहर जाना, वेदना समुद्घात है।

प्रश्न – कषाय समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर – तीव्र क्रोधादिक कषायों के उदय से मूल अर्थात् धारण किये हुए शरीर को न छोड़कर जो आत्मा के प्रदेश दूसरे को मारने के लिए शरीर के बाहर जाते हैं, उसको कषाय समुद्घात कहते हैं।

प्रश्न – विक्रिया समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर – किसी प्रकार की विक्रिया (कामादिजनित विकार) उत्पन्न करने या कराने के अर्थ मूलशरीर को न त्यागकर जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर जाना है, उसको विक्रिया समुद्घात कहते हैं, अथवा देवों के मूल शरीर को न छोड़कर अन्यत्र गमनागमन होता है, वह वैक्रियिक समुद्घात है।

प्रश्न – मारणान्तिक समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर – मरणान्त समय में मूल शरीर को न त्याग करके, जहाँ कहीं इस आत्मा ने आयु बांधा है (अग्रिम जन्मस्थान) का स्पर्श करने के लिए जो प्रदेशों का शरीर से बाह्य गमन करना मारणान्तिक समुद्धात है।

प्रश्न – तैजस समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर – संसार को रोग या दुर्भिक्ष आदि से दु:खी देखकर संयमी महामुनि के दया उत्पन्न होने पर उनकी तपस्या के प्रभाव से मूल शरीर को न छोड़कर उनके दाहिने कंधे से पुरुष के आकार का सफेद पुतला निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा देकर उस रोगादि को दूर कर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जाता है, वह शुभ तैजस समुद्घात कहलाता है। अनिष्टकारक कारण देखकर संयमी महामुनि के मन में क्रोध होने पर उनके बाँये कंधे से पुरुषाकार और सिंदूर के रंग का पुतला निकलकर जिस पर क्रोध हो उसे बांई प्रदक्षिणा से भस्म कर उस मुनि को भी भस्म कर देता है, वह अशुभ तैजस समुद्घात है।

प्रश्न – आहारक समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर – छठवें गुणस्थान के किसी ऋद्धिधारी मुनि के तत्व में शंका होने पर तपोबल से मूल शरीर को न छोड़कर मस्तक से एक हाथ बराबर पुरुषाकार, सफेद स्फटिक के समान पुतला निकलकर केवली, श्रुतकेवली के चरण मूल में जाकर अपनी श्का दूर कर अन्तर्मुहूर्त में अपने स्थान में प्रवेश करता है, उसे आहारक समुद्घात कहते हैं।

प्रश्न – केवली समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर – केवलज्ञान के होने पर मूल शरीर को न छोड़कर दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रिया द्वारा केवली की आत्मा के प्रदेशों का फैलना, केवली समुद्घात है।

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+ जीव संसारी है -
पुढविजलतेउवाऊ, वणप्फदी विविहथावरेइंदी
विगतिगचदुपंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी ॥11॥
भूजलानलवनस्पति अर वायु थावर जीव हैं ।
दो इन्द्रियों से पाँच तक शंखादि सब त्रस जीव हैं ॥११॥
अन्वयार्थ : [पुढविजलतेऊवाऊवणप्फदी] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक [विविह-थावरेइंदी] ये विविध प्रकार के स्थावर जीव एकेन्द्रिय हैं और [संखादी विग-तिग-चदु पंचक्खा] शंख आदि द्वीन्द्रिय, चींटी आदि त्रीन्द्रिय, भौंरा आदि चतुरिन्द्रिय और मनुष्यादि पंचेन्द्रिय जीव [तसजीवा] त्रस जीव [होंति] होते हैं ।

ब्रह्मदेव सूरि :
यहाँ होति आदि पदों की व्याख्या की जाती है । [होति] अल्पज्ञ जीव, अतीन्द्रिय अमूर्तिक अपने परमात्म स्वभाव के अनुभव से उत्पन्न सुखरूपी अमृत रस को न पा करके, इन्द्रियों से उत्पन्न तुच्छ सुख की अभिलाषा करते हैं । उस इन्द्रियजनित सुख में आसक्त होकर एकेन्द्रिय आदि जीवों का घात करते हैं, उस जीव-घात से उपार्जन किये त्रस, स्थावर नामकर्म के उदय से स्वयं त्रस, स्थावर होते हैं । किस प्रकार होते हैं? [पुढविजलतेयवाऊ वणप्फदीविविहथावरेइंदी] पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा वनस्पति जीव होते हैं । वे कितने हैं? अनेक प्रकार के हैं । शास्त्र में कहे हुए अपनेअपने अवान्तर भेद से बहुत प्रकार के हैं । स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर, एकेन्द्रिय जाति कर्म के उदय से स्पर्शन इन्द्रिय सहित एकेन्द्रिय होते हैं । इस प्रकार से केवल स्थावर ही नहीं होते बल्कि [विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा] दो, तीन, चार तथा पाँच इन्द्रियों वाले त्रस नामकर्म के उदय से त्रस जीव भी होते हैं । वे कैसे हैं? [संखादी] शंख आदि । स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों वाले शंख, कृमि, सीप आदि दो इन्द्रिय जीव हैं । स्पर्शन, रसना तथा घ्राण इन तीन इन्द्रियों वाले कुन्थु, पिपीलिका [कीड़ी],खटमल आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं । स्पर्शन, रसना, घ्राण और नेत्र इन चार इन्द्रियों वाले डांस, मच्छर, मक्खी, भौंरा, बर्र आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँचों इन्द्रियों वाले मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय जीव हैं ।

सारांश यह है कि निर्मल ज्ञान, दर्शन स्वभाव निज परमात्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख है उसको न पाकर जीव इन्द्रियों के सुख में आसक्त होकर जो एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा करते हैं उससे त्रस तथा स्थावर होते हैं, ऐसा पहले कह चुके हैं, इस कारण त्रस, स्थावरों में जो उत्पत्ति होती है, उसको मिटाने के लिए उसी पूर्वोक्त प्रकार से परमात्मा में भावना करनी चाहिए ॥११॥

अब उसी त्रस तथा स्थावरपन को १४ जीवसमासों द्वारा प्रकट करते हैं --


आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – संसारी जीवों के कितने भेद हैं?

उत्तर – संसारी जीवों के २ भेद हैं-१-स्थावर, २-त्रस।

प्रश्न – स्थावर जीव के कितने भेद हैं?

उत्तर – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीव ये स्थावर के पाँच भेद हैं।

प्रश्न – त्रस जीव कौन से हैं?

उत्तर – दो इंद्रिय से पाँच इंद्रिय तक के जीव त्रस हैं।

प्रश्न – शंख, चींटी, मक्खी, मनुष्य आदि कितने इंद्रिय वाले जीव हैं?

उत्तर – शंख-दो इंद्रिय जीव (स्पर्शन-रसना)। चींटी-तीन इंद्रिय जीव (स्पर्शन, रसना, घ्राण)। मक्खी-चार इंद्रिय जीव (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु)। मनुष्य, नारकी, देव, हाथी, घोड़ा आदि पंचेन्द्रिय जीव हैं।

प्रश्न – जीव स्थावर या त्रस जीवों में किस कर्म के उदय से पैदा होता है?

उत्तर – स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर जीवों में उत्पन्न होता है तथा त्रस नामकर्म के उदय से त्रस जीवों में उत्पन्न होता है।

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+ चौदह जीव समास -
समणा अमणा णेया, पंचिंदिय णिम्मणा परे सव्वे
बादरसुहुमेइंदी, सव्वे पज्जत्त इदरा य ॥12॥
पंचेन्द्रियी संज्ञी-असंज्ञी शेष सब असंज्ञि ही हैं ।
एकेन्द्रियी हैं सूक्ष्म-बादर पर्याप्तकेतर सभी हैं ॥१२॥
अन्वयार्थ : [पंचिंदिय] पंचेन्द्रिय जीव [समणा] मन सहित और [अमणा] मन रहित [णेया] जानना चाहिए । [परे सव्वे] शेष सभी (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जीव) [णिम्मणा] मन रहित हैं । [एइंदी बादर सुहुमा] एकेन्द्रिय जीव बादर व सूक्ष्म के भेद से दो-दो प्रकार के हैं [सव्वे पज्जत्त य इदरा] ये सभी (सातों प्रकार के जीव) पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं (इस प्रकार ये १४ जीवसमास हो जाते हैं)

ब्रह्मदेव सूरि :
[समणा अमणा] समस्त शुभ-अशुभ विकल्पों से रहित जो परमात्मरूप द्रव्य उससे विलक्षण अनेक तरह के विकल्पजालरूप मन है, ऐसे मन सहित जीव को 'समनस्कसंज्ञी' कहते हैं तथा मन से शून्य अमनस्क यानि असंज्ञी [णेया] जानने चाहिए । [पंचिंदिया] पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी तथा असंज्ञी दोनों होते हैं । ऐसे संज्ञी तथा असंज्ञी ये दोनों पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च ही होते हैं । नारकी, मनुष्य और देव संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं । [णिम्मणा परे सव्वे] पंचेन्द्रिय से भिन्न अन्य सब द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव मन रहित असंज्ञी होते हैं । [बादरसुहमेइंदी] बादर और सूक्ष्म जो एकेन्द्रिय जीव हैं, वे भी आठ पाँखुड़ी के कमल के आकार जो द्रव्य मन और उस द्रव्य मन के आधार से शिक्षा, वचन, उपदेश आदि का ग्राहक भावमन, इन दोनों प्रकार के मन न होने से असंज्ञी ही हैं । [सव्वे पज्जत्त इदरा य] इस तरह उक्त प्रकार से संज्ञी और असंज्ञी दोनों पंचेन्द्रिय और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप विकलत्रय तथा बादर सूक्ष्म दो तरह के एकेन्द्रिय ये सात भेद हुए । आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा तथा मन ये ६ पर्याप्तियाँ हैं । इनमें से एकेन्द्रिय जीव के आहार, शरीर, स्पर्शनेन्द्रिय तथा श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियाँ होती हैं । विकलेन्द्रिय [दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय] तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन के बिना पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं ।

इस गाथा में कहे हुए क्रम से वे जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों के पूर्ण होने से सातों पर्याप्त हैं और अपनी पर्याप्तियाँ पूरी न होने की दशा में सातों अपर्याप्त भी होते हैं । ऐसे चौदह जीवसमास जानने चाहिए । --

इन्द्रिय, काय, आयु ये तीन प्राण, पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों ही के होते हैं । श्वासोच्छ्वास पर्याप्त के ही होता है । वचन बल प्राण पर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि के ही होता है । मनोबल प्राण संज्ञी पर्याप्त के ही होता है ॥१॥

पर्याप्त अवस्था में संज्ञी पंचेन्द्रियों के १० प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियों के मन के बिना ९ प्राण, चौइन्द्रियों के मन और कर्ण इन्द्रिय के बिना ८ प्राण, तीन इन्द्रियों के मन, कर्ण और चक्षु के बिना ७ प्राण, दो इन्द्रियों के मन, कर्ण, चक्षु और घ्राण के बिना ६ प्राण और एकेन्द्रियों के मन, कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना तथा वचन बल के बिना ४ प्राण होते हैं । अपर्याप्त जीवों में संज्ञी तथा असंज्ञी इन दोनों पंचेन्द्रियों के श्वासोच्छ्वास, वचनबल और मनोबल के बिना ७ प्राण होते हैं और चौइन्द्रिय से एकेन्द्रिय तक क्रम से एक-एक प्राण घटता हुआ है ॥२॥

इन दो गाथाओं द्वारा कहे हुए क्रम से यथासंभव इन्द्रियादिक दस प्राण समझने चाहिए । अभिप्राय यह है कि इन पर्याप्तियों तथा प्राणों से भिन्न अपना शुद्ध आत्मा ही उपादेय है ॥१२॥

अब शुद्ध पारिणामिक परम भाव का ग्राहक जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है उसकी अपेक्षा सब जीव शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव के धारक हैं तो भी अशुद्धनय से चौदह मार्गणा-स्थान और चौदह गुणस्थानों सहित होते हैं, ऐसा बतलाते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :
पंचेन्द्रिय के संज्ञी-असंज्ञी दो भेद, विकलेन्द्रिय के तीन भेद और एकेन्द्रिय के सूक्ष्म-बादर दो भेद ये सात हुए, इन सातों को पर्याप्त-अपर्याप्त से गुणा करने से चौदह जीव समास हो जाते हैं ।

प्रश्न – पंचेन्द्रिय जीव के कितने भेद होते हैं?

उत्तर – दो भेद होते हैं-संज्ञी और असंज्ञी।

प्रश्न – मनसहित एवं मनरहित जीव कौन से हैं?

उत्तर – पंचेन्द्रिय जीव मनरहित भी होते हैं व मनसहित भी होते हैं किन्तु एकेन्द्रिय से चारइंद्रिय तक सभी जीव मनरहित होते हैं।

प्रश्न – एकेन्द्रिय जीव के कितने भेद हैं?

उत्तर – दो भेद हैं-बादर और सूक्ष्म।

प्रश्न – बादर जीव किन्हें कहते हैं?

उत्तर – जो स्वयं भी दूसरों से रुकते हैं और दूसरों को भी रोकते हैं उनको बादर जीव कहते हैं।

प्रश्न – सूक्ष्म जीव किन्हें कहते हैं?

उत्तर – जो दूसरों को नहीं रोकते हैं तथा दूसरों से रुकते भी नहीं हैं उन्हें सूक्ष्म जीव कहते हैं।

प्रश्न – पर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं?

उत्तर – जिन जीवों की आहारादि पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाये उन्हें पर्याप्तक जीव कहते हैं।

प्रश्न – अपर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं?

उत्तर – जिन जीवों की आहार आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं उन्हें अपर्याप्तक जीव कहते हैं।

प्रश्न – पर्याप्ति किसे कहते हैं?

उत्तर – गृहीत आहारवर्गणा को खल-रस-भाग आदि रूप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति कहते हैं।

प्रश्न – पर्याप्तियों के कितने भेद हैं?

उत्तर – पर्याप्ति के ६ भेद हैं-१. आहार, २.शरीर, ३. इन्द्रिय, ४. श्वासोच्छ्वास, ५. भाषा, ६. मन।

प्रश्न – किस जीव की कितनी पर्याप्तियाँ हैं?

उत्तर – एकेन्द्रिय जीव के ४ पर्याप्तियाँ-आहार, शरीर, इंद्रिय और श्वासोच्छ्वास होती हैं। विकलत्रय जीव व असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मन पर्याप्ति को छोड़कर पाँच होती हैं तथा सैनी पंचेन्द्रिय जीव के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।

प्रश्न – जीव समास किसे कहते हैं?

उत्तर – जिनके द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकार की जाति जानी जाय उन धर्मों को अनेक पदार्थों का संग्रह करने वाले होने से जीव-समास कहते हैं।

प्रश्न – चौदह जीवसमास कौन-कौन से होते हैं?

उत्तर – एकेन्द्रिय सूक्ष्म, बादर ·२ दो इन्द्रिय ·१ तीन इन्द्रिय ·१ चार इन्द्रिय ·१ पंचेन्द्रिय असैनी ·१ पंचेन्द्रिय सैनी ·१ ·७ ये सात प्रकार के जीव पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं अत: ७²२·१४ जीव समास होते हैं।

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+ उभयनय से संसारी जीव का स्वरूप -
मग्गणगुणठाणेहिंय, चउदसहिंह-वंतितहअसुद्धणया
विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ॥13॥
भवलीन जिय विध चतुर्दश गुणस्थान मार्गणथान से ।
अशुद्धनय से कहे है पर शुद्धनय से शुद्ध हैं ॥१३॥
अन्वयार्थ : [तह] तथा [संसारी] संसारी जीव [असुद्धणया] अशुद्धनय से [मग्गण गुणठाणेहि चउदसहि] मार्गणा व गुणस्थानों की अपेक्षा चौदह-चौदह भेद वाले [हवंति] होते हैं [य] और [सुद्धणया] शुद्धनय से [सव्वे] सभी जीव [सुद्धा] शुद्ध [हु] ही [विण्णेया] जानना चाहिए ।

ब्रह्मदेव सूरि :
[मग्गणगुणठाणेहि य हवंति तह विण्णेया] जिस प्रकार पूर्व गाथा में कहे हुए १४ जीवसमासों से जीवों के १४ भेद होते हैं उसी तरह मार्गणा और गुणस्थानों से भी होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । मार्गणा और गुणस्थानों से कितनी संख्या वाले होते हैं? [चउदसहि] प्रत्येक से १४-१४ संख्या वाले हैं किस अपेक्षा से? [अशुद्धणया] अशुद्धनय की अपेक्षा से । मार्गणा और गुणस्थानों से अशुद्ध नय की अपेक्षा चौदह-चौदह प्रकार के कौन होते हैं? "संसारी" संसारी जीव होते हैं । "सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" वे ही सब संसारी जीव शुद्ध यानि-स्वाभाविक शुद्ध ज्ञायक रूप एक-स्वभावधारक हैं । किस अपेक्षा से? शुद्ध नय से अर्थात् शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से ।

अब शास्त्र प्रसिद्ध दो गाथाओं द्वारा गुणस्थानों के नाम कहते हैं --

१. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरतसम्यक्त्व, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत, ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसाम्पराय,११. उपशांतमोह, १२. क्षीणमोह, १३.सयोगकेवली और १४. अयोगकेवली । इस तरह क्रम से चौदह गुणस्थान जानने चाहिए ॥२॥

अब इन गुणस्थानों में से प्रत्येक का संक्षेप से लक्षण कहते हैं । वह इस प्रकार
  1. स्वाभाविक शुद्ध केवलज्ञान केवलदर्शन रूप अखण्ड एक प्रत्यक्ष प्रतिभास-मय निजपरमात्मा आदि षट् द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थों में तीन मूढ़ता आदि पच्चीस दोष रहित वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए नयविभाग से जिस जीव के श्रद्धान नहीं है वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है ॥१॥
  2. पाषाणरेखा (पत्थर में उकेरी हुई लकीर) के समान जो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ में से किसी एक के उदय से प्रथम-औपशमिक सम्यक्त्व से गिरकर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त न हो, तब तक सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनों के बीच के परिणाम वाला जीव सासादन होता है ॥२॥
  3. जो अपने शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों को वीतराग सर्वज्ञ के कहे अनुसार मानता है और अन्य मत के अनुसार भी मानता है वह मिश्रदर्शनमोहनीय कर्म के उदय से दही और गुड़ मिले हुए पदार्थ की भाँति मिश्र-गुणस्थान वाला है ॥३॥

शंका – 'चाहे जिससे हो मुझे तो एक देव से मतलब है अथवा सब ही देव वन्दनीय हैं, निन्दा किसी भी देव की न करनी चाहिए' इस प्रकार वैनयिक और संशय मिथ्यादृष्टि मानता है; तब उनमें तथा मिश्र-गुणस्थानवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि में क्या अन्तर है?

उत्तर – वैनयिक मिथ्यादृष्टि तथा संशयमिथ्यादृष्टि तो सभी देवों में तथा सब शास्त्रों में से किसी एक की भक्ति के परिणाम से मुझे पुण्य होगा ऐसा मानकर संशय रूप से भक्ति करता है; उसको किसी एक देव में निश्चय नहीं है और मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव के दोनों में निश्चय है । बस, यही अन्तर है ।
  • जो 'स्वाभाविक अनंतज्ञान आदि अनंतगुण का आधारभूत निज परमात्मद्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं' इस तरह सर्वज्ञदेव-प्रणीत निश्चय व व्यवहारनय को साध्य-साधक भाव से मानता है, परन्तु भूमि की रेखा के समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषाय के उदय से मारने के लिए कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रिय-सुख का अनुभव करता है; यह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती का लक्षण है ॥४॥
  • पूर्वोक्त प्रकार से सम्यग्दृष्टि होकर भूमि रेखादि के समान क्रोधादि अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषायों के उदय का अभाव होने पर अन्तरंग में निश्चयनय से एकदेश राग आदि से रहित स्वाभाविक सुख के अनुभव लक्षण तथा बाह्य विषयों में हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इनके एकदेश त्याग रूप पाँच अणुव्रतों में और दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरत, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ॥१॥ इस गाथा में कहे हुए श्रावक के एकादश स्थानों में से किसी एक में वर्तने वाला है वह पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक होता है ॥५॥
  • जब वही सम्यग्दृष्टि; धूलि की रेखा के समान क्रोध आदि प्रत्याख्यानावरण तीसरी कषाय के उदय का अभाव होने पर निश्चय नय से अंतरंग में राग आदि उपाधि-रहित; निज-शुद्ध अनुभव से उत्पन्न सुखामृत के अनुभव लक्षण रूप और बाहरी विषयों में सम्पूर्ण रूप से हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह के त्याग रूप ऐसे पाँच महाव्रतों का पालन करता है, तब वह बुरे स्वप्न आदि प्रकट तथा अप्रकट प्रमाद सहित होता हुआ छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत होता है ॥६॥
  • वही जलरेखा के तुल्य संज्वलन कषाय का मन्द उदय होने पर प्रमादरहित जो शुद्ध आत्मा का अनुभव है उसमें मल उत्पन्न करने वाले व्यक्त अव्यक्त प्रमादों से रहित होकर; सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत होता है ॥७॥
  • वही संज्वलन कषाय का अत्यन्त मन्द उदय होने पर; अपूर्व परम आह्लाद एक सुख के अनुभव रूप अपूर्वकरण में उपशमक या क्षपक नामक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है ॥८॥
  • देखे, सुने और अनुभव किये हुए भोगों की वांछादिरूप संपूर्ण संकल्प तथा विकल्प रहित अपने निश्चल परमात्मस्वरूप के एकाग्र ध्यान के परिणाम से जिन जीवों के एक समय में परस्पर अंतर नहीं होता वे वर्ण तथा संस्थान के भेद होने पर भी अनिवृत्तिकरण उपशमक क्षपक संज्ञा के धारक; अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषाय आदि इक्कीस प्रकार की चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण में समर्थ नवम गुणस्थानवर्ती जीव हैं ॥९॥
  • सूक्ष्म परमात्मतत्त्व भावना के बल से जो सूक्ष्म कृष्टि रूप लोभ कषाय के उपशमक और क्षपक हैं वे दशम गुणस्थानवर्ती हैं ॥१०॥
  • परम उपशममूर्ति निज आत्मा के स्वभाव अनुभव के बल से सम्पूर्ण मोह को उपशम करने वाले ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं ॥११॥
  • उपशमश्रेणी से भिन्न क्षपक श्रेणी के मार्ग से कषायरहित शुद्ध आत्मा की भावना के बल से जिनके समस्त कषाय नष्ट हो गये हैं वे बारहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं ॥१२॥
  • मोह का नाश होने के पश्चात् अंतर्मुहूर्त काल में ही निज शुद्ध आत्मानुभव रूप एकत्ववितर्क अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान में स्थिर होकर उसके अन्तिम समय में ज्ञानावरण; दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों को एक साथ एक काल में सर्वथा निर्मूल करके मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान सम्पूर्ण निर्मल केवलज्ञान किरणों से लोक अलोक के प्रकाशक तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन भास्कर (सूर्य) होते हैं ॥१३॥
  • और मन, वचन, कायवर्गणा के अवलम्बन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण जो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्द रूप योग है उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं ॥१४॥ तदनंतर निश्चय रत्नत्रयात्मक कारणभूत समयसार नामक जो परम यथाख्यात चारित्र है उससे पूर्वोक्त चौदह गुणस्थानों से रहित, ज्ञानावरण आदि अष्ट कर्मों से रहित तथा सम्यक्त्व आदि अष्ट गुणों में गर्भित निर्नाम (नाम रहित), निर्गोत्र (गोत्र रहित) आदि, अनन्त गुण सहित सिद्ध होते हैं ।

  • यहाँ शिष्य पूछता है कि केवलज्ञान हो जाने पर जब मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रय की पूर्णता हो गई तो उसी समय मोक्ष होना चाहिए, सयोगी और अयोगी इन दो गुणस्थानों में रहने का कोई समय ही नहीं है? इस शंका का परिहार करते हैं कि केवलज्ञान हो जाने पर यथाख्यात चारित्र तो हो जाता है किन्तु परम यथाख्यात चारित्र नहीं होता है । यहाँ दृष्टान्त है-जैसे कोई मनुष्य चोरी नहीं करता किन्तु उसको चोर के संसर्ग का दोष लगता है, उसी तरह सयोग केवलियों के चारित्र का नाश करने वाले चारित्रमोह के उदय का अभाव है तो भी निष्क्रिय शुद्ध आत्मा के आचरण से विलक्षण जो तीन योगों का व्यापार है वह चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है । तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अंत समय को छोड़कर शेष चार अघातिया कर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अन्तिम समय में उन अघातिया कर्मों का मन्द उदय होने पर चारित्र में दोष का अभाव हो जाने से अयोगी जिन मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं । इस प्रकार चौदह गुणस्थानों का व्याख्यान समाप्त हुआ ।

    अब चौदह मार्गणाओं का कथन किया जाता है --

    गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी तथा आहार ॥१॥

    इस तरह क्रम से गति आदि चतुर्दश मार्गणा जाननी चाहिए ।
    1. निज आत्मा की प्राप्ति से विलक्षण नारक, तिर्यक्, मनुष्य तथा देवगति भेद से गतिमार्गणा चार प्रकार की है ॥१॥
    2. अतीन्द्रिय; शुद्ध आत्मतत्त्व के प्रतिपक्षभूत एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय भेद से इन्द्रियमार्गणा पाँच प्रकार की है ॥२॥
    3. शरीर रहित आत्मतत्त्व से भिन्न पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस काय के भेद से कायमार्गणा छह तरह की होती है ॥३॥
    4. व्यापार रहित शुद्ध आत्मतत्त्व से विलक्षण मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग के भेद से योगमार्गणा तीन प्रकार की है अथवा विस्तार से सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग और अनुभयमनोयोग के भेद से चार प्रकार का मनोयोग है । ऐसे ही सत्य, असत्य, उभय, अनुभय इन चार भेदों से वचनयोग भी चार प्रकार का है एवं औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण ऐसे काययोग सात प्रकार का है । सब मिलकर योगमार्गणा १५ प्रकार की हुई ॥४॥
    5. वेद के उदय से उत्पन्न होने वाले रागादिक दोषों से रहित जो परमात्मद्रव्य है उससे भिन्न स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ऐसे तीन प्रकार की वेदमार्गणा है ॥५॥
    6. कषाय रहित शुद्ध आत्मा के स्वभाव से प्रतिकूल क्रोध, मान, माया, लोभ भेदों से चार प्रकार की कषायमार्गणा है । विस्तार से अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन भेद से १६ कषाय और हास्यादिक भेद से ९ नोकषाय ये सब मिलकर पच्चीस प्रकार की कषायमार्गणा है ॥६॥
    7. मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल, पाँच ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ये तीन अज्ञान, इस तरह ८ प्रकार की ज्ञानमार्गणा है ॥७॥
    8. सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पाँच प्रकार का चारित्र और संयमासंयम तथा असंयम ये दो प्रतिपक्षी; ऐसे संयममार्गणा सात प्रकार की है ॥८॥
    9. चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शन इन भेदों से दर्शनमार्गणा चार प्रकार की है ॥९॥
    10. कषायों के उदय से रँगी हुई जो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति है, उससे भिन्न जो परमात्मद्रव्य है; उस परमात्मद्रव्य से विरोध करने वाली कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्य और शुक्ल ऐसे ६ प्रकार की लेश्यामार्गणा है ॥१०॥
    11. भव्य और अभव्य भेद से भव्य-मार्गणा दो प्रकार की है ॥११॥ यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि 'शुद्ध पारिणामिक परमभावरूप शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव गुणस्थान तथा मार्गणास्थानों से रहित है' ऐसा पहले कहा गया है और अब यहाँ भव्य अभव्य रूप से मार्गणा में भी आपने पारिणामिक भाव कहा; सो यह तो पूर्वापरविरोध है? अब इस शंका का समाधान करते हैं - पूर्व प्रसंग में तो शुद्ध पारिणामिक भाव की अपेक्षा से गुणस्थान और मार्गणा का निषेध किया है और यहाँ पर अशुद्ध पारिणामिक भाव रूप से भव्य तथा अभव्य ये दोनों मार्गणा में भी घटित होते हैं ।

    यदि कदाचित् ऐसा कहो कि- 'शुद्ध अशुद्ध भेद से पारिणामिक भाव दो प्रकार का नहीं है किन्तु पारिणामिक भाव शुद्ध ही है' तो वह भी ठीक नहीं; क्योंकि यद्यपि सामान्य रूप से पारिणामिक भाव शुद्ध है, ऐसा कहा जाता है, तथापि अपवाद व्याख्यान से अशुद्ध पारिणामिक भाव भी है । इसी कारण जीवभव्याभव्यत्वानि च इस तत्त्वार्थसूत्र (अ० २, सू. ७) में जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व इन भेदों से पारिणामिक भाव तीन प्रकार का कहा है । उनमें शुद्ध चैतन्यरूप जो जीवत्व है वह अविनश्वर होने के कारण शुद्ध द्रव्य के आश्रित होने से शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा शुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है । तथा जो कर्म से उत्पन्न दश प्रकार के प्राणों रूप जीवत्व है वह जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व के भेद से तीन तरह का है और ये तीनों विनाशशील होने के कारण पर्याय के आश्रित होने से पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अशुद्ध पारिणामिकभाव कहे जाते हैं । इनकी अशुद्धता किस प्रकार से है?' इस शंका का उत्तर यह है - यद्यपि ये तीनों अशुद्ध पारिणामिक व्यवहारनय से संसारी जीव में हैं, तथापि सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया इस वचन से ये तीनों भाव शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा नहीं हैं और मुक्त जीवों में तो सर्वथा ही नहीं है; इस कारण उनकी अशुद्धता कही जाती है । उन शुद्ध तथा अशुद्ध पारिणामिक भाव में से जो शुद्ध पारिणामिक भाव है वह ध्यान के समय ध्येय (ध्यान करने योग्य) होता है, ध्यानरूप नहीं होता क्योंकि ध्यान पर्याय विनश्वर है; और शुद्ध पारिणामिक द्रव्यरूप होने के कारण अविनाशी है, यह सारांश है । सम्यक्त्व के भेद से सम्यक्त्वमार्गणा तीन प्रकार की है ।
  • औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक और मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीन विपक्ष भेदों के साथ छह प्रकार की भी सम्यक्त्वमार्गणा जाननी चाहिए ॥१२॥
  • संज्ञित्व तथा असंज्ञित्व से विलक्षण परमात्मस्वरूप से भिन्न संज्ञिमार्गणा संज्ञी तथा असंज्ञी भेद से दो प्रकार की है ॥१३॥
  • आहारक अनाहारक जीवों के भेद से आहार-मार्गणा भी दो प्रकार की है ॥१४॥ इस प्रकार चौदह मार्गणाओं का स्वरूप जानना चाहिए । इस रीति से पुढविजलतेयवाऊ इत्यादि दो गाथाओं और तीसरी गाथा णिक्कम्मा अट्टगुणा के तीन पदों से --

  • गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा चौदह मार्गणा और उपयोगों से इस प्रकार क्रमशः बीस प्ररूपणा कही हैं ॥१॥

    इत्यादि गाथा में कहा हुआ स्वरूप धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन सिद्धान्त ग्रन्थ हैं उनके बीज-पद की सूचना ग्रन्थकार ने की है । सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया इस तृतीय गाथा के चौथे पाद से शुद्ध आत्मतत्त्व के प्रकाशक पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीनों प्राभृतों का बीजपद सूचित किया है ।

    यहाँ गुणस्थान और मार्गणाओं में केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों तथा क्षायिक सम्यक्त्व और अनाहारक शुद्ध आत्मा के स्वरूप हैं, अतः साक्षात् उपादेय हैं; और जो शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप कारण समयसार है वह उसी उपादेयभूत का विवक्षित एक देश शुद्ध नय द्वारा साधक होने से परम्परा से उपादेय है, इसके सिवाय और सब हेय हैं । और जो अध्यात्म ग्रन्थ का बीजपदभूत शुद्ध आत्मा का स्वरूप कहा है वह तो उपादेय ही है । इस प्रकार जीवाधिकार में शुद्ध, अशुद्ध जीव के कथन की मुख्यता से सप्तम स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ॥१३॥

    अब निम्नलिखित गाथा के पूर्वार्द्ध द्वारा सिद्धों के स्वरूप का और उत्तरार्द्ध द्वारा उनके ऊर्ध्वगमन स्वभाव का कथन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – किस नय की अपेक्षा से जीव चौदह प्रकार के होते हैं?

    उत्तर – व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान वाले होने से चौदह प्रकार के होते हैं।

    प्रश्न – किस नय की अपेक्षा से जीव शुद्ध माना जाता है ?

    उत्तर – शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से।

    प्रश्न – मार्गणा के कितने भेद हैं? नाम बताइये।

    उत्तर – मार्गणाएँ चौदह होती हैं-१. गति मार्गणा २. इंद्रिय मार्गणा ३. कायमार्गणा ४. योगमार्गणा ५. वेदमार्गणा ६. कषायमार्गणा ७. ज्ञानमार्गणा ८. संयममार्गणा ९. दर्शनमार्गणा १०. लेश्यामार्गणा ११. भव्यत्वमार्गणा १२. सम्यक्त्व मार्गणा १३. संज्ञित्व मार्गणा १४. आहार मार्गणा।

    प्रश्न – मार्गणा किसे कहते हैं?

    उत्तर – जिन धर्मविशेषों के द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाए उन्हें मार्गणा कहते हैं।

    प्रश्न – गुणस्थान किसे कहते हैं?

    उत्तर – मोह और योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के गुणों को गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – गुणस्थान कितने होते हैं?

    उत्तर – चौदह गुणस्थान होते हैं-१. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत, ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसाम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली, १४. अयोगकेवली।

    प्रश्न – मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – मिथ्यात्व कर्म के उदय से तत्त्वार्थ के विषय में जो अश्रद्धान उत्पन्न होता है अथवा विपरीत श्रद्धान होता है, उसको मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – सासादन गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो सम्यक्त्व की विराधना-आसादना सहित है, उसे सासादन कहते हैं, जो प्राणी सम्यक्त्वरूपी प्रासाद से गिरा हुआ है और जिसने मिथ्यात्व की भूमि का स्पर्श नहीं किया है, सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व इन दोनों के मध्य की जो अवस्था है, उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्व रूप परिणाम न होकर मिश्ररूप परिणाम होते हैं। उसे सम्यग्मिथ्यात्व गुण स्थान कहते हैं।

    प्रश्न – अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो इन्द्रियों के विषय से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है, अर्थात् सम्यक्त्व सहित और व्रत रहित परिणाम को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – देशविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – सम्यक्त्व और देशचारित्र सहित परिणाम को देशविरत गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – प्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – महाव्रतों सहित सम्पूर्ण मूलगुणों और शील के भेदों से युक्त होते हुए व्यक्त एवं अव्यक्त दोनों प्रकार के प्रमाद सहित परिणाम को प्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – अप्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – प्रमादरहित महाव्रतों के पालन सहित परिणाम को अप्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – अपूर्वकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – यहाँ करण का अभिप्राय अध्यवसाय, परिणाम या विचार है, अभूतपूर्व अध्यवसायों का उत्पन्न होना अपूर्वकरण गुणस्थान है।

    प्रश्न – अनिवृत्तिकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जहाँ एक समय में सदृशपरिणाम रहते हैं, उसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – समस्त कषायों को नष्ट कर केवल लोभ का अतिशय सूक्ष्म अंश जहाँ शेष रह जाता है, उसे सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – उपशांतमोह गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – कषायों के पूर्ण उपशमसहित परिणामों को उपशांतमोह गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – क्षीणकषाय गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – कषायों के सर्वथा क्षय हो जाने को क्षीणकषाय गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – सयोगकेवली गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – योग की प्रवृत्ति सहित केवलज्ञानरूप परिणामों को सयोग केवली गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – अयोगकेवली गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – पूर्णत: योग की प्रवृत्ति रहित केवलज्ञान की अवस्था को अयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं।

    प्रश्न – शुद्धनय से संसारी जीव के कितने गुणस्थान और मार्गणा होती हैं?

    उत्तर – शुद्ध निश्चयनय से संसारी जीव के गुणस्थान भी नहीं और मार्गणा भी नहीं होती हैं।

    प्रश्न – क्या सिद्ध भगवान के गुणस्थान और मार्गणाएँ होती हैं?

    उत्तर – सिद्ध भगवान गुणस्थान और मार्गणाओं से रहित गुणस्थानातीत व मार्गणातीत होते हैं।

    🏠
    + सिद्ध और ऊर्ध्वगमन का स्वरूप -
    णिक्कम्मा अट्ठगुणा,किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा
    लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवयेहिं संजुत्ता ॥14॥
    उत्पादव्ययसंयुक्त अन्तिम देह से कुछ न्यून हैं ।
    लोकाग्रथित निष्कर्म शाश्वत अष्टगुणमय सिद्ध हैं ॥१४॥
    अन्वयार्थ : [णिक्कम्मा] आठकर्मों से रहित [अट्ठगुणा] आठगुणों से सहित [चरमदेहदो किंचूणा] अन्तिम शरीर से कुछ कम प्रमाण वाले [लोयग्गठिदा] (ऊर्ध्वगमन स्वभाव से) लोक के अग्रभाग में स्थित [णिच्चा] विनाश रहित और [उप्पादवएहिं संजुत्ता] उत्पाद व व्यय से संयुक्त हैं वे [सिद्धा] सिद्ध भगवान् हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    सिद्धा सिद्ध होते हैं, इस रीति से यहाँ भवन्ति इस क्रिया का अध्याहार करना चाहिए । सिद्ध किन विशेषणों से विशिष्ट होते हैं? णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो कर्मों से रहित, आठ गुणों से सहित और अन्तिम शरीर से कुछ छोटे ऐसे सिद्ध हैं । इस प्रकार सूत्र के पूर्वार्द्ध द्वारा सिद्धों का स्वरूप कहा । अब उनका ऊर्ध्वगमन स्वभाव कहते हैं । लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता वे सिद्ध लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद, व्यय से संयुक्त हैं ।

    अब विस्तार से इसकी व्याख्या करते हैं -- कर्म शत्रुओं के विध्वंसक अपने शुद्ध आत्मसंवेदन के बल के द्वारा ज्ञानावरण आदि समस्त मूल व उत्तर कर्म प्रकृतियों के विनाश करने से आठों कर्मों से रहित सिद्ध होते हैं तथा सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध ये आठ गुण सिद्धों के होते हैं ॥१॥ इस गाथा में कहे क्रम से आठ कर्म रहित सिद्धों के आठ गुण कहे जाते हैं ।
    1. केवलज्ञान आदि गुणों का आश्रयभूत निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है; इस प्रकार की रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व जो कि पहले तपश्चरण की अवस्था में भावित किया था उसके फलस्वरूप समस्त जीव आदि तत्त्वों के विषय में विपरीत अभिनिवेश (विरुद्ध अभिप्राय) से रहित परिणामरूप परम क्षायिक सम्यक्त्व गुण सिद्धों के कहा गया है ।
    2. पहले छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अवस्था में भावना किये हुए निर्विकार स्वानुभवरूप ज्ञान के फलस्वरूप एक ही समय में लोक तथा अलोक के सम्पूर्ण पदार्थों में प्राप्त हुए विशेषों को जानने वाला केवलज्ञान गुण है ।
    3. समस्त विकल्पों से रहित अपनी शुद्ध आत्मा की सत्ता का अवलोकन रूप जो दर्शन पहले भावित किया था उसी दर्शन के फलरूप एक काल में लोक-अलोक के सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्य को ग्रहण करने वाला केवलदर्शन गुण है ।
    4. आत्मध्यान से विचलित करने वाले किसी अतिघोर परीषह तथा उपसर्ग आदि के आने के समय जो पहले अपने निरंजन परमात्मा के ध्यान में धैर्य का अवलम्बन किया उसी के फलरूप अनन्त पदार्थों के जानने में खेद के अभावरूप अनन्तवीर्य गुण है ।
    5. सूक्ष्म अतीन्द्रिय केवलज्ञान का विषय होने के कारण सिद्धों के स्वरूप को सूक्ष्मत्व कहते हैं । यह पाँचवाँ गुण है ।
    6. एक दीप के प्रकाश में जैसे अनेक दीपों का प्रकाश समा जाता है उसी तरह एक सिद्ध के क्षेत्र में संकर तथा व्यतिकर दोष से रहित जो अनन्त सिद्धों को अवकाश देने की सामर्थ्य है वह अवगाहन गुण है ।
    7. यदि सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु (भारी) हो तो लोहे के गोले के समान वह नीचे पड़ा रहेगा और यदि सर्वथा लघु (हल्का) हो तो वायु से प्रेरित आक की रुई की तरह वह सदा इधर-उधर घूमता रहेगा किन्तु सिद्धों का स्वरूप ऐसा नहीं है इस कारण उनके अगुरुलघु गुण कहा जाता है ।
    8. स्वाभाविक शुद्ध आत्मस्वरूप के अनुभव से उत्पन्न तथा राग आदि विभावों से रहित सुखरूपी अमृत का जो एकदेश अनुभव पहले किया था उसी के फलस्वरूप अव्याबाध रूप अनन्त सुख गुण सिद्धों में कहा गया है ।
    इस प्रकार सम्यक्त्व आदि आठ गुण मध्यम रुचि वाले शिष्यों के लिए हैं । विस्तार रुचि वाले शिष्य के प्रति विशेष भेद नय के अवलम्बन से गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदरहितता, कषायरहितता, नामरहितता, गोत्ररहितता तथा आयुरहितता आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व प्रमेयत्वादि सामान्य गुण इस तरह जैनागम के अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिए और संक्षेपरुचि शिष्य के लिए विवक्षित अभेद नय की अपेक्षा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य ये चार गुण अथवा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुखरूप तीन गुण अथवा केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो गुण हैं और साक्षात् अभेदनय से एक शुद्ध चैतन्य गुण ही सिद्धों का है । पुनः वे सिद्ध कैसे होते हैं? चरम (अन्तिम) शरीर से कुछ छोटे होते हैं । वह जो किंचित्-ऊनता है सो शरीरोपांग से उत्पन्न नासिका आदि के छिद्रों के अपूर्ण (खाली स्थान) होने से जिस समय सयोगी गुणस्थान के अन्त समय में तीस प्रकृतियों के उदय का नाश हुआ उनमें शरीरोपांग कर्म का भी विच्छेद हो गया, अतः उसी समय किंचित् ऊनता हुई है । ऐसा जानना चाहिए ।

    कोई शंका करता है कि जैसे दीपक को ढकने वाले पात्र आदि के हटा लेने पर उस दीपक के प्रकाश का विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार देह का अभाव हो जाने पर सिद्धों की आत्मा भी फैलकर लोकप्रमाण होनी चाहिए? इस शंका का उत्तर यह है- दीपक के प्रकाश का जो विस्तार है, वह तो पहले ही स्वभाव से दीपक में रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण से संकुचित होता है किन्तु जीव का लोकप्रमाण असंख्यात-प्रदेशत्व स्वभाव है, प्रदेशों का लोकप्रमाण-विस्तार स्वभाव नहीं है । यदि यों कहो कि जीव के प्रदेश पहले लोक के बराबर फैले हुए, आवरणरहित रहते हैं फिर जैसे प्रदीप के आवरण होता है उसी तरह जीवप्रदेशों के भी आवरण हुआ है? ऐसा नहीं है । किन्तु जीव के प्रदेश तो पहले अनादिकाल से सन्तानरूप चले आये हुए शरीर के आवरणसहित ही रहते हैं । इस कारण जीव के प्रदेशों का संहार नहीं होता तथा विस्तार व संहार शरीर नामक नामकर्म के अधीन ही है, जीव का स्वभाव नहीं है । इस कारण जीव के शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का विस्तार नहीं होता ।

    इस विषय में और भी उदाहरण देते हैं कि जैसे किसी मनुष्य की मुट्ठी के भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र बँधा (भिंचा) हुआ है, अब वह वस्त्र, मुट्ठी खोल देने पर पुरुष के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता; जैसा उस पुरुष ने छोड़ा वैसा ही रहता है । अथवा गीली मिट्टी का बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता जाता है किन्तु जब वह सूख जाता है तब जल का अभाव होने से संकोच व विस्तार को प्राप्त नहीं होता । इसी तरह मुक्त जीव भी, पुरुष के स्थानभूत अथवा जल के स्थानभूत शरीर के अभाव में, संकोच विस्तार नहीं करता ।

    कोई कहते हैं कि 'जीव जिस स्थान में कर्मों से मुक्त हो जाता है वहाँ ही रहता है', इसके निषेध के लिए कहते हैं कि पूर्व प्रयोग से, असंग होने से, बन्ध का नाश होने से, तथागति के परिणाम से, इन चार हेतुओं से तथा घूमते हुए कुम्हार के चाक के समान, मिट्टी के लेप से रहित तुम्बी के समान, एरंड के बीज के समान तथा अग्नि की शिखा के समान, इन चार दृष्टान्तों से जीव के स्वभाव से ऊर्ध्व (ऊपर को) गमन समझना चाहिए । वह ऊर्ध्वगमन लोक के अग्रभाग तक ही होता है उससे आगे नहीं होता; क्योंकि उसके आगे धर्मास्तिकाय का अभाव है ।

    सिद्ध नित्य हैं । यहाँ जो नित्य विशेषण है सो सदाशिववादी जो यह कहते हैं कि – '१०० कल्प प्रमाण समय बीत जाने पर जब जगत् शून्य हो जाता है तब फिर उन मुक्त जीवों का संसार में आगमन होता है ।' इस मत का निषेध करने के लिए है, ऐसा जानना चाहिए ।

    उत्पाद, व्यय-संयुक्तपना जो सिद्धों का विशेषण है, वह सर्वथा अपरिणामिता के निषेध के लिए है । यहाँ पर यदि कोई शंका करे कि सिद्ध निरन्तर निश्चल अविनश्वर शुद्ध आत्म-स्वरूप से भिन्न नरक आदि गतियों में भ्रमण नहीं करते हैं इसलिए सिद्धों में उत्पाद-व्यय कैसे हो? इसका परिहार यह है कि

    अथवा वही जीव बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा इन भेदों से तीन प्रकार का भी होता है । निज शुद्ध आत्मा के अनुभव से उत्पन्न यथार्थ सुख से विरुद्ध इन्द्रिय सुख में आसक्त बहिरात्मा है; उससे विलक्षण अन्तरात्मा है । अथवा देहरहित निज शुद्ध आत्मद्रव्य की भावना रूप भेदविज्ञान से रहित होने के कारण देह आदि पर द्रव्यों में जो एकत्व भावना से परिणत है (देह को ही आत्मा समझने वाला) बहिरात्मा है । बहिरात्मा से विरुद्ध (निज शुद्ध आत्मा को आत्मा जानने वाला) अन्तरात्मा है । अथवा, हेय-उपादेय का विचार करने वाला जो 'चित्त' तथा निर्दोष परमात्मा से भिन्न राग आदि 'दोष' और शुद्ध चैतन्य लक्षण का धारक 'आत्मा' इस प्रकार उक्त लक्षण वाले चित्त, दोष, आत्मा इन तीनों में अथवा वीतराग सर्वज्ञ कथित अन्य पदार्थों में जिसके परस्पर सापेक्ष नयों द्वारा श्रद्धान और ज्ञान नहीं है वह बहिरात्मा है और उस बहिरात्मा से भिन्न अन्तरात्मा है । ऐसा बहिरात्मा, अन्तरात्मा का लक्षण समझना चाहिए ।

    अब परमात्मा का लक्षण कहते हैं क्योंकि पूर्ण निर्मल केवलज्ञान द्वारा सर्वज्ञ समस्त लोकालोक को जानता है या अपने ज्ञान द्वारा लोकालोक में व्याप्त होता है, इस कारण वह परमात्मा विष्णु कहा जाता है । परमब्रह्म नामक निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न सुखामृत से तृप्त होने के कारण उर्वशी, तिलोत्तमा, रंभा आदि देव कन्याओं द्वारा भी जिसका ब्रह्मचर्य खंडित न हो सका अतः वह परमब्रह्म कहलाता है । केवलज्ञान आदि गुणरूपी ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण जिसके पद की अभिलाषा करते हुए देवेन्द्र आदि भी जिसकी आज्ञापालन करते हैं, अतः वह परमात्मा ईश्वर होता है । केवलज्ञान शब्द से वाच्य 'सु' उत्तम 'गत' यानि ज्ञान जिसका वह सुगत है । अथवा शोभायमान अविनश्वर मुक्ति पद को प्राप्त हुआ सो सुगत है । तथा

    'शिव यानि परम कल्याण, निर्वाण एवं अक्षय ज्ञानरूप मुक्त पद को जिसने प्राप्त किया वह शिव कहलाता है ॥१॥

    इस श्लोक में कहे गये लक्षण का धारक होने के कारण वह परमात्मा शिव है । काम-क्रोधादि के जीतने से अनन्तज्ञान आदि गुणों का धारक जिन कहलाता है इत्यादि परमागम में कहे हुए एक हजार आठ नामों से कहे जाने योग्य जो है, उसको परमात्मा जानना चाहिए ।

    इस प्रकार ऊपर कहे गये इन तीनों आत्माओं में जो मिथ्यादृष्टि भव्य जीव है उसमें केवल बहिरात्मा तो व्यक्ति रूप से रहता है और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं, भावी नैगमनय की अपेक्षा व्यक्ति रूप से भी रहते हैं । मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव में बहिरात्मा व्यक्ति रूप से और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से ही रहते हैं; भावी नैगमनय की अपेक्षा अभव्य में अन्तरात्मा तथा परमात्मा व्यक्ति रूप से नहीं रहते । कदाचित् कोई कहे कि यदि अभव्य जीव में परमात्मा शक्ति रूप से रहता है तो उसमें अभव्यत्व कैसे है? इसका उत्तर यह है कि अभव्य जीव में परमात्म शक्ति की केवलज्ञान आदि रूप से व्यक्ति न होगी इसलिए उसमें अभव्यत्व है । शुद्ध नय की अपेक्षा परमात्मा की शक्ति तो मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य इन दोनों में समान है । यदि अभव्य जीव में शक्ति रूप से भी केवलज्ञान न हो तो उसके केवलज्ञानावरण कर्म सिद्ध नहीं हो सकता । सारांश यह है कि भव्य, अभव्य ये दोनों अशुद्ध नय से हैं । इस प्रकार जैसे मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा में नय विभाग से तीनों आत्माओं को बतलाया उसी प्रकार शेष तेरह गुणस्थानों में भी घटित करना चाहिए । इस प्रकार बहिरात्मा की दशा में अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्ति रूप से रहते हैं और भावी नैगमनय से व्यक्ति रूप से भी रहते हैं ऐसा समझना चाहिए । अन्तरात्मा की अवस्था में बहिरात्मा भूतपूर्व नय से घृत के घट के समान और परमात्मा का स्वरूप शक्तिरूप से तथा भावी नैगमनय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी जानना चाहिए । परमात्म अवस्था में अन्तरात्मा तथा बहिरात्मा भूतपूर्व नय की अपेक्षा जानने चाहिए ।

    अब तीनों तरह के आत्माओं को गुणस्थानों में योजित करते हैं-मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में तारतम्य न्यूनाधिक भाव से बहिरात्मा जानना चाहिए; अविरत गुणस्थान में उसके योग्य अशुभ लेश्या से परिणत जघन्य अन्तरात्मा है और क्षीणकषाय गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा है । अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं उनमें मध्यम अन्तरात्मा है । सयोगी और अयोगी इन दोनों गुणस्थानों में विवक्षित एकदेश शुद्धनय की अपेक्षा सिद्ध के समान परमात्मा है और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा हैं ही । यहाँ बहिरात्मा तो हेय है और उपादेयभूत (परमात्मा) के अनन्त सुख का साधक होने से अन्तरात्मा उपादेय है और परमात्मा साक्षात् उपादेय है; ऐसा अभिप्राय है । इस प्रकार छह द्रव्य और पंच अस्तिकाय के प्रतिपादन करने वाले प्रथम अधिकार में नमस्कार गाथा आदि चौदह गाथाओं द्वारा, ९ मध्यस्थलों द्वारा जीव द्रव्य के कथन रूप प्रथम अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ॥१४॥

    उसके पश्चात् यद्यपि शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव परमात्मा द्रव्य ही उपादेय है तो भी हेय रूप अजीव द्रव्य का आठ गाथाओं द्वारा निरूपण करते हैं । क्यों करते हैं? क्योंकि पहले हेय तत्त्व का ज्ञान होने पर फिर उपादेय पदार्थ स्वीकार होता है । अजीव द्रव्य इस प्रकार है --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    लोक के ऊपर धर्मास्तिकाय का अभाव होने से ये सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग पर ही ठहर जाते हैं। इस प्रकार से यहाँ तक जीव के नव अधिकारों द्वारा जीव के विशेष स्वरूप बतलाये गये हैं ।

    प्रश्न – आठ कर्म कौन से हैं?

    उत्तर – १. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. नाम ७. गोत्र ८. अंतराय।

    प्रश्न – ज्ञानावरण किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिस कर्म के उदय से जीव के ज्ञान होने में प्रतिबंध हो, जैसे बादलों का समूह सूर्य को आच्छादित कर देता है।

    प्रश्न – दर्शनावरण किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिस कर्म के उदय से आत्मा के दर्शनगुण में प्रतिबंध होता है। जैसे-राजा के दरबार में जाते हुए पुरुष को द्वारपाल रोकता है।

    प्रश्न – वेदनीय कर्म किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिस कर्म के उदय से जीव को सुख-दु:ख का अनुभव होता है। जैसे-तलवार की धार पर लगे शहद के चाटने के समान।

    प्रश्न – मोहनीय कर्म किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिस कर्म के उदय से आत्मा के श्रद्धान या चारित्र गुण का घात होता है, यह प्राणी को विवेक शून्य बना देता है। जैसे-मदिरा।

    प्रश्न – आयु कर्म किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिस कर्म के उदय से जीव नरकादि गतियों में बेड़ी की तरह बंधा हुआ या रुका रहता है, वह आयु कर्म है।

    प्रश्न – नामकर्म किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो नाना आकार, प्रकार वाले शरीर की रचना करता है। जैसे-चित्रकार विभिन्न रंग संजो-संजोकर अपनी तूलिका की सहायता से चित्र बनाता है।

    प्रश्न – गोत्र कर्म किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो जीव को नीच और ऊँच कुल में उत्पन्न करता है, वह गोत्र कर्म कहलाता है। जैसे-कुम्हार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है।

    प्रश्न – अंतराय कर्म किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो दानादि में विघ्न डालता है, वह अन्तराय कर्म है। जैसे-अभीष्ट की प्राप्ति में बाधा देने वाला भंडारी।

    प्रश्न – आठ गुण कौन से हैं?

    उत्तर – १. अनंतज्ञान २. अनंतदर्शन ३. अनंतसुख ४. अनंतवीर्य ५. अव्याबाध ६. अवगाहनत्व ७. सूक्ष्मत्व और ८. अगुरुलघुत्व-ये सिद्धों के आठ गुण हैं।

    प्रश्न – किस कर्म के नाश से कौन-सा गुण प्रकट होता है?

    उत्तर – ज्ञानावरण कर्म के नाश से अनंतज्ञान गुण प्रकट होता है।

    दर्शनावरण कर्म के नाश से अनंतदर्शन गुण प्रकट होता है।

    मोहनीय कर्म के नाश से अनंतसुख गुण प्रकट होता है।

    अंतराय कर्म के नाश से अनंतवीर्य गुण प्रकट होता है।

    वेदनीय कर्म के नाश से अव्याबाध गुण प्रकट होता है।

    आयु कर्म के नाश से अवगाहनत्व गुण प्रकट होता है।

    नाम कर्म के नाश से सूक्ष्मत्व गुण प्रकट होता है।

    और गोत्र कर्म के नाश होने से अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है।

    प्रश्न – उत्पाद किसे कहते हैं?

    उत्तर – द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं।

    प्रश्न – व्यय किसे कहते हैं?

    उत्तर – द्रव्य की पूर्व पर्याय के नाश को व्यय कहते हैं।

    प्रश्न – ध्रौव्य किसे कहते हैं?

    उत्तर – द्रव्य की नित्यता को ध्रौव्य कहते हैं।

    जैसे-सिद्धजीवों में-संसारी पर्याय का नाश व्यय है। सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति उत्पाद है और जीव द्रव्य ध्रौव्य है। इसी प्रकार पुद्गल में-स्वर्ण के कुण्डल पर्याय का नाश व्यय है। चूड़ी पर्याय की उत्पत्ति उत्पाद है एवं दोनों अवस्था में स्वर्णपना ध्रौव्य है।

    प्रश्न – सिद्धगति में जाते समय जीव ऊध्र्वगमन क्यों करता है ?

    उत्तर – प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध इन चारों बंध के छूट जाने से मुक्त जीव स्वभाव से ऊध्र्व गमन ही करता है।

    प्रश्न – संसारी जीव भी ऊध्र्व गमन करता है क्या ?

    उत्तर – यद्यपि संसारी जीव भी ऊध्र्वगमन कर सकता है, करता भी है-परन्तु कर्मबंध सहित होने से विदिशाओं को छोड़कर आकाश के प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार चार दिशा में, अधो (नीचे) और ऊपर गमन करता है और कर्म रहित आत्मा ऊध्र्वगमन ही करती है।

    प्रश्न – आत्मा को णिक्कम्मा (निष्कर्मा) क्यों कहते हैं ?

    उत्तर – सदाशिव मत वाले जीव को सदा कर्म रहित मानते हैं-उनका निराकरण करने के लिए ‘णिक्कम्मा’ निष्कर्मा कहा गया है, क्योंकि संसारी जीव कर्म सहित है, वह कर्म नाशकर सिद्ध अवस्था प्राप्त करता है।

    प्रश्न – सिद्धों में आठ गुण क्यो कहा है ?

    उत्तर – नैयायिक और वैशेषिक सिद्धान्त वाले सिद्ध अवस्था में बुद्धि, सुख, दु:ख, धर्म आदि सर्व गुणों का विनाश मानते हैं अत: आचार्यों ने कहा है कि सिद्ध आत्मा, कर्म रहित होकर भी केवल ज्ञानादि आठ गुण सहित हैं।

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    + अजीव द्रव्य और उनमें मूर्तिक-अमूर्तिक द्रव्य -
    अज्जीवो पुणणेओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं
    कालो पुग्गल मुत्तो, रूवादिगुणो अमुत्ति सेसादु ॥15॥
    मूर्त पुद्गल किन्तु धर्माधर्म नभ अर काल भी ।
    मूर्तिक नहीं है तथापि ये सभी द्रव्य अजीव हैं ॥१५॥
    अन्वयार्थ : [पुण] और [पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं कालो] पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन पाँचों को [अज्जीवो] अजीव द्रव्य [णेयो] जानना चाहिए [रूवादिगुणो पुग्गलमुत्तो] रूप (वर्ण, स्पर्श, रस, गंध) आदि गुण वाला पुद्गल मूर्तिक द्रव्य है [हु] परन्तु (रूपादि गुण वाले न होने से) [सेसा] शेष (पाँच द्रव्य) [अमुत्ति] अमूर्तिक हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [अज्जीवो पुणणेओ] अजीव पदार्थ जानना चाहिए । पूर्ण व निर्मल केवलज्ञान, केवलदर्शन ये दोनों शुद्ध उपयोग हैं और मतिज्ञान आदि रूप विकल अशुद्ध उपयोग हैं; इस तरह उपयोग दो प्रकार का है । अव्यक्त सुखदुःखानुभव स्वरूप कर्मफल चेतना है तथा मतिज्ञान आदि मनःपर्यय तक चारों ज्ञान रूप अशुद्ध उपयोग है । निज चेष्टा पूर्वक इष्ट, अनिष्ट विकल्प रूप से विशेष रागद्वेष रूप परिणाम कर्मचेतना है । केवलज्ञान रूप शुद्ध चेतना है । इस तरह पूर्वोक्त लक्षण वाला उपयोग तथा चेतना ये जिसमें नहीं हैं वह अजीव है ऐसा जानना चाहिए । [पुण] जीव अधिकार के पश्चात् अजीव अधिकार है । [पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं कालो] वह अजीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य के भेद से पाँच प्रकार का है । पूरण तथा गलन स्वभाव सहित होने से पुद्गल कहा जाता है (पूरने और गलने के स्वभाव वाला पुद्गल है ।) क्रम से गति, स्थिति, अवगाह और वर्तना लक्षण वाले धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों द्रव्य हैं । (गति में सहायक धर्म, ठहरने में सहायक अधर्म, अवगाह देने वाला आकाश, वर्तना लक्षण वाला काल द्रव्य है)[पुग्गल मुत्तो] पुद्गल द्रव्य मूर्त है क्योंकि पुद्गल [रूवादिगुणो] रूप आदि गुणों से सहित है । [अमुत्ति सेसा हु] पुद्गल के सिवाय शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों द्रव्यरूप आदि गुणों के न होने से अमूर्तिक हैं । जैसे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य ये चारों गुण सब जीवों में साधारण हैं; उसी प्रकार रूप, रस, गंध और स्पर्श पुद्गलों में साधारण हैं । जिस प्रकार शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावधारी सिद्ध में अनंतचतुष्टय अतीन्द्रिय है; उसी प्रकार शुद्ध पुद्गल परमाणु में रूप आदि चतुष्टय अतीन्द्रिय हैं । जिस तरह राग आदि स्नेह गुण से कर्मबन्ध की दशा में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य इन चारों गुणों की अशुद्धता है; उसी तरह स्निग्ध रूक्षत्व गुण से द्वि-अणुक आदि बन्ध दशा में रूप आदि चारों गुणों की अशुद्धता है । जैसे स्नेह रहित निज परमात्मा की भावना के बल से राग आदि स्निग्धता का विनाश हो जाने पर अनन्त चतुष्टय की शुद्धता है; उसी तरह जघन्य गुणों का बन्ध नहीं होता है इस वचन के अनुसार परमाणु में स्निग्ध-रूक्षत्व गुण की जघन्यता होने पर रूप आदि चारों गुणों की शुद्धता समझनी चाहिए, ऐसा अभिप्राय है ॥१५॥

    अब पुद्गल द्रव्य की विभाव व्यंजन पर्यायों का वर्णन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – मूर्तिक किसे कहते हैं?

    उत्तर – जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये गुण पाये जायें, उसे मूर्तिक कहते हैं।

    प्रश्न – अमूर्तिक किसे कहते हैं?

    उत्तर – जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये गुण नहीं पाये जाते हैं, उसे अमूर्तिक कहते हैं।

    प्रश्न – परमाणु में रूपादि बीस गुणों में से कितने गुण पाये जाते हैं?

    उत्तर – परमाणु में एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श पाये जाते हैं।

    प्रश्न – अजीव द्रव्य कौन-कौन से हैं?

    उत्तर – पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये पाँच द्रव्य अजीव द्रव्य हैं।

    प्रश्न – अमूर्तिक कितने हैं? मूर्तिक द्रव्य कितने हैं?

    उत्तर – जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये अमूर्तिक द्रव्य हैं और पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है।

    प्रश्न – पुद्गल किसे कहते हैं ?

    उत्तर –पूरण-गलन स्वभाव वाला द्रव्य पुद्गल कहलाता है-या जिसमें वर्ण (रंग) गंध, स्पर्श, रस पाए जाते हैं, जो इन्द्रियों के गोचर हैं, उसे पुद्गल कहते हैं। दृश्यमान अखिल जगत पुद्गल है।

    प्रश्न – जीव सर्वथा अमूत्र्तिक है क्या ?

    उत्तर – त्रिकाल ध्रुवस्वभाव की अपेक्षा निश्चयनय से जीव अमूत्र्तिक है और अनादिकाल से मूत्र्तिक कर्मों से बंधा हुआ है, अत: व्यवहारनय से मूत्र्तिक है। इसलिए कथंचित् मूत्र्तिक है और कथंचित् अमूत्र्तिक है।

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    + पुद्गल द्रव्य की विभाव व्यंजन पर्यायें -
    सद्दो बंधो सुहुमो, थूलो संठाणभेदतमछाया
    उज्जोदादवसहिया, पुग्गल दव्वस्स पज्जाया ॥16॥
    थूल सूक्षम बंध तम संस्थान आतप भेद अर ।
    उद्योत छाया शब्द पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं ॥१६॥
    अन्वयार्थ : [सदो] शब्द [बंधो] बन्ध [सुहुमो] सूक्ष्म [थूलो] स्थूल [संठाण-भेद-तमछाया] संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया [उज्जोदादव-सहिया] उद्योत व आतप सहित [पुग्गलदव्वस्स पज्जाया] पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत इन सहित पुद्गल द्रव्य की पर्यायें होती हैं । अब इसको विस्तार से बतलाते हैं -- भाषात्मक और अभाषात्मक ऐसे शब्द दो तरह के हैं । उनमें भाषात्मक शब्द अक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक रूप से दो तरह का है । उनमें भी अक्षरात्मक भाषा संस्कृत-प्राकृत और उनके अपभ्रंश रूप पैशाची आदि भाषाओं के भेद से आर्य व म्लेच्छ मनुष्यों के व्यवहार के कारण अनेक प्रकार की है । अनक्षरात्मक भाषा द्वीन्द्रिय आदि तिर्यञ्च जीवों में तथा सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि में है । अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैश्रसिक के भेद से दो तरह का है । उनमें वीणा आदि के शब्द को तत, ढोल आदि के शब्द को वितत, मंजीरे तथा ताल आदि के शब्द को घन और वंशी आदि के शब्द को सुषिर कहते हैं ॥१॥ इस श्लोक में कहे हुए क्रम से प्रायोगिक (प्रयोग से पैदा होने वाला) शब्द चार तरह का है; 'विश्रसा' अर्थात् स्वभाव से होने वाला वैश्रसिक शब्द बादल आदि से होता है वह अनेक तरह का है ।

    विशेष - शब्द से रहित निज परमात्मा की भावना से छूटे हुए तथा शब्द आदि मनोज्ञअमनोज्ञ पंच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त जीव ने जो सुस्वर तथा दुःस्वर नामकर्म का बन्ध किया उस कर्म के उदय के अनुसार यद्यपि जीव में शब्द दिखता है तो भी वह शब्द जीव के संयोग से उत्पन्न होने से व्यवहारनय की अपेक्षा 'जीव का शब्द' कहा जाता है; किन्तु निश्चयनय से तो वह शब्द पुद्गलमयी ही है । अब बन्ध को कहते हैं- मिट्टी आदि के पिंड रूप जो बहुत प्रकार का बन्ध है वह तो केवल पुद्गल बन्ध है । जो कर्म, नोकर्म रूप बन्ध है, वह जीव और पुद्गल के संयोग से होने वाला बन्ध है । विशेष यह है कि - कर्मबन्ध से भिन्न जो निज शुद्ध आत्मा की भावना से रहित जीव के अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य बन्ध है और उसी तरह अशुद्ध निश्चयनय से जो वह रागादिक रूप भावबन्ध कहा जाता है; यह भी शुद्ध निश्चयनय से पुद्गल का ही बन्ध है । बेल आदि की अपेक्षा बेर आदि फलों में सूक्ष्मता है और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता है (परमाणु की सूक्ष्मता किसी की अपेक्षा से नहीं है) । बेर आदि की अपेक्षा बेल आदि में स्थूलता (बड़ापन) है; तीन लोक में व्याप्त महास्कन्ध में सबसे अधिक स्थूलता है । समचतुरस्र, न्यग्रोध, सातिक, कुब्जक, वामन और हुंडक ये ६ प्रकार के संस्थान व्यवहारनय से जीव के होते हैं किन्तु संस्थान शून्य चेतन चमत्कार परिणाम से भिन्न होने के कारण निश्चयनय की अपेक्षा संस्थान पुद्गल का ही होता है जो जीव से भिन्न गोल, त्रिकोन, चौकोर आदि प्रकट, अप्रकट अनेक प्रकार के संस्थान हैं, वे भी पुद्गल के ही हैं । गेहूँ आदि के चून रूप से तथा घी, खांड आदि रूप से अनेक प्रकार का 'भेद' (खण्ड) जानना चाहिए । दृष्टि को रोकने वाला अन्धकार है उसको 'तम' कहते हैं । पेड़ आदि के आश्रय से होने वाली तथा मनुष्य आदि की परछाई रूप जो है उसे 'छाया' जानना चाहिए । चन्द्रमा के विमान में तथा जुगनू आदि तिर्यञ्च जीवों में 'उद्योत' होता है । सूर्य के विमान में तथा अन्यत्र भी सूर्यकांत विशेष मणि आदि पृथ्वीकाय में 'आतप' जानना चाहिए ।

    सारांश यह है कि जिस प्रकार शुद्ध निश्चयनय से जीव के निज-आत्मा की उपलब्धिरूप सिद्ध-स्वरूप में स्वभाव व्यंजन पर्याय विद्यमान है फिर भी अनादि कर्मबन्धन के कारण पुद्गल के स्निग्ध तथा रूक्ष गुण के स्थानभूत राग-द्वेष परिणाम होने पर स्वाभाविक-परमानन्दरूप एक स्वास्थ्य भाव से भ्रष्ट हुए जीव के मनुष्य, नारक आदि विभाव-व्यंजन-पर्याय होती हैं; उसी तरह पुद्गल में निश्चयनय की अपेक्षा शुद्ध परमाणु दशारूप स्वभाव-व्यंजन-पर्याय के विद्यमान होते हुए भी स्निग्धता तथा रूक्षता से बन्ध होता है । इस वचन से राग और द्वेष के स्थानीय बन्ध योग्य स्निग्ध तथा रूक्ष परिणाम के होने पर पहले बतलाये गये शब्द आदि के सिवाय अन्य भी शास्त्रोक्त लक्षणयुक्त सिकुड़ना, फैलना, दही, दूध आदि विभाव-व्यंजन-पर्यायें जाननी चाहिए । इस प्रकार अजीव अधिकार में अज्जीवो आदि पूर्व गाथा में कहे गये रूप-रसादि चारों गुणों से युक्त तथा यहाँ गाथा में कथित शब्द आदि पर्याय सहित अणु, स्कंध आदि पुद्गल द्रव्य का संक्षेप से निरूपण करने वाली दो गाथायें समाप्त हुईं ॥१६॥

    अब धर्मद्रव्य का व्याख्यान करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – शब्द किसे कहते हैं ?

    उत्तर – द्रव्य कर्ण (कान) इन्द्रिय के आधार से भाव कर्णेन्द्रिय के द्वारा जो ध्वनि सुनी जाती है, उसे शब्द कहते हैं।

    प्रश्न – शब्द के भेद बताइये?

    उत्तर – शब्द के दो भेद हैं—१-भाषारूप और २-अभाषारूप।

    प्रश्न – बन्ध पर्याय के भेद बताइये?

    उत्तर – बन्ध पुद्गल पर्याय के २ भेद हैं—१-वैस्रसिक और २-प्रायोगिक।

    प्रश्न – सूक्ष्मता के कितने भेद है?

    उत्तर – सूक्ष्मता दो प्रकार की होती है—१-अन्त्य और २-आपेक्षिक।

    प्रश्न – स्थौल्य किसे कहते है? उसके भेद बताइये।

    उत्तर – स्थूलता को स्थौल्य कहते हैं। यह भी दो प्रकार का है—१-अन्त्य और २-आपेक्षिक।

    प्रश्न – संस्थान किसे कहते हैं?

    उत्तर – आकृति को संस्थान कहते हैं। त्रिकोण, चतुष्कोण आदि आकार संस्थान हैं।

    प्रश्न – भेद किसे कहते हैं?

    उत्तर – वस्तु को अलग-अलग चूर्णादि करना भेद है।

    प्रश्न – तम किसे कहते हैं?

    उत्तर – जिससे दृष्टि में प्रतिबंध होता है और जो प्रकाश का विरोधी-अंधकार है वह तम कहलाता है।

    प्रश्न – छाया किसे कहते हैं?

    उत्तर – प्रकाश को रोकने वाले पदार्थों के निमित्त से जो पैदा होती है वह छाया कहलाती है। अर्थात् किसी की परछाई को छाया कहते हैं।

    प्रश्न – आतप किसे कहते हैं?

    उत्तर – जो सूर्य के निमित्त से उष्ण प्रकाश होता है उसे आतप कहते हैं।

    प्रश्न – उद्योत किसे कहते हैं?

    उत्तर – चंद्रकांतमणि और जुगनू आदि के निमित्त से जो प्रकाश होता है उसे उद्योत कहते हैं।

    प्रश्न – शब्द आदि पुद्गल की पर्याय स्वभाव पर्याय है कि विभाव पर्याय?

    उत्तर – शब्दादि विभाव पर्याय हैं, क्योंकि ये स्कन्ध के संयोग से उत्पन्न होती हैं, शुद्ध परमाणु से नहीं।

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    + धर्म द्रव्य का स्वरूप -
    गइपरिणयाण धम्मो, पुग्गलजीवाण गमणसहयारी
    तोयं जह मच्छाणं, अच्छंता णेव सो णेई ॥17॥
    स्वयं चलती मीन को जल निमित्त होता जिसतरह ।
    चलते हुए जिय-पुद्गलों को धरमदरव उसीतरह ॥१७॥
    अन्वयार्थ : [गइपरिणयाण] गमन करते हुए [पुग्गल-जीवाण] पुद्गल और जीवों के [गमणसहयारी] जो गमन में सहकारी/निमित्त है [धम्मो] वह धर्मद्रव्य है [जह तोयं मच्छाणं] जैसे जल मछलियों के गमन में सहकारी है [सो] वह धर्मद्रव्य [अच्छंता] ठहरने वाले जीव या पुद्गल को [णेव णेई] नहीं ले जाता है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    चलते हुए जीव तथा पुद्गलों को चलने में सहकारी धर्मद्रव्य होता है । इसका दृष्टांत यह है कि जैसे मछलियों के गमन में सहायक जल है । परन्तु स्वयं ठहरे हुए जीव, पुद्गलों को धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता । तथैव, जैसे सिद्ध भगवान् अमूर्त हैं, क्रिया रहित हैं तथा किसी को प्रेरणा भी नहीं करते, तो भी मैं सिद्ध के समान अनन्त ज्ञानादि गुणरूप हूँ इत्यादि व्यवहार से सविकल्प सिद्धभक्ति के धारक और निश्चय से निर्विकल्पक ध्यानरूप अपने उपादान कारण से परिणत भव्यजीवों को वे सिद्ध भगवान् सिद्ध गति में सहकारी कारण होते हैं ।

    ऐसे ही क्रियारहित, अमूर्त प्रेरणारहित धर्मद्रव्य भी अपने-अपने उपादान कारणों से गमन करते हुए जीव तथा पुद्गलों को गमन में सहकारी कारण होता है । जैसे मत्स्य आदि के गमन में जल आदि सहायक कारण होने का लोक प्रसिद्ध दृष्टांत है, यह अभिप्राय है । इस तरह धर्मद्रव्य के व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ॥१७॥

    अब अधर्मद्रव्य का कथन करते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – धर्मद्रव्य का लक्षण बताओ?

    उत्तर – जो जीव और पुद्गलों को चलने में सहकारी होते हैं उसे धर्मद्रव्य कहते हैं।

    प्रश्न – यह धर्मद्रव्य दिखता क्यों नहीं है?

    उत्तर – क्योंकि धर्मद्रव्य अमूर्तिक होता है।

    प्रश्न – फिर यह धर्मद्रव्य चलने में निमित्त कैसे बनता है?

    उत्तर – यह नहीं दिखते हुए भी उदासीनरूप से जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी होता है। इसके बिना जीव-पुद्गल का गमन नहीं हो सकता है।

    प्रश्न – निमित्त कितने प्रकार के होते हैं?

    उत्तर – दो प्रकार के—१-प्रेरक निमित्त, २-उदासीन निमित्त।

    प्रश्न – धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के लिए कौन-सा निमित्त है?

    उत्तर – धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी उदासीन निमित्त है क्योंकि यह बलपूर्वक किसी को चलाता नहीं है। हाँ , कोई चलता है तो सहायक होता है।

    प्रश्न – धर्मद्रव्य कहाँ पाया जाता है?

    उत्तर – सम्पूर्ण लोकाकाश में धर्मद्रव्य पाया जाता है। धर्म द्रव्य की सहायता बिना जीव पुद्गल का चलना-फिरना, एक स्थान से दूसरे स्थान जाना आदि सारी क्रियाएँ नहीं बन सकती हैं।

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    + अधर्म द्रव्य का स्वरूप -
    ठाणजुदाण अधम्मो, पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी
    छाया जह पहियाणं, गच्छंता णेव सो धरई ॥18॥
    छाया निमित्त ज्यों गमनपूर्वक स्वयं ठहरे पथिक को ।
    अधरम त्यों ठहरने में निमित्त पुद्गल-जीव को ॥१८॥
    अन्वयार्थ : [ठाणजुदाण पुग्गलजीवाण] ठहरे हुए पुद्गल और जीवों के [ठाण सहयारी] ठहरने में सहकारी कारण [अधम्मो] अधर्मद्रव्य है [जह पहियाणं छाया] जैसे पथिकों के ठहरने में छाया सहकारी कारण है [सो] वह अधर्मद्रव्य [गच्छंता] गमन करते हुए जीव और पुद्गलों को [णेव धरई] नहीं धरता / ठहराता है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    ठहरे हुए पुद्गल तथा जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्म-द्रव्य है । उसमें दृष्टान्त -- जैसे छाया पथिकों को ठहरने में सहकारी कारण; परन्तु स्वयं गमन करते हुए जीव व पुद्गलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता है । सो ऐसे है --

    यद्यपि निश्चयनय से आत्म-अनुभव से उत्पन्न सुखामृत रूप जो परम स्वास्थ्य है वह निज रूप में स्थिति का कारण है;

    (सिद्धोsहं सुद्धोsहं अणंतणाणाइगुणसमिद्धोsहं ।

    देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य ।।)

    परन्तु मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनंतज्ञान आदि गुणों का धारक हूँ, शरीर प्रमाण हूँ, नित्य हूँ, असंख्यात प्रदेशी हूँ तथा अमूर्तिक हूँ ॥१॥

    इस गाथा में कही हुई सिद्धभक्ति के रूप से पहले सविकल्प अवस्था में सिद्ध भी जैसे भव्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं, उसी तरह अपने-अपने उपादान कारण से अपने आप ठहरते हुए जीव पुद्गलों को अधर्मद्रव्य ठहरने का सहकारी कारण होता है । लोक-व्यवहार से जैसे छाया अथवा पृथ्वी ठहरते हुए यात्रियों आदि को ठहरने में सहकारी होती है उसी तरह स्वयं ठहरते हुए जीव पुद्गलों के ठहरने में अधर्मद्रव्य सहकारी होता है । इसी प्रकार अधर्मद्रव्य के कथन द्वारा यह गाथा समाप्त हुई ॥१८॥

    अब आकाशद्रव्य का कथन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – अधर्म द्रव्य किसे कहते हैं?

    उत्तर – जो जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहायक होता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं।

    प्रश्न – धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य दोनों कहाँ रहते हैं?

    उत्तर – ये दोनों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में रहते हैं।

    प्रश्न – अधर्म द्रव्य मूर्तिक है या अमूर्तिक ?

    उत्तर – अधर्म द्रव्य अमूर्तिक है-मूर्तिक नहीं।

    प्रश्न – धर्म और अधर्म द्रव्य में समान शक्ति है-या न्यूनाधिक ?

    उत्तर – दोनों में समान शक्ति है। दोनों में समान शक्ति होते हुए भी परस्पर एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं।

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    + आकाश द्रव्य का स्वरूप -
    अवगासदाण जोग्गं, जीवादीणं वियाण आयासं
    जेण्हं लोगागासं, अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥19॥
    आकाश वह जीवादि को अवकाश देने योग्य जो ।
    आकाश के दो भेद हैं जो लोक और अलोक हैं ॥१९॥
    अन्वयार्थ : जो [जीवादीणं] जीव आदि समस्त द्रव्यों के [अवगासदाण-जोग्गं] अवकाश देने में समर्थ है उसे [आयासं] आकाशद्रव्य [वियाण] जानो वह [जेण्ह] जिनेन्द्रदेव ने [लोगागासं अल्लोगागास] लोकाकाश और अलोकाकाश [इदि] इस प्रकार [दुविहं] दो प्रकार का कहा है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    हे शिष्य ! जीवादिक द्रव्यों को अवकाश (रहने का स्थान) देने की योग्यता जिस द्रव्य में है उसको श्री जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य समझो । वह आकाश, लोकाकाश तथा अलोकाकाश इन भेदों से दो तरह का है । अब इसको विस्तार से कहते हैं- स्वाभाविक, शुद्ध सुखरूप अमृतरस के आस्वादरूप परमसमरसी भाव से परिपूर्ण तथा केवलज्ञान आदि अनन्तगुणों के आधारभूत जो लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेश अपनी आत्मा के हैं; उन प्रदेशों में यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा से सिद्ध जीव रहते हैं, तो भी उपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से सिद्ध मोक्षशिला (ऊपरी तनुवात वलय) में रहते हैं, ऐसा कहा जाता है । जिस स्थान में आत्मा परमध्यान से कर्मरहित होता ऐसा मोक्ष वहाँ ही है; अन्यत्र नहीं । ध्यान करने के स्थान में कर्म पुद्गलों को छोड़कर तथा ऊर्ध्वगमन स्वभाव से गमन कर मुक्त जीव चूँकि लोक के अग्रभाग में जाकर निवास करते हैं इस कारण लोक का अग्रभाग भी उपचार से मोक्ष कहलाता है, जैसे कि तीर्थभूत पुरुषों द्वारा सेवित भूमि, पर्वत, गुफा, जल आदि स्थान भी उपचार से तीर्थ होते हैं । यह वर्णन सुगमता से समझाने के लिए किया है । जैसे सिद्ध अपने प्रदेशों में रहते हैं उसी प्रकार निश्चयनय से सभी द्रव्य यद्यपि अपने-अपने प्रदेशों में रहते हैं; तो भी उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से लोकाकाश में सब द्रव्य रहते हैं; ऐसा भगवान् श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव का अभिप्राय जानना चाहिए ॥१९॥

    उसी लोकाकाश को विशेष रूप से दृढ़ करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – आकाश द्रव्य किसे कहते हैं?

    उत्तर – जीवादि पाँच द्रव्यों को रहने के लिए जो अवकाश-स्थान दे, उसे आकाश द्रव्य कहते हैं।

    प्रश्न – आकाश द्रव्य का कार्य क्या है?

    उत्तर – अवकाश देना आकाश द्रव्य का कार्य है।

    प्रश्न – आकाश द्रव्य जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने में कौन सा निमित्त है प्रेरक या उदासीन ?

    उत्तर – आकाश अवकाश देने में उदासीन निमित्त है। जैसे धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल को चलाने में और अधर्म द्रव्य ठहराने में और कालद्रव्य द्रव्यों को परिणमन कराने में उदासीन कारण है। जैसे सिद्ध निश्चयनय से अपने प्रदेशों में रहते हैं-उसी प्रकार निश्चयनय से सभी द्रव्य अपने में ही रहते हैं-व्यवहार नय से लोकाकाश में रहते हैं, ऐसा कहा जाता है।

    प्रश्न – धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं, फिर एक-दूसरे को क्यों नहीं रोकते ?

    उत्तर – ये तीनों द्रव्य अमूत्र्तिक हैं। अनादिकाल से लोकाकाश में रहते हैं अमूत्र्तिक होने से एक-दूसरे का व्याघात (रुकावट) नहीं करते हैं।

    प्रश्न – पुद्गल द्रव्य से क्या होता है ?

    उत्तर – पुद्गल द्रव्य के कारण ही जीव के शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास कर्म आदि की रचना होती है। सुख, दु:ख, जीवन, मरण आदि भी पुद्गलकृत हैं।

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    + लोकाकाश-अलोकाकाश का स्वरूप -
    धम्माधम्मा कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये
    आयासे सो लोगो, तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥20॥
    काल धर्माधर्म जीव पुद्गल रहें जिस क्षेत्र में ।
    वह क्षेत्र ही बस लोक है अवशेष क्षेत्र अलोक है ॥२०॥
    अन्वयार्थ : [जावदिये आयासे] जितने आकाश में [धम्माधम्मा] धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य [कालो] कालद्रव्य [पुग्गलजीवा] पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य [संति] हैं [सो लोगो] वह लोकाकाश है [य] तथा [तत्तो परदो] उसके आगे/बाहर [अलोगो उत्तो] अलोकाकाश कहा गया है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव जितने आकाश में रहते हैं उतने आकाश का नाम लोकाकाश है । ऐसा कहा भी है कि जहाँ पर जीव आदि पदार्थ देखने में आते हैं वह लोक है । उस लोकाकाश से बाहर जो अनन्त आकाश है वह अलोकाकाश है ।

    यहाँ सोम नामक राजश्रेष्ठी प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! केवलज्ञान के अनन्तवें भाग प्रमाण आकाश द्रव्य है और उस आकाश के भी अनन्तवें भाग में, सबके बीच में लोक है और वह लोक [काल की दृष्टि से] आदि अन्त रहित है, न किसी का बनाया हुआ है, न किसी से कभी नष्ट होता है, न किसी के द्वारा धारण किया हुआ है और न कोई उसकी रक्षा करता है । वह लोकाकाश असंख्यात प्रदेशों का धारक है । उस असंख्यात प्रदेशी लोक में असंख्यात प्रदेशी अनन्त जीव, उनसे भी अनन्त गुणे पुद्गल, लोकाकाश प्रमाण असंख्यात कालाणु, लोकाकाश प्रमाण धर्मद्रव्य तथा अधर्मद्रव्य कैसे रहते हैं?

    भगवान् उत्तर में कहते हैं- एक दीपक के प्रकाश में अनेक दीपों का प्रकाश समा जाता है, अथवा एक गूढ़ रस विशेष से भरे शीशे के बर्तन में बहुत-सा सुवर्ण समा जाता है; अथवा भस्म से भरे हुए घट में सुई और ऊँटनी का दूध आदि समा जाते हैं; इत्यादि दृष्टान्तों के अनुसार विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेश वाले लोक में पूर्वोक्त जीव पुद्गलादिक के भी समा जाने में कुछ विरोध नहीं आता । यदि इस प्रकार अवगाहनशक्ति न होवे तो लोक के असंख्यात प्रदेशों में असंख्यात परमाणुओं का ही निवास हो सकेगा । ऐसा होने पर जैसे शक्ति रूप शुद्धनिश्चयनय से सब जीव आवरणरहित तथा शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव के धारक हैं; वैसे ही व्यक्ति रूप व्यवहारनय से भी हो जायें किन्तु ऐसे है नहीं क्योंकि ऐसा मानने में प्रत्यक्ष और आगम से विरोध है । इस तरह आकाश द्रव्य के निरूपण से दो सूत्र समाप्त हुए ॥२०॥

    अब निश्चयकाल तथा व्यवहारकाल के स्वरूप का वर्णन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – लोकाकाश किसे कहते हैं?

    उत्तर – जीव और अजीव द्रव्य जितने आकाश में पाये जायें उतने आकाश को लोकाकाश कहते हैं।

    प्रश्न – अलोकाकाश किसे कहते हैं?

    उत्तर – लोक के बाहर केवल आकाश ही आकाश है। जहाँ अन्य द्रव्यों का निवास नहीं है, इस खाली पड़े हुए आकाश को अलोकाकाश कहते हैं।

    प्रश्न – लोकाकाश बड़ा है या अलोकाकाश?

    उत्तर – अलोकाकाश बड़ा है। अलोकाकाश का अनन्तवाँ भाग लोकाकाश है।

    प्रश्न – इतने छोटे लोकाकाश में अनन्त जीव, जीवों से भी अनन्तगुणे पुद्गल और असंख्यात कालपरमाणु कैसे समा सकते हैं?

    उत्तर – लोकाकाश अलोकाकाश से छोटा होने पर भी उसमें अवगाहन शक्ति बहुत बड़ी है। इसीलिए उसमें सभी द्रव्य समाये हुए हैं।

    उदाहरण के लिए-जिस कमरे में एक दीपक का प्रकाश हो रहा है, उसी में अन्य सैकड़ों दीपक रख दिये जायें तो उनका प्रकाश भी पहले वाले दीपक में समा जाता है। आकाश एक अमुर्तिक द्रव्य है। उसमें अवगाहन करने वाले सभी द्रव्य मूर्तिक और स्थूल होते तथा आकाश स्वयं भी मूर्तिक होता तो लोकाकाश में इतने द्रव्यों का अवगाहन नहीं होता। परन्तु लोकाकाश में निवास करने वाले अनन्त जीव अमूर्तिक हैं, पुद्गलों में भी कुछ सूक्ष्म हैं और कुछ बादर हैं, कालाणु, धर्म, अधर्म द्रव्य अमूर्तिक ही हैं अत: आकाश में सभी द्रव्य समाये हुए हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता है।

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    + कालद्रव्य का स्वरूप -
    दव्वपरिवट्टरूवो, जो सो कालो हवेइ ववहारो
    परिणामादीलक्खो, वट्टणलक्खो व परमट्ठो ॥21॥
    परिवर्तन रूप परिणामादि लक्षित काल जो ।
    व्यवहार वह परमार्थ तो बस वर्तनामय जानिये ॥२१॥
    अन्वयार्थ : [ दव्व-परिवट्टरूवो] जो द्रव्यों के परिवर्तनरूप और [परिणामादी-लक्खो] परिणाम यानि समय आदि पर्याय लक्षण वाला है [सो ववहारो कालो] वह व्यवहारकाल है [य] और [वडणलक्खो] जिसका वर्तना ही लक्षण है [परमट्ठो] वह परमार्थ काल अर्थात् निश्चयकाल [हवेइ] होता है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [दव्वपरिवट्टरूवो जो] जो द्रव्य परिवर्तन रूप है [सो कालो हवेइ ववहारो] वह व्यवहार रूप काल होता है । और वह कैसा है? [परिणामादीलक्खो] परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व से जाना जाता है; इसलिए परिणामादि से लक्ष्य है । अब निश्चयकाल को कहते हैं -- [वट्टणलक्खो य परमट्ठो] जो वर्तनालक्षण वाला है वह परमार्थ (निश्चय) काल है ।

    विशेष -- जीव तथा पुद्गल का परिवर्तनरूप जो नूतन तथा जीर्ण पर्याय है, उस पर्याय की जो समय, घड़ी आदि रूप स्थिति है; वह स्थिति है स्वरूप जिसका, वह द्रव्यपर्याय रूप व्यवहारकाल है । ऐसा ही संस्कृत-प्राभृत में भी कहा है-जो स्थिति है, वह कालसंज्ञक है ।

    सारांश यह है -- द्रव्य की पर्याय से सम्बन्ध रखने वाली जो यह समय, घड़ी आदि रूप स्थिति है; वह स्थिति ही व्यवहारकाल है; वह पर्याय व्यवहारकाल नहीं है । और क्योंकि पर्यायसम्बन्धिनी स्थिति व्यवहारकाल' है इसी कारण जीव व पुद्गल के परिणाम रूप पर्याय से तथा देशान्तर में आने-जाने रूप अथवा गाय दुहनी व रसोई करना आदि हलन-चलन रूप क्रिया से तथा दूर या समीप देश में चलन रूप कालकृत परत्व तथा अपरत्व से यह काल जाना जाता है, इसीलिए वह व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्व लक्षण वाला कहा जाता है । अब द्रव्य रूप निश्चयकाल का कथन करते हैं- अपने-अपने उपादान रूप कारण से स्वयं परिणमन करते हुए पदार्थों को, जैसे कुम्भकार के चाक के भ्रमण में उसके नीचे की कीली सहकारिणी है, अथवा शीतकाल में छात्रों को पढ़ने के लिए अग्नि सहकारी है, उसी प्रकार जो पदार्थों के परिणमन में सहकारिता है, उसको वर्तना कहते हैं । वह वर्तना ही है लक्षण जिसका, वह वर्तना लक्षण वाला कालाणु द्रव्य रूप निश्चयकाल है । इस तरह व्यवहारकाल तथा निश्चयकाल का स्वरूप जानना चाहिए ।

    यहाँ कोई कहता है कि समय रूप ही निश्चयकाल है; उस समय से भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्य रूप निश्चयकाल नहीं है, क्योंकि वह देखने में नहीं आता । इसका उत्तर देते हैं कि समय तो काल की ही पर्याय है । यदि यह पूछो कि समय काल की पर्याय कैसे है? तो उत्तर यह है, पर्याय का लक्षण उत्पन्न व नाश होना है । 'समय' भी उत्पन्न व नष्ट होता है, इसलिए पर्याय है । पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती; उस समयरूप पर्याय काल (व्यवहारकाल) का उपादानकारणभूत द्रव्य भी कालरूप ही होना चाहिए क्योंकि जैसे ईंधन, अग्नि आदि सहकारी कारण से उत्पन्न भात (पके चावल) का उपादान कारण चावल ही होता है; अथवा कुम्भकार, चाक, चीवर आदि बहिरंग निमित्त कारणों से उत्पन्न जो मिट्टी की घट पर्याय है उसका उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड ही है; अथवा नर, नारक आदि जो जीव की पर्याय हैं उनका उपादान कारण जीव है; इसी तरह समय, घड़ी आदि काल का भी उपादानकारण काल ही होना चाहिए । यह नियम भी इसलिए है कि अपने उपादानकारण के समान ही कार्य होता है, ऐसा वचन है । कदाचित् ऐसा कहो कि समय, घड़ी आदि काल पर्यायों का उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है किन्तु समय रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में मंदगति से परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है; तथा निमेषरूप कालपर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन अर्थात् पलक का गिरना उठना उपादान कारण है; ऐसे ही घड़ी रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्रीरूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार उपादान कारण है; दिन रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिम्ब उपादान कारण है । ऐसा नहीं है, जिस तरह चावलरूप उपादान कारण से उत्पन्न भात पर्याय के उपादान कारण में प्राप्त गुणों के समान ही सफेद, काला आदि वर्ण; अच्छी या बुरी गन्ध; चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श; मीठा आदि रस; इत्यादि विशेष गुण दिखाई पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गल परमाणु, नेत्र-पलक विघटन, जलकटोरा, पुरुषव्यापार आदि तथा सूर्य का बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय हैं, उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घड़ी, दिन आदि जो कालपर्याय हैं उनके भी काला आदि गुण मिलने चाहिए; परन्तु समय, घड़ी आदि में ये गुण नहीं दिखाई पड़ते, क्योंकि उपादान कारण के समान कार्य होता है, ऐसा वचन है ।

    बहुत कहने से क्या लाभ! जो आदि तथा अन्त से रहित अमूर्त है, नित्य है, समय आदि का उपादान कारणभूत है तो भी समय आदि भेदों से रहित है और कालाणु द्रव्यरूप है, वह निश्चयकाल है और जो आदि तथा अन्त से सहित है; समय, घड़ी, पहर आदि व्यवहार के विकल्पों से युक्त है, वह उसी द्रव्यकाल का पर्याय रूप व्यवहारकाल है । सारांश यह है कि यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से अनन्त सुख का भाजन होता है, तो भी विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव का धारक जो निज परमात्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और सम्पूर्ण बाह्य द्रव्यों की इच्छा को दूर करने रूप लक्षण वाला तपश्चरणरूप जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप चार प्रकार की निश्चय आराधना है, वह आराधना ही उस जीव के अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जाननी चाहिए; उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए वह कालद्रव्य हेय है ॥२१॥

    अब निश्चयकाल के रहने का क्षेत्र तथा काल-द्रव्य की संख्या का प्रतिपादन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    जीव-पुद्गल आदि के परिवर्तन में अर्थात् नवीन या जीर्ण अवस्थाओं के होने में काल द्रव्य सहायक होता है। इनमें से घड़ी, घण्टा, दिन-रात आदि व्यवहार है। वर्तनारूप-सूक्ष्म परिणमनरूप निश्चयकाल है।

    प्रश्न – परिणाम किसे कहते हैं?

    उत्तर – समस्त द्रव्यों के स्थूल परिवर्तन को परिणाम-परिणमन कहते हैं।

    प्रश्न – काल-द्रव्य अन्य द्रव्यों के परिणमन में कौन सा निमित्त है?

    उत्तर – उदासीन निमित्त है।

    प्रश्न – वर्तना किसे कहते हैं?

    उत्तर – समस्त द्रव्यों में सूक्ष्म-परिवर्तन को वर्तना कहते हैं। जैसे-कपड़ा, मकान, वस्त्रादि में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, मनुष्य, स्त्री-पुरुष आदि के वर्षों की गणना यह काल द्रव्य का ही परिवर्तन समझना चाहिए।

    प्रश्न – क्रिया किसे कहते हैं ?

    उत्तर – देशान्तर में संचलनरूप या परिस्पन्दन (हलन-चलन) आदि को क्रिया कहते हैं।

    प्रश्न – परत्वापरत्व किसे कहते हैं ?

    उत्तर – कालकृत छोटे-बड़े के व्यवहार को परत्वापरत्व कहते हैं-जैसे यह इससे दो महीना छोटा है और यह इससे दो महीना बड़ा है आदि व्यवहार परत्वापरत्व है।

    प्रश्न – निश्चयकाल किसे कहते हैं ?

    उत्तर – वर्तना को ही निश्चयकाल कहते हैं।

    प्रश्न – व्यवहारकाल किसे कहते हैं ?

    उत्तर – क्रिया परिणाम, परत्वापरत्व आदि को व्यवहार काल कहते हैं तथा समय, आवलि, घटिका आदि व्यवहार भी व्यवहारकाल है।

    प्रश्न – काल के अस्तित्व को क्यों स्वीकार किया जाता है ?

    उत्तर – काल के अभाव में किसी को ज्येष्ठ, किसी को कनिष्ठ, नया, पुराना किस आधार पर कह सकते हैं, अत: लोकव्यवहार में काल को स्वीकार करना आवश्यक है। सारा विश्व, कालसत्ता पर ही क्षण-क्षण में परिवर्तित होता रहता है। वस्तुएँ देखते-देखते नवीन से पुरातन और जीर्ण-शीर्ण हो जाती हैं। सुगन्ध, दुर्गन्ध में परिवर्तित हो जाती है, यह काल का ही प्रभाव है।

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    + काल द्रव्य की संख्या -
    लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का
    रयणाणं रासीमिव, ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥22॥
    जानलो इस लोक को जो एक-एक प्रदेश पर ।
    रत्नराशिवत् जड़े वे असंख्य कालाणु दरब ॥२२॥
    अन्वयार्थ : [इक्किक्के लोयायासपदेसे] एक-एक लोकाकाश के प्रदेशों पर [रयणाणं रासी इव] रत्नों की राशि के समान [इक्किक्का ] एक-एक [कालाणू] कालद्रव्यरूप अणु [ठिया] स्थित है [ते] वे कालाणु [हु] निश्चय से [असंख-दव्वाणि] असंख्यात द्रव्यरूप हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हुइक्किक्का] एक-एक लोकाकाश के प्रदेश पर जो एक-एक संख्यायुक्त स्पष्ट रूप से स्थित हैं । किसके समान हैं? [रयणाणं रासी इव] परस्पर में तादात्म्य सम्बन्ध के अभाव के कारण रत्नों की राशि के समान भिन्न-भिन्न स्थित हैं । [ते कालाणू] वे कालाणु हैं । कितनी संख्या के धारक हैं? [असंखदव्वाणि] लोकाकाश कई प्रदेशों की संख्या के बराबर असंख्यात द्रव्य हैं ।

    विशेष - जैसे जिस क्षण में अंगुली रूप द्रव्य के टेढ़ी रूप पर्याय की उत्पत्ति होती है उसी क्षण में उसके सीधे आकार रूप पर्याय का नाश होता है और अंगुली रूप से वह अंगुली दोनों दशाओं में ध्रौव्य है । इस तरह उत्पत्ति, नाश तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणों से युक्त द्रव्य के स्वरूप की सिद्धि है । तथा जैसे केवलज्ञान आदि की प्रकटता रूप कार्य समयसार का (परम-आत्मा का) उत्पाद होता है उसी समय निर्विकल्प ध्यानरूप जो कारण समयसार है, उसका नाश होता है और उन दोनों का आधारभूत जो परमात्म द्रव्य है उस रूप से ध्रौव्य है; इस तरह से भी द्रव्य की सिद्धि है । उसी तरह कालाणु के भी, जो मन्दगति में परिणत पुद्गल परमाणु द्वारा प्रकट किये हुए और कालाणुरूप उपादान कारण से उत्पन्न हुए जो यह वर्तमान समय का उत्पाद है; वही बीते हुए समय की अपेक्षा विनाश है और उन वर्तमान तथा अतीत दोनों समय का आधारभूत कालद्रव्यत्व से ध्रौव्य है । इस तरह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप काल द्रव्य की सिद्धि है ।

    शंका – 'लोक के बाहरी भाग में कालाणु द्रव्य के अभाव से अलोकाकाश में परिणमन कैसे हो सकता है?'

    उत्तर – आकाश अखण्ड द्रव्य है इसलिए जैसे चाक के एक कोने में डंडे की प्रेरणा से कुम्हार का सारा चाक घूमने लगता है; अथवा जैसे स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का प्रिय अनुभव एक अंग में करने से समस्त शरीर में सुख का अनुभव होता है; उसी प्रकार लोकाकाश में स्थित जो कालाणु द्रव्य है वह आकाश के एक देश में स्थित है तो भी सर्व अखण्ड आकाश में परिणमन होता है; इसी प्रकार काल द्रव्य शेष सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है ।

    शंका – जैसे काल द्रव्य, जीव पुद्गल आदि द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है वैसे ही काल द्रव्य के परिणमन में सहकारी कारण कौन है?

    उत्तर – जिस तरह आकाश द्रव्य शेष सब द्रव्यों का आधार है और अपना आधार भी आप ही है; इसी तरह काल द्रव्य भी अन्य सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है और अपने परिणमन में भी सहकारी कारण है ।

    शंका – जैसे कालद्रव्य अपना उपादान कारण है और अपने परिणमन का सहकारी कारण है; वैसे ही जीव आदि सब द्रव्य भी अपने उपादान कारण और अपने-अपने परिणमन के सहकारी कारण रहें । उन द्रव्यों के परिणमन में कालद्रव्य से क्या प्रयोजन है?

    समाधान – ऐसा नहीं है क्योंकि यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारण की आवश्यकता न हो तो सब द्रव्यों के साधारण गति, स्थिति, अवगाहन के लिए सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य हैं, उनकी भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी ।

    और भी, काल का कार्य तो केवल घड़ी, दिन आदि प्रत्यक्ष से दिखाई पड़ता है; किन्तु धर्म द्रव्य आदि का कार्य तो केवल आगम [शास्त्र] के कथन से ही माना जाता है । उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता । इसलिए जैसे कालद्रव्य का अभाव मानते हो उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म तथा आकाश द्रव्यों का भी अभाव प्राप्त होता है और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे । केवल दो ही द्रव्यों के मानने पर आगम से विरोध आता है । सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी होना, यह केवल कालद्रव्य का ही गुण है । जैसे नाक से रस का आस्वाद नहीं हो सकता; ऐसे ही अन्य द्रव्य का गुण भी अन्य-द्रव्य के द्वारा नहीं किया जाता, क्योंकि ऐसा मानने से द्रव्यसंकर दोष का प्रसंग आवेगा (अन्य द्रव्य का लक्षण अन्य-द्रव्य में चला जायेगा)

    अब कोई कहता है -- 'जितने काल में आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है, उतने काल का नाम समय है'; ऐसा शास्त्र में कहा है तो एक समय में परमाणु के चौदह रज्जु गमन करने पर, जितने आकाश के प्रदेश हैं उतने ही समय होने चाहिए? शंका का निराकरण करते हैं - आगम में जो परमाणु का एक समय में एक आकाश के प्रदेश से साथ वाले दूसरे प्रदेश पर गमन करना कहा है; सो तो मन्दगति की अपेक्षा से है तथा परमाणु का एक समय में जो चौदह रज्जु का गमन कहा है वह शीघ्र गमन की अपेक्षा से है । इसलिए शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है । इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे जो देवदत्त धीमी चाल से सौ योजन सौ दिन में जाता है, वही देवदत्त विद्या के प्रभाव से शीघ्र गति के द्वारा सौ योजन एक दिन में भी जाता है, तो क्या उस देवदत्त को शीघ्रगति से सौ योजन गमन करने में सौ दिन हो गये? किन्तु एक ही दिन लगेगा । इसी तरह शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है तथा स्वयं विषयों के अनुभव से रहित भी यह जीव अन्य के द्वारा अनुभव किये हुए, देखे हुए, सुने हुए विषय को मन में स्मरण करके विषयों की इच्छा करता है उसको अपध्यान कहते हैं । उस विषय-अभिलाषा आदि समस्त विकल्पों से रहित और आत्म-अनुभव से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्दरूप सुख के रस आस्वाद सहित वीतराग चारित्र होता है और जो उस वीतराग चारित्र से अविनाभूत है वह निश्चय सम्यक्त्व तथा वीतराग सम्यक्त्व है । वह निश्चय सम्यक्त्व ही तीनों कालों में मुक्ति का कारण है । काल तो उस निश्चय सम्यक्त्व के अभाव में वीतराग चारित्र का सहकारी कारण भी नहीं होता; इस कारण कालद्रव्य हेय है । ऐसा कहा भी है

    बहुत कहने से क्या; जो श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं व होंगे; वह सब सम्यक्त्व का माहात्म्य है । यहाँ तात्पर्य यह है कि कालद्रव्य तथा अन्य द्रव्यों के विषय में परम-आगम के अविरोध से ही विचारना चाहिए; “वीतराग सर्वज्ञ का वचन प्रमाण है' ऐसा मन में निश्चय करके उनके कथन में विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि विवाद में राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं और उन राग-द्वेषों से संसार की वृद्धि होती है ॥२२॥

    इस प्रकार कालद्रव्य के व्याख्यान की मुख्यता से पाँचवें स्थल में दो गाथाएँ हुईं । इस प्रकार आठ गाथाओं के समुदाय रूप पाँचवें स्थल से पुद्गलादि पाँच प्रकार के अजीव द्रव्य के कथन द्वारा दूसरा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ।

    अब इसके पश्चात् पाँच गाथाओं में पंचास्तिकाय का व्याख्यान करते हैं और उनमें भी प्रथम गाथा के पूर्वार्ध में छहों द्रव्यों के व्याख्यान का उपसंहार और उत्तरार्ध से पंचास्तिकाय के व्याख्यान का आरम्भ करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – कालाणु असंख्यात हैं, इसका प्रमाण क्या है?

    उत्तर – लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात होते हैं अत: उन पर स्थित कालाणु भी असंख्यात होते हैं।

    प्रश्न – लोकाकाश में काल द्रव्य कैसे स्थित रहते हैं?

    उत्तर – लोकाकाश असंख्यप्रदेशी है। एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु रत्नराशि के समान स्थित रहते हैं।

    प्रश्न – काल द्रव्य बहुप्रदेशी है या नहीं ?

    उत्तर – प्रत्येक कालाणु स्वतंत्र द्रव्य है-एक समय दूसरे समय के साथ मिलता नहीं, अत: कालाणु बहुप्रदेशी नहीं है।

    प्रश्न – समय किसे कहते हैं ?

    उत्तर – आकाश के एक प्रदेश से एक पुद्गल परमाणु मंद गति से दूसरे आकाश प्रदेश पर और तीव्र गति से चौदह राजू प्रमाण गमन करता है, उतने काल को समय कहते हैं।

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    + द्रव्य और अस्तिकाय के भेद -
    एवं छब्भेयमिदं, जीवाजीवप्पभेददो दव्वं
    उत्तं कालविजुत्तं, णायव्वा पंच अत्थिकाया दु ॥23॥
    इसतरह ये छह दरब जो जीव और अजीवमय ।
    कालबिन बाकी दरब ही पंच अस्तिकाय हैं ॥२३॥
    अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [जीवाजीवप्पभेददो] जीव और अजीव के भेद से [इदं दव्वं] यह द्रव्य [छब्भेयं उत्तं] छह भेद वाला कहा गया [दु] परन्तु [कालविजुत्तं] कालद्रव्य को छोड़कर [पंच अस्थिकाया णादव्वा] शेष पाँच द्रव्यों को अस्तिकाय जानना चाहिए ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [एवं छब्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेददो दव्वं उत्तं] उस पूर्वोक्त प्रकार से जीव तथा अजीव के प्रभेद से ये द्रव्य छह प्रकार के कहे गये हैं । [कालविजुत्तं णादव्वा पंचअस्थिकाया दुवे ही] छह प्रकार के द्रव्य कालरहित अर्थात् काल के बिना (शेष पाँच द्रव्यों को) पाँच अस्तिकाय समझने चाहिए ।

    अस्तिकाय की पाँच संख्या तो जान ली है, अब उनके अस्तित्व और कायत्व का निरूपण करते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – कालद्रव्य को अस्तिकाय क्यों नहीं कहा है?

    उत्तर – कालद्रव्य के केवल एक ही प्रदेश होता है (कालद्रव्य एकप्रदेशी है) इसलिए उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है।

    प्रश्न – पुद्गल का एक परमाणु भी एकप्रदेशी होता है, तो उसे अस्तिकाय क्यों कहा है?

    उत्तर – कालाणु सदा एक प्रदेश वाला ही रहता है किन्तु पुद्गल परमाणु में विशेषता यह पाई जाती है कि वह एक प्रदेश वाला होकर भी स्कन्धरूप में परिणत होते ही नाना प्रदेश (संख्यात, असंख्यात, अनन्त) वाला हो जाता है। कालाणु में बहुप्रदेशीपने की योग्यता ही नहीं है। किन्तु परमाणु में वह योग्यता है इसलिए परमाणु को अस्तिकाय कहा गया है।

    प्रश्न – कालाणु में बहुप्रदेशी होने की योग्यता क्यों नहीं है?

    उत्तर – कालाणु पुद्गल के अणुओं के समान नहीं हो सकते हैं। पुद्गल परमाणु में रूप, रस आदि पाये जाते हैं इसलिए वह मूर्तिक है, स्वंâध बन जाता है। परन्तु कालाणु अमूर्तिक है, स्पर्श,रसादि गुणों से रहित है अत: उसमें बहुप्रदेशीपना बन नहीं पाता अर्थात् उसमें स्कन्ध बनने की योग्यता ही नहीं पाई जाती है।

    प्रश्न – पुद्गल के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – अणु और स्कन्ध के भेद से पुद्गल दो प्रकार का है।

    प्रश्न – स्कन्ध किसको कहते हैं ?

    उत्तर – दो आदि अणुओं के संबंध को स्कन्ध कहते हैं।

    प्रश्न – हमारी आँखों से दिखने वाले पदार्थ अणु हैं कि स्कन्ध ?

    उत्तर – हमारी आँखों से दिखने वाले सारे पदार्थ स्कन्ध हैं, क्योंकि अणु आँखों का विषय नहीं है।

    प्रश्न – अणु की उत्पत्ति कैसे होती है ?

    उत्तर – अणु की उत्पत्ति भेद से होती है।

    प्रश्न – स्कन्ध की उत्पत्ति कैसे होती है ?

    उत्तर – स्कन्ध की उत्पत्ति भेद और संघात से होती है। जैसे एक सेर वस्तु में आधा सेर मिला देने से (संघात कर देने से) डेढ़ सेर का स्वंâध उत्पन्न हो जाता है, वैसे ही सेर आदि में से कुछ घटा देने पर स्कन्ध उत्पन्न होता है।

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    + अस्तिकाय का स्वरूप और नाम की सार्थकता -
    संति जदो तेणेदे, अत्थीति भणंति जिणवरा जम्हा
    काया इव बहुदेसा, तम्हा काया या अत्थिकाया य ॥24॥
    कायवत बहुप्रदेशी हैं इसलिए तो काय है ।
    अस्तित्वमय हैं इसलिए अस्ति कहा जिनदेव ने ॥२४ ॥
    अन्वयार्थ : [जदो एदे संति] क्योंकि ये पूर्वोक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश पाँच द्रव्य हैं [तेण] इसलिए [अत्थि] अस्तित्ववान/विद्यमान हैं [त्ति] ऐसा [जिणवरा] जिनेश्वरदेव [भणंति] कहते हैं [य] और [जम्हा काया इव] क्योंकि ये काय/शरीर के समान [बहुदेसा] बहुप्रदेशी हैं [तम्हा काया] इसलिए ये काय हैं [य] और अस्ति तथा काय दोनों को मिलाने से [अस्थिकाया] पाँचों द्रव्य अस्तिकाय होते हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [संति जदो तेणेदे अस्थित्ति भणंति जिणवरा] जीव से आकाश तक पाँच द्रव्य विद्यमान हैं इसलिए सर्वज्ञदेव इनको अस्ति कहते हैं । [जम्हा काया इव बहुदेसा तम्हा काया य] और क्योंकि काय अर्थात् शरीर के समान ये बहुत प्रदेशों के धारक हैं; इस कारण जिनेश्वरदेव इनको काय कहते हैं । [अत्थिकाया य] इस प्रकार अस्तित्व से युक्त ये पाँचों द्रव्य केवल 'अस्ति' ही नहीं हैं और कायत्व से युक्त होने से केवल काय भी नहीं हैं; किन्तु अस्ति और काय इन दोनों को मिलाने से अस्तिकाय संज्ञा के धारक हैं ।

    अब इन पाँचों के संज्ञा, लक्षण तथा प्रयोजन आदि से यद्यपि परस्पर भेद है तथापि अस्तित्व के साथ अभेद है, यह दर्शाते हैं --

    जैसे शुद्ध जीवास्तिकाय में सिद्धत्व रूप शुद्ध द्रव्य-व्यंजन-पर्याय है; केवलज्ञान आदि विशेष गुण हैं तथा अस्तित्व, वस्तुत्व और अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं तथा मुक्ति दशा में अव्याबाध अनन्तसुख आदि अनन्तगुणों की प्रकटता रूप कार्य समयसार का उत्पाद, रागादि विभाव रहित परम स्वास्थ्य रूप कारण समयसार का व्यय (नाश) और इन दोनों के आधारभूत परमात्मा रूप द्रव्यपने से ध्रौव्य है । इस प्रकार पहले कहे लक्षण सहित गुण तथा पर्यायों से और उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य के साथ मुक्त अवस्था में संज्ञा, लक्षण तथा प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी सत्ता रूप से और प्रदेश रूप से भेद नहीं है क्योंकि मुक्त जीवों की सत्ता होने पर गुण तथा पर्यायों की और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की सत्ता सिद्ध होती है एवं गुण, पर्याय, उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य की सत्ता से मुक्त आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । इस तरह गुण, पर्याय आदि से मुक्त आत्मा की और मुक्त-आत्मा से गुण पर्याय की परस्पर सत्ता सिद्ध होती है । अब इनके कायपना कहते हैं- बहुत से प्रदेशों के समूह को देखकर जैसे शरीर को काय कहते हैं (जैसे शरीर में अधिक प्रदेश होने के कारण शरीर को काय कहते हैं) उसी प्रकार अनन्तज्ञान आदि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाश के बराबर असंख्यात शुद्ध प्रदेशों के समूह, संघात व्यय और ध्रौव्य सहित मुक्तात्मा के निश्चयनय की अपेक्षा सत्ता रूप से अभेद बताया गया है, वैसे ही संसारी जीवों में तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों में भी यथासंभव परस्पर अभेद देख लेना चाहिए । कालद्रव्य को छोड़कर अन्य सब द्रव्यों के कायत्व रूप से भी अभेद है । यह गाथा का अभिप्राय है ॥२४॥

    अब कायत्व के व्याख्यान में जो पहले प्रदेशों का अस्तित्व सूचित किया है उसका विशेष व्याख्यान करते हैं- यह तो अगली गाथा की एक भूमिका है; और किस द्रव्य के कितने प्रदेश होते हैं, दूसरी भूमिका यह प्रतिपादन करती है --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – अस्ति किसे कहते हैं?

    उत्तर – जो सदा विद्यमान रहे, जिसका कभी नाश नहीं हो, वह 'अस्ति' कहलाता है।

    प्रश्न – 'अस्ति' द्रव्य कितने हैं?

    उत्तर – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छहों द्रव्य 'अस्ति' रूप हैं।

    प्रश्न – 'काय' किसे कहते हैं?

    उत्तर – जो शरीर के समान बहुप्रदेशी हो उसे काय कहते हैं।

    प्रश्न – 'काय' संज्ञा सहित द्रव्य कितने हैं?

    उत्तर – 'काल' द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य कायसंज्ञा वाले होते हैं और काल एक प्रदेशी ही रहता है।

    प्रश्न – अस्तिकाय किसे कहते हैं?

    उत्तर – जो अस्तिरूप भी हो तथा काय के गुण से समन्वित भी हो, वह अस्तिकाय है।

    प्रश्न – अस्तिकाय कितने हैं?

    उत्तर – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय हैं।

    प्रश्न – कालद्रव्य अस्तिकाय क्यों नहीं है?

    उत्तर – काल द्रव्य अस्तिरूप तो है किन्तु काय का लक्षण उसमें घटित नहीं होता है इसलिए वह अस्तिकाय नहीं माना जाता है।

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    + द्रव्यों की प्रदेश संख्या -
    होति असंखा जीवे, धम्माधम्मे अणंत आयासे
    मुत्ते तिविह पदेसा, कालस्सेगोणतेण सो काओ ॥25॥
    हैं अनंत प्रदेश नभ जिय धर्म अधर्म असंख्य हैं ।
    सब पुद्गलों के त्रिविध एवं काल का बस एक है ॥२५॥
    अन्वयार्थ : [जीवे धम्माधम्मे] एक जीवद्रव्य में, धर्म व अधर्मद्रव्य में [असंखा] असंख्यात प्रदेश हैं [आयासे] आकाशद्रव्य में [अणंत] अनन्त प्रदेश हैं [मुत्ते] मूर्त पुद्गलद्रव्य में [तिविह पदेसा] संख्यात, असंख्यात और अनन्त ये तीनों प्रदेश [होति] होते हैं [कालस्स एगो] कालद्रव्य का एक ही प्रदेश है [तेण] इस कारण से [सो काओ ण] वह कायवान्/बहुप्रदेशी नहीं है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [होति असंखा जीवे धम्माधम्मे] दीपक के समान संकोच तथा विस्तार से युक्त एक जीव में भी और सदा स्वभाव से फैले हुए धर्म, अधर्म द्रव्यों में भी लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेश होते हैं । [अणंत आयासे] आकाश में अनन्त प्रदेश होते हैं । [मुत्ते तिविह पदेसा] मूर्त-पुद्गल द्रव्य में जो संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त परमाणुओं के पिण्ड अर्थात् स्कन्ध हैं, वे ही तीन प्रकार के प्रदेश कहे जाते हैं; न कि क्षेत्र-प्रदेश तीन प्रकार के हैं क्योंकि पुद्गल अनन्त प्रदेश वाले क्षेत्र में नहीं रहता । [कालस्सेगो] कालद्रव्य का एक ही प्रदेश है । [ण तेण सो काओ] इसी कारण कालद्रव्य 'काय' नहीं है । कालद्रव्य के एक प्रदेशी होने में युक्ति बतलाते हैं । यथा- जैसे अन्तिम शरीर से कुछ कम प्रमाण के धारक सिद्धत्व पर्याय का उपादान कारणभूत जो शुद्ध आत्म-द्रव्य है, वह सिद्धत्व पर्याय के प्रमाण ही है । अथवा जैसे मनुष्य, देव आदि पर्यायों का उपादान कारणभूत जो संसारी जीव द्रव्य है वह उस मनुष्य, देव आदि पर्याय के प्रमाण ही है । उसी प्रकार कालद्रव्य भी समयरूप कालपर्याय के विभाग से उपादान रूप अविभागी एक प्रदेश ही होता है । अथवा मन्दगति से गमन करते हुए पुद्गल परमाणु के आकाश के एक प्रदेश तक ही कालद्रव्य गति का सहकारी कारण होता है; इस कारण जाना जाता है कि वह कालद्रव्य भी एक ही प्रदेश का धारक है ।

    यहाँ कोई कहता है कि पुद्गल परमाणु की गति में सहकारी कारण तो धर्मद्रव्य विद्यमान है ही; इसमें काल द्रव्य का क्या प्रयोजन है? उत्तर- ऐसा नहीं है क्योंकि गति के सहकारी कारण धर्मद्रव्य के विद्यमान रहते भी मत्स्यों की गति में जल के समान तथा मनुष्यों की गति में गाड़ी पर बैठना आदि के समान पुद्गल की गति में और भी बहुत से सहकारी कारण होते हैं । कदाचित् कोई यह कहे कि "कालद्रव्य पुद्गलों की गति में सहकारी कारण है" यह कहाँ कहा है? सो कहते हैं- श्री कुन्दकुन्दआचार्य ने पंचास्तिकाय प्राभृत की [गाथा ९८] में [पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु] ऐसा कहा है । इसका अर्थ यह है कि- धर्मद्रव्य के विद्यमान होने पर भी जीवों की गति में कर्म, नोकर्म पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कन्ध इन भेदों वाले पुद्गलों के गमन में कालद्रव्य सहकारी कारण होता है ॥२५॥

    पुद्गल परमाणु यद्यपि एक प्रदेशी है तो भी उपचार से उसको काय कहते हैं, अब ऐसा उपदेश देते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    आकाश में से लोकाकाश में एक जीव के समान असंख्यात प्रदेश होते हैं और अलोकाकाश में अनन्त प्रदेश होते हैं। कालद्रव्य में एक प्रदेश ही है क्योंकि वे कालद्रव्य असंख्यात माने गये हैं। इसीलिए बहुप्रदेशी न होने से उन्हें 'काय' संज्ञा नहीं है किन्तु वह काल 'अस्ति' अवश्य है।

    प्रश्न – जीव असंख्यात प्रदेशी कैसे माना गया है?

    उत्तर – केवली समुद्घात के समय जीव सारे लोकाकाश में फैल सकता है और लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश है। अत: जीव असंख्यात प्रदेशी कहा गया है।

    प्रश्न – धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य को असंख्यात प्रदेशी क्यों कहा है?

    उत्तर – धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य भी तिल में तेल के समान सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं अत: ये दोनों द्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी कहे गये हैं।

    प्रश्न – आकाश द्रव्य को अनन्त प्रदेशी क्यों माना है?

    उत्तर – लोक और अलोक दोनों में व्याप्त होने से आकाश की कोई सीमा नहीं है अत: वह अनन्त कहा गया है।

    प्रश्न – पुद्गल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी ये तीनों प्रकार कैसे हैं?

    उत्तर – संख्यात पुद्गल परमाणु का पिण्ड होने से वह संख्यात प्रदेशी है। असंख्यात परमाणुओें का पिण्ड होने से उसे असंख्यात प्रदेशी कहते हैं और अनन्त परमाणुओं का पिण्ड होने से वे अनन्त प्रदेशी होते हैं।

    प्रश्न – काल द्रव्य को एक प्रदेशी क्यों कहा है?

    उत्तर – काल के अणु रत्नों की राशि के समान एक-एक अलग रहते हैं क्योंकि एक साथ मिलकर पुद्गल के समान पिण्ड होने की शक्ति काल में नहीं है इसलिए काल एक प्रदेशी कहा गया है और वह कायवान नहीं है।

    प्रश्न – समुद्घात किसे कहते हैं?

    उत्तर – मूल शरीर को छोड़कर आत्मा के प्रदेशों का शरीर के बाहर निकलने का नाम समुद्घात है।

    प्रश्न – समुद्घात के कितने भेद हैं?

    उत्तर – समुद्घात के सात भेद हैं-वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली।

    प्रश्न – वेदना समुद्घात किसे कहते हैं?

    उत्तर – तीव्र वेदना से मूल शरीर को न छोड़कर आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना वेदना समुद्घात कहलाता है।

    प्रश्न – कषाय समुद्घात का लक्षण क्या है?

    उत्तर – तीव्र कषाय से आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना कषाय समुद्घात है।

    प्रश्न – वैक्रियिक समुद्घात क्या होता है?

    उत्तर – अनेक रूप बनाने के लिए आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना वैक्रियिक समुद्घात कहलाता है।

    प्रश्न – मारणान्तिक समुद्घात किसे कहते हैं?

    उत्तर – शरीर में रहते हुए भी आगे के जन्मस्थान के स्पर्श हेतु प्रदेशों का बाहर जाना मारणांतिक समुद्घात कहा गया है।

    प्रश्न –तैजस समुद्घात का क्या कार्य होता है?

    उत्तर – रोगादि से दु:खी देख संयमी मुनि के दया के उत्पन्न होने पर मुनि के दाहिने कंधे से जो पुतला निकलकर रोगादि को नष्ट कर दे वह शुभ तैजस है। क्रोधादि के निमित्त से संयमी मुनि के बाएँ कंधे से पुतला निकलकर उस देश को भस्म करके मुनि को भी भस्म कर दे वह अशुभ तैजस समुद्घात कहलाता है।

    प्रश्न – आहारक समुद्घात किसके होता है?

    उत्तर – ऋद्धिधारी मुनि के किसी विषय में सूक्ष्म शंका आदि होने पर मस्तक से जो पुतला निकलकर केवली के पादमूल में जाकर वापस आ जावे और समाधान हो जावे वह आहारक समुद्घात है।

    प्रश्न – केवली समुद्घात का लक्षण बताएँ?

    उत्तर – केवली भगवान के आयु की स्थिति अन्तर्मुहूर्त रहने पर और नाम, कर्मादि की स्थिति अधिक होने पर बराबर करने के लिए दण्ड कपाट प्रतर और लोकपूरण क्रिया का होना केवली समुद्घात है।

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    + पुद्गल का परमाणु अस्तिकाय है -
    एयपदेसो वि अणू, णाणाखंधप्पदेसदो होदि
    बहुदेसो उवयारा, तेण य काओ भणंति सव्वण्हू ॥26॥
    यद्यपि पुद्गल अणु है मात्र एक प्रदेशमय ।
    पर बहुप्रदेशी कहें जिन स्कन्ध के उपचार से ॥२६॥
    अन्वयार्थ : [एयपदेसो वि अणू] एक प्रदेश वाला भी पुद्गलरूप अणु [णाणा-खंधप्पदेसदो] अनेक स्कन्धरूप प्रदेशों का कारण होने से [बहुदेसो] बहुप्रदेशी [होदि] होता है [य] और [तेण] इसी कारण से [सव्वण्हू] सर्वज्ञदेव परमाणु को [उवयारा काओ] उपचार/व्यवहार से कायवान/बहुप्रदेशी [भणंति] कहते हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि बहुदेसो] यद्यपि पुद्गल परमाणु एकप्रदेशी है तथापि अनेक प्रकार के द्विअणुक आदि स्कन्ध रूप बहुत प्रदेशों के कारण बहुप्रदेशी होता है । [उवयारा] उपचार से अथवा व्यवहारनय से । [तेण य काओ भणंति सव्वण्हु] इसी कारण सर्वज्ञदेव उस पुद्गल परमाणु को काय कहते हैं । जैसे यह परमात्मा शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा द्रव्य रूप से शुद्ध तथा एक है तो भी अनादि कर्मबन्धन के कारण स्निग्ध तथा रूक्ष गुणों के स्थानीय (की जगह) राग, द्वेष रूप परिणमन करके व्यवहारनय के द्वारा मनुष्य, नारक आदि विभाव पर्याय रूप अनेक प्रकार का होता है, उसी प्रकार पुद्गल परमाणु भी यद्यपि स्वभाव से एक और शुद्ध है तो भी रागद्वेष के स्थानभूत जो बन्ध के योग्य स्निग्ध, रूक्ष गुणों के द्वारा परिणमन करके द्वि-अणुक आदि स्कन्ध रूप जो विभाव पर्याय हैं, उनके द्वारा अनेक प्रकार का बहुत प्रदेशों वाला हो जाता है । इसीलिए बहुप्रदेशता रूप कायत्व का कारण होने से पुद्गल परमाणु को सर्वज्ञ भगवान् व्यवहार से काय कहते हैं ।

    यदि कोई ऐसा कहे कि जैसे द्रव्य रूप से एक भी पुद्गल परमाणु के द्वि-अणुक आदि स्कन्ध पर्याय द्वारा बहु-प्रदेश रूप कायत्व सिद्ध हुआ है; ऐसे ही द्रव्य रूप से एक होने पर भी कालाणु के पर्याय द्वारा कायत्व सिद्ध होता है । इसका परिहार करते हैं कि स्निग्ध रूक्ष गुण के कारण होने वाले बन्ध का कालद्रव्य में अभाव है इसलिए वह काय नहीं हो सकता । ऐसा भी क्यों? क्योंकि स्निग्ध तथा रूक्षपना पुद्गल का ही धर्म है । काल में स्निग्ध रूक्ष नहीं है और उनके बिना बन्ध नहीं होता ।

    कदाचित् यह पूछो कि 'अणु' यह तो पुद्गल की संज्ञा है, काल की 'अणु' संज्ञा कैसे हुई? इसका उत्तर यह है कि 'अणु' इस शब्द द्वारा व्यवहारनय से पुद्गल कहे जाते हैं और निश्चयनय से तो वर्ण आदि गुणों के पूरण तथा गलन के सम्बन्ध से वे पुद्गल कहे जाते हैं; वास्तव में अणु' शब्द सूक्ष्म का वाचक है, जैसे परम अर्थात् अत्यन्त रूप से जो अणु हो सो 'परमाणु' है । अणु का क्या अर्थ है? 'सूक्ष्म' इस व्युत्पत्ति से परमाणु शब्द 'अतिसूक्ष्म' पदार्थ को कहता है और वह सूक्ष्म-वाचक अणु शब्द निर्विभाग पुद्गल की विवक्षा [कहने की इच्छा] में पुद्गलाणु को कहता है और अविभागी कालद्रव्य के कहने की जब इच्छा होती है तब 'कालाणु' को कहता है ॥२६॥

    अब प्रदेश का लक्षण कहते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    यद्यपि परमाणु में एक प्रदेश ही है फिर भी वह स्कं स्कंधने की शक्ति रखता है इसीलिए उस परमाणु को भी उपचार से बहुप्रदेशी मानकर काय कहा है। उस हेतु से वह अस्तिकाय माना गया है। किन्तु कालद्रव्य उपचार से भी बहुप्रदेशी नहीं हो सकता है अत: अस्ति है, काय नहीं है।

    प्रश्न – परमाणु किसको कहते हैं?

    उत्तर – जिसका दूसरा टुकड़ा न हो ऐसे अविभागी पुद्गल की अन्तिम अवस्था को परमाणु कहते हैं।

    प्रश्न – एक प्रदेशी परमाणु बहु प्रदेशी कैसे कहा जाता है?

    उत्तर – यद्यपि पुद्गल एक प्रदेशी है-तथापि नाना प्रकार के दो अणु आदि स्कंध- रूप बहुत प्रदेशी का कारण होने से पुद्गल को उपचार से बहुप्रदेशी कहा है।

    प्रश्न – उपचार किसे कहते हैं?

    उत्तर – किसी वस्तु को किसी निमित्त स्वभाव से भिन्नरूप कहना उपचार कहलाता है। जैसे-शुद्ध पुद्गल परमाणु स्वभाव से एकप्रदेशी है किन्तु अन्य के (पुद्गलों के) संयोग से वह (संख्यात, असंख्यात, अनंत) बहुप्रदेशी कहलाता है।

    प्रश्न – जैसे परमाणु का परस्पर बंध होता है, वैसे कालाणु का क्यों नहीं होता ?

    उत्तर – जिस प्रकार पुद्गल परमाणु में परस्पर बंध का कारण स्निग्धत्व- रुक्षत्व है। वैसे-कालाणु में परस्पर बंध का कारण स्निग्ध और रुक्षत्व नहीं है अत: कालाणु में परस्पर बंध नहीं होता।

    प्रश्न – परमाणु किसको कहते हैं ?

    उत्तर – जिसका दूसरा टुकड़ा न हो, ऐसे निर्विभाग पुद्गल की अन्तिम अवस्था को परमाणु कहते हैं।

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    + प्रदेश का लक्षण और उसकी योग्यता -
    जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणु वट्ठद्धं
    तं खु पदेसं जाणे, सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं ॥27॥
    एक अणु जितनी जगह घेरे प्रदेश कहें उसे ।
    किन्तु एक प्रदेश में ही अनेक परमाणु रहें ॥२७॥
    अन्वयार्थ : [जावदियं आयासं] जितना आकाश [अविभागी-पुग्गलाणुवठ्ठद्धं] पुद्गल के अविभाजित परमाणु से व्याप्त/रोका गया है [तं] उसको [खु] निश्चय से [सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं] सर्व परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ [पदेसं] प्रदेश [जाणे] जानना चाहिए ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउद्बुद्धं तं खुपदेसं जाणे] हे शिष्य! जितना आकाश अविभागी पुद्गल परमाणु से घिरा है उसको स्पष्ट रूप से प्रदेश जानो । वह प्रदेश [सव्वाणुट्टाणदाणरिहं] सब परमाणु और सूक्ष्म स्कन्धों को स्थान देने में समर्थ है, क्योंकि ऐसी अवगाहन शक्ति आकाश में है । इसी कारण असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव तथा उन जीवों से भी अनन्तगुणे पुद्गल समा जाते हैं । इसी प्रकार जीव और पुद्गल के विषय में भी अवकाश देने की सामर्थ्य आगम में कही है ।

    एक निगोद शरीर में द्रव्य-प्रमाण से भूतकाल के सब सिद्धों से भी अनन्तगुणे जीव देखे गये हैं ॥१॥

    यह लोक सब तरफ से विविध तथा अनन्तानन्त सूक्ष्म और बादर पुद्गलों द्वारा अतिसघन भरा हुआ है ॥२॥

    यदि किसी का ऐसा मत हो कि 'मूर्तिमान् पुद्गलों के तो अणु तथा स्कन्ध आदि विभाग हों, इसमें तो कुछ विरोध नहीं; किन्तु अखण्ड, अमूर्तिक आकाश की विभाग कल्पना कैसे हो सकती है?' यह शंका ठीक नहीं; क्योंकि राग आदि उपाधियों से रहित, निज-आत्म-अनुभव की प्रत्यक्ष भावना से उत्पन्न सुखरूप अमृतरस के आस्वादन से तृप्त ऐसे दो मुनियों के रहने का स्थान एक है अथवा अनेक? यदि दोनों का निवास क्षेत्र एक ही है तब तो दोनों एक हुए; परन्तु ऐसा है नहीं । यदि भिन्न मानों तो घट के आकाश तथा पट के आकाश की तरह विभागरहित आकाश द्रव्य की भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई ॥२७॥

    इस तरह पाँच सूत्रों द्वारा पंच अस्तिकायों का निरूपण करने वाला तीसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

    इस प्रकार श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव विरचित द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में नमस्कारादि २७ गाथाओं से तीन अन्तर अधिकारों द्वारा छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय प्रतिपादन करने वाला प्रथम अधिकार समाप्त हुआ ।

    चूलिका

    इसके अनन्तर अब छह द्रव्यों के उपसंहार रूप से विशेष व्याख्यान करते हैं

    गाथार्थ - छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं; चेतन द्रव्य एक जीव है, मूर्तिक एक पुद्गल है, प्रदेशसहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पाँच द्रव्य हैं, एकएक संख्या वाले धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य हैं । क्षेत्रवान् एक आकाश द्रव्य है, क्रिया सहित जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं, नित्यद्रव्य- धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार हैं, कारण द्रव्यपुद्गल, धर्म,अधर्म, आकाश और काल ये पाँच हैं, कर्ता- एक जीव द्रव्य है, सर्वगत (सर्व व्यापक) द्रव्य एक आकाश है (एक क्षेत्र अवगाह होने पर भी) इन छहों द्रव्यों का परस्पर प्रवेश नहीं है । इस प्रकार छहों मूलद्रव्यों के उत्तर गुण जानने चाहिए ॥१-२॥

    परिणामि इत्यादि गाथाओं का व्याख्यान करते हैं - [इदरंहि य पवेसे] यद्यपि व्यवहारनय से सब द्रव्य एक क्षेत्र में रहने के कारण आपस में प्रवेश करके रहते हैं, फिर भी निश्चयनय से चेतना आदि अपने-अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते । इसका सारांश यह है कि इन छह द्रव्यों में वीतराग, चिदानन्द, एक शुद्ध बुद्ध आदि गुण स्वभाव वाला और शुभ, अशुभ मन, वचन और काय के व्यापार से रहित निज-शुद्ध आत्म-द्रव्य ही उपादेय है ।

    तदनन्तर फिर भी छह द्रव्यों में से क्या हेय है और क्या उपादेय है, इसका विशेष विचार करते हैं । वहाँ शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शक्ति रूप से शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव के धारक सभी जीव उपादेय हैं और व्यक्ति रूप से अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु ये पंच परमेष्ठी ही उपादेय हैं । उनमें भी अर्हन्त-सिद्ध ये दो ही उपादेय हैं । इन दो में भी निश्चयनय की अपेक्षा सिद्ध ही उपादेय हैं । परम-निश्चयनय से तो भोगों की इच्छा आदि समस्त विकल्पों से रहित परमध्यान के समय सिद्धसमान निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है । अन्य सब द्रव्य हेय हैं, यह तात्पर्य है । शुद्ध-बुद्धैकस्वभाव इस पद का क्या अर्थ है? इसको कहते हैं -- मिथ्यात्व, राग आदि समस्त विभावों से रहित होने के कारण आत्मा शुद्ध कहा जाता है तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों से सहित होने के कारण आत्मा बुद्ध है । इस तरह शुद्ध-बुद्धैकस्वभाव पद का अर्थ सर्वत्र समझना चाहिए । अब चूलिका शब्द का अर्थ कहते हैं -- किसी पदार्थ के विशेष व्याख्यान को, कहे हुए विषय में जो अनुक्त विषय हैं उनके व्याख्यान को अथवा उक्त, अनुक्त विषय से मिले हुए कथन को 'चूलिका' कहते हैं ।

    इस प्रकार छह द्रव्यों की चूलिका समाप्त हुई ।

    द्वितीयोऽधिकारः

    इसके पश्चात् जीव और पुद्गल द्रव्य के पर्याय रूप आस्रव आदि ७ पदार्थों का ११ गाथाओं द्वारा व्याख्यान करते हैं । उसमें इस तरह ११ गाथाओं द्वारा सप्त स्थलों के समुदाय सहित द्वितीय अधिकार की भूमिका समझनी चाहिए ।

    यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि यदि जीव, अजीव ये दोनों द्रव्य सर्वथा एकान्त से परिणामी ही हैं तो संयोगपर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है और यदि सर्वथा अपरिणामी हैं तो जीव, अजीव द्रव्य रूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं; इसलिए आस्रव आदि सात पदार्थ कैसे सिद्ध होते हैं? इसका उत्तर देते हैं; कथंचित् परिणामी होने से सात पदार्थों का कथन संगत होता है । कथंचित् परिणामित्व का क्या अर्थ है? वह इस प्रकार है -- जैसे स्फटिकमणि यद्यपि स्वभाव से निर्मल है फिर भी जपापुष्प (लाल फूल) आदि के संसर्ग से लाल आदि अन्य पर्याय रूप परिणमती है (बिल्कुल सफेद स्फटिक मणि के साथ जब जपाफूल होता है तब वह उस फूल की तरह लाल रंग का हो जाता है ।) स्फटिक मणि यद्यपि लाल उपाधि ग्रहण करती है फिर भी निश्चयनय से अपने सफेद निर्मल स्वभाव को नहीं छोड़ती । इसी तरह जीव भी यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनय से स्वाभाविक शुद्ध-चिदानन्दस्वभाव वाला है फिर भी अनादि कर्म-बन्ध रूप पर्याय के कारण राग आदि परद्रव्यजनित उपाधिपर्याय को ग्रहण करता है । यद्यपि जीव पर पर्याय रूप परिणमन करता है तो भी निश्चयनय से अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं छोड़ता । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य के विषय में जानना चाहिए । परस्पर अपेक्षा सहित होना यही कथंचित् परिणामित्व शब्द का अर्थ है । इस प्रकार कथंचित् परिणामित्व सिद्ध होने पर, जीव और पुद्गल की संयोग परिणति से बने हुए आस्रव आदि सप्त पदार्थ घटित होते हैं और वे सात पदार्थ पूर्वोक्त जीव और अजीव द्रव्य सहित ९ हो जाते हैं इसलिए नौ पदार्थ कहे जाते हैं । अभेदनय की अपेक्षा से पुण्य और पाप पदार्थ का आस्रव पदार्थ में या बन्ध पदार्थ में अन्तर्भाव करने से सात तत्त्व कहे जाते हैं ।

    शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! यद्यपि कथंचित् परिणामित्व के बल से भेदप्रधान पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा ९ पदार्थ तथा ७ तत्त्व सिद्ध हो गये किन्तु इनसे प्रयोजन क्या सिद्ध हुआ? जैसे अभेदनय की अपेक्षा पुण्य, पाप इन दो पदार्थों का सात पदार्थों में अन्तर्भाव हुआ है उसी तरह विशेष अभेदनय की अपेक्षा से आस्रवादि पदार्थों का भी जीव, अजीव इन दो पदार्थों में अन्तर्भाव कर लेने से जीव तथा अजीव ये दो पदार्थ सिद्ध होते हैं? इन दोनों शंकाओं का परिहार करते हैं कि "कौन तत्त्व हेय हैं और कौन तत्त्व उपादेय है?" इस विषय का परिज्ञान कराने के लिए आस्रव आदि पदार्थ निरूपण करने योग्य हैं । इसी को कहते हैं, अविनाशी अनन्तसुख उपादेय तत्त्व है । उस अक्षय अनन्त सुख का कारण मोक्ष है, मोक्ष के कारण संवर और निर्जरा है । उन संवर और निर्जरा का कारण, विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव वाला निजात्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण रूप निश्चयरत्नत्रय है तथा उस निश्चय रत्नत्रय का साधक व्यवहार रत्नत्रय है । अब हेय तत्त्व को कहते हैं -- आकुलता को उत्पन्न करने वाला, नरकगति आदि का दुःख तथा निश्चय से इन्द्रियजनित सुख भी हेय यानि त्याज्य है, उसका कारण संसार है और संसार के कारण आस्रव तथा बन्ध ये दो पदार्थ हैं और उस आस्रव का तथा बन्ध का कारण पहले कहे हुए व्यवहार, निश्चयरत्नत्रय से विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र हैं । इस प्रकार हेय और उपादेय तत्त्व का निरूपण करने पर सात तत्त्व तथा नौ पदार्थ स्वयं सिद्ध हो गये ।

    अब किस पदार्थ का कर्ता कौन है? इस विषय का कथन करते हैं । निज निरंजन शुद्ध आत्मा से उत्पन्न परम आनन्दरूप सुखामृत-रस-आस्वाद से रहित जो जीव है, वह बहिरात्मा कहलाता है । वह बहिरात्मा आस्रव, बन्ध और पाप इन तीन पदार्थों का कर्ता है । किसी समय जब कषाय और मिथ्यात्व का उदय मन्द हो, तब आगामी भोगों की इच्छा आदि रूप निदान बन्ध से पापानुबन्धी पुण्य पदार्थ का भी कर्ता होता है । जो बहिरात्मा से विपरीत लक्षण का धारक सम्यग्दृष्टि जीव है वह संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों का कर्ता होता है और यह सम्यग्दृष्टि जीव, जब राग आदि विभावों से रहित परम सामायिक में स्थित नहीं रह सकता, उस समय विषयकषायों से उत्पन्न होने वाले दुर्ध्यान से बचने के लिए तथा संसार की स्थिति का नाश करता हुआ पुण्यानुबन्धी तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य पदार्थ का भी कर्ता होता है । अब कर्तृत्व के विषय में नय विभाग का निरूपण करते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव के जो पुद्गल द्रव्य पर्याय रूप आस्रव, बन्ध तथा पुण्य, पाप पदार्थों का कर्तापन है, सो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा है और जीव-भाव पुण्यपाप पर्याय रूप पदार्थों का कर्तृत्व अशुद्ध निश्चयनय से है तथा सम्यग्दृष्टि जीव जो द्रव्य रूप संवर, निर्जरा तथा मोक्ष पदार्थ का कर्ता है, सो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से है तथा संवर, निर्जरा मोक्षस्वरूप जीवभाव पर्याय का 'कर्ता', विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से है और परम शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा तो न बन्ध है न मोक्ष है । जैसा कहा भी है- यह जीव न उत्पन्न होता है, न मरता है और न बन्ध तथा मोक्ष को करता है, इस प्रकार श्री जिनेन्द्र कहते हैं ।

    पूर्वोक्त विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय को आगमभाषा से क्या कहते हैं? सो दिखाते हैं- निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण रूप से जो होगा उसे भव्य' कहते हैं, इस प्रकार के भव्यत्व नामक पारिणामिक भाव से सम्बन्ध रखने वाली व्यक्ति कही जाती है अर्थात् भव्यत्व पारिणामिक भाव की व्यक्ति यानि प्रकटता है और अध्यात्म भाषा में उसी को "द्रव्यशक्तिरूप शुद्ध पारिणामिकभाव के विषय में भावना" कहते हैं । अन्य पर्याय नामों से इसी द्रव्यशक्ति रूप पारिणामिक भाव की भावना को निर्विकल्प ध्यान तथा शुद्ध उपयोग आदि कहते हैं क्योंकि भावना मुक्ति का कारण है, इसलिए शुद्ध पारिणामिकभाव ध्येय रूप है, ध्यान या भावना रूप नहीं है । ऐसा क्यों? इसका उत्तर यह है, ध्यान या भावना' पर्याय है अतएव विनाशीक है । 'ध्येय' है, वह भावना पर्याय रहित द्रव्य रूप होने से विनाशरहित है ।

    यहाँ तात्पर्य यह है -- मिथ्यात्व, राग आदि विकल्पों से रहित निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्द रूप एक सुख अनुभव रूप जो भावना है वही मुक्ति का कारण है । उसी भावना को कोई पुरुष किन्हीं अन्य नामों [निर्विकल्प ध्यान, शुद्धोपयोग आदि] के द्वारा कहता है । इस प्रकार अनेकान्त का आश्रय लेकर कहने से आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप ये चार पदार्थ जीव और पुद्गल के संयोगपरिणाम स्वरूप जो विभाव पर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये तीन पदार्थ, जीव और पुद्गल के संयोग रूप परिणाम के विनाश से उत्पन्न जो विवक्षित स्वभाव पर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं ।

    जैसे कि --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    आकाश में एक प्रदेश में अनन्त परमाणुओं का स्वंâध भी रह सकता है। आकाश में ऐसी अवकाश देने की योग्यता विद्यमान है।

    प्रश्न – प्रदेश किसको कहते हैं?

    उत्तर – जितने आकाश क्षेत्र को परमाणु रोकता है-उतने आकाश क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं।

    प्रश्न – असंख्यातप्रदेशी लोक में अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल कैसे रहते हैं?

    उत्तर – यह आकाश द्रव्य में रहने वाले अवगाहन गुण का प्रभाव है। एक निगोदिया जीव के शरीर में सिद्धराशि से अनन्त गुणे जीव समाये हुए हैं। इसी प्रकार असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव और उनसे भी अनन्त गुणे पुद्गल समाये हुए हैं।

    प्रश्न – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों की संख्या बताइये?

    उत्तर – जीव-अनन्तानन्त हैं। पुद्गल-जीव द्रव्य से अनन्तगुणे पुद्गल हैं। धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य-एक-एक हैं। आकाश-एक अखण्ड द्रव्य है। छ: द्रव्यों के निवास की अपेक्षा इसके दो भेद हैं-१. लोकाकाश, २. अलोकाकाश। कालद्रव्य-असंख्यात हैं।

    प्रश्न – जीव और पुद्गल के संयोग से होने वाली पर्याय कौन-कौन हैं ?

    उत्तर – जीव और पुद्गल की संयोगज पर्याय है आस्रव और बंध।

    प्रश्न – जीव और पुद्गल वियोगज पर्याय कौन सी है ?

    उत्तर – जीव और पुद्गल के वियोग से उत्पन्न होने वाली पर्याय है-मोक्ष।

    प्रश्न – उन दोनों की विभागज पर्याय कौन सी है ?

    उत्तर – जीव और पुद्गल की विभागज पर्याय है संवर और निर्जरा।

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    सात-तत्त्व अधिकार



    + सात तत्त्व -
    आसव बंधणसंवर-णिज्जरमोक्खा सपुण्णपावा जे
    जीवाजीव-विसेसा, तेवि समासेण पभणामो ॥28॥
    बंध आस्रव पुण्य-पापरु मोक्ष संवर निर्जरा ।
    विशेष जीव अजीव के संक्षेप में उनको कहें ॥२८॥
    अन्वयार्थ : [जीवाजीवविसेसा] जीव और अजीव के विशेष/भेद [सपुण्ण-पावा] पुण्य और पाप सहित [जे] जो [आसव-बंधण-संवर-णिज्जर-मोक्खा ] आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष हैं [ते वि] उनको भी [समासेण] संक्षेप से [पभणामो] कहता हूँ ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [आसव] आस्रव रहित निज आत्मानुभव से विलक्षण जो शुभ तथा अशुभ परिणाम है उससे जो शुभ और अशुभ कर्मों का आगमन है सो आस्रव है । [बंधण] बन्धरहित शुद्ध आत्मोपलब्धिरूप भावना से छूटे हुए जीव का जो कर्म के प्रदेशों के साथ परस्पर मेल है, सो बन्ध है । [संवर] कर्म-आस्रव को रोकने में समर्थ स्वानुभव में परिणत जीव के जो शुभ तथा अशुभ कर्मों के आने का निरोध है, वह संवर है । [णिज्जर] शुद्धोपयोग की भावना के बल से शक्तिहीन हुए कर्मपुद्गलों के एक देश गलने को निर्जरा कहते हैं । [मोक्खो] जीव, पुद्गल के बन्ध को नाश करने में समर्थ निज शुद्ध आत्मा की उपलब्धि रूप परिणाम है, वह मोक्ष है । [सपुण्णपावा जे] पुण्य, पाप सहित जो आस्रव आदि पदार्थ हैं, [ते वि समासेण पभणामो] उनको भी, जैसे पहले जीव, अजीव कहे हैं, उसी प्रकार संक्षेप से कहते हैं । वे कैसे हैं? [जीवाजीवविसेसा] जीव तथा अजीव के विशेष (पर्याय / भेद) हैं । चैतन्यभाव रूप जीव की पर्याय हैं और चैतन्यरहित अजीव की पर्याय है । 'विशेष' का क्या अर्थ है? 'विशेष' का अर्थ पर्याय है । चैतन्य रूप जो अशुद्ध परिणाम हैं वे जीव के विशेष हैं और जो अचेतनकर्म पुद्गलों की पर्याय हैं, वे अजीव के विशेष हैं । इस प्रकार अधिकार सूत्र गाथा समाप्त हुई ॥२८॥

    अब तीन गाथाओं से आस्रव पदार्थ का वर्णन करते हैं, उसमें प्रथम ही भावास्रव तथा द्रव्यास्रव के स्वरूप की सूचना करते हैं –

    आर्यिका ज्ञानमती :
    जीव और अजीव के ही विशेष भेद आस्रव आदि रूप हैं जो कि सात तत्त्व हैं। उनमें पुण्य-पाप मिलाने से नव पदार्थ हो जाते हैं।

    प्रश्न – मूल में द्रव्य कितने होते हैं?

    उत्तर – दो हैं-१. जीव, २. अजीव।

    प्रश्न – तत्त्व के कितने भेद हैं?

    उत्तर – तत्त्व सात हैं-१. जीव, २. अजीव, ३. आस्रव, ४. बन्ध, ५. संवर, ६. निर्जरा और ७. मोक्ष

    प्रश्न – पदार्थ कितने हैं?

    उत्तर – सात तत्त्वों में पुण्य-पाप को मिलाने पर-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये नौ पदार्थ कहलाते हैं।

    प्रश्न – जीव तत्त्व के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – जीव तत्त्व के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।

    प्रश्न – बहिरात्मा किसे कहते हैं ?

    उत्तर – शरीर और आत्मा को एक मानने वाला बहिरात्मा है। मिथ्यादृष्टि, जीव बहिरात्मा कहलाता है।

    प्रश्न – अन्तरात्मा किसे कहते हैं ?

    उत्तर – चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीव अन्तरात्मा हैं।

    प्रश्न – परमात्मा किसको कहते हैं ?

    उत्तर – अरिहंत और सिद्ध को परमात्मा कहते हैं। शरीर सहित होने से अरिहंत को सकल परमात्मा कहते हैं और कल (शरीर) से नि: (रहित) होने से सिद्धों को निकल परमात्मा कहते हैं।

    प्रश्न – अजीव तत्त्व के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – अजीव तत्त्व के पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।

    प्रश्न – आस्रव किसको कहते हैं ?

    उत्तर – कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं।

    प्रश्न – आस्रव के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – आस्रव के दो भेद हैं-द्रव्यास्रव और भावास्रव।

    प्रश्न – द्रव्यास्रव किसको कहते हैं ?

    उत्तर – मिथ्यात्वादि के कारण जो पुद्गल कार्माण वर्गणा आती है, वह द्रव्यास्रव है।

    प्रश्न – भावास्रव किसको कहते हैं ?

    उत्तर – मिथ्यात्वादि भावों को भावास्रव कहते हैं।

    प्रश्न – बंध किसको कहते हैं ?

    उत्तर – आत्मा के साथ दूध पानी की भाति कर्मों का मिल जाना बंध कहलाता है।

    प्रश्न – बंध के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – बंध के दो भेद हैं-द्रव्य बंध और भाव बंध।

    प्रश्न – द्रव्य बंध किसे कहते हैं ?

    उत्तर – आत्म प्रदेश और कर्मों का परस्पर प्रवेश हो जाना द्रव्य बंध है।

    प्रश्न – भाव बंध किसको कहते हैं ?

    उत्तर – जिन चेतन भावों से कर्म बंधते हैं, वह परिणाम भाव बंध है।

    प्रश्न – संवर किसको कहते हैं ?

    उत्तर – कर्मों के निरोध को संवर कहते हैं या आस्रव का रुक जाना ही संवर है।

    प्रश्न – संवर के कितने भेद है ?

    उत्तर – संवर के दो भेद हैं-द्रव्य संवर और भाव संवर।

    प्रश्न – द्रव्य संवर किसको कहते हैं ?

    उत्तर – ज्ञानावरणादि कर्मों के आगमन का निरोध द्रव्य संवर है।

    प्रश्न – भाव संवर किसे कहते हैं ?

    उत्तर – आत्मा के जिन चैतन्य भावों से द्रव्य कर्म का आना रुकता है, वह भाव संवर है।

    प्रश्न – निर्जरा किसको कहते हैं ?

    उत्तर – एकदेश कर्मों के क्षय को निर्जरा कहते हैं।

    प्रश्न – निर्जरा के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – निर्जरा के दो भेद हैं-द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा।

    प्रश्न – द्रव्य निर्जरा किसको कहते हैं ?

    उत्तर – पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ जाना, आत्मा से पृथव् हो जाना द्रव्य निर्जरा है।

    प्रश्न – द्रव्य निर्जरा के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – दो भेद हैं-सविपाक और अविपाक।

    प्रश्न – सविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?

    उत्तर – अपनी अवधि पूर्ण होने पर स्वत: कर्मों का उदय में आना और फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है।

    प्रश्न – अविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?

    उत्तर – तप आदि विशिष्ट साधना से बलात्कर्मों का उदय में आकर झड़ जाना अविपाक निर्जरा है।

    प्रश्न – भाव निर्जरा किसे कहते हैं ?

    उत्तर – तप आदि विशिष्ट साधना से बलात्कर्मों का उदय में लाकर झड़ जाना अविपाक निर्जरा है।

    प्रश्न – भाव निर्जरा किसे कहते हैं ?

    उत्तर – आत्मा के जिन परिणामों से एकदेश कर्म छूटते हैं, उन परिणामों को भाव निर्जरा कहते हैं।

    प्रश्न – मोक्ष किसको कहते हैं ?

    उत्तर – संवर द्वारा नवीन कर्मों का आगमन रुक जाने पर और निर्जरा द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों के क्षीण हो जाने पर आत्मा की पूर्ण निष्कर्म दशा प्राप्त हो जाती है-आत्मा कर्म उपाधि से रहित हो जाती है, उसको मोक्ष कहते हैं।

    प्रश्न – मोक्ष के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – मोक्ष के दो भेद हैं-द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष।

    प्रश्न – द्रव्यमोक्ष किसको कहते हैं ?

    उत्तर – ज्ञानावरणादि आठो कर्मों से आत्मा का पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है।

    प्रश्न – भावमोक्ष किसे कहते हैं ?

    उत्तर – कर्म आगमन के कारणभूत राग-द्वेषादि भावों का नाश हो जाना भावमोक्ष है।

    प्रश्न – पुण्य किसको कहते हैं ?

    उत्तर – जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है, वह पुण्य कहलाता है।

    प्रश्न – पुण्य के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – पुण्य के दो भेद हैं-भाव पुण्य और द्रव्य पुण्य।

    प्रश्न – द्रव्य पुण्य किसे कहते हैं ?

    उत्तर – कर्मजन्य पुण्य प्रकृतियों को द्रव्य पुण्य कहते हैं।

    प्रश्न – भाव पुण्य किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जीव के जिन परिणामों से शुभ कर्म प्रकृतियों का आगमन होता है, वह परिणाम भाव पुण्य है।

    प्रश्न – पाप किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो आत्मा को शुभ क्रियाओं में नहीं जाने देता, जो आत्मा का पतन करता है, वह पाप कहलाता है।

    प्रश्न – पाप के कितने भेद है ?

    उत्तर – पाप के दो भेद हैं-भाव पाप और द्रव्य पाप।

    प्रश्न – भाव पाप किसे कहते हैं ?

    उत्तर – मिथ्यात्व आदि जीव के परिणामों को भाव पाप कहते हैं ?

    प्रश्न – द्रव्य पाप किसे कहते हैं ?

    उत्तर – मिथ्यात्वादि अशुभ कर्म प्रकृतियों को द्रव्य पाप कहते हैं।

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    + भावास्रव और द्रव्यास्रव -
    आसवदि जेण कम्मं, परिणामेणप्पणो स विण्णेयो
    भावासवो जिणुत्तो, कम्मासवणं परो होदि ॥29॥
    कर्म आना द्रव्य आस्रव जीव के जिस भाव से ।
    हो कर्म आस्रव भाव वे ही भाव आस्रव जानिये ॥२९॥
    अन्वयार्थ : [अप्पणो] आत्मा के [जेण] जिस [परिणामेण] परिणाम से [कम्मं आसवदि] कर्म आता है [स जिणुत्तो] वह जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा हुआ [भावासवो] भावास्रव [विण्णेओ] जानना चाहिए और [कम्मासवणं] ज्ञानावरणादि कर्मों का आना [परो होदि] वह उस भावास्रव से भिन्न द्रव्यास्रव होता है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेओ भावासवो] आत्मा के जिस परिणाम से कर्म का आस्रव हो, वह भावास्रव जानना चाहिए । कर्मास्रव के नाश करने में समर्थ, ऐसी शुद्ध आत्मभावना से विरोधी जिस परिणाम से आत्मा के कर्म का आस्रव होता है; किस आत्मा के? अपनी आत्मा के; उस परिणाम को भावास्रव जानना चाहिए । वह भावास्रव कैसा है? [जिणुत्तो] जिनेन्द्र वीतराग सर्वज्ञ देव द्वारा कहा हुआ है । [कम्मासवणं परो होदि] कर्मों का जो आगमन है वह 'पर' होता है अर्थात् ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों का जो आगमन है वह पर द्रव्यास्रव है । पर शब्द का क्या अर्थ है? भावास्रव से अन्य या भिन्न । जैसे तेल से चुपड़े पदार्थों पर धूल का समागम होता है, उसी तरह भावास्रव के कारण जीव के द्रव्यास्रव होता है ।

    शंका – आसवदि जेण कम्मं (जिससे कर्म का आस्रव होता है) इस पद से ही द्रव्यास्रव आ गया फिर कम्मासवणं परो होदि (कर्मास्रव इससे भिन्न होता है) इस पद से द्रव्यास्रव का व्याख्यान किसलिए किया?

    समाधान – तुम्हारी यह शंका ठीक नहीं क्योंकि 'जिस परिणाम से क्या होता है? कर्म का आस्रव होता है' यह जो कथन है, उससे परिणाम का सामर्थ्य दिखाया गया है, द्रव्यास्रव का व्याख्यान नहीं किया गया, यह तात्पर्य है ॥२९॥

    अब भावास्रव का स्वरूप विशेष रूप से कहते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – आस्रव किसे कहते हैं?

    उत्तर – आत्मा में कर्मों का आना आस्रव कहलाता है।

    प्रश्न – आस्रव के कितने भेद हैं?

    उत्तर – दो भेद हैं-१. भावास्रव, २. द्रव्यास्रव।

    प्रश्न – भावास्रव किसे कहते हैं?

    उत्तर – मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप जिन परिणामों से कर्मों का आस्रव होता है उन परिणामों को भावास्रव कहते हैं।

    प्रश्न – द्रव्यास्रव का क्या लक्षण है?

    उत्तर – ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का आना द्रव्यास्रव कहलाता है।

    प्रश्न – द्रव्यास्त्रव और भावास्त्रव में अन्तर क्या है ?

    उत्तर – इन दोनों में परस्पर निमित्त-नैमित्तक भाव है। जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर पुद्गल वर्गणा स्वयमेव अपने उपादान से कर्मरूप परिणत हो जाती है और मिथ्यात्व आदि द्रव्यकर्मप्रकृति का निमित्त प्राप्त कर स्वयं परिणमनशील आत्मा अपनी उपादान शक्ति से रागद्वेषरूप परिणमन करता है अत: द्रव्यास्त्रव से भावास्त्रव और भावास्त्रव से द्रव्यास्त्रव होता है।

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    + भावास्रव के भेद -
    मिच्छत्ताविरदिपमाद - जोगकोहादओथ विण्णेया
    पण पण पण दह तिय चदु, कमसो भेदा दु पुव्वस्स ॥30॥
    मिथ्यात्व-अविरति पाँच-पाँचरू पंचदश परमाद हैं ।
    त्रय योग चार कषाय ये सब आस्रवों के भेद हैं ॥३०॥
    अन्वयार्थ : [अथ] अब [पुव्वस्स] पहले भावास्रव के [मिच्छत्ताविरदि-पमादजोगकोधादओ] मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग व क्रोधादि कषाय भेद हैं [दु] और उनके [कमसो] क्रम से [पण-पण] पाँच, पाँच [पणदह] पंद्रह [तिय चदु] तीन और चार [भेदा] भेद [विण्णेया] जानने चाहिए ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ] मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा क्रोध आदि कषाय आस्रव के भेद हैं । जो अन्तरंग के विषय में विपरीत अभिनिवेश (अभिप्राय) उत्पन्न कराने वाला है तथा बाहरी विषय में अन्य के शुद्ध आत्मतत्त्व आदि समस्त द्रव्यों में विपरीत अभिप्राय को उत्पन्न कराने वाला है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं । अन्तरंग में निज परमात्मस्वरूप भावना से उत्पन्न परम-सुख-अमृत की प्रीति से विलक्षण तथा बाह्य विषय में व्रत आदि को धारण न करना, सो अविरति है । अन्तरंग में प्रमाद-रहित शुद्ध आत्म-अनुभव से डिगाने रूप और बाह्य विषय में मूलगुणों तथा उत्तरगुणों में मैल उत्पन्न करने वाला प्रमाद है । निश्चयनय की अपेक्षा क्रियारहित परमात्मा है, तो भी व्यवहारनय से वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न मन, वचन, काय वर्गणा को अवलम्बन करने वाला, कर्मवर्गणा के ग्रहण करने में कारणभूत आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्द (संचलन) है उसको योग कहते हैं । अन्तरंग में परमउपशम-मूर्ति केवलज्ञान आदि अनन्त, गुण-स्वभाव परमात्मरूप में क्षोभ उत्पन्न करने वाले तथा बाह्य विषय में अन्य पदार्थों के सम्बन्ध से क्रूरता आवेश रूप क्रोध आदि (कषाय) हैं । इस प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा कषाय ये पाँच भावास्रव हैं । [अथ अहो विण्णेया] ये जानने चाहिए । इन पाँच भावास्रवों के कितने भेद हैं? [पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु] उन मिथ्यात्व आदि के क्रम से पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद हैं ।

    बौद्धमत एकान्त मिथ्यात्वी है, याज्ञिक ब्रह्म विपरीतमिथ्यात्व के धारक हैं, तापस विनयमिथ्यात्वी है, इन्द्राचार्य संशयमिथ्यात्वी है और मस्करी अज्ञानमिथ्यात्वी है ॥११॥

    इस गाथा के कथनानुसार ५ तरह का मिथ्यात्व है । हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह में इच्छा रूप अविरति भी पाँच प्रकार की है अथवा मन और पाँचों इन्द्रियों की प्रवृत्ति रूप ६ भेद तथा छहकाय के जीवों की विराधना रूप ६ भेद ऐसे बारह प्रकार की भी अविरति है ।

    चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और राग ऐसे पन्द्रह प्रमाद होते हैं । मनोव्यापार, वचनव्यापार और कायव्यापार इस तरह योग तीन प्रकार का है अथवा विस्तार से १५ प्रकार का है । क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन भेदों से कषाय चार प्रकार के हैं अथवा १६ कषाय और ९ नोकषाय इन भेदों से पच्चीस प्रकार के कषाय हैं । ये सब भेद किस आस्रव के हैं? [पुव्वस्स] पूर्वगाथा में कहे भावास्रव के हैं ॥३०॥

    अब द्रव्यास्रव का स्वरूप कहते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान ये पाँच मिथ्यात्व हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच अविरति हैं। चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रियों के विषय, निद्रा और स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद हैं। मन, वचन और काय इनके निमित्त से आत्म प्रदेशों का परिस्पंदन ये तीन प्रकार का योग है और क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार कषायें हैं।

    प्रश्न – भावास्रव के कितने भेद हैं?

    उत्तर – भावास्रव के पाँच भेद हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।

    प्रश्न – भावास्रव के अन्य और भेद बताइये।

    उत्तर – भावास्रव के विस्तार से ३२ भेद हैं-५ मिथ्यात्व, ५ अविरति, १५ प्रमाद, ३ योग, ४ कषाय · ३२।

    प्रश्न – मिथ्यात्व किसे कहते हैं? इसके पाँच भेद कौन-से हैं?

    उत्तर – तत्त्व का श्रद्धान नहीं होना मिथ्यात्व कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं-एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक एवं अज्ञान।

    प्रश्न – एकान्त मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

    उत्तर – अनेक धर्मात्मक वस्तु को एकान्तरूप से मानना एकान्त मिथ्यात्व है, जैसे आत्मा नित्य ही है-या अनित्य ही है।

    प्रश्न – विपरीत मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

    उत्तर – धर्म के स्वरूप का विपरीत श्रद्धान करना-विपरीत मिथ्यात्व हैं, जैसे हिंसादि से स्वर्ग को प्राप्ति मानना।

    प्रश्न – विनय मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

    उत्तर – विनय का अर्थ सत्कार है-बिना विवेक चाहे जिस किसी का सत्कार करना विनय मिथ्यात्व है।

    प्रश्न – संशय मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

    उत्तर – वस्तु के स्वरूप का निश्चय न करने वा निरंतर संशयालु रहने को संशय मिथ्यात्व कहते हैं।

    प्रश्न – अज्ञान मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

    उत्तर – हित एवं अहित की परीक्षा से शून्य विश्वास को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं।

    प्रश्न – अविरति किसे कहते हैं? उसके पाँच भेद कौन-से हैं?

    उत्तर – पाँच पापों से विरत (त्याग) नहीं होना अविरति है। उसके पाँच भेद हैं-हिंसा अविरति, असत्य अविरति, चौर्य अविरति, कुशील अविरति और परिग्रह अविरति।

    प्रश्न – प्रमाद किसे कहते हैं? इसके पन्द्रह भेद कौन-कौन से हैं?

    उत्तर – शुभ क्रियाओं में यत्नपूर्वक-सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति नहीं करना प्रमाद है। इसके पन्द्रह भेद हैं-४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय विषय, १ निद्रा और १ स्नेह हैं।

    प्रश्न – विकथा किसे कहते हैं ?

    उत्तर – संयम की विरोधी कथाओं या वाक्य प्रबंधों को विकथा कहते हैं।

    प्रश्न – विकथा कितने प्रकार की होती है ?

    उत्तर – स्त्रीकथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा, राजकथा, ये चार प्रकार की विकथा होती है।

    प्रश्न – कषाय किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिससे आत्मा के संयम गुण का घात होता है, जो आत्मा को कषती है, दु:ख देती है, उसे कषाय कहते हैं-उसके चार भेद है-क्रोध, मान, माया, लोभ।

    प्रश्न – इन्द्रियाँ किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो आत्मा का चिन्ह है-जिसके द्वारा कर्म कल्मष आत्मा रस-रूप आदि को ग्रहण करता है, उन्हें इन्द्रियाँ कहते हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं।

    प्रश्न – निद्रा किसे कहते हैं ?

    उत्तर – स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियाँ जब अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती हैं, उसको निद्रा कहते हैं।

    प्रश्न – योग किसे कहते हैं? उसके कितने भेद हैं?

    उत्तर – मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग।

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    + द्रव्यास्रव का स्वरूप और भेद -
    णाणावरणादीणं, जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि
    दव्वासवो च णेओ, अणेयभेयो जिणक्खादो ॥31॥
    ज्ञानावरण आदिक करम के योग्य पुद्गल आगमन ।
    है द्रव्य आस्रव विविधविध जो कहा जिनवर देव ने ॥३१॥
    अन्वयार्थ : [णाणावरणादीणं जोग्गं] ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के योग्य [जं पुग्गलं] जो पुद्गलद्रव्य [समासवदि] आता है अर्थात् कर्मरूप होता है [स] वह [जिणक्खादो] श्री जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा गया [अणेयभेओ] अनेक भेद वाला [दव्वासवो] द्रव्यास्रव [णेओ] जानना चाहिए ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [णाणावरणादीणं] सहज शुद्ध केवलज्ञान को अथवा अभेद की अपेक्षा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों के आधारभूत, 'ज्ञान' शब्द से कहने योग्य परमात्मा को जो आवृत करे यानि ढके सो ज्ञानावरण है । वह ज्ञानावरण है आदि में जिनके ऐसे जो ज्ञानावरणादि हैं उनके [जोग्गं] योग्य [जं] जो [पुग्गलं] पुद्गल [समासवदि] आता है; जैसे तेल से चुपड़े शरीर वाले जीवों की देह पर धूल के कण आते हैं, उसी प्रकार कषायरहित शुद्ध आत्मानुभूति से रहित जीवों के जो कर्मवर्गणा रूप पुद्गल आता है, [दव्वासओ स णेओ] उसको द्रव्यास्रव जानना चाहिए । [अणेयभेओ] वह अनेक प्रकार का है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय ये आठ मूल कर्मप्रकृति हैं तथा ज्ञानावरण के ५, दर्शनावरण के ९, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु के ४, नाम के ९३, गोत्र के २ और अन्तराय के ५, इस प्रकार १४८ प्रकृतियों के नाश होने से सिद्ध होते हैं । इस गाथा में कहे हुए क्रम से एक सौ अड़तालीस १४८ उत्तर प्रकृतियाँ हैं और असंख्यात लोकप्रमाण जो पृथ्वीकाय नामकर्म आदि उत्तरोत्तर प्रकृति भेद हैं, उनकी अपेक्षा कर्म अनेक प्रकार का है । जिणक्खादो यह श्री जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ है ॥३१॥

    इस प्रकार आस्रव के व्याख्यान की तीन गाथाओं से प्रथम स्थल समाप्त हुआ ।

    अब इसके आगे दो गाथाओं से बन्ध का व्याख्यान करते हैं । उसमें प्रथम गाथा के पूर्वार्ध से भावबन्ध और उत्तरार्ध से द्रव्यबन्ध का स्वरूप कहते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – द्रव्यास्रव किसे कहते हैं?

    उत्तर – ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल परमाणु आते हैं, उन्हें द्रव्यास्रव कहते हैं।

    प्रश्न – द्रव्यास्रव कितने प्रकार का है?

    उत्तर – द्रव्यास्रव संक्षेप में आठ प्रकार का है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय।

    प्रश्न – द्रव्यास्रव के और कितने भेद हैं?

    उत्तर – द्रव्यास्रव के विस्तार से १४८ भेद हैं-ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ९, वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नाम ९३, गोत्र २ और अन्तराय ५ के भेद से १४८ प्रकार का है।

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    + भावबंध और द्रव्यबंध -
    बज्झदि कम्मं जेण दु, चेदणभावेण भावबंधो सो
    कम्मदपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो ॥32॥
    जिस भाव से हो कर्मबंधन भावबंध है भाव वह ।
    द्रवबंध बंधन प्रदेशों का आत्मा अर कर्म के ॥३२॥
    अन्वयार्थ : [जेण] जिस [चेदण-भावेण] आत्मा के परिणाम से [कम्म बज्झदि] कर्म बँधता है [सो] वह [भावबंधो] भाव बन्ध है [दु] और [कम्मादपदेसाणं] कर्म व आत्मप्रदेशों का [अण्णोण-पवेसणं] परस्पर एकमेक हो मिलकर रहना [इदरो] उस भावबन्ध से अन्य, द्रव्यबन्ध है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [बज्झदि कम्मं जेण दुचेदणभावेण भावबंधो सो] जिस चैतन्य भाव से कर्म बँधता है, वह भावबन्ध है । समस्त कर्मबन्ध नष्ट करने में समर्थ, अखण्ड एक प्रत्यक्ष प्रतिभास रूप परम-चैतन्य-विलास-लक्षण के धारक ज्ञान गुण की या अभेद-नय की अपेक्षा अनन्तज्ञान आदि गुणों के आधारभूत परमात्मा की जो निर्मल अनुभूति है उससे विरुद्ध मिथ्यात्व, राग आदि में परिणति रूप अशुद्ध-चेतन-भाव-स्वरूप जिस परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं, वह परिणाम भावबन्ध कहलाता है । [कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो] कर्म और आत्मा के प्रदेशों का परस्पर मिलना दूसरा है, अर्थात् उस भावबन्ध के निमित्त से कर्म के प्रदेशों का और आत्मा के प्रदेशों का जो दूध और जल की तरह एक-दूसरे में प्रवेश होकर मिल जाना है सो द्रव्य बन्ध है ॥३२॥

    अब गाथा के पूर्वार्ध से उसी बन्ध के प्रकृतिबन्ध आदि चार भेद कहते हैं और उत्तरार्ध से उनके कारण का कथन करते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – बन्ध किसे कहते हैं?

    उत्तर – जीव कषाय सहित होने से कर्म के योग्य कार्मण वर्गणारूप पुद्गल परमाणुओं को जो ग्रहण करता है, वह बन्ध है।

    प्रश्न – बन्ध के कितने भेद हैं?

    उत्तर – दो भेद हैं-१. भावबन्ध २.द्रव्यबन्ध

    प्रश्न – भावबन्ध किसे कहते हैं?

    उत्तर – जिन मिथ्यात्वादि आत्म-परिणामों से कर्म बँधता है वह भावबन्ध कहलाता है।

    प्रश्न – द्रव्यबन्ध किसे कहते हैं?

    उत्तर – पुद्गल कर्मों से जो कर्मबन्ध होता है उसे द्रव्यबन्ध कहते हैं।

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    + बन्ध के भेद और कारण -
    पयडिट्ठिदिअणुभाग-प्पदेसभेदा दु चदुविधो बंधो
    जोगा पयडिपदेसा, ठिदि अणुभागा कसायदो होंति ॥33॥
    बंध चार प्रकार प्रकृति प्रदेश थिती अनुभाग ये ।
    योग से प्रकृति प्रदेश अनुभाग थिती कषाय से ॥३३॥
    अन्वयार्थ : [पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदा] प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से [बंधो] बन्ध [चदुविहो] चार प्रकार का होता है, उनमें से [पयडिपदेसा] प्रकृति और प्रदेश बन्ध तो [जोगा] मन-वचन-कायरूप योग से होते हैं [दु] तथा [ठिदि-अणुभागा] स्थिति और अनुभागबन्ध [कसायदो] कषाय से [होंति] होते हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इस तरह बन्ध चार प्रकार का है ।

    इस प्रकार गाथा में कहे हुए आठ दृष्टान्तों के अनुसार प्रकृति बन्ध जानना चाहिए ।

    बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में जैसे दो पहर आदि समय तक अपने मधुर रस में रहने की मर्यादा है, (बकरी का दूध दो पहर तक अपने रस में ठीक स्थित रहता है; गाय, भैंस का दूध उससे अधिक देर तक ठीक बना रहता है) इत्यादि स्थिति का कथन है; उसी प्रकार जीव के प्रदेशों के साथ जितने काल तक कर्म सम्बन्ध की स्थिति है उतने काल को स्थितिबन्ध कहते हैं । जैसे उन बकरी आदि के दूध में तारतम्य से हीनाधिक मीठापन व चिकनाई शक्ति रूप अनुभाग कहा जाता है, उसी प्रकार जीव प्रदेशों में स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं, उनमें भी जो हीनाधिक सुख-दुःख देने की समर्थ शक्ति विशेष है, उसको अनुभाग बन्ध जानना चाहिए । घातिकर्म से सम्बन्ध रखने वाली वह शक्ति लता (बेल) काठ, हाड़ और पाषाण के भेद से चार प्रकार की है । उसी तरह अशुभ अघातिया कर्मों में शक्ति नीम, कांजीर (काली जीरी), विष तथा हालाहल रूप से चार तरह की है तथा शुभ अघातिया कर्मों की शक्ति गुड़, खाण्ड, मिश्री तथा अमृत इन भेदों से चार तरह की है । एक-एक आत्मा के प्रदेश में सिद्धों से अनन्तैक भाग (सिद्धों के अनन्तवें भाग) और अभव्य राशि से अनन्त गुणे ऐसे अनन्तानन्त परमाणु प्रत्येक क्षण में बन्ध को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार प्रदेश बन्ध का स्वरूप है ।

    अब बन्ध का कारण कहते हैं - [जोगो पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति] योग से प्रकृति, प्रदेश और कषाय से स्थिति अनुभाग बन्ध होते हैं । निश्चयनय से क्रिया रहित शुद्ध आत्मा के प्रदेश हैं, व्यवहार नय से उन आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन का (चलायमान करने का) जो कारण है उसको योग कहते हैं । उस योग से प्रकृति प्रदेश दो बन्ध होते हैं । दोषरहित परमात्मा की भावना [ध्यान] के प्रतिबन्ध करने वाले क्रोध आदि कषाय के उदय से स्थिति और अनुभाग ये दो बन्ध होते हैं ।

    शंका – आस्रव और बन्ध के होने में मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान हैं, इसलिए आस्रव और बन्ध में क्या भेद है?

    उत्तर – यह शंका ठीक नहीं क्योंकि प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धों का आगमन है वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धों के आगमन के पीछे द्वितीय क्षण में जो उन कर्मस्कन्धों का जीव के प्रदेशों में स्थित होना, सो बन्ध है । यह भेद आस्रव और बन्ध में है क्योंकि योग और कषायों से प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग नामक चार बन्ध होते हैं । इस कारण बन्ध का नाश करने के लिए योग तथा कषाय का त्याग करके अपनी शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिए; यह तात्पर्य है ॥३३॥

    इस तरह बन्ध के व्याख्यानरूप जो दो गाथासूत्र हैं, उनके द्वारा द्वितीय अध्याय में द्वितीय स्थल समाप्त हुआ ।

    अब इसके आगे दो गाथाओं द्वारा संवर पदार्थ का कथन करते हैं । उनमें से प्रथम गाथा में भावसंवर और द्रव्यसंवर का स्वरूप निरूपण करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – प्रकृतिबन्ध का क्या लक्षण है ?

    उत्तर – कर्मों के स्वभाव को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। जैसे-ज्ञानावरणादि।

    प्रश्न – स्थितिबन्ध किसे कहते हैं ?

    उत्तर – ज्ञानावरणादि कर्मों का अपने स्वभाव से च्युत नहीं होना सो स्थितिबन्ध है।

    प्रश्न – अनुभागबन्ध किसे कहते हैं ?

    उत्तर – ज्ञानावरणादि कर्मों के रस विशेष को अनुभागबन्ध कहते हैं।

    प्रश्न – प्रदेशबन्ध किसे कहते हैं ?

    उत्तर – ज्ञानावरणादि कर्मरूप होने वाले पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेशबन्ध कहते हैं।

    प्रश्न – चारों प्रकार के बन्ध किन-किन निमित्तों से होते हैं ?

    उत्तर – इन चारों प्रकार के बन्धों में प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं।

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    + भावसंवर और द्रव्यसंवर का स्वरूप -
    चेदणपरिणामो जो, कम्मस्सासवणिरोहणे हेऊ
    सो भावसंवरो खलु, दव्वासवरोहणे अण्णो ॥34॥
    कर्म रुकना द्रव्य संवर और उसके हेतु जो ।
    निज आत्मा के भाव वे ही भाव संवर जानिये ॥३४॥
    अन्वयार्थ : [जो] जो [चेदणपरिणामो] आत्मा का परिणाम [कम्मस्सासव-णिरोहणे] कर्म के आस्रव के रोकने में [हेदू] कारण है [सो] वह [खलु] निश्चय से [भावसंवरो] भाव संवर है तथा [दव्वासव-रोहणे] द्रव्यास्रव का रुकना [अण्णो] अन्य है अर्थात् भाव संवर से भिन्न द्रव्य संवर है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू सो भावसंवरो खलु] जो चेतन परिणाम कर्म-आस्रव को रोकने में कारण है, वह निश्चय से भावसंवर है । [दव्वासवरोहणे अण्णो] द्रव्यकर्मों के आस्रव का निरोध होने पर दूसरा द्रव्यसंवर होता है । वह इस प्रकार है- निश्चयनय से स्वयं सिद्ध होने से अन्य कारण की अपेक्षा से रहित, अविनाशी होने से नित्य, परम प्रकाश स्वभाव होने से स्व-पर प्रकाशन में समर्थ, अनादि अनन्त होने से आदि, मध्य और अन्तरहित, देखे, सुने और अनुभव किए हुए भोगों की आकांक्षा रूप निदान बन्ध आदि समस्त रागादिक विभावमल से रहित होने के कारण अत्यन्त निर्मल, परम चैतन्यविलासरूप लक्षण का धारक होने से चित्-चमत्कार से भरपूर, स्वाभाविक परमानन्दस्वरूप होने से परम सुख की मूर्ति और आस्रवरहित सहज स्वभाव होने से सब कर्मों के संवर में कारण, इन लक्षणों वाले परमात्मा के स्वभाव की भावना से उत्पन्न जो शुद्ध चेतन परिणाम है सो भावसंवर है । कारणभूत भावसंवर से उत्पन्न हुआ जो कार्यरूप नवीन द्रव्य-कर्मों के आगमन का अभाव सो द्रव्यसंवर है । यह गाथार्थ है ।

    अब संवर के विषय में नयों का विभाग कहते हैं - मिथ्यात्व गुणस्थान से क्षीणकषाय (बारहवें) गुणस्थान तक ऊपर-ऊपर मन्दता के तारतम्य से अशुद्ध निश्चय वर्तता है । उसमें गुणस्थानों के भेद से शुभ, अशुभ और शुद्ध अनुष्ठानरूप तीन उपयोगों का व्यापार होता है । सो कहते हैं - मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र, इन तीनों गुणस्थानों में ऊपर-ऊपर मन्दता से अशुभ उपयोग होता है, (जो अशुभोपयोग प्रथम गुणस्थान में है, उससे कम दूसरे में और दूसरे से कम तीसरे में है) । उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्तसंयत, इन तीन गुणस्थानों में परम्परा से शुद्धउपयोग का साधक ऊपर-ऊपर तारतम्य से शुभ उपयोग रहता है । तदनन्तर अप्रमत्त आदि क्षीणकषाय तक छह गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद से विवक्षित एक देश शुद्धनयरूप शुद्ध उपयोग वर्तता है । इनमें से मिथ्यादृष्टि (प्रथम) गुणस्थान में तो संवर है ही नहीं । सासादन आदि गुणस्थानों में, मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थान में १६, दूसरे में २५, तीसरे में शून्य, चौथे में १०, पाँचवें में ४, छठे में ६, सातवें में १, आठवें में २, ३० व ४, नौवें में ५, दसवें में १६ और सयोग केवली के १ प्रकृति की बन्ध व्युच्छित्ति होती है । इस प्रकार बन्धविच्छेद त्रिभंगी में कहे हुए कर्म के अनुसार ऊपर-ऊपर अधिकता से संवर जानना चाहिए । ऐसे अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अशुभ, शुभ, शुद्ध रूप तीनों उपयोगों का व्याख्यान किया ।

    शंका – इस अशुद्ध निश्चयनय में शुद्ध उपयोग किस प्रकार घटित होता है?

    उत्तर – शुद्ध उपयोग में शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव का धारक स्व-आत्मा ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) होता है, इस कारण उपयोग में शुद्ध ध्येय होने से, शुद्ध अवलम्बनपने से तथा शुद्ध आत्मस्वरूप का साधक होने से शुद्धोपयोग सिद्ध होता है । 'संवर' इस शब्द से कहे जाने वाला वह शुद्धोपयोग, संसार के कारणभूत मिथ्यात्व-राग आदि अशुद्ध पर्यायों की तरह अशुद्ध नहीं होता; तथा फलभूत केवलज्ञान स्वरूप शुद्ध पर्याय की भाँति (वह शुद्धोपयोग) शुद्ध भी नहीं होता किन्तु उन अशुद्ध तथा शुद्ध दोनों पर्यायों से विलक्षण, शुद्ध आत्मा के अनुभव स्वरूप निश्चय रत्नत्रय रूप, मोक्ष का कारण, एकदेश में प्रकट रूप और एकदेश में आवरणरहित ऐसा तीसरी अवस्थान्तर रूप कहा जाता है ।

    कोई शंका करता है - केवलज्ञान समस्त आवरण से रहित शुद्ध है, इसलिए केवलज्ञान का कारण भी समस्त आवरण रहित शुद्ध होना चाहिए, क्योंकि 'उपादान कारण के समान कार्य होता है' ऐसा आगम वचन है? इस शंका का उत्तर देते हैं - आपने ठीक कहा; किन्तु उपादान कारण भी, सोलह वानी के सुवर्णरूप कार्य के पूर्व-वर्तिनी वर्णिकारूप उपादान कारण के समान और मिट्टी रूप घट कार्य के प्रति मिट्टी का पिण्ड, स्थास, कोश तथा कुशूल रूप उपादान कारण के समान, कार्य से एकदेश भिन्न होता है (सोलह वानी के सोने के प्रति जैसे पूर्व की सब पन्द्रह वर्णिकायें उपादान कारण हैं और घट के प्रति जैसे मिट्टी पिण्ड, स्थास, कोश, कुशूल आदि उपादान कारण हैं, सो सोलह वानी के सुवर्ण और घट रूप कार्य से एकदेश भिन्न हैं, बिल्कुल सोलह वानी के सुवर्ण रूप और घट रूप नहीं हैं । इसी तरह सब उपादान कारण कार्य से एकदेश भिन्न होते हैं) । यदि उपादान कारण का कार्य के साथ एकान्त से सर्वथा अभेद या भेद हो तो उपर्युक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टान्तों के समान कार्य-कारणभाव सिद्ध नहीं होता ।

    इससे क्या सिद्ध हुआ? एकदेश निरावरणता से क्षायोपशमिक ज्ञान रूप लक्षणवाला एकदेश व्यक्ति रूप, विवक्षित एकदेश शुद्धनय की अपेक्षा संवर शब्द से वाच्य शुद्ध उपयोग स्वरूप क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्ति का कारण होता है । जो लब्धि अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद जीव में नित्य उद्घाटित तथा आवरणरहित ज्ञान सुना जाता है, वह भी सूक्ष्म निगोद में ज्ञानावरण कर्म का सर्व जघन्य क्षयोपशम की अपेक्षा से आवरणरहित है किन्तु सर्वथा आवरणरहित नहीं है ।

    प्रश्न – वह आवरणरहित क्यों रहता है?

    उत्तर – यदि उस जघन्य ज्ञान का भी आवरण हो जावे तो जीव का ही अभाव हो जायेगा । वास्तव में तो उपरिवर्ती क्षायोपशमिक ज्ञान की अपेक्षा और केवलज्ञान की अपेक्षा से वह ज्ञान भी आवरण सहित है, क्योंकि संसारी जीवों के क्षायिक ज्ञान का अभाव है इसलिए निगोदिया का वह ज्ञान क्षायोपशमिक ही है । यदि नेत्रपटल के एकदेश में निरावरण के समान वह ज्ञान केवलज्ञान का अंशरूप हो तो उस एकदेश (अंश) से भी लोकालोक प्रत्यक्ष हो जाये; परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता; किन्तु अधिक बादलों से आच्छादित सूर्यबिम्ब के समान या निबिड़ नेत्रपटल के समान, निगोदिया का ज्ञान सबसे थोड़ा जानता है, यह तात्पर्य है ।

    अब क्षयोपशम का लक्षण कहते हैं - सब प्रकार से आत्मा के गुणों का आच्छादन करने वाली कर्मों की जो शक्तियाँ हैं, उनको 'सर्वघातिस्पर्द्धक' कहते हैं और विवक्षित एक देश से जो आत्मा के गुणों को आच्छादन करने वाली कर्मशक्तियाँ हैं वे 'देशघातिस्पर्द्धक' कहलाती हैं । सर्वघातिस्पर्द्धकों के उदय का जो अभाव है सो ही क्षय है और उन्हीं सर्वघातिस्पर्द्धकों का जो अस्तित्व है वह उपशम कहलाता है । सर्वघातिस्पर्द्धकों के उदय का अभावरूप क्षय सहित उपशम और उन (कर्मों) के एकदेश घातिस्पर्द्धकों का उदय होना, सो ऐसे तीन प्रकार के समुदाय से क्षयोपशम कहा जाता है । क्षयोपशम में जो भाव हो, वह क्षायोपशमिक भाव है । अथवा देशघातिस्पर्द्धकों के उदय के होते हुए, जीव जो एकदेश ज्ञानादि गुण प्राप्त करता है वह क्षायोपशमिक भाव है । इससे क्या सिद्ध हुआ? पूर्वोक्त सूक्ष्म निगोद जीव में ज्ञानावरण कर्म के देशघातिस्पर्द्धकों का उदय होने के कारण एकदेश से ज्ञान गुण होता है, इस कारण वह ज्ञान क्षायोपशमिक है, क्षायिक नहीं; क्योंकि वहाँ कर्म के एकदेश उदय का सद्भाव है ।

    यहाँ सारांश यह है - यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणवाला क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्ति का कारण है तथापि ध्यान करने वाले पुरुष को, 'नित्य सकल आवरणों से रहित, अखण्ड, एक सकल विमल केवलज्ञानरूप परमात्मा का जो स्वरूप है, वही मैं हूँ, खण्ड ज्ञानरूप नहीं हूँ', ऐसा ध्यान करना चाहिए । इस तरह संवर तत्त्व के व्याख्यान में नय का विभाग जानना चाहिए ॥३४॥

    अब संवर के कारणों के भेद कहते हैं, यह एक भूमिका है । किनसे संवर होता है? इस प्रश्न का उत्तर देने वाली दूसरी भूमिका है, इन दोनों भूमिकाओं को मन में धारण करके, श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव गाथासूत्र कहते है --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – संवर के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – दो भेद हैं-१. भावसंवर २. द्रव्यसंवर।

    प्रश्न – भावसंवर किसे कहते हैं ?

    उत्तर – आस्रव को रोकने में कारणभूत आत्म-परिणाम भावसंवर है।

    प्रश्न – द्रव्यसंवर किसे कहते हैं ?

    उत्तर – कर्मरूप पुद्गल द्रव्य का आस्रव रुकना द्रव्यसंवर है।

    प्रश्न – संवर किसको होता है ?

    उत्तर – संवर तो सम्यग्दृष्टि के ही होता है, क्योंकि कर्म आस्रव के कारण मिथ्यात्व का नाश होता है अत: मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय से आने वाली इकतालीस कर्म प्रकृतियों का निरोध हो जाता है, कर्म प्रकृतियों का आना रुक जाना ही संवर है, मिथ्यादृष्टि के एक भी प्रकृति का निरोध नहीं होता है।

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    + भावसंवर के भेद -
    वदसमिदी गुत्तीओ, धम्माणुपिहा परीसहजओ य
    चारित्तं बहुभेयं, णायव्वा भावसंवरविसेसा ॥35॥
    व्रत समिति गुप्ती धर्म परिषहजय तथा अनुप्रेक्षा ।
    चारित्र भेद अनेक वे सब भावसंवररूप है ॥३५॥
    अन्वयार्थ : [वदसमिदीगुत्तीओ] व्रत, समिति, गुप्ति, [धम्माणुपेहा] धर्म, अनुप्रेक्षा, [परीसहजओ] परीषहजय [य] और [बहुभेया] बहुत प्रकार वाला [चारित्तं] चारित्र ये सभी [भावसंवरविसेसा] भावसंवर के भेद [णायव्वा] जानना चाहिए ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    (वदसमिदीगुत्तीओ) व्रत, समिति, गुप्तियाँ धम्माणुपेहा धर्म और अनुप्रेक्षा, (परीसहजओ य) और परीषहों का जीतना, (चारित्तं बहुभेया) अनेक प्रकार का चारित्र, (णायव्वा भावसंवरविसेसा) ये सब मिलकर भावसंवर के भेद जानने चाहिए । अब इसको विस्तार से कहते हैं -- निश्चयनय की अपेक्षा विशुद्ध ज्ञान दर्शन रूप स्वभाव धारक निज आत्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आस्वाद के बल से सब शुभ-अशुभ राग आदि विकल्पों से रहित होना व्रत है । व्यवहारनय से उस निश्चय व्रत को साधने वाला हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से जीवन भर त्याग रूप पाँच प्रकार का व्रत है । निश्चयनय की अपेक्षा अनन्तज्ञान आदि स्वभाव धारक निज आत्मा है, उसमें 'सम' भले प्रकार, अर्थात् समस्त रागादि विभागों के त्याग द्वारा आत्मा में लीन होना, आत्मा का चिन्तन करना, तन्मय होना आदिरूप से जो अयन कहिये गमन अर्थात् परिणमन सो समिति है । व्यवहार से उस निश्चय समिति के बहिरंग सहकारी कारणभूत आचार चारित्र विषयक ग्रन्थों में कही हुई ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं । निश्चय से सहज शुद्ध आत्म-भावनारूप गुप्त स्थान में संसार के कारणभूत रागादि के भय से अपने आत्मा का जो छिपाना, प्रच्छादन, झम्पन, प्रवेशन या रक्षा करना है, सो गुप्ति है । व्यवहारनय से बहिरंग साधन के अर्थ जो मन, वचन, काय की क्रिया को रोकना सो गुप्ति है । निश्चय से संसार में गिरते हुए आत्मा को जो धारण करे (बचावे) सो विशुद्ध ज्ञान, दर्शन, लक्षणमयी निज शुद्ध आत्मा की भावनास्वरूप धर्म है । व्यवहारनय से उसके साधन के लिए इन्द्र, चक्रवर्ती आदि से जो वन्दने योग्य पद है, उसमें पहुँचाने वाला उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्यरूप दस प्रकार का धर्म है ।

    वे धर्म इस प्रकार हैं --
    1. जो समिति पालन में प्रवृत्तिरूप हैं, उनके प्रमाद को दूर करने के लिए धर्म का निरूपण किया गया है । क्रोध उत्पन्न होने में निमित्तीभूत ऐसे असह्य दुर्वचन आदि के अवसर प्राप्त होने पर कलुषता का न होना क्षमा है अर्थात् शरीर की स्थिति का कारण जो शुद्ध आहार उसकी खोज के लिए पर-कुलों (गृहों) में जाते हुए मुनि को दुष्टजनों द्वारा गाली, हास्य, निरादर के वचन कहे जाने पर भी तथा ताड़न, शरीर-घात इत्यादि क्रोध उत्पन्न होने के निमित्त कारण मिलने पर भी परिणामों में मलिनता न आना, इस ही का नाम क्षमा कहा गया है ॥१॥
    2. उत्तम जाति आदि मद के आवेग से अभिमान का न होना मार्दव है ॥२॥ योगों की अकुटिलता आर्जव है अर्थात् मन-वचन-कायरूप योगों की सरलता को आर्जव कहा गया है ॥३॥
    3. सज्जनों से साधुवचन बोलना सत्य है अर्थात् प्रशस्त एवं श्रेष्ठ सज्जन पुरुषों से जो समीचीन वचन बोलना, वह सत्य कहलाता है ॥४॥
    4. लोभ की निवृत्ति की प्रकर्षता होना, शौच है । शुचि नाम पवित्रता का है, शुचि के भाव व कर्म को शौच कहते हैं ॥५॥
    5. समितियों के पालन करने वाले मुनिराज का प्राणियों की रक्षा करना तथा इन्द्रियों के विषयों का निषेध संयम है, अर्थात् ईर्यासमिति आदि में प्रवर्तमान मुनि का उनकी (समिति की) प्रतिपालना के लिए प्राणीपीड़ापरिहार एवं इंद्रियविषयासक्तिपरिहार को संयम कहते हैं । एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा का त्याग प्राणिसंयम है, शब्दादि इन्द्रियविषयों में राग का लगाव न होना इन्द्रिय-संयम है । उस संयम का विशेष निरूपण करने के लिए अथवा उसकी पालना के लिए अष्टशुद्धियों का उपदेश है । वे अष्टशुद्धि इस प्रकार हैं- भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि । इनमें
      • भावशुद्धि कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती है, मोक्षमार्ग में रुचि होने से परिणामों को निर्मल करने वाली है तथा रागादि विकार से रहित है ।१।
      • कायशुद्धि - आवरण एवं आभूषणों से रहित, समस्त संस्कारों से अतीत, बालक (यथाजात) के समान धूलि-धूसरित देह को धारण करने वाला शरीर विकारों से रहित है ।२।
      • विनयशुद्धि - परम गुरु अरहन्तादि की यथायोग्य पूजा में तत्परता जहाँ रहती है, ज्ञानादि में यथाविधि भक्ति जहाँ की जाती है, गुरु के प्रति जहाँ सर्वत्र अनुकूल वृत्ति होती है ।३।
      • ईर्यापथ शुद्धि - नाना प्रकार के जीवों की उत्पत्ति के स्थान तथा योनिरूप आश्रयों का बोध होने से ऐसा प्रयत्न करना जिससे जीवों को पीड़ा न हो, ज्ञानरूपी सूर्य से एवं इन्द्रियों से तथा प्रकाश से भले प्रकार देखे हुए प्रदेश में गमन करना, जल्दी चलना, देर से चलना, चंचल उपयोग सहित चलना, साश्चर्य चलना, क्रीड़ा करते हुए चलना, विकार-युक्त चलना, इधर-उधर दिशाओं में देखते हुए चलना, इत्यादि चलने सम्बन्धी दोषों से रहित गमन करना ।४।
      • भिक्षाशुद्धि - आचारसूत्र में कहे अनुसार काल, देश, प्रकृति का बोध करना, लाभ-अलाभ, मान-अपमान में समान मनोवृत्ति का रहना; लोकनिंद्य परिवारों में आहार के लिए नहीं जाना, चन्द्रमा की गति के समान कम और अधिक गृहों की जिसमें मर्यादा हो, विशेष रूप से जो स्थान दीन-अनाथों के लिए दानशाला हो अथवा विवाह तथा यज्ञ जिस गृह में हो रहे हों, ऐसे स्थानों में आहार के लिए चर्या नहीं करना । (अन्तराय एवं अनेक उपवासों के पश्चात् भी) दीन-वृत्ति का न होना । प्रासुक आहार खोजना ही जहाँ मुख्य लक्ष्य है । आगम विधि के अनुसार निर्दोष भोजन की प्राप्ति से प्राणों की स्थिति मात्र है लक्ष्य जिसमें, ऐसी भिक्षाशुद्धि है ।५।
      • प्रतिष्ठापनशुद्धि - नख,रोम, नासिका,मल, कफ, वीर्य, मल-मूत्र की क्षेपणक्रिया में तथा शरीर की उठने-बैठने की क्रिया इत्यादि में जन्तुओं को बाधा न होने देना ।६।
      • शयनासनशुद्धि- स्त्री, क्षुद्र पुरुष, चोर, मद्यपायी, जुआरी, मद्य-विक्रेता तथा पक्षियों को पकड़ने वाले आदि के स्थानों में नहीं बसना चाहिए । प्राकृतिक गिरि-गुफा, वृक्ष का कोटर तथा कृत्रिम सूने घर, छूटे हुए वा छोड़े हुए स्थानों में, जो अपने लिए नहीं बनाये गये हों, बसना चाहिए ।७।
      • वाक्यशुद्धि - पृथिवीकायिकादि सम्बन्धी आरम्भ आदि की प्रेरणा जिसमें न हो, जो कठोर निष्ठुर और परपीडाकारी प्रयोगों से रहित हो, व्रतशील आदि का उपदेश देने वाली हो, हित-मित-मधुर मनोहर और संयमी के योग्य हो, ऐसी वाक्यशुद्धि है ।८।
      इस प्रकार संयम के अन्तर्गत आठ शुद्धियों का वर्णन हुआ ।
    6. कर्मक्षय के लिए जो तपा जाये वह तप है । वह तप दो प्रकार का है- बाह्य तप, अन्तरंग तप । इनमें से प्रत्येक छह प्रकार का है ॥७॥
    7. परिग्रह की निवृत्ति त्याग है । चेतन-अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं अथवा संयमी के योग्य ज्ञानादि के दान को भी त्याग कहा गया है ॥८॥
    8. "यह मेरा है" इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग आकिंचन्य है अर्थात् जो शरीरादि प्राप्त परिग्रह हैं उनमें संस्कार न रहे, इसके लिए "यह मेरा है" इस अभिप्राय की निवृत्ति को आकिंचन्य के नाम से कहा गया है । जिसके कुछ भी (परिग्रह) नहीं है वह अकिंचन है उसका जो भाव अथवा कर्म उसे आकिंचन्य कहते हैं ॥९॥
    9. अनुभूत स्त्री का स्मरण, उसकी कथा का श्रवण तथा स्त्री संसक्त शय्या, आसन आदि स्थान के त्याग से ब्रह्मचर्य है अर्थात् "मैंने उस कलागुणविशारदा स्त्री को भोगा था" ऐसा स्मरण, उसकी पूर्व कथा का श्रवण एवं रतिकालीन सुगन्धित द्रव्यों की सुवास तथा स्त्रीसंसक्तशय्या आसन आदि के त्याग से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए गुरु स्वरूप ब्रह्म जो शुद्ध आत्मा, उसमें चर्या होना ब्रह्मचर्य है ॥१०॥
    इस प्रकार दस धर्म हैं ।

    बारह अनुप्रेक्षाओं का कथन किया जाता है- अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । इनका चिन्तन करना, अनुप्रेक्षा है । इनको विस्तार से कहते हैं

    1. अध्रुव अनुप्रेक्षा कहते हैं - द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव से अविनाशी स्वभाव वाले निज परमात्म द्रव्य से भिन्न, अशुद्ध निश्चयनय से जो जीव के रागादि विभावरूप भावकर्म एवं अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य-कर्म व शरीरादि नोकर्मरूप तथा (उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से) उसके स्व-स्वामि-भाव सम्बन्ध से ग्रहण किये हुए स्त्री आदि चेतन द्रव्य, सुवर्ण आदि अचेतन द्रव्य और चेतन-अचेतन मिश्र पदार्थ, उक्त लक्षण वाले ये सब पदार्थ अध्रुव (नाशवान) हैं; इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए । ऐसी भावना वाले पुरुष के, उन स्त्री आदि पदार्थों के वियोग होने पर भी, जूठे भोजन के समान, ममत्व नहीं होता । उनमें ममत्व का अभाव होने से अविनाशी निज परमात्मा को ही भेद, अभेद रूप रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है । जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय अनन्त सुख स्वभाव वाली मुक्त आत्मा को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार अध्रुव भावना है ॥१॥
    2. अशरण अनुप्रेक्षा को कहते हैं - निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो स्वशुद्धात्म द्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारी कारणभूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना, ये दोनों शरण (रक्षक) हैं । उनसे भिन्न जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्र आदि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भौंहरा, मणि, मन्त्र, तन्त्र, आज्ञा, प्रासाद (महल) औषधि और आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरण आदि के समय शरण नहीं होते; जैसे महावन में व्याघ्र से पकड़े हुए हिरण के बच्चे को अथवा महासमुद्र में जहाज से छूटे हुए पक्षी को कोई शरण नहीं होता, ऐसा जानना चाहिए । अन्य पदार्थों को अपना शरण न जानकर, आगामी भोगों की वांछारूप निदानबन्ध आदि का अवलम्बन न लेकर तथा स्वानुभव से उत्पन्न सुख रूप अमृत के धारक निज-शुद्ध-आत्मा का ही अवलम्बन करके, उस शुद्ध-आत्मा की भावना करता है । जैसी शरणभूत आत्मा का यह चिन्तन करता है, वैसे ही सदा शरणभूत, शरण में आये हुए के लिए वज्र के पिंजरे के समान, निज-शुद्धात्मा को प्राप्त होता है । इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ ॥२॥
    3. संसारानुप्रेक्षा -
      • शुद्ध-आत्मद्रव्य से भिन्न सपूर्व (पुराने), अपूर्व (नये) तथा मिश्र ऐसे पुद्गल द्रव्यों को ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म रूप से तथा शरीरपोषण के लिए भोजनपान आदि पाँचों इन्द्रियों के विषय रूप से इस जीव ने अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा है, इस प्रकार द्रव्यसंसार है ।
      • निज-शुद्ध आत्म-द्रव्य सम्बन्धी जो सहज शुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश हैं, उनसे भिन्न लोक-क्षेत्र के सर्व प्रदेशों में एक-एक प्रदेश को व्याप्त करके, अनन्त बार यह जीव उत्पन्न न हुआ हो और मरा न हो, ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है । यह क्षेत्रसंसार है ।
      • निज-शुद्धात्म अनुभव रूप निर्विकल्प समाधि का काल छोड़कर (प्राप्त न करके) दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्सर्पिणीकाल और दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पिणीकाल के एक-एक समय में अनेक परावर्तन करके यह जीव अनन्त बार जन्मा न हो और मरा न हो, ऐसा कोई भी समय नहीं है । इस प्रकार कालसंसार है ।
      • अभेद रत्नत्रयात्मक ध्यान के बल से सिद्धगति में निज-आत्मा की उपलब्धि रूप सिद्ध पर्याय रूप उत्पाद के सिवाय नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के भवों में निश्चय रत्नत्रय की भावना से रहित और भोग-वांछादि निदान सहित द्रव्यतपश्चरणरूप मुनिदीक्षा के बल से नव ग्रैवेयक तक प्रथम स्वर्ग का इन्द्र, प्रथम स्वर्ग की इन्द्राणी शची, दक्षिण दिशा के इन्द्र, लोकपाल और लौकान्तिकदेव ये सब स्वर्ग से च्युत होकर निवृत्ति (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं ॥१॥ गाथा में कहे हुए पदों को तथा आगम में निषिद्ध अन्य उत्तम पदों को छोड़कर भवनाशक निज-आत्मा की भावना से रहित व संसार को उत्पन्न करने वाले मिथ्यात्व व राग आदि भावों से सहित हुआ, यह जीव अनन्त बार जन्मा है और मरा है । इस प्रकार भवसंसार जानना चाहिए ।
      • अब भावसंसार का कथन किया जाता है- सबसे जघन्य प्रकृतिबन्ध व प्रदेशबन्ध के कारणभूत सर्व जघन्य मन, वचन, काय के अवलम्बन से परिस्पन्द रूप श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण तथा चार स्थानों में पतित (वृद्धि हानि), ऐसे सर्व जघन्य योगस्थान होते हैं । इसी प्रकार सर्व उत्कृष्ट प्रकृतिबन्ध व प्रदेशबन्ध के कारणभूत, सर्वोत्कृष्ट मन, वचन, काय के व्यापार रूप, यथायोग्य श्रेणी के असंख्यातवें-भाग प्रमाण, चार स्थानों में पतित सर्वोत्कृष्ट योगस्थान होते हैं । इसी प्रकार सर्व जघन्य स्थितिबन्ध के कारणभूत, अपने योग्य असंख्यात लोक प्रमाण, षट्स्थान वृद्धि-हानि में पतित सर्वजघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान होते हैं । इसी तरह सर्वोत्कृष्ट स्थितिबन्ध के कारणभूत सर्वोत्कृष्ट कषाय अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण और षट् स्थानों में पतित होते हैं । इसी प्रकार सबसे जघन्य अनुभागबन्ध के कारणभूत सबसे जघन्य अनुभाग अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण तथा षट्स्थान पतित हानिवृद्धि रूप होते हैं । इसी प्रकार सबसे उत्कृष्ट अनुभाग-बन्ध के कारण जो सर्वोत्कृष्ट अनुभाग अध्यवसाय स्थान हैं वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण और षट्स्थान पतित जानने चाहिए । इसी प्रकार से अपने-अपने जघन्य और उत्कृष्ट के बीच में तारतम्य से मध्यम भेद भी होते हैं । इसी तरह जघन्य से उत्कृष्ट तक ज्ञानावरण आदि मूल तथा उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबन्ध स्थान हैं । उन सब में, परमागम अनुसार, इस जीव ने अनन्त बार भ्रमण किया, परन्तु पूर्वोक्त समस्त प्रकृति बन्ध आदि की सत्ता के नाश के कारण जो विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव निज परमात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण रूप जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र हैं, उनको इस जीव ने प्राप्त नहीं किया । इस प्रकार भावसंसार है ।
      इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पाँच प्रकार के संसार का चिन्तन करते हुए इस जीव के, संसार रहित निज शुद्ध आत्मज्ञान का नाश करने वाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं, उनमें परिणाम नहीं जाता किन्तु वह संसारातीत (संसार में प्राप्त न होने वाला अतीन्द्रिय) सुख के अनुभव में लीन होकर, निजशुद्धात्मज्ञान के बल से संसार को नष्ट करने वाले निज-निरंजन-परमात्मा में भावना करता है । तदनन्तर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है, उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्ष में अनन्तकाल तक रहता है । यहाँ विशेष यह है - नित्य निगोद के जीवों को छोड़कर, पंच प्रकार के संसार का व्याख्यान जानना चाहिए (नित्य-निगोदी जीव इस पंच प्रकार के संसार में परिभ्रमण नहीं करते); क्योंकि नित्य निगोदवर्ती जीवों को तीन काल में भी त्रसपर्याय नहीं मिलती । सो कहा भी है- ऐसे अनन्त जीव हैं कि जिन्होंने त्रसपर्याय को अभी तक प्राप्त ही नहीं किया वे भावकलंकों (अशुभ परिणामों) से भरपूर हैं, जिससे वे निगोद के निवास को कभी नहीं छोड़ते । किन्तु यह वृत्तान्त अनुपम और अद्वितीय है कि नित्य निगोदवासी अनादि मिथ्यादृष्टि नौ सौ तेईस जीव, कर्मों की निर्जरा (मन्द) होने से, इंद्रगोप (मखमली लाल कीड़े) हुए उन सबके ढेर पर भरत के हाथी ने पैर रख दिया इससे वे मरकर, भरत के वर्द्धनकुमार आदि पुत्र हुए । वे पुत्र किसी के भी साथ नहीं बोलते थे । इसलिए भरत ने समवसरण में भगवान् से पूछा, तो भगवान् ने उन पुत्रों का पुराना सब वृत्तान्त कहा । उसको सुनकर उन सब वर्द्धनकुमारादि ने तप ग्रहण किया और बहुत थोड़े काल में मोक्ष चले गये । यह कथा आचाराराधना की टिप्पणी में कही गई है । इस प्रकार संसार अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ ॥३॥
    4. अब एकत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं- निश्चयरत्नत्रय लक्षण वाली एकत्व भावना में परिणत इस जीव के निश्चयनय से स्वाभाविक आनन्द आदि अनन्त गुणों का आधाररूप केवलज्ञान ही एक स्वाभाविक शरीर है । यहाँ 'शरीर' शब्द का अर्थ 'स्व-रूप' है, न कि सात धातुओं से निर्मित औदारिक शरीर । इसी प्रकार आर्त और रौद्र दुर्ध्यानों से विलक्षण परमसामायिक रूप एकत्वभावना में परिणत जो एक अपना आत्मा है वही सदा अविनाशी और परम हितकारी व परम बन्धु है; विनश्वर व अहितकारी पुत्र, मित्र, कलत्र आदि बन्धु नहीं हैं । उसी प्रकार परम उपेक्षा संयमरूप एकत्व भावना से सहित जो निज शुद्धात्म पदार्थ है, वही एक अविनाशी तथा हितकारी परम अर्थ है, सुवर्ण आदि परम-अर्थ नहीं हैं । एवं निर्विकल्प-ध्यान से उत्पन्न निर्विकार परम-आनन्द-लक्षण, आकुलतारहित आत्म-सुख ही एक सुख है और आकुलता उत्पन्न करने वाला इन्द्रियजन्य जो सुख है वह सुख नहीं है ।

    शंका – शरीर, बन्धुजन तथा सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि को निश्चयनय से जीव के लिए हेय क्यों कहे हैं?

    समाधान – मरण समय यह जीव अकेला ही दूसरी गति में गमन करता है, देह आदि इस जीव के साथ नहीं जाते । तथा जब जीव रोगों से घिर जाता है तब विषय कषाय आदि रूप दुर्ध्यान से रहित एक-निजशुद्ध-आत्मा ही इसका सहायक होता है ।

    शंका – वह कैसे सहायक होता है?

    समाधान – यदि जीव का वह अन्तिम शरीर हो, तब तो केवलज्ञान आदि की प्रकटतारूप मोक्ष में ले जाता है और यदि अन्तिम शरीर न हो, तो वह संसार की स्थिति को कम करके देवेन्द्रादि सांसारिक सुख को देकर तत्पश्चात् परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति कराता है । यह निष्कर्ष है । कहा भी है

    तप करने से स्वर्ग सब कोई पाते हैं, परन्तु ध्यान के योग से जो कोई स्वर्ग पाता है वह अग्रिम भव में अक्षय-सुख को प्राप्त करता है ॥१॥

    इस तरह एकत्व भावना के फल को जान कर, सदा निज-शुद्ध आत्मा में एकत्व रूप भावना करनी चाहिए । इस प्रकार एकत्व अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥४॥
  • अब अन्यत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं - पूर्वोक्त देह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रियसुख आदि कर्मों के अधीन हैं, इसी कारण विनाशशील तथा हेय भी हैं । इस कारण टंकोत्कीर्ण ज्ञायकरूप एकस्वभाव से नित्य, सब प्रकार उपादेयभूत निर्विकार-परम चैतन्य चित्-चमत्कार स्वभाव रूप जो निज-परमात्म पदार्थ हैं, निश्चयनय की अपेक्षा उससे वे सब देह आदि भिन्न हैं । आत्मा भी उनसे भिन्न है । भावार्थ है कि एकत्व अनुप्रेक्षा में तो "मैं एक हूँ" इत्यादि प्रकार से विधि रूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेक्षा में "देह आदिक पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं" इत्यादि निषेध रूप से वर्णन है । इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओं में विधिनिषेध रूप का ही अन्तर है, तात्पर्य दोनों का एक ही है । ऐसे अन्यत्व अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥५॥
  • इसके आगे अशुचित्व अनुप्रेक्षा कहते हैं - सब प्रकार से अपवित्र वीर्य और रज से उत्पन्न होने के कारण, वसा, रुधिर, माँस, मेद, अस्थि (हाड़), मज्जा और शुक्र धातु हैं, इन अपवित्र सात धातुमय होने से, नाक आदि नौ छिद्रद्वार होने से, स्वरूप से भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र, विष्ठा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होने से ही यह देह अशुचि नहीं है, किन्तु यह शरीर अपने संसर्ग से पवित्र-सुगन्ध-माला व वस्त्र आदि में भी अपवित्रता उत्पन्न कर देता है, इसलिए भी यह देह अशुचि है । अब पवित्रता को बतलाते हैं- सहज-शुद्ध केवलज्ञान आदि गुण का आधार होने से और निश्चय से पवित्र होने से यह परमात्मा ही शुचि है । जीव ब्रह्म है, जीव ही में जो मुनि की चर्या होती है, उसको परदेह की सेवा रहित ब्रह्मचर्य जानो । इस गाथा में कहा हुआ जो निर्मल ब्रह्मचर्य है, वह निज परमात्मा में स्थित जीवों को ही मिलता है तथा ब्रह्मचारी सदा पवित्र है इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों के ही पवित्रता है । जो काम, क्रोध आदि में लीन जीव हैं, उनके जल-स्नान आदि करने पर भी पवित्रता नहीं है क्योंकि जन्म से शूद्र होता है, क्रिया से द्विज कहलाता है, श्रुत (शास्त्र) से श्रोत्रिय और ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण जानना चाहिए ।१। इस आगम वचनानुसार वे (परमात्मा में लीन) ही वास्तविक शुद्ध ब्राह्मण हैं । नारायण ने युधिष्ठिर से कहा भी है - विशुद्ध आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगा आदि तीर्थों में स्नान करना शुचि का कारण नहीं है । संयमरूपी जल से भरी, सत्यरूपी प्रवाहशीलरूप तट और दयामय तरंगों की धारक जो आत्मा रूपी नदी है, उसमें हे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर! स्नान करो क्योंकि अन्तरात्मा जल से शुद्ध नहीं होता है ॥१॥ इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षा का वर्णन हुआ ॥६॥
  • अब आगे आस्रवानुप्रेक्षा कहते हैं । जैसे छेद वाली नाव समुद्र में डूबती है, उसी तरह इन्द्रिय आदि आस्रवों द्वारा यह जीव संसार-समुद्र में गिरता है, यह वार्त्तिक है । अतीन्द्रिय निजशुद्धात्मज्ञान से विलक्षण स्पर्शन, रसना, नाक, नेत्र और कान ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । परम उपशम रूप परमात्म स्वभाव को क्षोभित करने वाले क्रोध, मान, माया व लोभ ये चार कषाय कहे जाते हैं । राग आदि विकल्पों से रहित ऐसे शुद्ध-आत्मानुभव से प्रतिकूल हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचों में प्रवृत्तिरूप पाँच अव्रत हैं । क्रिया रहित और निर्विकार आत्मतत्त्व से विपरीत मन-वचन-काय के व्यापार रूप, शास्त्र में कही हुई सम्यक् क्रिया, मिथ्यात्व आदि पच्चीस क्रियायें हैं । इस प्रकार इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रिया रूप आस्रवों का स्वरूप जानना चाहिए । जैसे समुद्र में अनेक रत्नों से भरा हुआ छिद्र सहित जहाज उसमें जल के प्रवेश से डूब जाता है, समुद्र के किनारे पत्तन (नगर) को नहीं पहुँच पाता । उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप अमूल्य रत्नों से पूर्ण जीवरूपी जहाज, इन्द्रिय आदि आस्रवों द्वारा कर्मरूपी जल का प्रवेश हो जाने पर, संसाररूपी समुद्र में डूब जाता है । केवलज्ञान, अव्याबाध सुख आदि अनन्त गुणमय रत्नों से पूर्ण व मुक्ति स्वरूप वेलापत्तन (संसार-समुद्र के किनारे का नगर) को यह जीव नहीं पहुँच पाता इत्यादि प्रकार से आस्रवगत दोषों का विचार करना आस्रवानुप्रेक्षा है ॥७॥
  • अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं । वही समुद्र का जहाज अपने छेदों के बन्द हो जाने से जल के न घुसने पर निर्विघ्न वेलापत्तन को प्राप्त हो जाता है; उसी प्रकार जीवरूपी जहाज अपने शुद्ध आत्मज्ञान के बल से इन्द्रिय आदि आस्रवरूप छिद्रों के बन्द हो जाने पर कर्मरूप जल न घुस सकने से, केवलज्ञान आदि अनन्तगुण रत्नों से पूर्ण मुक्तिरूप वेलापत्तन को निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है । ऐसे संवर के गुणों के चिंतनरूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए ॥८॥

  • अब निर्जरानुप्रेक्षा का प्रतिपादन करते हैं जैसे किसी मनुष्य के अजीर्ण होने से पेट में मल का जमाव हो जाने पर, वह मनुष्य आहार को छोड़कर मल को पचाने वाले तथा जठराग्नि को तीव्र करने वाले हरड़ आदि औषध को ग्रहण करता है । जब उस औषध से मल पक जाता है, गल जाता है अथवा पेट से बाहर निकल जाता है तब वह मनुष्य सुखी होता है । उसी प्रकार यह भव्य जीव भी अजीर्ण उत्पन्न करने वाले आहार के स्थानभूत मिथ्यात्व-रागादि अज्ञान भावों से कर्मरूपी मल का संचय होने पर मिथ्यात्व-राग आदि छोड़कर, जीवन-मरण में व लाभ-अलाभ में और सुख-दुःख आदि में समभाव को उत्पन्न करने वाला, कर्ममल को पकाने वाला तथा शुद्ध-ध्यानअग्नि को प्रज्ज्वलित करने वाला, जो परम औषध के स्थानभूत जिनवचनरूप औषध है, उसका सेवन करता है, उससे कर्मरूपी मलों के गलन तथा निर्जरण हो जाने पर सुखी होता है । विशेष - जैसे कोई बुद्धिमान् अजीर्ण के समय जो कष्ट हुआ उसको अजीर्ण चले जाने पर भी नहीं भूलता और अजीर्ण पैदा करने वाले आहार को छोड़ देता है, जिससे सदा सुखी रहता है; उसी तरह ज्ञानी मनुष्य भी, 'दुःखी मनुष्य धर्म में तत्पर होते हैं' इस वाक्यानुसार, दु:ख के समय जो धर्मरूप परिणाम होते हैं उनको दुःख नष्ट हो जाने पर भी नहीं भूलता । तत्पश्चात् निज परमात्म अनुभव के बल से निर्जरा के लिए देखे, सुने तथा अनुभव किए हुए भोग-वांछादि रूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है । संवेग और वैराग्य का लक्षण कहते हैं-

  • धर्म में, धर्म के फल में और दर्शन में जो हर्ष होता है सो तो संवेग है; और संसार, देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है ॥१॥

    ऐसे निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥९॥
  • अब लोकानुप्रेक्षा का प्रतिपादन करते हैं- वह इस प्रकार है; अनन्तानन्त आकाश के बिल्कुल मध्य के प्रदेशों में, घनोदधि, घनवात, तनुवात नामक तीन पवनों से बेढ़ा हुआ, अनादि अनन्त अकृत्रिम निश्चल असंख्यात प्रदेशी लोक है । उसका आकार बतलाते हैं- नीचे मुख किये हुए आधे मृदंग के ऊपर पूरा मृदंग रखने पर जैसा आकार होता है वैसा आकार लोक का है; परन्तु मृदंग गोल है और लोक चौकोर है, यह अन्तर है । अथवा पैर फैलाये, कमर पर हाथ रखे, खड़े हुए मनुष्य का जैसा आकार होता है, वैसा लोक का आकार है । अब उस लोक की ऊँचाई-लम्बाई-विस्तार का निरूपण करते हैं- चौदह राजू प्रमाण ऊँचा तथा दक्षिण उत्तर में सब जगह सात राजू मोटा और पूर्व पश्चिम में नीचे के भाग में सात राजू विस्तार है, फिर उस अधोभाग से, क्रम से इतना घटता है कि मध्यलोक (बीच) में एक राजू रह जाता है फिर मध्यलोक से ऊपर क्रम से बढ़ता है सो ब्रह्मलोक नामक पंचम स्वर्ग के अन्त में पाँच राजू का विस्तार है, उसके ऊपर फिर घटता हुआ लोक के अन्त में जाकर एक राजू प्रमाण विस्तार वाला रह जाता है । इसी लोक के मध्य में, ऊखल के मध्य भाग से नीचे की ओर छिद्र करके एक बाँस की नली रखी जावे, उसका जैसा आकार होता है उसके समान, एक चौकोर त्रसनाड़ी है, वह एक राजू लम्बी-चौड़ी और चौदह राजू ऊँची जाननी चाहिए । उस त्रसनाड़ी के नीचे के भाग के जो सात राजू हैं वे अधोलोक सम्बन्धी हैं । ऊर्ध्व भाग में, मध्य लोक की ऊँचाई सम्बन्धी लक्ष-योजन-प्रमाण सुमेरु की ऊँचाई सहित सात राजू ऊर्ध्व लोक सम्बन्धी हैं ।

  • इसके आगे अधोलोक का कथन करते हैं- अधोभाग में सुमेरु की आधारभूत रत्नप्रभा नामक पहली पृथ्वी है । उस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे-नीचे एक-एक राजू प्रमाण आकाश जाकर क्रमशः शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नामक ६ भूमियाँ हैं । उनके नीचे भूमिरहित एक राजूप्रमाण जो क्षेत्र है वह निगोद आदि पंच स्थावरों से भरा हुआ है । घनोदधि, घनवात और तनुवात नामक जो तीन वातवलय हैं वे रत्नप्रभा आदि प्रत्येक पृथ्वी के आधारभूत हैं (रत्नप्रभा आदि पृथ्वी इन तीनों वातवलयों के आधार से हैं) यह जानना चाहिए । किस पृथ्वी में कितने (कुएँ सरीखे) नरक-बिल हैं, उनको यथाक्रम से कहते हैं- पहली भूमि में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीं में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख तथा सातवीं पृथ्वी में पाँच, इस प्रकार सब मिलकर चौरासी लाख (८४०००००) नरक-बिल हैं । अब रत्नप्रभा आदि भूमियों का पिण्ड प्रमाण क्रम से कहते हैं । यहाँ पिण्ड शब्द का अर्थ गहराई या मोटाई है । प्रथम पृथ्वी का एक लाख अस्सी हजार, दूसरी का बत्तीस हजार, तीसरी का अट्ठाईस हजार, चौथी का चौबीस हजार, पाँचवीं का बीस हजार, छठी का सोलह हजार और सातवीं का आठ हजार योजन पिण्ड जानना चाहिए । उन पृथिवियों का तिर्यग् विस्तार चारों दिशाओं में यद्यपि त्रस नाड़ी की अपेक्षा से एक राजू प्रमाण है तथापि त्रसों से रहित जो त्रस नाड़ी के बाहर का भाग है वह लोक के अन्त तक है । सो ही कहा है- अन्त को स्पर्श करती हुई भूमियों का प्रमाण सब दिशाओं में लोकान्त प्रमाण है । अब यहाँ विस्तार की अपेक्षा तिर्यक् लोकपर्यन्त विस्तार वाली, गहराई (मोटाई) की अपेक्षा मेरु की अवगाह समान एक हजार योजन मोटी चित्रा पृथ्वी मध्य लोक में है । उस पृथ्वी के नीचे सोलह हजार योजन मोटा खर भाग है । उस खर भाग के भी नीचे चौरासी हजार योजन मोटा पंक भाग है । उससे भी नीचे के भाग में अस्सी हजार योजन मोटा अब्बहुल भाग है । इस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग भेदों से तीन प्रकार की जाननी चाहिए । उनमें ही खर भाग में असुरकुमार देवों के सिवाय नौ प्रकार के भवनवासी देवों के और राक्षसों के सिवाय सात प्रकार के व्यन्तर देवों के निवास स्थान हैं । पंक भाग में असुर तथा राक्षसों का निवास है । अब्बहुल भाग में नरक हैं ।

    बहुत से खनों (मंजिलों) वाले महल के समान नीचे-नीचे सब पृथिवियों में अपनी-अपनी मोटाई में, नीचे और ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़ कर, जो बीच का भाग है, उसमें पटल होते हैं । भूमि के क्रम से वे पटल पहली पृथ्वी में तेरह, दूसरी में ग्यारह, तीसरी में नौ, चौथी में सात, पाँचवीं में पाँच, छठी में तीन और सातवीं में एक, ऐसे सब ४९ पटल हैं । 'पटल' का क्या अर्थ है? पटल का अर्थ प्रस्तार, इन्द्रक अथवा अन्तर भूमि है । रत्नप्रभा प्रथम पृथ्वी के सीमन्त नामक पहले पटल में ढाईद्वीप के समान संख्यात (पैंतालीस लाख) योजन विस्तार वाला जो मध्य-बिल है, उसकी इन्द्रक संज्ञा है । उस इन्द्रक की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में असंख्यात योजन विस्तार वाले ४९ बिल हैं और इसी प्रकार चारों विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में पंक्ति रूप जो ४८-४८ बिल हैं, वे भी असंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं । (इन्द्रक-बिल की दिशा और विदिशाओं में जो पंक्ति रूप बिल हैं) उनकी श्रेणीबद्ध' संज्ञा है । चारों दिशाओं और विदिशाओं के बीच में, पंक्ति के बिना, बिखरे हुए पुष्पों के समान, संख्यात योजन तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले जो बिल हैं, उनकी 'प्रकीर्णक' संज्ञा है । ऐसे इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक रूप से तीन प्रकार के नरक हैं । इस प्रकार प्रथम पटल का व्याख्यान जानना चाहिए । इसी प्रकार पूर्वोक्त जो सातों पृथिवियों में उनचास पटल हैं उनमें भी बिलों का ऐसा ही क्रम है; किन्तु प्रत्येक पटल में, आठों दिशाओं के श्रेणीबद्ध बिलों में से एक-एक बिल घटता गया है, अतः सातवीं पृथ्वी में चारों दिशाओं में एक-एक बिल ही रह जाता है ।

    रत्नप्रभादि पृथिवियों के नारकियों के शरीर की ऊँचाई कहते हैं- प्रथम पटल में तीन हाथ की ऊँचाई है और यहाँ से क्रम-क्रम से बढ़ते हुए तेरहवें पटल में सात धनुष, तीन हाथ और ६ अंगुल की ऊँचाई है । तदनन्तर दूसरी आदि पृथिवियों के अन्त के इन्द्रक बिलों में दूनी-दूनी वृद्धि करने से सातवीं पृथ्वी में पाँच सौ धनुष की ऊँचाई होती है । ऊपर के नरक में जो उत्कृष्ट ऊँचाई है उससे कुछ अधिक नीचे के नरक में जघन्य ऊँचाई है । इसी प्रकार पटलों में भी जानना चाहिए । नारकी जीवों की आयु का प्रमाण कहते हैं । प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल में जघन्य दस हजार वर्ष की आयु है; तत्पश्चात् आगम में कहे हुए क्रमानुसार वृद्धि से अन्त के तेरहवें पटल में एक सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । इसके अनन्तर क्रम से दूसरी पृथ्वी में तीन सागर, तीसरी में सात सागर, चौथी में दस सागर, पाँचवीं में सत्रह सागर, छठी में बाईस सागर और सातवीं में तैंतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । जो पहली पृथ्वी में उत्कृष्ट आयु है, उससे एक समय अधिक दूसरी में जघन्य आयु है । इसी तरह जो पहले पटल में उत्कृष्ट आयु है सो दूसरे में समयाधिक जघन्य है । ऐसे ही सातवीं पृथ्वी तक जानना चाहिए । निजशुद्ध-आत्मानुभव रूप निश्चय रत्नत्रय से विलक्षण जो तीव्र मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, उनसे परिणत असंज्ञी पंचेन्द्रिय, सरट (गोह आदि) पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्री की क्रम से रत्नप्रभादि छह पृथिवियों तक जाने की शक्ति है (असैनी पंचेन्द्रिय प्रथम भूमि तक, सरट (गोह) पक्षी तीसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पाँचवीं तक तथा स्त्री का जीव छठी भूमि तक जा सकता है) और सातवीं पृथ्वी में कर्मभूमि के उत्पन्न हुए मनुष्य और मगरमच्छ ही जा सकते हैं ।

    विशेष- यदि कोई जीव निरन्तर नरक में जाता है तो प्रथम पृथ्वी में आठ बार, दूसरी में सात बार, तीसरी में छह बार, चौथी में पाँच बार, पाँचवीं में चार बार, छठी में तीन बार और सातवीं में दो बार ही जा सकता है किन्तु सातवें नरक से आये हुए जीव फिर एक बार उसी या अन्य किसी नरक में जाते हैं, ऐसा नियम है । नरक से आये हुए जीव बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती नामक शलाकापुरुष नहीं होते । चौथे नरक से आये हुए जीव तीर्थंकर, पाँचवें से आये हुए जीव चरम शरीरी, छठे से आये हुए जीव भावलिंगी मुनि और सातवें से आये हुए जीव श्रावक नहीं होते । तो क्या होते हैं? नरक से आये हुए जीव, कर्मभूमि में संज्ञी, पर्याप्त तथा गर्भज मनुष्य या तिर्यञ्च होते हैं । सातवें नरक से आये हुए तिर्यञ्च ही होते हैं ॥१॥

    अब नारकियों के दुःखों का कथन करते हैं । यथा विशुद्धज्ञान, दर्शनस्वभाव निज शुद्ध परमात्म तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरण की भावना से समुत्पन्न निर्विकार परम-आनन्दमय सुखरूपी अमृत के आस्वाद से रहित और पाँच इन्द्रियों के विषय सुखास्वाद में लम्पट, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों ने जो नरक आयु तथा नरक गति आदि पापकर्म उपार्जन किया है, उसके उदय से वे नरक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ पहले की चार पृथिवियों में तीव्र गर्मी का दुःख और पाँचवीं पृथ्वी के ऊपरी तीन चौथाई भाग में तीव्र उष्णता का दुःख और नीचे के एक चौथाई भाग में तीव्र शीत का दुःख तथा छठी और सातवीं पृथ्वी में अत्यन्त शीत के दुःख का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार छेदने, भेदने, करोती से चीरने, घानी में पेलने और शूली पर चढ़ाने आदि रूप तीव्र दुःख सहन करते हैं । सो ही कहा है कि

    नरक में रात-दिन दुःख-रूप अग्नि में पकते हुए नारकी जीवों को नेत्रों के टिमकार मात्र भी सुख नहीं है किन्तु सदा दुःख ही लगा रहता है ॥१॥

    पहली तीन पृथिवियों तक असुरकुमार देवों द्वारा उत्पन्न किये हुए दुःख भी सहते हैं । ऐसा जानकर, नरक-सम्बन्धी दु:ख के नाश के लिए भेद तथा अभेद रूप रत्नत्रय की भावना करनी चाहिए । इस प्रकार संक्षेप से अधोलोक का व्याख्यान जानना चाहिए ।

    इसके अनन्तर तिर्यग् लोक का वर्णन करते हैं । अपने दूने-दूने विस्तार से पूर्व-पूर्व द्वीप को समुद्र और समुद्र को द्वीप इस क्रम से बेढ़ करके, गोल आकार वाले जम्बूद्वीप आदि शुभ नामों वाले द्वीप और लवणोदधि आदि शुभ नामों वाले समुद्र; स्वयम्भूरमण समुद्र तक तिर्यग् विस्तार से फैले हुए हैं । इस कारण इसको तिर्यग् लोक या मध्य लोक भी कहते हैं । वह इस प्रकार है- साढ़े तीन उद्धार सागर प्रमाण लोमों (बालों) के टुकड़ों के बराबर जो असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, उनके बीच में जम्बूद्वीप है ।

    वह जम्बू (जामुन) के वृक्ष से चिह्नित तथा मध्य भाग में स्थित सुमेरु पर्वत सहित है; गोलाकार एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है । बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले दो लाख योजन प्रमाण गोलाकार लवण समुद्र से वेष्टित (बेढ़ा हुआ) है । वह लवण समुद्र भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले चार लाख योजन प्रमाण गोलाकार धातकीखण्ड द्वीप से वेष्टित है । वह धातकीखण्ड द्वीप भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले आठ लाख योजन प्रमाण गोलाकार कालोदधि समुद्र से वेष्टित है । वह कालोदक समुद्र भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले सोलह लाख योजन प्रमाण गोलाकार पुष्कर द्वीप से वेष्टित है । इस प्रकार यह दूना-दूना विस्तार स्वयंभूरमण द्वीप तथा स्वयंभूरमण समुद्र तक जानना चाहिए । जैसे जम्बूद्वीप एक लाख योजन और लवणसमुद्र दो लाख योजन चौड़ा है, इन दोनों का समुदाय तीन लाख योजन है; उससे एक लाख योजन अधिक अर्थात् चार लाख योजन धातकीखण्ड है । इसी प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रों के विष्कम्भ का जो योग है उससे एक लाख योजन अधिक स्वयंभूरमण समुद्र का विष्कम्भ जानना चाहिए । ऐसे पूर्वोक्त लक्षण के धारक असंख्यात द्वीप समुद्रों में पर्वत आदि के ऊपर व्यन्तर देवों के आवास; नीचे की पृथ्वी के भाग में भवन और द्वीप तथा समुद्र आदि में पुर हैं । इन आवास; भवन तथा पुरों के परमागमानुसार भिन्न-भिन्न लक्षण हैं । इसी प्रकार रत्नप्रभा भूमि के खरभाग और पंकभाग में स्थित प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्य व्यन्तरदेवों के आवास हैं तथा सात करोड़ बहत्तर लाख भवनवासी देवों के भवन अकृत्रिम जिन चैत्यालयों सहित हैं । इस प्रकार अत्यन्त संक्षेप से मध्यलोक का व्याख्यान किया ।

    अब तिर्यग्लोक के बीच में स्थित मनुष्य लोक का व्याख्यान करते हैं । उस मनुष्यलोक बीच में स्थित जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हैं । दक्षिण दिशा से आरम्भ होकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नामक सात क्षेत्र हैं । क्षेत्र का क्या अर्थ है? यहाँ क्षेत्र शब्द से वर्ष; वंश; देश अथवा जनपद अर्थ का ग्रहण है । उन क्षेत्रों का विभाग करने वाले छह कुलाचल हैं । दक्षिण दिशा की ओर से उनके नाम १. हिमवत्, २. महाहिमवत्, ३. निषध, ४. नील, ५. रुक्मी और ६. शिखरी हैं । पूर्व-पश्चिम लम्बे ये पर्वत उन भरत आदि सप्त क्षेत्रों के बीच में हैं । पर्वत का क्या अर्थ है? पर्वत का अर्थ वर्षधर पर्वत अथवा सीमा पर्वत है । उन पर्वतों के ऊपर हृदों का क्रम से कथन करते हैं । १. पद्म, २. महापद्म, ३. तिगिंछ, ४. केसरी, ५. महापुंडरीक, ६. पुंडरीक ये अकृत्रिम छह हृद हैं । हृद का क्या अर्थ है? हृद का अर्थ सरोवर है । उन पद्म आदि ६ हृदों से आगम में कहे क्रमानुसार जो चौदह महानदियाँ निकली हैं, उनका वर्णन करते हैं ।

    तथा हिमवत् पर्वत पर स्थित पद्म नामक महाहृद के पूर्व तोरण द्वार से, अर्ध कोस प्रमाण गहरी और एक कोस अधिक छह योजन प्रमाण चौड़ी गंगा नदी निकलकर, उसी हिमवत् पर्वत के ऊपर पूर्व दिशा में पाँच सौ योजन तक जाती है; फिर वहाँ से गंगाकूट के पास दक्षिण दिशा को मुड़कर, भूमि में स्थित कुण्ड में गिरती है, वहाँ से दक्षिण द्वार से निकलकर, भरत क्षेत्र के मध्य भाग में स्थित तथा अपनी लम्बाई से पूर्व पश्चिम समुद्र को छूने वाले विजयार्द्ध पर्वत की गुफा के द्वार से निकलकर, आर्यखण्ड के अर्द्ध भाग में पूर्व को घूमकर पहली गहराई की अपेक्षा दसगुणी अर्थात् ५ कोस गहरी और इसी प्रकार पहली चौड़ाई से दस गुणी अर्थात् साढ़े बासठ योजन चौड़ी गंगा नदी पूर्व समुद्र में प्रवेश करती है । इस गंगा की भाँति सिन्धु नामक महानदी भी उसी हिमवत् पर्वत पर विद्यमान पद्म हृद के पश्चिम द्वार से निकलकर पर्वत पर ही गमन करके फिर दक्षिण दिशा को आकर विजयार्द्ध की गुफा के द्वार से निकलकर, आर्यखण्ड के अर्धभाग में पश्चिम को मुड़कर पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है । इस प्रकार दक्षिण दिशा को आई हुई गंगा और सिन्धु दो नदियों से और पूर्व-पश्चिम लम्बे विजयार्द्ध पर्वत से भरत क्षेत्र छह खण्ड वाला किया गया है अर्थात् भरत के छह खण्ड हो जाते हैं ।

    महाहिमवत् पर्वत पर स्थित महापद्म नामक हृद के दक्षिण दिशा की ओर से हैमवत् क्षेत्र के मध्य में आकर, वहाँ पर स्थित नाभिगिरि पर्वत को आधा योजन से न छूती हुई (पर्वत से आधा योजन दूर रहकर), उसी पर्वत की आधी प्रदक्षिणा करती हुई रोहित् नामा नदी पूर्व समुद्र को गई है । इसी प्रकार रोहितास्या नदी हिमवत् पर्वत के पद्म हृद से उत्तर को आकर, उसी नाभिगिरि से आधा योजन दूर रहती हुई; उसी पर्वत की आधी प्रदक्षिणा करके पश्चिम समुद्र में गई है । इस प्रकार रोहित और रोहितास्या नामक दो नदियाँ हैमवत् नामक जघन्य भोगभूमि के क्षेत्र में जाननी चाहिए । हरित नदी निषध पर्वत के तिगिंछ हृद से दक्षिण को आकर नाभिगिरि पर्वत से आधे योजन दूर रहकर उसी पर्वत की आधी प्रदक्षिणा करके पूर्व समुद्र में गई है । इसी तरह हरिकान्ता नदी महाहिमवत् पर्वत के महापद्म हृद से उत्तर दिशा की ओर आकर, उसी नाभिगिरि को आधे योजन तक न स्पर्शती हुई अर्ध प्रदक्षिणा देकर, पश्चिम समुद्र में गई है । ऐसे हरित और हरिकान्ता नामक दो नदियाँ हरि नामक मध्य-भोगभूमि क्षेत्र में हैं । सीता नदी नील पर्वत के केसरी हृद से दक्षिण को आकर, उत्तरकुरु नामक उत्कृष्ट भोगभूमि क्षेत्र के बीच में होकर, मेरु के पास आकर, गजदन्त पर्वत को भेदकर और मेरु की प्रदक्षिणा से आधे योजन तक दूर रहकर, पूर्व भद्रशालवन और पूर्व विदेह के मध्य में होकर, पूर्व समुद्र को गई है । इसी प्रकार सीतोदा नदी निषधपर्वत के तिगिंछह्रद से उत्तर को आकर, देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि क्षेत्र के बीच में से जाकर मेरु के पास गजदन्त पर्वत को भेदकर और मेरु की प्रदक्षिणा से आधे योजन दूर रहकर, पश्चिम भद्रशालवन के और पश्चिम विदेह के मध्य में गमन करके, पश्चिम समुद्र को गई है । ऐसे सीता और सीतोदा नामक नदियों का युगल विदेह नामक कर्मभूमि के क्षेत्र में जानना चाहिए । जो विस्तार और अवगाह का प्रमाण पहले गंगा-सिंधु नदियों का कहा है, उससे दूनादूना विस्तार आदि, प्रत्येक क्षेत्र में, नदियों के युगलों का विदेह तक जानना चाहिए । गंगा चौदह हजार परिवार की नदियों सहित है । इसी प्रकार सिन्धु भी चौदह हजार नदियों की धारक है । इनसे दूनी परिवार नदियों की धारक रोहित व रोहितास्या है । हरित-हरिकान्ता का इससे भी दूना परिवार है । सीता-सीतोदा दोनों नदियों का इनसे भी दूना परिवार है । दक्षिण से उत्तर को पाँच सौ छब्बीस योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में से ६ भाग प्रमाण कर्मभूमि संज्ञक भरत क्षेत्र का विष्कम्भ है । उससे दूना हिमवत् पर्वत का, हिमवत् पर्वत से दूना हैमवत क्षेत्र का, ऐसे दूना-दूना विष्कम्भ विदेह क्षेत्र तक जानना चाहिए । पद्म हृद एक हजार योजन लम्बा, उससे आधा (पाँच सौ योजन) चौड़ा और दस योजन गहरा है, उसमें एक योजन का कमल है, उससे दूना महापद्म हृद में और उससे दूना तिगिंछ हृद में जानना ।

    जैसे भरतक्षेत्र में हिमवत् पर्वत से गंगा तथा सिन्धु ये दो नदियाँ निकलती हैं वैसे ही उत्तर दिशा में कर्मभूमिसंज्ञक ऐरावत क्षेत्र में शिखरी पर्वत से निकली हुई रक्ता तथा रक्तोदा नामक दो नदियाँ हैं । जैसे हैमवत नामक जघन्य भोगभूमि क्षेत्र में महाहिमवत् और हिमवत् नामक दो पर्वतों से क्रमशः निकली हुई रोहित तथा रोहितास्या, ये दो नदियाँ हैं, इसी प्रकार उत्तर में हैरण्यवत नामक जघन्य भोगभूमि में, शिखरी और रुक्मी नामक पर्वतों से क्रमशः निकली हुई सुवर्णकूला तथा रूप्यकूला, ये दो नदियाँ हैं । जिस तरह हरि नामक मध्यम भोगभूमि में, निषध और महाहिमवन् पर्वतों से क्रमशः निकली हुई हरित-हरिकान्ता, ये दो नदियाँ हैं, उसी तरह उत्तर में रम्यक नामक मध्यम भोगभूमि-क्षेत्र में रुक्मी और नील संज्ञक दो पर्वतों से क्रमशः निकली हुई नारी-नरकान्ता दो नदियाँ जाननी चाहिए । सुषमा-सुषमा आदि छहों कालों सम्बन्धी आयु तथा शरीर की ऊँचाई आदि परमागम में कही गई है, उन सहित दस कोटा-कोटि सागर प्रमाण, अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल भरत जैसे ही ऐरावत में भी होते हैं । इतना विशेष है कि भरत ऐरावत के म्लेच्छ खण्डों में और विजयार्ध पर्वतों में चतुर्थ काल के आदि तथा अन्त के समान काल वर्तता है, अन्य काल नहीं वर्तता । विशेष क्या कहें, जैसे खाट का एक भाग जान लेने पर उसका दूसरा भाग भी उसी प्रकार समझ लिया जाता है; उसी तरह जम्बूद्वीप के क्षेत्र, नदी, पर्वत और हृद आदि का जो दक्षिण दिशा सम्बन्धी व्याख्यान है वही उत्तर दिशा सम्बन्धी भी जानना ।

    अब शरीर में ममत्व के कारणभूत मिथ्यात्व तथा राग आदि विभावों से रहित और केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त सुख आदि अनन्त गुणों से सहित निज परमात्म द्रव्य में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप भावना करके, मुनिजन जहाँ से विगतदेह अर्थात् देहरहित होकर अधिकता से मोक्ष प्राप्त करते हैं उसको विदेह कहते हैं । जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित विदेह क्षेत्र का कुछ वर्णन करते हैं । निन्यानवे हजार योजन ऊँचा, एक हजार योजन गहरा और आदि में भूमितल पर दस हजार योजन गोल विस्तार वाला तथा ऊपर-ऊपर ग्यारहवें भाग हानि क्रम से घटते-घटते शिखर पर एक हजार योजन विस्तार का धारक और शास्त्र में कहे हुए अकृत्रिम चैत्यालय, देववन तथा देवों के आवास आदि नाना प्रकार के आश्चर्यों सहित ऐसा महामेरु नामक पर्वत विदेहक्षेत्र के मध्य में है, वही मानों गज (हाथी) हुआ, उस मेरुरूप गज से उत्तर दिशा में दो दन्तों के आकार से जो दो पर्वत निकले हैं, उनका नाम 'दो-गजदन्त' है और वे दोनों उत्तर भाग में जो नील पर्वत है उसमें लगे हुए हैं । उन दोनों गजदन्तों के मध्य में जो त्रिकोण आकार वाला उत्तम भोगभूमिरूप क्षेत्र है, उसका नाम 'उत्तरकुरु' है । उसके मध्य में मेरु की ईशान दिशा में सीता नदी और नील पर्वत के बीच में परमागम-कथित अनादि-अकृत्रिम तथा पृथ्वीकायिक जम्बूवृक्ष है । उसी सीता नदी के दोनों किनारों पर यमकगिरि नामक दो पर्वत जानने चाहिए । उन दोनों यमकगिरि पर्वतों से दक्षिण दिशा में कुछ मार्ग चलने पर सीता नदी के बीच में कुछ-कुछ अन्तराल से पद्म आदि पाँच हृद हैं । उन हृदों के दोनों पसवाड़ों में से प्रत्येक पार्श्व में, लोकानुयोग के व्याख्यान के अनुसार, सुवर्ण तथा रत्ननिर्मित जिनचैत्यालयों से भूषित दस-दस सुवर्ण पर्वत हैं । इसी प्रकार निश्चय तथा व्यवहार रत्नत्रय की आराधना करने वाले उत्तम पात्रों को परम भक्ति से दिये हुए आहार-दान के फल से उत्पन्न हुए तिर्यञ्च और मनुष्यों को, निज शुद्ध आत्मभावना से उत्पन्न होने वाला निर्विकार सदा आनन्दरूप सुखामृत रस के आस्वाद से विलक्षण और चक्रवर्ती के भोग-सुखों से भी अधिक, नाना प्रकार के पंचेन्द्रिय सम्बन्धी भोग-सुखों के देने वाले ज्योतिरांग, गृहांग, दीपांग, तूर्यांग, भोजनांग, वस्त्रांग, माल्यांग, भाजनांग, भूषणांग तथा राग एवं मद को उत्पन्न करने वाले रसांग नामक, ऐसे दस प्रकार के कल्पवृक्ष भोगभूमियाँ क्षेत्र में स्थित हैं, इत्यादि परमागम कथित प्रकार से अनेक आश्चर्य समझने चाहिए । उसी मेरुगज से निकले हुए दक्षिण दिशा में जो दो-गजदन्त हैं उनके मध्य में उत्तरकुरु के समान देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि का क्षेत्र जानना चाहिए ।

    उसी मेरु पर्वत से पूर्व दिशा में, पूर्व-पश्चिम बाईस हजार योजन विस्तार वाला वेदी सहित भद्रशाल वन है । उससे पूर्व दिशा में कर्मभूमि नामक पूर्वविदेह है । वहाँ नील नामक कुलाचल से दक्षिण दिशा में और सीता नदी के उत्तर में मेरु की प्रदक्षिणा रूप से जो क्षेत्र है, उनके विभाग कहते हैं । वे इस प्रकार हैं- मेरु से पूर्व दिशा में जो पूर्व भद्रशाल वन की वेदिका है, उससे पूर्व दिशा में प्रथम क्षेत्र है, उसके पश्चात् दक्षिण-उत्तर लम्बा वक्षार पर्वत है, उसके बाद क्षेत्र है, उसके आगे विभंगा नदी है, उसके आगे क्षेत्र है, उसके अनन्तर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके अनन्तर क्षेत्र है, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है और फिर क्षेत्र है, उससे आगे फिर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, तदनन्तर पूर्व समुद्र के पास जो देवारण्य नामक वन है, उसकी वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियों (दीवारों) से आठ क्षेत्र जानने चाहिए । क्रम से उनके नाम हैं- १. कच्छा, २. सुकच्छा, ३. महाकच्छा, ४. कच्छावती, ५. आवर्ता, ६. लांगलावर्ता, ७. पुष्कला और ८. पुष्कलावती । अब क्षेत्रों के मध्य में जो नगरियाँ हैं, उनके नाम कहते हैं- १. क्षेमा, २. क्षेमपुरी, ३. रिष्टा, ४. रिष्टपुरी, ५. खड्गा, ६. मंजूषा, ७. औषधी और ८. पुण्डरीकिणी ।

    इसके ऊपर सीता नदी के दक्षिण भाग में निषध पर्वत से उत्तर भाग में जो आठ क्षेत्र हैं उनका कथन करते हैं । वे इस प्रकार हैं- पहले कही हुई जो देवारण्य की वेदी है उसके पश्चिम में क्षेत्र है, तदनन्तर वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके बाद क्षेत्र है, फिर वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, तत्पश्चात् विभंगा नदी है, फिर क्षेत्र है, पुनः वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, पश्चात् विभंगा नदी है, तदनन्तर क्षेत्र है, फिर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, उसके आगे मेरु की पूर्व दिशा वाले पूर्व भद्रशाल वन की वेदी है । ऐसे नौ भित्तियों के मध्य में आठ क्षेत्र जानने योग्य हैं । उन क्षेत्रों के नाम क्रम से कहते हैं- १. वच्छा, २. सुवच्छा, ३. महावच्छा, ४. वच्छावती, ५. रम्या, ६. रम्यका, ७. रमणीया और ८. मंगलावती । अब उन क्षेत्रों में स्थित नगरियों के नाम कहते हैं- १. सुसीमा, २. कुण्डला, ३. अपराजिता, ४. प्रभाकरी, ५. अंका, ६. पद्मा, ७. शुभा और रत्नसंचया । इस प्रकार पूर्व विदेहक्षेत्र के विभागों का व्याख्यान समाप्त हुआ ।

    अब मेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में पूर्व-पश्चिम बाईस हजार योजन लम्बे पश्चिम भद्रशाल वन के बाद पश्चिम विदेहक्षेत्र है । वहाँ निषध पर्वत के उत्तर में और सीतोदा नदी के दक्षिण में जो क्षेत्र हैं, उनके विभाग कहते हैं- मेरु की पश्चिम दिशा में जो पश्चिम भद्रशाल वन की वेदिका है, उसके पश्चिम भाग में क्षेत्र है, उससे आगे दक्षिण-उत्तर लम्बा वक्षार पर्वत है, तदनन्तर क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके बाद क्षेत्र है, उससे आगे वक्षार पर्वत है, तत्पश्चात् क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, फिर क्षेत्र है, उसके आगे वक्षार पर्वत है, तत्पश्चात् क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके अनन्तर क्षेत्र है, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, उसके अनन्तर पश्चिम समुद्र के समीप जो भूतारण्य नामक वन है उसकी वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियों के मध्य में आठ क्षेत्र होते हैं । उनके नाम क्रम से कहते हैं- १. पद्मा, २. सुपद्मा, ३. महापद्मा, ४. पद्मकावती, ५. शंखा, ६. नलिना, ७. कुमुदा और ८. सलिला । उन क्षेत्रों के मध्य में स्थित नगरियों के नाम कहते हैं- १. अश्वपुरी, २. सिंहपुरी, ३. महापुरी, ४. विजयापुरी, ५. अरजापुरी, ६. विरजापुरी, ७. अशोकापुरी और ८. विशोकापुरी ।

    अब सीतोदा के उत्तर में और नील कुलाचल के दक्षिण में जो क्षेत्र हैं, उनके विभागभेद का वर्णन करते हैं- पहले कही हुई जो भूतारण्य वन की वेदिका है उसके पूर्व में क्षेत्र है, उसके बाद वक्षार पर्वत, उसके अनन्तर क्षेत्र, उसके बाद विभंगा नदी, उसके पीछे क्षेत्र, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत, उसके अनन्तर पुनः क्षेत्र, उसके बाद पुनः विभंगा नदी, उसके अनन्तर पुनः क्षेत्र, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत, उसके बाद क्षेत्र, तदनन्तर विभंगा नदी, उसके अनन्तर क्षेत्र, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत, उसके बाद क्षेत्र है । उसके अनन्तर मेरु की (पश्चिम) दिशा में स्थित पश्चिम भद्रशाल वन की वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियों के बीच में आठ क्षेत्र हैं । उनके नाम क्रम से कहते हैं- १. वप्रा, २. सुवप्रा, ३. महावप्रा, ४. वप्रकावती, ५. गन्धा, ६. सुगन्धा, ७. गन्धिला और ८. गन्धमालिनी । उन क्षेत्रों के मध्य में वर्तमान नगरियों के नाम कहते हैं- १. विजया, २. वैजयन्ती, ३. जयन्ती, ४. अपराजिता, ५. चक्रपुरी, ६. खड्गपुरी, ७. अयोध्या और ८. अवध्या ।

    अब, जैसे भरतक्षेत्र में गंगा और सिंधु इन दोनों नदियों से तथा विजयार्ध पर्वत से पाँच म्लेच्छ खण्ड और एक आर्य खण्ड ऐसे छह खण्ड हुए हैं, उसी तरह पूर्वोक्त बत्तीस विदेह क्षेत्रों में गंगा सिंधु समान दो नदियों और विजयार्ध पर्वत से प्रत्येक क्षेत्र के छह खण्ड जानने चाहिए । इतना विशेष है कि इन सब क्षेत्रों में सदा चौथे काल के आदि जैसा काल रहता है । उत्कृष्टता से कोटि पूर्व प्रमाण आयु है और पाँच सौ धनुष प्रमाण शरीर का उत्सेध है । पूर्व का प्रमाण कहते हैं- पूर्व का प्रमाण सत्तर लाख छप्पन हजार कोड़ी वर्ष जानना चाहिए । इस प्रकार संक्षेप में जम्बूद्वीप का व्याख्यान समाप्त हुआ ।

    जैसे, सब द्वीप और समुद्रों में द्वीप और समुद्र की मर्यादा (सीमा) करने वाली आठ योजन ऊँची वज्र की वेदिका (दीवार) है, उसी प्रकार से जम्बूद्वीप में भी है, ऐसा जानना चाहिए । उस वेदिका के बाहर दो लाख-योजन चौड़ा, गोलाकार, शास्त्रोक्त सोलह हजार योजन जल की ऊँचाई (गहराई) आदि अनेक आश्चर्यों सहित लवणसमुद्र है; उसके बाहर चार लाख योजन गोल विस्तार वाला धातकीखण्डद्वीप है । वहाँ पर दक्षिण भाग में लवणोदधि और कालोदधि इन दोनों समुद्रों की वेदिका को छूने वाला, दक्षिण-उत्तर लम्बा, एक हजार योजन विस्तार वाला तथा चार सौ योजन ऊँचा इष्वाकार नामक पर्वत है । इसी प्रकार उत्तर भाग में भी एक इष्वाकार पर्वत है । इन दोनों पर्वतों से विभाजित, पूर्व धातकीखण्ड तथा पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भाग जानने चाहिए । पूर्व धातकीखण्ड द्वीप के मध्य में चौरासी हजार योजन ऊँचा और एक हजार योजन गहरा छोटा मेरु है । उसी प्रकार पश्चिम धातकीखण्ड में भी एक छोटा मेरु है । जैसे जम्बूद्वीप के महामेरु में भरत आदि क्षेत्र, हिमवत् आदि पर्वत, गंगा आदि नदी और पद्म आदि हृदों का दक्षिण व उत्तर दिशाओं सम्बन्धी व्याख्यान किया है; वैसा ही इस पूर्व धातकीखण्ड के मेरु और पश्चिम धातकीखण्ड के मेरु सम्बन्धी जानना चाहिए । इसी कारण धातकीखण्ड में जम्बू द्वीप की अपेक्षा संख्या में भरत क्षेत्र आदि दूने होते हैं, परन्तु लम्बाई चौड़ाई की अपेक्षा से दुगुने नहीं हैं । कुल पर्वत तो विस्तार की अपेक्षा ही दुगुने हैं, आयाम (लम्बाई) की अपेक्षा दुगुने नहीं हैं । उस धातकीखण्डद्वीप में, जैसे चक्र के आरे होते हैं, वैसे आकार के धारक कुलाचल हैं । जैसे चक्र के आरों के छिद्र अन्दर की ओर तो संकीर्ण (सुकड़े) होते हैं और बाहर की ओर विस्तीर्ण (फैले हुए) होते हैं, वैसा ही क्षेत्रों का आकार समझना चाहिए ।

    इस प्रकार जो धातकीखण्ड द्वीप है उसको आठ लाख योजन विस्तार वाला कालोदक समुद्र बेढ़े हुए है । उस कालोदक समुद्र के बाहर आठ लाख योजन चलकर पुष्करवर द्वीप के अर्ध भाग में गोलाकार रूप से चारों दिशाओं में मानुषोत्तर नामक पर्वत है । उस पुष्करार्ध द्वीप में भी धातकीखण्ड द्वीप के समान दक्षिण तथा उत्तर दिशा में इष्वाकार दो पर्वत हैं, पूर्व-पश्चिम में दो छोटे मेरु हैं । इसी प्रकार (धातकीखण्ड के समान) भरत आदि क्षेत्रों का विभाग जानना चाहिए । परन्तु जम्बूद्वीप के भरत आदि की अपेक्षा से यहाँ पर संख्या में दूने-दूने भरत आदि क्षेत्र हैं, धातकीखण्ड की अपेक्षा से भरत आदि दूने नहीं हैं । कुल पर्वतों का विष्कम्भ तथा आयाम धातकीखण्ड के कुल पर्वतों की अपेक्षा दुगुना है । दक्षिण में विजयार्ध पर्वत की ऊँचाई का प्रमाण पच्चीस योजन, हिमवत् पर्वत की ऊँचाई १०० योजन, महाहिमवान् पर्वत की दो सौ योजन, निषध की चार सौ योजन प्रमाण है तथा उत्तर भाग में भी इसी प्रकार उत्सेध प्रमाण है । मेरु के समीप में गजदन्तों की ऊँचाई पाँच सौ योजन है और नील निषध पर्वतों के पास चार सौ योजन है । वक्षार पर्वतों की ऊँचाई नदी के निकट तथा अन्त में नील और निषध पर्वतों के पास चार सौ योजन है । मेरु को छोड़कर शेष पर्वतों की जो ऊँचाई जम्बूद्वीप में कही है सो ही पुष्करार्द्ध तक द्वीपों में जाननी चाहिए तथा क्षेत्र, पर्वत, नदी, देश, नगर आदि के नाम भी वे ही हैं, जो कि जम्बूद्वीप में हैं । इसी प्रकार दो कोस ऊँची, पाँच सौ धनुष चौड़ी पद्मराग रत्नमयी जो वन आदि की वेदिका है, वह सब द्वीपों में समान है । इस पुष्करार्ध द्वीप में भी चक्र के आरों के आकार समान पर्वत और आरों के छिद्रों के समान क्षेत्र जानने चाहिए । मानुषोत्तर पर्वत के भीतरी भाग में ही मनुष्य निवास करते हैं बाहरी भाग में नहीं । उन मनुष्यों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य के बराबर है । मध्य में मध्यम विकल्प बहुत से हैं तिर्यञ्चों की आयु भी मनुष्यों की आयु के समान है । इस प्रकार असंख्यात द्वीप-समुद्रों से विस्तरित तिर्यग्लोक के मध्य में ढाईद्वीप प्रमाण मनुष्यलोक का संक्षेप से व्याख्यान हुआ ।

    अब मानुषोत्तर पर्वत से बाहरी भाग में, स्वयंभूरमण द्वीप के अर्धभाग को बेढ़कर जो नागेन्द्र नामक पर्वत है, उस पर्वत के पूर्व भाग में जो असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, उनमें व्यन्तर देव निरन्तर रहते हैं, इस वचनानुसार, यद्यपि व्यन्तर देवों के आवास हैं, तथापि एक पल्यप्रमाण आयु वाले तिर्यञ्चों की जघन्य भोगभूमि भी है, ऐसा जानना चाहिए । नागेन्द्र पर्वत से बाहर स्वयंभूरमण आधे द्वीप और पूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र में विदेहक्षेत्र के समान, सदा ही कर्मभूमि और चतुर्थकाल रहता है । परन्तु वहाँ पर मनुष्य नहीं हैं । इस प्रकार तिर्यग्लोक के तथा उस तिर्यक् लोक के मध्य में विद्यमान मनुष्य-लोक के निरूपण द्वारा मध्य लोक का व्याख्यान समाप्त हुआ । मनुष्य लोक में तीन सौ अट्ठानवे (३९८) और तिर्यक् लोक में नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डल द्वीप तथा रुचक द्वीप इन तीन द्वीपों सम्बन्धी क्रमशः बावन, चार, चार अकृत्रिम स्वतन्त्र चैत्यालय जानने चाहिए । (मध्यलोक में सब अकृत्रिम चैत्यालय ४५८ हैं)

    इसके पश्चात् ज्योतिष्कलोक का वर्णन करते हैं । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक तारा ऐसे ज्योतिष्क देव पाँच प्रकार के होते हैं । उनमें से इस मध्य लोक के पृथ्वीतल से सात सौ नब्बे योजन ऊपर आकाश में तारों के विमान हैं, तारों से दस योजन ऊपर सूर्य के विमान हैं । उससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा के विमान हैं । उसके अनन्तर, त्रिलोकसार कथित क्रमानुसार, चार योजन ऊपर अश्विनी आदि नक्षत्रों के विमान हैं । उसके पश्चात् चार योजन ऊपर बुध के विमान हैं । उसके अनन्तर तीन योजन ऊपर शुक्र के विमान हैं । वहाँ से तीन योजन ऊपर बृहस्पति के विमान हैं । उसके पश्चात् तीन योजन पर मंगल के विमान हैं । वहाँ से भी तीन योजन के अन्तर पर शनैश्चर के विमान हैं । सो ही कहा है-

    सात सौ नब्बे, दस, अस्सी, चार, चार, तीन, तीन, तीन और तीन योजन ऊपर क्रम से तारा, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल और शनैश्चर के विमान हैं ।

    वे ज्योतिष्क देव ढाईद्वीप में मेरु की प्रदक्षिणा देते हुए सदा परिभ्रमण करते हैं । निमिष आदि सूक्ष्म व्यवहार काल के समान घटिका, पहर, दिवस आदि स्थूल व्यवहारकाल भी, समय-घटिका आदि विवक्षित भेदों से रहित तथा अनादिनिधन कालाणुद्रव्यमयी निश्चयकाल रूप उपादान से यद्यपि उत्पन्न होता है; तो भी, निमित्तभूत कुम्भकार के द्वारा उपादान रूप मृत्तिकापिण्ड से घट प्रकट होने की तरह, उन ढाईद्वीप में चन्द्र सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों के विमानों के गमनागमन से यह व्यवहारकाल प्रकट किया जाता है तथा जाना जाता है; इस कारण उपचार से व्यवहार काल ज्योतिष्क देवों का किया हुआ है, ऐसा कहा जाता है । कुम्भकार के चाक के भ्रमण में बहिरंग सहकारी कारण नीचे की कीली के समान, निश्चयकाल तो, उन ज्योतिष्क देवों के विमानों के गमन रूप परिणमन में बहिरंग सहकारी कारण होता है ।

    अब ढाईद्वीपों में जो चन्द्र और सूर्य हैं, उनकी संख्या बतलाते हैं । वह इस प्रकार है- जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं, लवणोदक समुद्र में चार चन्द्रमा और चार सूर्य हैं, धातकीखण्ड द्वीप में बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य हैं, कालोदक समुद्र में ४२ चन्द्रमा और ४२ सूर्य हैं तथा पुष्करार्ध द्वीप में ७२ चन्द्रमा और ७२ ही सूर्य हैं । इसके अनन्तर भरत और ऐरावत में स्थित जम्बूद्वीप के चन्द्र-सूर्य का कुछ थोड़ा-सा विवरण कहते हैं । वह इस तरह है- जम्बूद्वीप के भीतर एक सौ अस्सी और बाहरी भाग में अर्थात् लवणसमुद्र के तीन सौ तीस योजन, ऐसे दोनों मिलकर पाँच सौ दस योजन प्रमाण सूर्य का चार क्षेत्र (गमन का क्षेत्र) कहलाता है । सो चन्द्र तथा सूर्य इन दोनों का एक ही गमन क्षेत्र है । भरतक्षेत्र और बाहरी भाग के चार क्षेत्र में सूर्य के एक सौ चौरासी मार्ग (गली) हैं और चन्द्र के पन्द्रह ही मार्ग हैं ।

    उनमें जम्बूद्वीप के भीतर कर्कट संक्रान्ति के दिन जब दक्षिणायन प्रारम्भ होता है, तब निषध पर्वत के ऊपर प्रथम मार्ग में सूर्य प्रथम उदय करता है । वहाँ पर सूर्य विमान में स्थित निर्दोषपरमात्म-जिनेन्द्र के अकृत्रिम जिनबिम्ब को, अयोध्यानगरी में स्थित भरतक्षेत्र का चक्रवर्ती प्रत्यक्ष देखकर निर्मल सम्यक्त्व के अनुराग से पुष्पांजलि उछालकर अर्घ देता है । उस प्रथम मार्ग में स्थित भरतक्षेत्र के सूर्य का ऐरावत क्षेत्र के सूर्य के साथ तथा चन्द्रमा का चन्द्रमा के साथ और भरत क्षेत्र के सूर्य चन्द्रमाओं का मेरु के साथ जो अन्तर (फासला) रहता है, उसका विशेष कथन आगम से जानना चाहिए ।

    अब "शतभिषा (शतभिषक्), भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा, ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र जघन्य हैं । रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा और उत्तराभाद्रपद, ये छह नक्षत्र उत्कृष्ट हैं । इनके अतिरिक्त शेष १५ नक्षत्र मध्यम है । इस गाथा में कहे हुए क्रमानुसार जो जघन्य, उत्कृष्ट तथा मध्यम नक्षत्र हैं, उनमें किस नक्षत्र में कितने दिन सूर्य ठहरता है, सो कहते हैं- एक मुहूर्त में चन्द्र १७६८, सूर्य १८३० और नक्षत्र १८३५ गगनखण्डों में गमन करते हैं, इसलिए ६७ व ५ (१८३५-१७६८-६७,१८३५-१८३०=५) अधिक भागों से नक्षत्रखण्डों को भाग देने से जो मुहूर्त प्राप्त होते हैं, उन मुहूर्तों को चन्द्र और सूर्य के आसन्न मुहूर्त जानने चाहिए । अर्थात् एक नक्षत्र पर उतने मुहूर्तों तक चन्द्रमा और सूर्य की स्थिति जाननी चाहिए ।"

    इस प्रकार इस गाथा में कहे हुए क्रम से भिन्न-भिन्न दिनों को जोड़ने से तीन सौ छियासठ दिन होते हैं । जब द्वीप के भीतर से दक्षिण दिशा के बाहरी मार्गों में सूर्य गमन करता है, तब तीन सौ छियासठ दिनों के आधे एक सौ तिरासी दिनों की दक्षिणायन संज्ञा होती है और इसी प्रकार जब सूर्य समुद्र से उत्तर दिशा के अभ्यन्तर मार्गों में आता है तब शेष १८३ दिनों की उत्तरायण संज्ञा है । उनमें जब द्वीप के भीतर कर्कट संक्रान्ति के दिन दक्षिणायन के प्रारम्भ में सूर्य प्रथम मार्ग की परिधि में होता है, तब सूर्य-विमान के आतप (धूप) का पूर्व-पश्चिम फैलाव चौरानवे हजार पाँच सौ पच्चीस योजन प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिए । उस समय अठारह मुहूर्तों का दिन और बारह मुहूर्तों की रात्रि होती है । फिर यहाँ से क्रम-क्रम से आतप की हानि होने पर दो मुहूर्तों के इकसठ भागों में से एक भाग प्रतिदिन घटता है । यह तब तक घटता है जब तक कि लवणसमुद्र के अन्तिम मार्ग में माघ मास में मकर संक्रान्ति में उत्तरायण दिवस के प्रारम्भ में जघन्यता से सूर्य-विमान के आतप का पूर्व-पश्चिम विस्तार त्रेसठ हजार सोलह योजन प्रमाण होता है । उसी प्रकार इस समय बारह मुहूर्तों का दिन और अठारह मुहूर्तों की रात्रि होती है । अन्य विशेष वर्णन लोकविभाग आदि से जानना चाहिए ।

    मनुष्य क्षेत्र से बाहर ज्योतिष्क-विमानों का गमन नहीं है । वे मानुषोत्तर पर्वत के बाहर पचास हजार योजन जाने पर, वलयाकार (गोलाकार) पंक्ति क्रम से पहले क्षेत्र को बेढ़ (घेर) कर रहते हैं । वहाँ प्रथम वलय में एक सौ चवालीस चन्द्रमा तथा सूर्य परस्पर अन्तर (फासले) से स्थित हैं, उसके आगे एक-एक लाख योजन जाने पर इसी क्रमानुसार एक-एक वलय होता है । विशेष यह है कि प्रत्येक वलय में चार-चार चन्द्रमा तथा चार-चार सूर्यों की वृद्धि पुष्करार्ध के बाह्य भाग में आठवें वलय तक होती है । उसके बाद पुष्करसमुद्र के प्रवेश में स्थित वेदिका से पचास हजार योजन प्रमाण जलभाग में जाकर, प्रथम वलय में, एक सौ चवालीस चन्द्र तथा सूर्य का जो पहले कथन किया है, उससे दुगुने (दो सौ अट्ठासी) चन्द्रमा व सूर्यों वाला पहला वलय है । उसके पश्चात् पूर्वोक्त प्रकार एक-एक लाख योजन जाने पर एक-एक वलय है । प्रत्येक वलय में चार चन्द्रमा और चार सूर्यों की वृद्धि होती है । इसी क्रम से स्वयंभूरमण समुद्र की अन्त की वेदिका तक ज्योतिष्क देवों का अवस्थान जानना चाहिए । जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात ये ज्योतिष्कविमान अकृत्रिम सुवर्ण तथा रत्नमय जिनचैत्यालयों से भूषित हैं, ऐसा समझना चाहिए । इस प्रकार संक्षेप से ज्योतिष्क लोक का वर्णन समाप्त हुआ ।

    अब इसके अनन्तर ऊर्ध्व लोक का कथन करते हैं । सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक सोलह स्वर्ग हैं । वहाँ से आगे नव ग्रैवेयक विमान हैं । उनके ऊपर नवअनुदिश नामक ९ विमानों का एक पटल है, इसके भी ऊपर पाँच विमानों की संख्या वाला पंचानुत्तर नामक एक पटल है, इस प्रकार उक्त क्रम से वैमानिक देव अवस्थित हैं । यह वार्तिक अर्थात् संग्रह वाक्य अथवा समुदाय से कथन है । आदि में बारह, मध्य में आठ और अन्त में चार योजन प्रमाण गोल व्यासवाली चालीस योजन ऊँची मेरु की चूलिका है; उसके ऊपर देवकुरु अथवा उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य के बाल के अग्रभाग प्रमाण के अन्तर से ऋजु विमान है । चूलिका सहित एक लाख योजन प्रमाण मेरु की ऊँचाई का प्रमाण है, उस मान को आदि करके डेढ़ राजू प्रमाण जो आकाश क्षेत्र है वहाँ तक सौधर्म तथा ईशान नामक दो स्वर्ग हैं । इसके ऊपर डेढ़ राजूपर्यन्त सानत्कुमार और माहेन्द्र नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँ से अर्धराजू प्रमाण आकाश तक ब्रह्म तथा ब्रह्मोत्तर नामक स्वर्गों का युगल है । वहाँ से भी आधे राजू तक लान्तव और कापिष्ट नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँ से आधे राजूप्रमाण आकाश में शुक्र तथा महाशुक्र नामक स्वर्गों का युगल जानना चाहिए । उसके बाद आधे राजू तक शतार और सहस्रार नामक स्वर्गों का युगल है । उसके पश्चात् आधे राजू तक आनत व प्राणत दो स्वर्ग हैं । तदनन्तर आधे राजू पर्यन्त आकाश तक आरण और अच्युत नामक दो स्वर्ग जानने चाहिए । उनमें से पहले के दो युगलों (४ स्वर्गों) में तो अपने-अपने स्वर्ग के नाम वाले (सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र) चार इन्द्र हैं, बीच के चार युगलों (८ स्वर्गों) में अपने-अपने प्रथम स्वर्ग के नाम का धारक एक-एक ही इन्द्र है (अर्थात् ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग का एक इन्द्र है और वह ब्रह्म इन्द्र कहलाता है । ऐसे ही बारहवें स्वर्ग तक आठ स्वर्गों में चार इन्द्र जानने चाहिए) इनके ऊपर दो युगलों (४ स्वर्गों) में भी अपने-अपने स्वर्ग के नाम के धारक चार इन्द्र होते हैं । इस प्रकार समुदाय से सोलह स्वर्गों में बारह इन्द्र जानने चाहिए । सोलह स्वर्गों से ऊपर एक राजू में नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देव हैं । उसके आगे बारह योजन जाने पर आठ योजन मोटी और ढाईद्वीप के बराबर पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाली मोक्षशिला है । उस मोक्षशिला के ऊपर घनोदधि, घनवात तथा तनुवात नामक तीन वायु हैं । इनमें से तनुवात के मध्य में तथा लोक के अन्त में केवलज्ञान आदि अनन्त-गुणों सहित सिद्धपरमेष्ठी विराजमान हैं ।

    अब स्वर्ग के पटलों की संख्या बतलाते हैं । सौधर्म और ईशान इन दो स्वर्गों में इकत्तीस, सानत्कुमार तथा माहेन्द्र में सात, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में चार, लान्तव तथा कापिष्ट में दो, शुक्र-महाशुक्र में एक, शतार-सहस्रार में एक, आनत-प्राणत में तीन और आरण-अच्युत में भी तीन पटल हैं । नव ग्रैवेयकों में नौ, नव अनुदिशों में एक व पंचानुत्तरों में एक पटल है । ऐसे समुदाय से ऊपर-ऊपर ६३ पटल जानने चाहिए । सो ही कहा है सौधर्म युगल में ३१, सानत्कुमार युगल में ७, ब्रह्म युगल में ४, लान्तव युगल में २, शुक्र युगल में १, शतार युगल में १, आनत आदि चार स्वर्गों में ६, प्रत्येक तीनों ग्रैवेयकों में तीन-तीन, नव अनुदिश में १, पंचानुत्तरों में एक, ऐसे समुदाय से ६३ इन्द्रक होते हैं ।

    इसके आगे प्रथम पटल का व्याख्यान करते हैं । मेरु की चूलिका के ऊपर मनुष्य क्षेत्र प्रमाण विस्तार वाले पूर्वोक्त ऋजु विमान की इन्द्रक संज्ञा है । उसकी चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में, सब द्वीप समुद्रों के ऊपर, असंख्यात योजन विस्तार वाले पंक्तिरूप ६३-६३ विमान हैं; उनकी श्रेणीबद्ध संज्ञा है । पंक्ति बिना पुष्पों के समान चारों विदिशाओं में संख्यात व असंख्यात योजन विस्तार वाले जो विमान हैं, उन विमानों की प्रकीर्णक संज्ञा है । इस प्रकार समुदाय से प्रथम पटल का लक्षण जानना चाहिए । उन विमानों में से पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन श्रेणियों के विमान और इन तीनों दिशाओं के बीच में दो विदिशाओं के विमान, ये सब सौधर्म प्रथम स्वर्ग सम्बन्धी हैं तथा शेष दो विदिशाओं के विमान और उत्तर श्रेणी के विमान, वे ईशान स्वर्ग सम्बन्धी हैं । भगवान् द्वारा देखे प्रमाण अनुसार, इस पटल के ऊपर संख्यात तथा असंख्यात योजन जाकर इसी क्रम से द्वितीय आदि पटल हैं । विशेष यह है कि प्रत्येक पटल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में एक-एक विमान घटता गया है, सो यहाँ तक घटता है कि पंचानुत्तर पटल में चारों दिशाओं में एक-एक ही विमान रह जाता है । सौधर्म स्वर्ग आदि सम्बन्धी ये सब विमान चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस अकृत्रिम सुवर्णमय जिन चैत्यालयों से मण्डित हैं, ऐसा जानना चाहिए ।

    अब देवों की आयु का प्रमाण कहते हैं- भवन वासियों में दस हजार वर्ष की जघन्य आयु है । व्यन्तरों में दस हजार वर्ष की जघन्य और कुछ अधिक एक पल्य की उत्कृष्ट आयु है । ज्योतिष्क देवों में जघन्य आयु पल्य के आठवें भाग प्रमाण है । चन्द्रमा की एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य और सूर्य की एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । शेष ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट आयु आगम के अनुसार जाननी चाहिए । सौधर्म तथा ईशान स्वर्ग के देवों की जघन्य आयु कुछ अधिक एक पल्य और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर है । सानत्कुमार तथा माहेन्द्र देवों में कुछ अधिक सात सागर, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में कुछ अधिक दस सागर, लान्तव-कापिष्ठ में कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र- महाशुक्र में कुछ अधिक सोलह सागर, शतार और सहस्रार में किंचित् अधिक अठारह सागर, आनत तथा प्राणत में पूरे बीस ही सागर और आरण-अच्युत में बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । इसके अनन्तर अच्युत स्वर्ग से ऊपर कल्पातीत नव ग्रैवेयकों तक प्रत्येक ग्रैवेयक में क्रमशः बाईस सागर से एक-एक सागर अधिक उत्कृष्ट आयु है, तदनुसार अन्त के ग्रैवेयक में इकतीस सागर की उत्कृष्ट आयु है । नव अनुदिश पटल में बत्तीस सागर और पंचानुत्तर पटल में तैंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु जाननी चाहिए तथा सौधर्म आदि स्वर्गों में जो उत्कृष्ट आयु है, सर्वार्थसिद्धि के अतिरिक्त, वह उत्कृष्ट आयु अपने स्वर्ग से ऊपर-ऊपर के स्वर्ग में जघन्य आयु है । (अर्थात् जो सौधर्म ईशान स्वर्ग में कुछ अधिक दो सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है, वह सानत्कुमार माहेन्द्र में जघन्य है । इस क्रम से सर्वार्थसिद्धि के पहले-पहले जघन्य आयु है ।) शेष विशेष व्याख्यान त्रिलोकसार आदि से जानना चाहिए ।

    विशेष - आदि, मध्य तथा अन्तरहित, शुद्ध-बुद्ध-एक-स्वभाव परमात्मदेव में पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बों का भान होता है उसी प्रकार से शुद्ध आत्मा आदि पदार्थ देखे जाते हैं, जाने जाते हैं, परिच्छिन्न किये जाते हैं । इस कारण वह निज शुद्ध आत्मा ही निश्चयलोक है अथवा उस निश्चय लोक वाले निज शुद्ध परमात्मा में जो अवलोकन है वह निश्चयलोक है । संज्ञा, तीन लेश्या, इंद्रियों के वश होना, आर्त-रौद्र-ध्यान तथा दुष्प्रयुक्त ज्ञान और मोह ये सब पाप को देने वाले हैं ।

    इस गाथा में कहे हुए विभाव परिणाम आदि सम्पूर्ण शुभ-अशुभ संकल्प विकल्पों के त्याग से और निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न परम आह्लाद सुखरूपी अमृत के आस्वाद के अनुभव से जो भावना होती है, वही निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है, शेष व्यवहार से है । इस प्रकार संक्षेप से लोकानुप्रेक्षा का वर्णन समाप्त हुआ ॥१०॥
  • अब बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा को कहते हैं- एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य, उत्तम देश, उत्तम कुल, सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, कार्य कुशलता, नीरोग, दीर्घ आयु, श्रेष्ठ बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, श्रद्धान करना, संयम, विषय सुखों से पराङ्मुखता, क्रोध आदि कषायों से निवृत्ति, ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं । कदाचित् काकतालीय न्याय से इन सबके प्राप्त हो जाने पर भी, इनकी प्राप्ति रूप बोधि के फलभूत जो निज शुद्ध आत्मा के ज्ञानस्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानरूप परम समाधि है, वह दुर्लभ है । शंका- परम समाधि दुर्लभ क्यों है? समाधान- परम समाधि को रोकने वाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबन्ध आदि जो विभाव परिणाम हैं, उनकी जीवों में प्रबलता है इसलिए परम-समाधि का होना दुर्लभ है । इस कारण उस परमसमाधि की ही निरन्तर भावना करनी चाहिए क्योंकि उस भावना से रहित जीवों का फिर भी संसार में पतन होता है । सो ही कहा है-

  • जो मनुष्य अत्यन्त दुर्लभरूप बोधि को प्राप्त होकर, प्रमादी होता है वह बेचारा संसाररूपी भयंकर वन में चिरकाल तक भ्रमण करता है ।१।

    मनुष्यभव की दुर्लभता के विषय में भी कहा है- अशुभ परिणामों की अधिकता, संसार की विशालता और बड़ी-बड़ी योनियों की अधिकता, ये सब बातें मनुष्य योनि को दुर्लभ बनाती है । बोधि व समाधि का लक्षण कहते हैं- पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का प्राप्त होना तो बोधि कहलाती है और उन्हीं सम्यग्दर्शन आदिकों को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना सो समाधि है । इस प्रकार संक्षेप से दुर्लभ अनुप्रेक्षा का कथन समाप्त हुआ ॥११॥
  • अब धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं- संसार में गिरते हुए जीव को उठाकर, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, देव, इन्द्र आदि द्वारा पूज्य अथवा बाधारहित अनन्त सुख आदि अनन्त-गुणरूप मोक्ष पद में जो धरता है वह धर्म है । उस धर्म के भेद कहे जाते हैं- अहिंसा लक्षण वाला, गृहस्थ और मुनि इन लक्षण वाला, उत्तम क्षमा आदि लक्षण वाला, निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय-स्वरूप अथवा शुद्ध आत्मानुभवरूप मोह-क्षोभरहित आत्म परिणाम वाला धर्म है । परम-स्वास्थ्य-भावना से उत्पन्न व व्याकुलतारहित पारमार्थिक सुख से विलक्षण तथा पाँचों इन्द्रियों के सुखों की वांछा से उत्पन्न और व्याकुलता करने वाले दु:खों को सहते हुए, इस जीव ने ऐसे धर्म की प्राप्ति न होने से नित्यनिगोद वनस्पति में सात लाख, इतर निगोद वनस्पति में सात लाख, पृथ्वीकाय में सात लाख, जलकाय में सात लाख, तेजकाय में सात लाख, वायुकाय में सात लाख, प्रत्येक वनस्पति में दस लाख, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय व चार इन्द्रिय में दो-दो लाख, देव, नारकी व तिर्यञ्च में चार-चार लाख तथा मनुष्यों में चौदह लाख योनि इस गाथा में कही हुई चौरासी लाख योनियों में, अतीत अनन्त काल तक परिभ्रमण किया है । जब इस जीव को पूर्वोक्त प्रकार के धर्म की प्राप्ति होती है तब राजाधिराज, महाराज, अर्धमण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, बलदेव, नारायण, कामदेव, चक्रवर्ती, देवेन्द्र, गणधरदेव, तीर्थंकर परमदेव के पदों तथा तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप कल्याणक तक अनेक प्रकार के वैभव सुखों को पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रय की भावना के बल से अक्षय अनन्त गुणों के स्थानभूत अरहन्त पद को और सिद्ध पद को प्राप्त होता है । इस कारण धर्म ही परम रस के लिए रसायन, निधियों की प्राप्ति के लिए निधान, कल्पवृक्ष, कामधेनु गाय और चिन्तामणि रत्न है । विशेष क्या कहें, जो जिनेन्द्रदेव के कहे हुए धर्म को पाकर दृढ़ बुद्धिधारी (सम्यग्दृष्टि) हुए हैं वे ही धन्य हैं । सो ही कहा है-

  • जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट धर्म से जो प्रतिबोध को प्राप्त हुए वे धन्य हैं तथा जिन आत्मानुभव में संलग्न बुद्धि वालों ने धर्म को ग्रहण किया वे सब धन्य हैं ।१।

    इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥१२॥

    इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षण वाली, अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मतत्त्व के अनुचिन्तन संज्ञा (नाम) वाली और आस्रवरहित शुद्ध आत्मतत्त्व में परिणतिरूप संवर की कारणभूत बारह अनुप्रेक्षाओं का कथन समाप्त हुआ ।

    अब परीषहजय का कथन करते हैं- १. क्षुधा, २. प्यास, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक (डांस-मच्छर), ६. नग्नता, ७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषद्या (बैठना), ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध,१४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १९. सत्कारपुरस्कार, २०. प्रज्ञा (ज्ञान का मद), २१. अज्ञान और २२. अदर्शन ये बाईस परीषह जानने चाहिए । इन क्षुधा आदि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा आदि में समतारूप परम सामायिक के द्वारा तथा नवीन शुभ-अशुभ कर्मों के रुकने और पुराने शुभ-अशुभ कर्मों की निर्जरा के सामर्थ्य से इस जीव का, निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न, विकार रहित, नित्यानन्दरूप सुखामृत अनुभव से, विचलित नहीं होना, सो परीषहजय है ।

    अब चारित्र का कथन करते हैं- शुद्ध उपयोग लक्षणात्मक निश्चय रत्नत्रयमयी परिणतिरूप आत्मस्वरूप में जो आचरण या स्थिति, सो चारित्र है । यह तारतम्य भेद से पाँच प्रकार का है । तथा सब जीव केवलज्ञानमय हैं, ऐसी भावना से जो समता परिणाम का होना सो सामायिक है । अथवा परम स्वास्थ्य के बल से युगपत् समस्त शुभ, अशुभ संकल्प-विकल्पों के त्यागरूप जो समाधि (ध्यान), वह सामायिक है । अथवा निर्विकार आत्म-अनुभव के बल से राग द्वेष परिहार (त्याग) रूप सामायिक है अथवा शुद्ध आत्म-अनुभव के बल से आर्त-रौद्र-ध्यान के त्याग स्वरूप सामायिक है अथवा समस्त सुख-दुखों में मध्यस्थ भावरूप सामायिक है । अब छेदोपस्थापन का कथन करते हैं- जब एक ही साथ समस्त विकल्पों के त्यागरूप परम सामायिक में स्थित होने में यह जीव असमर्थ होता है, तब “समस्त हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म तथा परिग्रह से विरति सो व्रत है" इन पाँच प्रकार भेद विकल्प रूप व्रतों का छेद होने से राग आदि विकल्परूप सावद्यों से अपने आपको छुड़ा कर निज शुद्ध आत्मा में अपने को उपस्थापन करना छेदोपस्थापना है । अथवा छेद अर्थात् व्रत का भंग होने पर निर्विकार निज आत्मानुभवरूप निश्चय प्रायश्चित्त के बल से और उसके साधकरूप बहिरंग व्यवहार प्रायश्चित्त से निज आत्मा में स्थित होना, छेदोपस्थापन है । परिहार विशुद्धि का कथन करते हैं --

    जो जन्म से ३० वर्ष सुख से व्यतीत करके वर्ष पृथक्त्व (८ वर्ष) तक तीर्थंकर के चरणों में प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व को पढ़कर तीनों संध्याकालों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस गमन करता है ।१।

    इस गाथा में कहे क्रम अनुसार मिथ्यात्व, राग आदि विकल्प मलों का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग करके विशेष रूप से जो आत्म-शुद्धि अथवा निर्मलता, सो परिहारविशुद्धि चारित्र है । अब सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कहते हैं- सूक्ष्म अतीन्द्रिय निज शुद्ध आत्म-अनुभव के बल से सूक्ष्मलोभ नामक साम्पराय-कषाय का पूर्णरूप से उपशमन अथवा क्षपण (क्षय) जहाँ होता है सो सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र है । अब यथाख्यात चारित्र कहते हैं- जैसा निष्कम्प सहज शुद्ध-स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है, वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया, सो यथाख्यात चारित्र है ।

    अब गुणस्थानों में सामायिक आदि पाँच प्रकार के चारित्र का कथन करते हैं- प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक चार गुणस्थानों में सामायिक- छेदोपस्थापन ये दो चारित्र होते हैं । परिहारविशुद्धि चारित्र- प्रमत्त, अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में होता है । सूक्ष्म-साम्पराय चारित्र- एक सूक्ष्मसाम्पराय दसवें गुणस्थान में ही होता है । यथाख्यात चारित्र- उपशान्तकषाय, क्षीण कषाय, सयोगिजिन और अयोगिजिन इन चार गुणस्थानों में होता है । अब संयम के प्रतिपक्षी (संयमासंयम और असंयम) का कथन करते हैं- दार्शनिक आदि ग्यारह प्रतिमारूप संयमासंयम नाम वाला देश चारित्र, एक पंचम गुणस्थान में ही जानना चाहिए । असंयम-मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरत-सम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में होता है । इस प्रकार चारित्र का व्याख्यान समाप्त हुआ ।

    इस प्रकार भावसंवर के कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रय के साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग के निरूपण करने वाले जो वाक्य हैं, वे पापास्रव के संवर में कारण जानने चाहिए । जो व्यवहार रत्नत्रय से साध्य शुद्धोपयोगरूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं, वे पुण्य-पाप इन दोनों आस्रवों के संवर के कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए ।

    यहाँ सोम नामक राजसेठ कहता है कि हे भगवन्! इन व्रत, समिति आदिक संवर के कारणों में संवरानुप्रेक्षा ही सारभूत है, वही संवर कर देगी फिर विशेष प्रपंच से क्या प्रयोजन? भगवान् (नेमिचन्द्र) उत्तर देते हैं- मन, वचन, काय इन तीनों की गुप्तिस्वरूप निर्विकल्प ध्यान में स्थित मुनि के तो उस संवर अनुप्रेक्षा से ही संवर हो जाता है; किन्तु उसमें असमर्थ जीवों के अनेक प्रकार से संवर का प्रतिपक्षभूत मोह उत्पन्न होता है, इस कारण आचार्य व्रत आदि का कथन करते हैं ।

    क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानियों के ६७ और वैनयिकों के ३२, ऐसे कुल मिलाकर तीन सौ तिरेसठ भेद पाखण्डियों के हैं ॥१॥

    योग से प्रकृति और प्रदेश तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध होता है और जिसके कषाय का उदय नहीं है तथा कषायों का क्षय हो गया है, ऐसे उपशान्त कषाय व क्षीण कषाय और सयोगकेवली हैं उनमें तत्काल (एक समय वाला) बन्ध स्थिति का कारण नहीं है ॥२॥॥३५॥

    इस प्रकार संवर तत्त्व के व्याख्यान में दो सूत्रों द्वारा तृतीय स्थल समाप्त हुआ ।

    अब सम्यग्दृष्टि जीव के संवर-पूर्वक निर्जरा तत्त्व को कहते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – संक्षेप में भावसंवर के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – सात भेद हैं-१. व्रत, २. समिति, ३. गुप्ति, ४. धर्म, ५. अनुप्रेक्षा, ६. परिषहजय और ७. चारित्र।

    प्रश्न – विस्तार से भावसंवर के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – विस्तार से भावसंवर के ६२ भेद हैं-५ व्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा, २२ परीषहजय और ५ चारित्र।

    प्रश्न – व्रत किसे कहते हैं ? और उनके क्या नाम हैं ?

    उत्तर – पाँच पापों का त्याग करना व्रत है। व्रत ५ होते हैं-१. अिंहसाव्रत, २. सत्यव्रत, ३. अचौर्यव्रत, ४. ब्रह्मचर्यव्रत और ५. परिग्रहपरिमाणव्रत।

    प्रश्न – समिति किसे कहते हैं ? पाँच समितियाँ कौन-सी हैं ?

    उत्तर – जीवों की रक्षा के लिए यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने को समिति कहते हैं। पाँच समितियाँ हैं-१. ईर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदाननिक्षेपण समिति और ५. प्रतिष्ठापना समिति।

    प्रश्न – गुप्ति किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये ?

    उत्तर – संसार भ्रमण के कारणभूत मन, वचन, काय तीनों योगों का निग्रह करना गुप्ति है। उसके तीन भेद हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति।

    प्रश्न – धर्म किसे कहते हैं ? उसके दस भेद कौन-से हैं ?

    उत्तर – जो आत्मा को संसार के दु:खों से छुड़ाकर उत्तम सुख में प्राप्त करावे उसे धर्म कहते हैं। दस धर्म-१. उत्तम क्षमा, २. उत्तम मार्दव, ३. उत्तम आर्जव, ४. उत्तम शौच, ५. उत्तम सत्य, ६. उत्तम संयम, ७. उत्तम तप, ८. उत्तम त्याग, ९. उत्तम आकिञ्चन्य, १०. उत्तम ब्रह्मचर्य।

    प्रश्न – अनुप्रेक्षा का लक्षण व उसके बारह भेद बताइये ?

    उत्तर – शरीरादिक के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। बारह अनुप्रेक्षाएँ-१. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आस्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ और १२. धर्म।

    प्रश्न – परीषहजय किसे कहते हैं ? उसके बाईस भेदों के नाम बताइये।

    उत्तर – क्षुधा, तृषा (भूख-प्यास) आदि की वेदना होने पर कर्मों की निर्जरा के लिए उसे शान्त भावों से सह लेना परीषहजय कहलाता है। बाईस परीषह के नाम-१. क्षुधा, २. तृषा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक, ६. नाग्न्य,७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १९. सत्कार-पुरस्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान, २२. अदर्शन। इन २२ परीषहों को जीतना २२ प्रकार का परीषहजय है।

    प्रश्न – उपसर्ग और परीषह में क्या अन्तर है ?

    उत्तर – उपसर्ग कारण है और परीषह कार्य है।

    प्रश्न – चारित्र का लक्षण बताकर उसके भेद बताइये ?

    उत्तर – कर्मों के आस्रव में कारणभूत बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के रोकने को चारित्र कहते हैं। चारित्र पाँच प्रकार का होता है-१. सामायिक, २. छेदोपस्थापना, ३. परिहारविशुद्धि, ४. सूक्ष्मसाम्पराय और ५. यथाख्यात।

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    + निर्जरा का स्वरूप -
    जह कालेण तवेण य, भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण
    भावेण सडदि णेया, तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा ॥36॥
    द्रव निर्जरा है कर्म झरना और उसके हेतु जो ।
    तपरूप निर्मल भाव वे ही भावनिर्जर जानिये ॥३६॥
    अन्वयार्थ : [जह कालेण] कर्मों की स्थिति पूर्ण होने से [भुत्तरसं] जिसका फल भोगा जा चुका है ऐसा [कम्मपुग्गलं] कर्मरूप पुद्गल [जेण भावेण] जिस परिणाम से [सडदि] झड़ता (छूटता) है (वही परिणाम सविपाक भावनिर्जरा है) [य] और [तवेण] तप द्वारा [जेण भावेण] जिस (आत्म) परिणाम से [कम्मपुग्गलं] कर्मरूप पुद्गल [सडदि] झड़ता (छूटता) है (वही परिणाम अविपाक भावनिर्जरा है) तथा [जहकालेण] कर्मों की स्थिति पूर्ण होने से [य] अथवा [तवेण] तप द्वारा [कम्मपुग्गलं] (ज्ञानावरण आदि) कर्मरूप पुद्गल [सडदि] झड़ता (छूटता) है (वह सविपाक-द्रव्यनिर्जरा और अविपाक-द्रव्यनिर्जरा) [इदि णिज्जरा दुविहा] इस प्रकार निर्जरा दो प्रकार की [णेया] जाननी चाहिए ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    णेया इत्यादि सूत्र का व्याख्यान करते हैं । [णेया] जानना चाहिए । किसको? [णिज्जरा] भाव निर्जरा को । वह क्या है? निर्विकार परम चैतन्य चित्-चमत्कार के अनुभव से उत्पन्न सहज-आनन्द-स्वभाव सुखामृत के आस्वाद रूप, वह भाव निर्जरा है । यहाँ 'भाव' शब्द का अध्याहार (विवक्षा से ग्रहण) किया गया है । [जेण भावेण] जीव के जिस परिणाम से क्या होता है? [सडदि] जीर्ण होता है, गिरता है, गलता है अथवा नष्ट होता है । कौन? [कम्मपुग्गलं] कर्म-शत्रुओं का नाश करने वाले निज शुद्ध-आत्मा से विलक्षण कर्मरूपी पुद्गल द्रव्य । कैसा होकर? [भुत्तरसं] अपने उदयकाल में जीव को सांसारिक सुख तथा दुःख रूप रस देकर । किस कारण गलता है? [जहकालेण] अपने समय पर पकने वाले आम के फल के समान सविपाक निर्जरा की अपेक्षा, अन्तरंग में निज-शुद्ध-आत्म-अनुभव रूप परिणाम के बहिरंग सहकारी कारणभूत काललब्धि रूप यथासमय गलते हैं, मात्र यथाकाल से ही नहीं गलते किन्तु [तवेण य] बिना समय पके हुए आम आदि फलों के सदृश, अविपाक निर्जरा की अपेक्षा, समस्त परद्रव्यों में इच्छा के रोकने रूप अभ्यन्तर तप से और आत्म-तत्त्व के अनुभव को साधने वाले उपवास आदि बारह प्रकार के बहिरंग तप से भी गलते हैं । [तस्सडणं] उस कर्म का गलना द्रव्य निर्जरा है ।

    शंका – आपने जो पहले सडदि ऐसा कहा है उसी से द्रव्य निर्जरा प्राप्त हो गई, फिर सडणं इस शब्द का दुबारा कथन क्यों किया?

    समाधान – पहले जो सडदि शब्द कहा गया है, उससे निर्मल आत्मा के अनुभव को ग्रहण करने रूप भाव निर्जरा नामक परिणाम का सामर्थ्य कहा गया है, द्रव्य निर्जरा का कथन नहीं किया गया । इदि दुविहा इस प्रकार द्रव्य और भाव स्वरूप से निर्जरा दो प्रकार की जाननी चाहिए ।

    यहाँ शिष्य पूछता है कि जो सविपाक निर्जरा है, वह तो नरक आदि गतियों में अज्ञानियों के भी होती हुई देखी जाती है । इसलिए सम्यग्ज्ञानियों के सविपाक निर्जरा होती है, यह नियम नहीं है । इसका उत्तर यह है- यहाँ (मोक्ष प्रकरण में) जो संवर-पूर्वक निर्जरा है उसी को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वही मोक्ष का कारण है और जो अज्ञानियों के निर्जरा होती है वह तो गजस्नान (हाथी के स्नान) के समान निष्फल है, क्योंकि अज्ञानी जीव थोड़े कर्मों की तो निर्जरा करता है और बहुत से कर्मों को बाँधता है । इस कारण अज्ञानियों की निर्जरा का यहाँ ग्रहण नहीं है । सराग सम्यग्दृष्टियों के जो निर्जरा है, वह यद्यपि अशुभ कर्मों का नाश करती है (शुभ कर्मों का नाश नहीं करती) फिर भी संसार की स्थिति को थोड़ा करती है अर्थात् जीव के संसार-भ्रमण को घटाती है । उसी भव में तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य बन्ध का कारण हो जाती है और परम्परा से मोक्ष का कारण है । वीतराग सम्यग्दृष्टियों के पुण्य तथा पाप दोनों का नाश होने पर उसी भव में वह निर्जरा मोक्ष का कारण होती है । सो ही श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव ने कहा है -

    अज्ञानी जिन कर्मों का एक लाख करोड़ वर्षों में नाश करता है, उन्हीं कर्मों को ज्ञानी जीव मन-वचन-काय की गुप्ति द्वारा एक उच्छ्वास मात्र में नष्ट कर देता है ॥१॥

    शंका – सम्यग्दृष्टियों के 'वीतराग' विशेषण किस लिए लगाया है, क्योंकि राग आदि भाव हेय हैं, ये मेरे नहीं हैं ऐसा भेदविज्ञान होने पर, उसके राग का अनुभव होते हुए भी ज्ञानमात्र से ही मोक्ष हो जाता है?

    समाधान – अन्धकार में दो मनुष्य हैं, एक के हाथ में दीपक है और दूसरा बिना दीपक के है । उस दीपक रहित पुरुष को कुएँ तथा सर्प आदि का ज्ञान नहीं होता, इसलिए कुएँ आदि में गिरकर नाश होने में उसका दोष नहीं किन्तु हाथ में दीपक वाले मनुष्य का कुएँ में गिरने आदि से नाश होने पर, दीपक का कोई फल नहीं हुआ । जो कूपपतन आदि से बचता है उसके दीपक का फल है । इसी प्रकार जो कोई मनुष्य राग आदि हेय हैं, मेरे नहीं हैं इस भेदविज्ञान को नहीं जानता, वह तो कर्मों से बँधता ही है । दूसरा कोई मनुष्य भेदविज्ञान के होने पर भी जितने अंशों में रागादिक का अनुभव करता है, उतने अंशों से वह भेदविज्ञानी भी बँधता ही है, उसके रागादि के भेदविज्ञान का भी फल नहीं है । जो भेदविज्ञान होने पर राग आदि का त्याग करता है उसके भेदविज्ञान का फल है, ऐसा जानना चाहिए । सो ही कहा है -

    मार्ग में सर्प आदि से बचना, नेत्रों से देखने का यह फल है; देखकर भी सर्प के बिल में पड़ने वाले के नेत्र निरर्थक हैं ॥३६॥

    इस प्रकार निर्जरा तत्त्व के व्याख्यान में एक सूत्र द्वारा चौथा स्थल समाप्त हुआ ।

    अब मोक्षतत्त्व का कथन करते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    फल देकर आत्मा से कर्मों का एक देश अलग होना निर्जरा कहलाती है। कर्मों की स्थिति पूरी होने पर जब वे उदय में आते हैं और उनका फल भोग लिया जाता है तब वे निर्जीर्ण हो जाते हैं। वह सविपाक-निर्जरा है तथा अकाल में तप आदि के द्वारा कर्मों का उदय में आकर खिर जाना अविपाक निर्जरा है। ये दोनों भेद भाव-निर्जरा और द्रव्य-निर्जरा दोनों में ही हो जाते हैं।

    प्रश्न – निर्जरा किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये।

    उत्तर – बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना निर्जरा कहलाती है। निर्जरा के दो भेद हैं—१. भाव-निर्जरा, २. द्रव्य-निर्जरा। सविपाक और अविपाक निर्जरा के भेद से भी निर्जरा दो प्रकार की है।

    प्रश्न – भाव निर्जरा का स्वरूप बताओ।

    उत्तर – जिन परिणामों से बँधे हुए कर्म एकदेश झड़ जाते हैं उन परिणामों को भाव निर्जरा कहते हैं।

    प्रश्न – द्रव्य निर्जरा का लक्षण क्या है ?

    उत्तर – बँधे हुए द्रव्य कर्मों का एकदेश निर्जीर्ण होना द्रव्य निर्जरा है।

    प्रश्न – सविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?

    उत्तर – अपनी अवधि पाकर या फल देकर बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा समय के अनुसार पककर अपने आप गिरे हुए आम के समान होती है।

    प्रश्न – अविपाक निर्जरा का क्या स्वरूप है ?

    उत्तर – तपश्चरण के द्वारा समय से पहले ही बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना अविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा पाल में रखकर पकाये गये आम के समान होती है।

    प्रश्न – तप किसे कहते हैं तथा तप के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को प्रकट करने के लिये इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता है। मुख्यरूप से तप दो प्रकार का है—१. बाह्य तप तथा २. आभ्यन्तर तप।

    प्रश्न – बाह्य तप किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो बाहर से देखने में आता है अथवा जिसे सभी लोग पालन करते हैं, वह बाह्य तप है।

    प्रश्न – बाह्य तप के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – बाह्य तप के छह भेद हैं—१. अनशन, २. अवमौदर्य, ३.वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्तशय्यासन और ६. कायक्लेश।

    प्रश्न – आभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिन तपों का आत्मा से सीधा सम्बन्ध होता है वे आभ्यन्तर तप कहे जाते हैं।

    प्रश्न – आभ्यन्तर तप के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – आभ्यन्तर तप के छह भेद हैं—१. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैय्यावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग और ६. ध्यान।

    प्रश्न – प्रायश्चित तप के कितने भेद हैं, उनके नाम बतायें ?

    उत्तर – प्रायश्चित तप के नव भेद होते हैं—१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. परिहार, ९. उपस्थापना।

    प्रश्न – विनय के भेद तथा नाम बताइये ?

    उत्तर – विनय के चार भेद हैं—१. ज्ञान विनय, २. दर्शन विनय, ३. चारित्र विनय तथा ४. उपचार विनय।

    प्रश्न – वैय्यावृत्य तप के भेद व नाम बताइये ?

    उत्तर – वैय्यावृत्य तप के १० भेद हैं—१. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, ४. शैक्ष्य, ५. ग्लान, ६. गण, ७. कुल, ८. संघ, ९. साधु, १०. मनोज्ञ। इन दस प्रकार के मुनियों की सेवा करना दस प्रकार का वैय्यावृत्य है।

    प्रश्न – स्वाध्याय तप के भेद व नाम बताओ ?

    उत्तर – स्वाध्याय तप पाँच प्रकार का है—१. वाचना, २. पृच्छना, ३. अनुप्रेक्षा, ४. आम्नाय और ५. धर्मोपदेश।

    प्रश्न – व्युत्सर्ग तप के भेद व नाम बताइये ?

    उत्तर – व्युत्सर्ग तप के दो भेद हैं—बाह्य और आभ्यन्तर। धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहों का त्याग बाह्य व्युत्सर्ग है तथा क्रोधादि अशुभ भावों का त्याग करना आभ्यन्तर व्युत्सर्ग तप है।

    प्रश्न – ध्यान तप के भेद व नाम बताओ ?

    उत्तर – ध्यान तप के चार भेद हैं—१. आत्र्त ध्यान, २. रौद्र ध्यान, ३. धम्र्य ध्यान और ४. शुक्ल ध्यान।

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    + मोक्ष का स्वरूप और उसके भेद -
    सव्वस्स कम्मणो जो, खयहेदू अप्पणो हु परिणामो
    णेओ स भावमोक्खो, दव्वविमोक्खो य कम्मपुधभावो ॥37॥
    भावमुक्ती कर्मक्षय के हेतु निर्मलभाव हैं ।
    अर द्रव्यमुक्ती कर्मरज से मुक्त होना जानिये ॥३७ ॥
    अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [अप्पणो] आत्मा का [जो परिणामो] जो परिणाम [सव्वस्स कम्मणो] समस्त कर्मों के [खयहेदू] क्षय का कारण है [स] वह [भावमुक्खो ] भावमोक्ष है [य] और [कम्मपुहभावो] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का पृथक् हो जाना [दव्वविमोक्खो] द्रव्यमोक्ष [णेयो] जानना चाहिए ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    यद्यपि सामान्य रूप से सम्पूर्णतया कर्ममल-कलंक-रहित, शरीर रहित आत्मा के आत्यन्तिक-स्वाभाविक-अचिन्त्य-अद्भुत तथा अनुपम सकल विमल केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों का स्थान रूप जो अवस्थान्तर है, वही मोक्ष कहा जाता है; फिर भी भाव और द्रव्य के भेद से, वह मोक्ष दो प्रकार का होता है, यह वार्तिक पाठ है । सो इस प्रकार है - [णेयो स भावमोक्खो] वह भावमोक्ष जानना चाहिए । वह कौन? [अप्पणो हु परिणामो] निश्चय रत्नत्रय रूप कारण समयसाररूप आत्म-परिणाम । वह आत्मा का परिणाम कैसा है? [सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू] सब द्रव्यभावरूप मोहनीय आदि चार घातियाकर्मों के नाश का जो कारण है । द्रव्यमोक्ष को कहते हैं- [दव्वविमुक्खो] अयोगी गुणस्थान के अन्त समय में द्रव्यमोक्ष होता है । वह द्रव्यमोक्ष कैसा है? [कम्मपुहभावो] टंकोत्कीर्ण शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव स्वरूप परमात्मा से, आयु आदि शेष चार अघातिया कर्मों का भी सर्वथा पृथक् होना, भिन्न होना या विघटना, सो द्रव्यमोक्ष है ।

    उस मुक्तात्मा के सुख का वर्णन करते हैं - आत्मा उपादान कारण से सिद्ध, स्वयं अतिशययुक्त, बाधा से शून्य, विशाल, वृद्धि-ह्रास से रहित, विषयों से रहित, प्रतिद्वन्द्व (प्रतिपक्षता) से रहित, अन्य द्रव्यों से निरपेक्ष, उपमा रहित, अपार, नित्य, सर्वदा उत्कृष्ट तथा अनन्त सारभूत परमसुख उन सिद्धों के होता है ॥१॥

    शंका – कोई कहता है कि जो सुख इन्द्रियों से उत्पन्न होता है, वही सुख है; सिद्ध जीवों के इन्द्रियों तथा शरीर का अभाव है, इसलिए पूर्वोक्त अतीन्द्रिय सुख सिद्धों के कैसे हो सकता है?

    समाधान – सांसारिक सुख तो स्त्री-सेवन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषयों से ही उत्पन्न होता है किन्तु पाँचों इन्द्रियों के विषयों के व्यापार से रहित तथा निर्व्याकुल चित्त वाले पुरुषों को जो सुख है, वह अतीन्द्रिय सुख है, वह इस लोक में भी देखा जाता है । पाँचों इन्द्रियों तथा मन से उत्पन्न होने वाले विकल्पों से रहित तथा निर्विकल्प ध्यान में स्थित परम योगियों के राग आदि के अभाव से जो स्वसंवेद्य [अपने अनुभव में आने वाला] आत्मिक सुख है वह विशेष रूप से अतीन्द्रिय सुख है । भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित आत्मा के समस्त प्रदेशों में आह्लाद रूप पारमार्थिक परम सुख में परिणत मुक्त जीवों के जो अतीन्द्रिय सुख है, वह अत्यन्त विशेष रूप से अतीन्द्रिय है ।

    यहाँ शिष्य कहता है - संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का बन्ध होता है, इसी प्रकार कर्मों का उदय भी सदा होता रहता है, शुद्ध आत्म-ध्यान का प्रसंग ही नहीं तब मोक्ष कैसे होता है? इसका उत्तर देते हैं जैसे कोई बुद्धिमान् शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर विचार करता है कि "यह मेरे मारने का अवसर है", इसलिए पुरुषार्थ करके शत्रु को मारता है । इसी प्रकार कर्मों की भी सदा एक रूप अवस्था नहीं रहती, स्थिति और अनुभाग की न्यूनता होने पर जब कर्म लघु अर्थात् क्षीण होते हैं, तब बुद्धिमान भव्य जीव, आगम भाषा से क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पाँच लब्धियाँ हैं, इनमें चार तो सामान्य हैं (सभी जीवों को हो सकती हैं), करण लब्धि सम्यक्त्व होने के समय होती है ।१।

    इस गाथा में कही हुई पाँच लब्धियों से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्ध-आत्मा के सम्मुख परिणाम नामक निर्मल भावना विशेष रूप खड्ग से पौरुष करके, कर्म शत्रु को नष्ट करता है । अन्तःकोटाकोटि-प्रमाण कर्मस्थिति रूप तथा लता व काष्ठ के स्थानापन्न अनुभाग रूप से कर्मभार हल्का हो जाने पर भी यदि यह जीव आगम भाषा से अधःप्रवृत्तकरण,अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक और अध्यात्म भाषा से स्वशुद्ध-आत्मसन्मुख परिणामरूप ऐसी कर्मनाशक बुद्धि को किसी भी समय नहीं करेगा, तो यह अभव्यत्व गुण का ही लक्षण जानना चाहिए ।

    अन्य भी नौ दृष्टान्त मोक्ष के विषय में जानने योग्य हैं- रत्न, दीपक, सूर्य, दूध, दही, घी, पाषाण, सोना, चाँदी, स्फटिकमणि और अग्नि ।१।
    1. रत्न- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपी रत्नत्रयमयी होने से आत्मा रत्न के समान है ।
    2. दीपक- स्व-पर-प्रकाशक होने से आत्मा दीपक के समान है ।
    3. सूर्य- केवलज्ञानमयी तेज से प्रकाशमान होने से आत्मा सूर्य के समान है ।
    4. दूध-दही-घी- सार वस्तु होने से परमात्मारूपी आत्मा घी के समान है । संसारी आत्मा में परमात्मा शक्ति रूप से रहता जैसे दूध व दही में घी रहता है अतः संसारी आत्मा की अपेक्षा आत्मा दूध या दही के समान है ।
    5. पाषाण- टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव होने से आत्मा पाषाण के समान है ।
    6. सुवर्ण- कर्मरूपी कालिमा से रहित होने से आत्मा सुवर्ण के समान है ।
    7. चाँदी- स्वच्छ होने से आत्मा चाँदी के समान है ।
    8. स्फटिक- स्फटिक स्वभाव से निर्मल होने पर भी, हरी पीली काली डाँक के निमित्त से हरी पीली काली रूप परिणम जाती है और डाँक के अभाव में शुद्ध निर्मल हो जाती है । इसी प्रकार आत्मा, स्वभाव से निर्मल होने पर भी, कर्मोदय के निमित्त से राग-द्वेष-मोह रूप परिणमती है और कर्म के अभाव में शुद्ध निर्मल हो जाती है, अतः आत्मा स्फटिक के समान है ।
    9. अग्नि- जैसे अग्नि ईंधन को जलाती है, इसी प्रकार आत्मा कर्म रूपी ईंधन को जलाती है, अतः आत्मा अग्नि के समान है ।

    शंका – अनादिकाल से जीव मोक्ष जा रहे हैं, अतः यह जगत् कभी जीवों से बिल्कुल शून्य हो जायेगा?

    उत्तर – जैसे भविष्यत् काल सम्बन्धी समयों के क्रम से जाने पर यद्यपि भविष्यत्काल के समयों की राशि में कमी होती है फिर भी उसका अन्त नहीं होगा । इसीप्रकार जीवों के मुक्ति में जाने से यद्यपि जगत् में जीव-राशि की न्यूनता होती है, तो भी उस जीवराशि का अन्त नहीं होगा । यदि जीवों के मोक्ष जाने से शून्यता मानते हो तो पूर्वकाल में बहुत जीव मोक्ष गये हैं, तब भी इस समय जगत् में जीवों की शून्यता क्यों नहीं दिखाई पड़ती अर्थात् शून्यता नहीं हुई । और भी -

    अभव्य जीवों तथा अभव्यों के समान दूरान्दूर भव्य जीवों का मोक्ष नहीं है । फिर जगत् की शून्यता कैसे होगी ॥३७॥

    इस प्रकार संक्षेप से मोक्षतत्त्व के व्याख्यान रूप एक सूत्र से पंचम स्थल समाप्त हुआ ।

    अब इसके आगे छठे स्थल में "गाथा के पूर्वार्ध से पुण्य पाप रूप दो पदार्थों को और उत्तरार्ध से पुण्य प्रकृति तथा पाप प्रकृतियों की संख्या कहता हूँ" इस अभिप्राय को मन में रखकर, भगवान् इस सूत्र का प्रतिपादन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – मोक्ष किसे कहते हैं ? इसके भेद बताइये।

    उत्तर – समस्त कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष कहलाता है। मोक्ष के दो भेद हैं—भाव मोक्ष तथा द्रव्य मोक्ष।

    प्रश्न – मोक्ष कौन प्राप्त करते हैं ?

    उत्तर – भव्य जीव कर्मरहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।

    प्रश्न – क्या संसार के सभी जीव मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं ?

    उत्तर – नहीं, भव्य जीवों में ही मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता होती है।

    प्रश्न – भव्य किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को प्राप्त करने की योग्यता है, वे भव्य कहलाते हैं।

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    + पुण्य और पाप पदार्थ -
    सुह असुह भावजुत्ता, पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा
    सादं सुहउणाणं, गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥38॥
    शुभाशुभ परिणामयुत जिय पुण-पाप सातावेदनी ।
    शुभ आयु नामरु गोत्र पुण अवशेष तो सब पाप है ॥३८॥
    अन्वयार्थ : [खलु] निश्चय से [सुहअसुहभावजुत्ता] शुभ व अशुभ भाव से युक्त [जीवा] जीव [पुण्णं पावं] पुण्य और पापरूप [हवंति] होते हैं [सादं] सातावेदनीय [सुहाउ णामं गोदं] शुभायु, शुभनाम तथा उच्चगोत्र ये सब कर्म प्रकृतियाँ [पुण्णं] पुण्यरूप हैं [च] और [पराणि पावं] अन्य शेष सब कर्म प्रकृतियाँ पापरूप हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा] चिदानन्द एक-सहज-शुद्ध-स्वभाव से यह जीव, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि पर्यायरूप विकल्पों से रहित है, तो भी परम्परा-अनादि कर्मबन्ध पर्याय से पुण्य-पाप रूप होते हैं । कैसे होते हुए जीव पुण्य-पाप को धारण करते हैं? [सुहअसुहभावजुत्ता] मिथ्यात्वरूपी विष का वमन करो, सम्यग्दर्शन की भावना करो, उत्कृष्ट भक्ति करो और भाव नमस्कार में तत्पर होकर सदा ज्ञान में लगे रहो ॥१॥ पाँच महाव्रतों का पालन करो, क्रोध आदि चार कषायों का पूर्णरूप से निग्रह करो, प्रबल इन्द्रियों को विजय करो तथा बाह्य-अभ्यन्तर तप को सिद्ध करने में उद्योग करो ॥२॥

    इस प्रकार दोनों आर्याछन्दों में कहे हुए लक्षण सहित शुभ उपयोग रूप परिणाम से तथा उसके विपरीत अशुभ उपयोग रूप परिणाम से युक्त जीव, पुण्य-पाप को धारण करते हैं अथवा स्वयं पुण्यपाप रूप हो जाते हैं । अब पुण्य तथा पाप के भेद कहते हैं । [सादं सुहाउणामं गोदं पुण्णं] साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च-गोत्र ये कर्म तो पुण्य रूप हैं । [पराणि पावं च] इनसे भिन्न शेष पाप कर्म हैं । इस प्रकार -- सातावेदनीय एक, तिर्यञ्च-मनुष्य-देव ये तीन आयु, सुभग-यशःकीर्ति-तीर्थंकर आदि नामकर्म की सैंतीस और उच्च गोत्र ऐसे समुदाय से ४२ पुण्य प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । शेष ८२ पाप प्रकृतियाँ हैं ।

    इनमें १. दर्शनविशुद्धि, २. विनयसम्पन्नता, ३. शील और व्रतों का अतिचार रहित आचरण, ४. निरन्तर ज्ञान उपयोग, ५. संवेग, ६. शक्ति अनुसार त्याग, ७. शक्ति अनुसार तप, ८. साधुसमाधि, ९. वैयावृत्य करना, १०. अर्हन्तभक्ति, ११. आचार्यभक्ति, १२. बहुश्रुतभक्ति, १३. प्रवचनभक्ति, १४. आवश्यकों में हानि न करना, १५. मार्गप्रभावना और १६. प्रवचनवात्सल्य । ये तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के कारण हैं, इन सोलह भावनाओं से उत्पन्न तीर्थंकर नामकर्म विशिष्ट पुण्य है । इन सोलह भावनाओं में, परमागम भाषा से तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका आदि दोष ये पच्चीस सम्यग्दर्शन के दोष हैं ॥१॥ इस श्लोक में कहे हुए पच्चीस दोषों से रहित तथा अध्यात्म भाषा से निज शुद्ध-आत्मा में उपादेयरूप रुचि, ऐसी सम्यक्त्व की भावना ही मुख्य है, ऐसा जानना चाहिए ।

    शंका – सम्यग्दृष्टि जीव के तो पुण्य तथा पाप ये दोनों हेय हैं, फिर वह पुण्य कैसे करता है?

    समाधान – जैसे कोई मनुष्य अन्य देश में विद्यमान किसी मनोहर स्त्री के पास से आये हुए मनुष्यों का, उस स्त्री की प्राप्ति के लिए दान-सम्मान आदि करता है; ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव भी निज शुद्ध-आत्मा को ही भाता है; परन्तु जब चारित्रमोह के उदय से उस निज-शुद्धात्म-भावना भाने में असमर्थ होता है, तब दोषरहित परमात्मस्वरूप अर्हन्त-सिद्धों की तथा उनके आराधक आचार्य-उपाध्याय-साधु की परमात्मपद की प्राप्ति के लिए और विषय कषायों से बचने के लिए, पूजा-दान आदि से अथवा गुणों की स्तुति आदि से परम भक्ति करता है । उनसे और भोगों की वांछा आदि रूप निदान रहित परिणामों से तथा निःस्पृहवृत्ति से विशिष्ट पुण्य का आस्रव करता है, जैसे किसान चावलों के लिए खेती करता है, तो भी बिना इच्छा बहुत-सा पलाल (भूसा) मिल ही जाता है । उस पुण्य से स्वर्ग में इन्द्र, लौकान्तिक देव आदि की विभूति प्राप्त करके विमान तथा परिवार आदि सम्पदा को जीर्ण तृण के समान गिनता हुआ पंच महाविदेहों में जाकर देखता है ।

    प्रश्न – क्या देखता है?

    उत्तर – वह यह समवसरण है, वे ये वीतराग सर्वज्ञ भगवान् हैं, वे ये भेद-अभेद रत्नत्रय के आराधक गणधरदेव आदि हैं; जो पहले सुने थे, वे आज प्रत्यक्ष देखे, ऐसा मानकर धर्म-बुद्धि को विशेष दृढ़ करके चौथे गुणस्थान के योग्य आत्मभावना को न छोड़ता हुआ, भोग भोगता हुआ भी धर्मध्यान से काल को पूर्ण कर, स्वर्ग से आकर, तीर्थंकर आदि पद को प्राप्त होता है, तो भी पूर्व जन्म में भावित विशिष्ट-भेदज्ञान की वासना के बल से मोह नहीं करता, अतः जिनदीक्षा धारणकर पुण्य-पाप से रहित निज परमात्मध्यान के द्वारा मोक्ष जाता है । मिथ्यादृष्टि तो, तीव्र निदानबन्ध वाले पुण्य से भोग प्राप्त करने के पश्चात् अर्धचक्रवर्ती रावण आदि के समान नरक को जाता है एवं उक्त लक्षण वाले पुण्य-पाप रूप दो पदार्थ सहित पूर्वोक्त सात तत्त्व ही नौ पदार्थ हो जाते हैं । ऐसा जानना चाहिए ॥३८॥

    इस प्रकार श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव विरचित द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में 'आसवबंधण' आदि एक सूत्रगाथा, तदनन्तर १० गाथाओं द्वारा ६ स्थल, इस तरह समुदाय रूप से ११ गाथाओं द्वारा सात तत्त्व, नौ पदार्थों का प्रतिपादन करने वाला दूसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ॥२॥

    तृतीयोऽधिकारः

    अब आगे बीस गाथाओं तक मोक्ष-मार्ग का कथन करते हैं । उसके प्रारम्भ में प्रतिपादक प्रथम अन्तराधिकार है । उसके अनन्तर दुविहं पि मुक्खहेउं आदि बारह गाथाओं से ध्यान, ध्याता, ध्येय तथा ध्यान के फल को मुख्यता से कहने वाला द्वितीय अन्तराधिकार है । इस प्रकार इस तृतीय अधिकार की समुदाय से भूमिका है ।

    अब प्रथम ही सूत्र के पूर्वार्ध से व्यवहार मोक्ष-मार्ग का और उत्तरार्ध से निश्चय मोक्षमार्ग का कथन करते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    पुण्य और पाप पदार्थ भी भाव और द्रव्य की अपेक्षा दो-दो भेदरूप हो जाते हैं। उनमें से जीव के जो शुभ-अशुभ भाव हैं वे भाव पुण्य और भाव पाप हैं तथा पुद्गल कर्म की प्रकृतियों में से पुण्य प्रकृतियाँ द्रव्य-पुण्य और पाप प्रकृतियाँ द्रव्य-पाप हैं ऐसा समझना चाहिये।

    प्रश्न – पुण्य कितने प्रकार का होता है ?

    उत्तर – पुण्य दो प्रकार का होता है—भावपुण्य और द्रव्यपुण्य।

    प्रश्न – पाप कितने प्रकार का माना गया है ?

    उत्तर – पाप दो प्रकार का माना गया है—भावपाप और द्रव्यपाप।

    प्रश्न – भावपुण्य और द्रव्यपुण्य का क्या लक्षण है ?

    उत्तर – शुभ भावों को धारण करने वाले जीव भावपुण्य कहलाते हैं तथा कर्मों की प्रशस्त प्रकृतियों को द्रव्यपुण्य कहते हैं।

    प्रश्न – शुभ भाव कौन से हैं ?

    उत्तर – जीवों की रक्षा करना, सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अरहन्त भगवान की भक्ति करना, पंचपरमेष्ठी को नमन करना, गुरुभक्ति, वैय्यावृत्य, दान, दया, मैत्री, प्रमोद आदि शुभ भाव हैं।

    प्रश्न – अशुभ भाव कौन से कहलाते हैं ?

    उत्तर – हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाँच पाप करना, देव-शास्त्र-गुरु की उपासना नहीं करना, गुरुओं की निन्दा करना, दान, दया, संयम, तपादि का पालन नहीं करना, क्रोध, मान, माया, लोभादि पापरूप भाव अशुभ भाव कहलाते हैं।

    प्रश्न – पाप प्रकृतियाँ कितनी और कौनसी हैं ?

    उत्तर – पाप प्रकृतियाँ १०० हैं—घातिया कर्म की ४७, असातावेदनीय १, नीचगोत्र १, नरकायु १ और नामकर्म की ५० (नरकगति १, नरकगत्यानुपूर्वी १, तिर्यग्गति १, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी १, जाति में से आदि की ४ जातियाँ, संस्थान-अन्त के ५, संहनन-अंत के ५, स्पर्शादिक अशुभ २०, उपघात १, अप्रशस्त विहायोगति १, स्थावर १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, अनादेय १, अयश:कीर्ति १, अस्थिर १, अशुभ १, दुर्भग १, दु:स्वर १ और साधारण १)

    प्रश्न – पुण्य प्रकृतियाँ कितनी हैं और उनके क्या नाम हैं ?

    उत्तर – पुण्य प्रकृतियाँ ६८ हैं—सातावेदनीय १, तिर्यंच-मनुष्य-देवायु ३, उच्चगोत्र १, मनुष्य गति १, मनुष्यगत्यानुपूर्वी १, देवगति १, देवगत्यानुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय जाति १, शरीर ५, बंधन ५, संघात ५, अंगोपांग ३, शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श इन ४ के २० भेद, समचतुरस्रसंस्थान १, वङ्काऋषभनाराच संहनन, उपघात के बिना अगुरुलघु आदि ५ तथा प्रशस्तविहायोगति १, त्रस आदिक १२।

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    मोक्ष-अधिकार



    + व्यवहार और निश्चय मोक्ष मार्ग -
    सम्मद्दंसण णाणं, चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे
    ववहारा णिच्चयदो, तत्तियमइयो णिओअप्पा ॥39॥
    सम्यग्दरशसद्ज्ञानचारित्र मुक्तिमग व्यवहार से ।
    इन तीन मय शुद्धातमा है मुक्तिमग परमार्थ से ॥३९॥
    अन्वयार्थ : [ववहारा] व्यवहारनय से [सम्मद्दंसण-णाणं चरणं] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को तथा [णिच्छयदो] निश्चयनय से [तत्तियमइओ] इन तीनों स्वरूप वाले [णिओ अप्पा] निज आत्मा को ही [मोक्खस्स कारणं] मोक्ष का कारण [जाणे] जानो ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [सम्मद्दंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे ववहारा] हे शिष्य! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (इन तीनों के समुदाय) को व्यवहारनय से मोक्ष का कारण जानो । [णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र इन तीनमयी निज आत्मा ही निश्चयनय से मोक्ष का कारण है तथा श्री वीतराग सर्वज्ञदेव कथित छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थों का सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान और व्रत आदि रूप आचरण, इन विकल्पमयी व्यवहार मोक्षमार्ग है । निज निरंजन शुद्ध-बुद्ध आत्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण में एकाग्रपरिणति रूप निश्चय मोक्षमार्ग है । अथवा स्वशुद्धात्म-भावना का साधक व बाह्य पदार्थ के आश्रित व्यवहार मोक्षमार्ग है । मात्र स्वानुभव से उत्पन्न व रागादि विकल्पों से रहित सुख अनुभवन रूप निश्चय मोक्षमार्ग है । अथवा धातु-पाषाण से सुवर्ण प्राप्ति में अग्नि के समान जो साधक है, वह तो व्यवहार मोक्षमार्ग है तथा सुवर्ण समान निर्विकार निज-आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति रूप साध्य, वह निश्चय मोक्षमार्ग है । इस प्रकार संक्षेप से व्यवहार तथा निश्चय मोक्षमार्ग जानना चाहिए ॥३९॥

    अब अभेद से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप, निज शुद्ध-आत्मा ही है कारण, इस निश्चय से आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग है, इस प्रकार कथन करते हैं । अथवा पूर्वोक्त निश्चय मोक्षमार्ग को ही अन्य प्रकार से दृढ़ करते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – मोक्ष क्या है ?

    उत्तर – आत्मा से आठों कर्मों का पूर्णरूप से अलग हो जाना मोक्ष है।

    प्रश्न – मोक्ष मार्ग कितने प्रकार का है?

    उत्तर – दो प्रकार का है-व्यवहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्ग।

    प्रश्न – व्यवहार मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ?

    उत्तर – व्यवहारनय से सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है।

    प्रश्न – निश्चय मोक्षमार्ग क्या है ?

    उत्तर – रत्नत्रय युक्त आत्मा को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं।

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    + आत्मा ही निश्चयनय से मोक्ष मार्ग है -
    रयणत्तयं ण वट्टइ, अप्पाणं मुयत्तु अण्णदवियम्हि
    तम्हा तत्तियमइयो, होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा ॥40॥
    आत्मा से भिन्न द्रव्यों में रहें न रत्नत्रय ।
    बस इसलिए ही रतनत्रयमय आतमा ही मुक्तिमग ॥४०॥
    अन्वयार्थ : [रयणत्तयं] रत्नत्रयरूप धर्म [अप्पाणं मुइत्तु] आत्मा को छोड़कर [अण्णदवियम्हि] अन्य द्रव्य में [ण वट्टइ] नहीं रहता [तम्हा] इस कारण से [तत्तियमइओ आदा] इन तीनों मय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र सहित आत्मा ही [हु] निश्चय से [मोक्खस्स कारणं] मोक्ष का कारण [होदि] होती है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्हि] निज शुद्ध-आत्मा को छोड़कर अन्य अचेतन द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता है । [तम्हा तत्तियमइओ होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा] इस कारण इस रत्नत्रयमय आत्मा को ही निश्चय से मोक्ष का कारण जानो । इसका विस्तृत वर्णन है - राग आदि विकल्प रहित, चित्चमत्कार भावना से उत्पन्न, मधुर रस के आस्वादरूप सुख का धारक 'मैं हूँ' इस प्रकार निश्चय रुचि सम्यग्दर्शन है और स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा उसी सुख का राग आदि समस्त विभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है । इसी प्रकार देखे, सुने तथा अनुभव किये हुए जो भोग आकांक्षा आदि समस्त दुर्ध्यानरूप मनोरथ से उत्पन्न हुए संकल्प-विकल्प जाल के त्याग द्वारा, उसी सुख में रत-सन्तुष्ट-तृप्त तथा एकाकार रूप परम समता भाव से द्रवीभूत [भीगे] चित्त का पुनः पुनः स्थिर करना सम्यक्चारित्र है । इस प्रकार कहे हुए लक्षण वाले जो रत्नत्रय हैं, वे शुद्ध आत्मा के सिवाय अन्य घट, पट आदि बाह्य द्रव्यों में नहीं रहते, इस कारण अभेद से अनेक द्रव्यमयी एक पेय (बादाम, सौंफ, मिश्री, मिर्च आदि रूप ठण्डाई) के समान, वह आत्मा ही सम्यग्दर्शन है, वह आत्मा ही सम्यग्ज्ञान है, वह आत्मा ही सम्यक्चारित्र है तथा वही निज आत्मतत्त्व है । इस प्रकार कहे हुए लक्षण वाले निज शुद्ध-आत्मा को ही मुक्ति का कारण जानो ॥४०॥

    इस प्रकार प्रथम स्थल में दो गाथाओं द्वारा संक्षेप से निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग का स्वरूप व्याख्यान करके अब आचार्य दूसरे स्थल में छह गाथाओं तक सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का क्रम से वर्णन करते हैं । उनमें प्रथम ही सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में कहते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – निश्चयनय से रत्नत्रययुक्त आत्मा ही मोक्ष का कारण क्यों है ?

    उत्तर – क्योंकि रत्नत्रय आत्मा अर्थात् जीवद्रव्य को छोड़कर अन्य में नहीं पाया जाता है।

    प्रश्न – वे रत्नत्रय कौन से हैं ?

    उत्तर – १. सम्यग्दर्शन २. सम्यक्ज्ञान ३. सम्यक्चारित्र।

    प्रश्न – निश्चय मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ?

    उत्तर – अभेद रत्नत्रय को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं।

    प्रश्न – अभेद रत्नत्रय किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का भेद नहीं है, अभेदरूप परिणति है, उसको अभेद रत्नत्रय कहते हैं।

    प्रश्न – व्यवहार मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ?

    उत्तर – भेदरूप रत्नत्रय के पालन को व्यवहार मोक्षमार्ग कहते हैं।

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    + व्यवहार सम्यग्दर्शन -
    जीवादीसद्दहणं, सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु
    दुरभिणिवेसविमुक्कं, णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि ॥41॥
    जीवादि का श्रद्धान समकित जो कि आत्मस्वरूप है ।
    और दुरभिनिवेश विरहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥४१॥
    अन्वयार्थ : [जीवादीसद्दहणं] जीवादि (सात तत्त्वों) का यथार्थ श्रद्धान करना [सम्मत्तं] सम्यक्त्व है [तं] वह [अप्पणो रूवं] आत्मा का स्वभाव है [तु] और [जम्हि] जिस (सम्यग्दर्शन) के [सदि] होने पर [णाणं खु] ज्ञान निश्चय से [दुरभिणिवेसविमुक्कं] विपरीत अभिप्राय (संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय ) से रहित होता हुआ [सम्मं होदि] सम्यक हो जाता है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं] वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए शुद्ध जीव आदि तत्त्वों में, चल-मलिन-अगाढ़ रहित श्रद्धान, रुचि, निश्चय अथवा 'जो जिनेन्द्र ने कहा वही है, जिस प्रकार से जिनेन्द्र ने कहा है उसी प्रकार है' ऐसी निश्चय रूप बुद्धि सम्यग्दर्शन है; [रूवमप्पणो तं तु] वह सम्यग्दर्शन अभेद नय से स्वरूप है; किसका स्वरूप है? आत्मा का, आत्मा का परिणाम है । उस सम्यग्दर्शन के सामर्थ्य अथवा माहात्म्य को दिखाते हैं - [दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्म खु होदि सदि जम्हि] जिस सम्यक्त्व के होने पर ज्ञान सम्यक् हो जाता है । सम्यक् किस प्रकार होता है? [दुरभिणिवेसविमुक्कं] (यह पुरुष है या काठ का ठूठ है, ऐसे दो कोटि रूप) चलायमान संशयज्ञान, गमन करते हुए तृण आदिक के स्पर्श होने पर, यह निश्चय न होना कि किसका स्पर्श हुआ है, ऐसा विभ्रम (अनध्यवसाय) ज्ञान तथा सीप के टुकड़े में चाँदी का ज्ञान, ऐसा विमोह (विपर्यय) ज्ञान, इन तीनों दोषों से (दूषित ज्ञानों से) रहित हो जाने से वह ज्ञान सम्यक् हो जाता है ।

    विस्तार से वर्णन - सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है, यह जो कहा गया है, उसका विवरण कहते हैं -- पाँच सौ-पाँच सौ ब्राह्मणों को पढ़ाने वाले गौतम, अग्निभूति और वायुभूति नामक तीन ब्राह्मण विद्वान् चारों वेद-ज्योतिष्क, व्याकरण आदि छहों अंग, मनुस्मृति आदि अठारह स्मृति ग्रन्थ, महाभारत आदि अठारह पुराण तथा मीमांसा न्यायविस्तर आदि समस्त लौकिक शास्त्रों के ज्ञाता थे तो भी उनका ज्ञान, सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञान ही था, परन्तु जब वे प्रसिद्ध कथा के अनुसार श्री महावीर स्वामी तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में मानस्तम्भ के देखने मात्र से ही आगमभाषा में दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के उपशम और क्षय से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्धआत्मा के सम्मुख परिणाम तथा काल आदि लब्धियों के विशेष से उनका मिथ्यात्व नष्ट हो गया, तब उनका वही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो गया । सम्यग्ज्ञान होते ही 'जयति भगवान्' इत्यादि रूप से भगवान् को नमस्कार करके, श्री जिनदीक्षा धारण करके केशलोंच के अनन्तर ही मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार ज्ञान तथा सात ऋद्धि के धारक होकर तीनों ही गणधर हो गये । गौतमस्वामी ने भव्यजीवों के उपकार के लिए द्वादशांगश्रुत की रचना की, फिर वे तीनों ही निश्चयरत्नत्रय की भावना के बल से मोक्ष को प्राप्त हुए । वे पन्द्रह सौ ब्राह्मण शिष्य मुनि-दीक्षा लेकर यथासम्भव स्वर्ग या मोक्ष में गये । ग्यारह अंगों का पाठी होकर भी अभव्यसेन मुनि सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञानी ही रहा । इस प्रकार सम्यक्त्व के माहात्म्य से मिथ्याज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम (समता, कषायों की मन्दता) ध्यान आदि वे सब सम्यक् हो जाते हैं । विष मिले हुए दुग्ध के समान सम्यक्त्व के बिना ज्ञान, तपश्चरणादि सब वृथा हैं, ऐसा जानना चाहिए ।

    वह सम्यक्त्व पच्चीस दोषों से रहित होता है । उन पच्चीस दोषों में देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता तथा समयमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं ।

    क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोष रहित, अनन्तज्ञान आदि अनन्तगुण सहित वीतराग सर्वज्ञदेव के स्वरूप को न जानता हुआ जो व्यक्ति ख्याति-पूजा-लाभ रूप-लावण्य-सौभाग्य-पुत्र-स्त्री-राज्य आदि सम्पदा की प्राप्ति के लिए, रागद्वेष युक्त तथा आर्तरौद्र ध्यानरूप परिणामों वाले क्षेत्रपाल, चण्डिका आदि मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना करता है; उस आराधना को देवमूढ़ता कहते हैं ।

    वे देव कुछ भी फल नहीं देते ।

    प्रश्न – फल कैसे नहीं देते?

    उत्तर – रामचन्द्र और लक्ष्मण के विनाश के लिए रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की; कौरवों ने पाण्डवों का सत्तानाश करने के लिए कात्यायनी विद्या सिद्ध की तथा कंस ने कृष्ण नारायण के नाश के लिए बहुत सी विद्याओं की आराधना की; परन्तु उन विद्याओं द्वारा रामचन्द्र, पाण्डव और कृष्ण नारायण का कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ । रामचन्द्र आदि ने मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना नहीं की, तो भी निर्मल सम्यग्दर्शन से उपार्जित पूर्व भव के पुण्य द्वारा उनके सब विघ्न दूर हो गये ।

    अब लोक-मूढ़ता कहते हैं - "गंगा आदि नदीरूप तीर्थों में स्नान, समुद्र में स्नान, प्रातःकाल में स्नान, जल में प्रवेश करके मरना, अग्नि में जलकर मरना, गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथ्वी, अग्नि और बड़ वृक्ष आदि की पूजा करना, ये सब पुण्य के कारण हैं ।" इस प्रकार जो कहते हैं उसको लोकमूढ़ता जानना चाहिए । लौकिक-पारमार्थिक, हेय-उपादेय व स्व-पर ज्ञानरहित अज्ञानी जनों की कुल परिपाटी से आया हुआ और अन्य भी जो धर्म आचरण है उसको भी लोकमूढ़ता जानना चाहिए ।

    अब समयमूढ़ता (शास्त्रमूढ़ता या धर्ममूढ़ता) कहते हैं - अज्ञानी लोगों को चित्तचमत्कार (आश्चर्य) उत्पन्न करने वाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदि को देखकर, वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए धर्म को छोड़कर, मिथ्यादेवों को, मिथ्याआगम को और खोटा तप करने वाले कुलिंगियों को भयवांछा-स्नेह और लोभ से धर्म के लिए प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार आदि करना, सो समयमूढ़ता है । इन उक्त तीन मूढ़ताओं को सरागसम्यग्दृष्टि अवस्था में त्यागना चाहिए । मन-वचन-काय-गुप्ति रूप अवस्था वाले वीतराग सम्यक्त्व के प्रकरण में अपना निरंजन तथा निर्दोष परमात्मा ही देव है ऐसी निश्चय बुद्धि ही देवमूढ़ता का अभाव जानना चाहिए तथा मिथ्यात्व राग आदि रूप मूढभावों का त्याग करने से जो निज शुद्ध-आत्मा में स्थिति है, वही लोकमूढ़ता से रहितता है । इसी प्रकार सम्पूर्ण शुभअशुभ संकल्प-विकल्प रूप परभावों के त्याग से तथा निर्विकार-वास्तविक-परमानन्दमय परमसमता-भाव से निज शुद्ध-आत्मा में ही जो सम्यक् प्रकार से अयन, गमन अथवा परिणमन है, उसको समयमूढ़ता का त्याग समझना चाहिए । इस प्रकार तीन मूढ़ता का व्याख्यान हुआ ।

    अब आठ मदों का स्वरूप कहते हैं- १. विज्ञान (कला), २. ऐश्वर्य (धन सम्पत्ति), ३. ज्ञान, ४. तप, ५. कुल, ६. बल, ७. जाति और ८. रूप, इन आठों सम्बन्धी मदों का त्याग सरागसम्यग्दृष्टियों को करना चाहिए । मान कषाय से उत्पन्न होने वाले मद मात्सर्य (ईर्ष्या) आदि समस्त विकल्प-समूह, उनके त्याग द्वारा, ममकार-अहंकार से रहित निज शुद्ध-आत्मा में भावना ही वीतराग सम्यग्दृष्टियों के आठ मदों का त्याग है । ममकार तथा अहंकार का लक्षण कहते हैं- कर्मजनित देह, पुत्र-स्त्री आदि में "यह मेरा शरीर है, यह मेरा पुत्र है" इस प्रकार की जो बुद्धि है वह ममकार है और उन शरीर आदि में अपनी आत्मा से भेद न मानकर जो "मैं गोरा हूँ, मोटा हूँ, राजा हूँ" इस प्रकार मानना सो अहंकार का लक्षण है ।

    अब छह अनायतनों का कथन करते हैं- १. मिथ्यादेव, २. मिथ्यादेवों के सेवक, ३. मिथ्यातप, ४. मिथ्यातपस्वी, ५. मिथ्याशास्त्र और ६. मिथ्याशास्त्रों के धारक इस प्रकार के छह अनायतन सरागसम्यग्दृष्टियों को त्याग करने चाहिए । वीतराग सम्यग्दृष्टि जीवों के तो सम्पूर्ण दोषों के स्थानभूत मिथ्यात्व-विषय-कषायरूप आयतनों के त्यागपूर्वक, केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों के स्थानभूत निज शुद्ध-आत्मा में निवास ही, अनायतनों की सेवा का त्याग है । अनायतन शब्द के अर्थ को कहते हैं- सम्यक्त्व आदि गुणों का आयतन घर-आवास-आश्रय (आधार) करने का निमित्त, उसको 'आयतन' कहते हैं और उससे विपरीत 'अनायतन' है ।

    अब इसके अनन्तर शंका आदि आठ दोषों के त्याग का कथन करते हैं - निःशंक आदि आठ गुणों का जो पालन करना है, वही शंकादि आठ दोषों का त्याग कहलाता है । वह इस प्रकार है- राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनों असत्य बोलने में कारण हैं और ये दोनों ही वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव में नहीं हैं; इस कारण श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा निरूपित हेयोपादेयतत्त्व में (यह त्याज्य है, यह ग्राह्य है), मोक्ष में और मोक्षमार्ग में भव्यजीवों को शंका, संशय या सन्देह नहीं करना चाहिए । यहाँ शंका दोष के त्याग के विषय में अंजनचोर की कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध है, विभीषण की कथा भी इस प्रकरण में प्रसिद्ध है तथा-सीता हरण के प्रसंग में जब रावण का राम-लक्ष्मण के साथ युद्ध करने का अवसर आया, तब विभीषण ने विचार किया कि रामचन्द्र तो आठवें बलदेव हैं और लक्ष्मण आठवें नारायण हैं तथा रावण आठवाँ प्रतिनारायण है । प्रतिनारायण का मरण नारायण के हाथ से होता है, ऐसा जैन शास्त्रों में कहा गया है, वह मिथ्या नहीं हो सकता, इस प्रकार निःशंक होकर अपने बड़े भाई तीन लोक के कण्टक 'रावण' को छोड़कर, अपनी तीस अक्षौहिणी चतुरंग (हाथी, घोड़ा, रथ, पयादे) सेना सहित रामचन्द्र के समीप चला गया । इसी प्रकार देवकी तथा वसुदेव भी निःशंक जानने चाहिए । जब कंस ने देवकी के बालक को मारने के लिए प्रार्थना की, तब देवकी और वसुदेव ने विचार किया कि हमारा पुत्र नवमा नारायण होगा और उसके हाथ से जरासिन्धु नामक नवमें प्रतिनारायण का और कंस का भी मरण होगा; यह जैनागम में कहा है और श्री भट्टारक अतिमुक्त स्वामी ने भी ऐसा ही कहा है, इस प्रकार निश्चय करके कंस को अपना बालक देना स्वीकार किया । इसी प्रकार अन्य भव्य जीवों को भी जैनआगम में शंका नहीं करनी चाहिए । यह व्यवहारनय से निःशंकित अंग का व्याख्यान किया । निश्चयनय से उस व्यवहार निःशंक गुण की सहायता से, १. इहलोक का भय, २. परलोक का भय, ३. अरक्षा का भय, ४. अगुप्ति (रक्षा स्थान के अभाव का) भय, ५. मरण भय, ६. व्याधि-वेदना भय, ७. आकस्मिक भय । इन सात भयों को छोड़कर घोर उपसर्ग तथा परीषहों के आ जाने पर भी, शुद्ध उपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय की भावना को ही निःशंकित गुण जानना चाहिए ॥१॥

    अब निष्कांक्षित गुण का कथन करते हैं- इहलोक तथा परलोक सम्बन्धी आशारूप भोगाकांक्षानिदान के त्याग द्वारा केवलज्ञान आदि अनन्तगुणों की प्रकटतारूप मोक्ष के लिए दानपूजा-तपश्चरण आदि करना, निष्कांक्षित गुण कहलाता है । इस गुण में अनन्तमती की कथा प्रसिद्ध है । दूसरी सीता देवी की कथा है । उसे कहते हैं- लोक की निन्दा को दूर करने के लिए सीता अग्निकुण्ड में प्रवेश होकर जब निर्दोष सिद्ध हुई, तब श्री रामचन्द्र द्वारा दिये गए पट्ट महारानी पद को छोड़कर, केवलज्ञानी श्री सकलभूषण मुनि के पादमूल में, कृतान्तवक्र आदि राजाओं तथा बहुत सी रानियों के साथ, जिनदीक्षा ग्रहण करके शशिप्रभा आदि आर्यिकाओं के समूह सहित ग्राम, पुर, खेटक आदि में विहार द्वारा भेदाभेदरूप रत्नत्रय की भावना से बासठ वर्ष तक जिनमत की प्रभावना करके, अन्त समय में तैंतीस दिन तक निर्विकार परमात्मा के ध्यानपूर्वक समाधि-मरण करके अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुई । वहाँ निर्मल सम्यग्दर्शन के फल को देखकर धर्म के अनुराग से नरक में जाकर सीता ने रावण और लक्ष्मण को सम्बोधा । सीता अब स्वर्ग में है । आगे सीता का जीव स्वर्ग से आकर सकल चक्रवर्ती होगा और वे दोनों रावण तथा लक्ष्मण के जीव उसके पुत्र होंगे । पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में अपने पूर्वभवों को देखकर, परिवार सहित दोनों पुत्र तथा सीता के जीव जिनदीक्षा ग्रहण करके, भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से, वे तीनों पंच-अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र होंगे । वहाँ से आकर रावण तीर्थंकर होगा और सीता का जीव गणधर होगा । लक्ष्मण धातकीखण्डद्वीप में तीर्थंकर होंगे । इस प्रकार व्यवहार निष्कांक्षितगुण का स्वरूप जानना चाहिए । उसी व्यवहार निष्कांक्षा गुण की सहायता से देखे-सुने-अनुभव किये हुए पाँचों इन्द्रिय-सम्बन्धी भोगों के त्याग से तथा निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न हुए पारमार्थिक व निज-आत्मिक सुखरूपी अमृत रस में चित्त का संतोष होना, वही निश्चय से निष्कांक्षागुण है ॥२॥

    अब निर्विचिकित्सा गुण कहते हैं । भेद-अभेदरूप रत्नत्रय के आराधक भव्य जीवों की दुर्गन्ध तथा बुरी आकृति आदि देखकर धर्मबुद्धि से अथवा करुणाभाव से यथायोग्य विचिकित्सा (ग्लानि) को दूर करना द्रव्य निर्विचिकित्सा गुण है । जैन मत में सब अच्छी-अच्छी बातें हैं, परन्तु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदि का न करना यही दूषण है, इत्यादि बुरे भावों को विशेष ज्ञान के बल से दूर करना वह भाव-निर्विचिकित्सा कहलाती है । इस व्यवहार निर्विचिकित्सा गुण को पालने के विषय में उद्दायन राजा तथा रुक्मिणी [कृष्ण की पटरानी] की कथा शास्त्र में प्रसिद्ध जाननी चाहिए । इसी व्यवहार निर्विचिकित्सा गुण के बल से समस्त राग-द्वेष आदि विकल्परूप तरंगों का त्याग करके, निर्मल आत्मानुभव रूप निजशुद्ध-आत्मा में जो स्थिति है वही निश्चय निर्विचिकित्सा गुण है ॥३॥

    अब अमूढदृष्टि गुण कहते हैं । वीतराग सर्वज्ञदेव-कथित शास्त्र से बहिर्भूत कुदृष्टियों के द्वारा बनाये हुए तथा अज्ञानियों के चित्त में विस्मय उत्पन्न करने वाले रसायनशास्त्र, खन्यवाद (खानिविद्या), हरमेखल, क्षुद्रविद्या, व्यन्तर विकुर्वणादि शास्त्रों को देखकर तथा सुनकर, जो कोई मूढभाव द्वारा धर्म-बुद्धि से उनमें प्रतीति तथा भक्ति नहीं करता, उसी को व्यवहार से 'अमूढदृष्टि' कहते हैं । इस विषय में, उत्तर मथुरा में उदुरुलि भट्टारक तथा रेवती श्राविका और चन्द्रप्रभ नामक विद्याधर ब्रह्मचारी सम्बन्धी कथायें शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं । इसी व्यवहार अमूढदृष्टि गुण के प्रसाद से आत्म-तत्त्व और शरीरादिक बहिर्तत्त्व का निश्चय हो जाने पर सम्पूर्ण मिथ्यात्व-राग आदि तथा शुभ अशुभ संकल्प-विकल्पों से इष्टबुद्धि-आत्मबुद्धि-उपादेयबुद्धि-हितबुद्धि और ममत्वभाव को छोड़कर, मन-वचन-काय गुप्ति के द्वारा विशुद्धज्ञान-दर्शन स्वभावमयी निज आत्मा में निश्चल ठहरना, निश्चय अमूढदृष्टि गुण है । संकल्प-विकल्प के लक्षण कहते हैं- पुत्र, स्त्री आदि बाह्य पदार्थों में ये मेरे हैं ऐसी कल्पना, संकल्प है । अंतरंग में "मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ" इस प्रकार हर्ष-विषाद करना, विकल्प है । अथवा संकल्प का वास्तव में क्या अर्थ है? वह विकल्प ही है अर्थात् संकल्प, विकल्प की ही पर्याय है ॥४॥

    अब उपगूहन गुण का कथन करते हैं । भेद-अभेद रत्नत्रय की भावनारूप मोक्षमार्ग स्वभाव से ही शुद्ध है तथापि उसमें जब कभी अज्ञानी मनुष्य के निमित्त से अथवा धर्म-पालन में असमर्थ पुरुषों के निमित्त से जो धर्म की चुगली, निन्दा, दूषण तथा अप्रभावना हो तब शास्त्र के अनुकूल, शक्ति के अनुसार, धन से अथवा धर्मोपदेश से, धर्म के लिए जो उसके दोषों का ढकना तथा दूर करना है, उसको व्यवहारनय से उपगूहन गुण कहते हैं । इस विषय में कथा है- एक कपटी ब्रह्मचारी ने पार्श्वनाथस्वामी की प्रतिमा में लगे हुए रत्न को चुराया । तब जिनदत्त सेठ ने जो उपगूहन किया, वह कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध है । अथवा रुद्र की ज्येष्ठा नामक माता की लोकनिन्दा होने पर, उसके दोष ढकने में चेलिनी महारानी की कथा शास्त्रप्रसिद्ध है । इस प्रकार व्यवहार उपगूहन गुण की सहायता से अपने निरंजन निर्दोष परमात्मा को आच्छादन करने वाले मिथ्यात्व-राग आदि दोषों को, उसी परमात्मा में सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप ध्यान के द्वारा ढकना, नाश करना, छिपाना तथा झम्पना वही निश्चय से उपगूहन है ॥५॥

    अब स्थितिकरण गुण कहते हैं । भेद-अभेद रत्नत्रय के धारक (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) चार प्रकार के संघ में से यदि कोई दर्शनमोहनीय के उदय से दर्शन-ज्ञान को या चारित्रमोहनीय के उदय से चारित्र को छोड़ने की इच्छा करे तो यथाशक्ति शास्त्रानुकूल धर्मोपदेश से, धन से या सामर्थ्य से या अन्य किसी उपाय से उसको धर्म में स्थिर कर देना, वह व्यवहार से स्थितिकरण है । पुष्पडाल मुनि को धर्म में स्थिर करने के प्रसंग में वारिषेण की कथा आगम-प्रसिद्ध है । उसी व्यवहार स्थितिकरण गुण से धर्म में दृढ़ता होने पर दर्शन-चारित्रमोहनीय के उदय से उत्पन्न समस्त मिथ्यात्व-राग आदि विकल्पों के त्याग द्वारा निज-परमात्म-स्वभाव भाव की भावना से उत्पन्न परम-आनन्द सुखामृत के आस्वादरूप परमात्मा में लीन अथवा परमात्मस्वरूप में समरसी भाव से चित्त का स्थिर करना, निश्चय से स्थितिकरण है ॥६॥

    अब वात्सल्य नामक सप्तम अंग का प्रतिपादन करते हैं । गाय-बछड़े की प्रीति के सदृश अथवा पाँचों इन्द्रियों के विषयों के निमित्तभूत पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदि में स्नेह की भाँति, बाह्य-आभ्यन्तर रत्नत्रय के धारक चारों प्रकार के संघ में स्वाभाविक स्नेह करना, वह व्यवहारनय से वात्सल्य कहा जाता है । हस्तिनागपुर के राजा पद्मराज के बलि नामक दुष्ट मन्त्री ने जब निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय के आराधक श्री अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर उपसर्ग किया तब निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग के आराधक विष्णुकुमार महामुनीश्वर ने विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से वामन रूप को धारण करके बलि नामक दुष्ट मन्त्री के पास से तीन पग प्रमाण पृथ्वी की याचना की और जब बलि ने देना स्वीकार किया, तब एक पग तो मेरु के शिखर पर दिया, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर दिया और तीसरे पाद को रखने के लिए स्थान नहीं रहा तब वचनछल से मुनियों के वात्सल्य निमित्त बलि मन्त्री को बाँध लिया । इस विषय में यह एक आगम-प्रसिद्ध कथा है । दशपुर नगर के वज्रकर्ण नामक राजा की दूसरी कथा इस प्रकार है-उज्जयिनी के राजा सिंहोदर ने "वज्रकर्ण जैन है और मुझको नमस्कार नहीं करता है", ऐसा विचार करके, वज्रकर्ण से नमस्कार कराने के लिए दशपुर नगर को घेर कर घोर उपसर्ग किया । तब भेदाभेद रत्नत्रय भावना के प्रेमी श्री रामचन्द्र ने वज्रकर्ण से वात्सल्य के लिए सिंहोदर को बाँध लिया । यह वात्सल्य सम्बन्धी कथा रामायण (पद्मपुराण) में प्रसिद्ध है । इसी व्यवहार-वात्सल्य गुण के सहकारीपने से धर्म में दृढ़ता हो जाने पर मिथ्यात्व, राग आदि समस्त शुभ-अशुभ बाह्य पदार्थों में प्रीति छोड़कर रागादि विकल्पों की उपाधि रहित परम स्वास्थ्य के अनुभव से उत्पन्न सदा आनन्दरूप सुखमय-अमृत के आस्वाद के प्रति प्रीति का करना ही निश्चय वात्सल्य है । इस प्रकार सप्तम वात्सल्य अंग का व्याख्यान हुआ ॥७॥

    अब अष्टम प्रभावनागुण कहते हैं । श्रावक को तो दान पूजा आदि द्वारा और मुनि को तप, श्रुत आदि से जैनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए । यह व्यवहार से प्रभावना गुण जानना चाहिए । इस गुण के पालने में, उत्तर मथुरा में जिनमत की प्रभावना करने की अनुरागिणी उर्विला महादेवी को प्रभावना सम्बन्धी उपसर्ग होने पर, वज्रकुमार नामक विद्याधर श्रमण ने आकाश में जैन रथ को फिराकर प्रभावना की, यह एक आगम प्रसिद्ध कथा है । दूसरी कथा यह है- उसी भव से मोक्ष जाने वाले हरिषेण नामक दसवें चक्रवर्ती ने जिनमत को प्रभावनाशील अपनी माता वप्रा महादेवी के निमित्त और अपने धर्मानुराग से जिनमत की प्रभावना के लिए ऊँचे तोरण वाले जिनमन्दिरों से समस्त पृथ्वीतल को भूषित कर दिया । यह कथा रामायण (पद्मपुराण) में प्रसिद्ध है । इसी व्यवहार प्रभावनागुण के बल से मिथ्यात्व-विषय-कषाय आदि सम्पूर्ण विभाव परिणामरूप पर समय के प्रभाव को नष्ट करके शुद्धोपयोग लक्षण वाले स्वसंवेदन ज्ञान से, निर्मल ज्ञानदर्शनरूप स्वभाव-वाली निज शुद्ध-आत्मा का जो प्रकाशन अथवा अनुभवन, वह निश्चय प्रभावना है ॥८॥

    इस प्रकार तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंका आदि रूप आठ दोषों से रहित तथा शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थों के श्रद्धानरूप सराग-सम्यक्त्व नामक व्यवहार-सम्यक् जानना चाहिए । इसी प्रकार उसी व्यवहार-सम्यक्त्व द्वारा परम्परा से साधने योग्य, शुद्ध-उपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न परम आह्लाद रूप सुखामृत रस का आस्वादन ही उपादेय है, इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय हैं, ऐसी रुचिरूप तथा वीतराग चारित्र का अविनाभावी वीतराग-सम्यक्त्व नामक निश्चय-सम्यक्त्व जानना चाहिए ।

    प्रश्न – यहाँ इस व्यवहारसम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चयसम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया गया?

    उत्तर – व्यवहारसम्यक्त्व से निश्चयसम्यक्त्व साधा [सिद्ध किया] जाता है, (व्यवहारसम्यक्त्व साधक और निश्चयसम्यक्त्व साध्य) इस साध्यसाधक भाव को बतलाने के लिए किया गया है ।

    अब जिन जीवों के सम्यग्दर्शन ग्रहण होने से पहले आयु का बन्ध नहीं हुआ है, व्रत के अभाव में भी निन्दनीय नर नारक आदि खोटे स्थानों में उनका जन्म नहीं होता, ऐसा कथन करते हैं । जिनके शुद्ध सम्यग्दर्शन है किन्तु अव्रती हैं वे भी नरकगति, तिर्यंचगति, नपुंसक, स्त्री, नीचकुल, अंगहीन-शरीर, अल्प-आयु और दरिद्रीपने को प्राप्त नहीं होते ।

    इसके आगे मनुष्य गति में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीवों का वर्णन करते हैं जो दर्शन से पवित्र हैं वे उत्साह, प्रताप, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और विभव से सहित उत्तम कुल वाले, विपुल धनशाली तथा मनुष्य शिरोमणि होते हैं । प्रकीर्णकदेव, वाहनदेव, किल्विषदेव तथा व्यन्तरभवनवासी-ज्योतिषी तीन नीच देवों के अतिरिक्त महाऋद्धि धारक देवों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं । जिन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण से पूर्व देव आयु को छोड़कर अन्य आयु बाँध ली है, अब उनके प्रति सम्यक्त्व का माहात्म्य कहते हैं- नीचे के ६ नरकों में ज्योतिषी-व्यन्तर-भवनवासी देवों में, सब स्त्रियों में और लब्ध्यपर्याप्तकों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता । नरक अपर्याप्तकों में सासादन सम्यग्दृष्टि नहीं होते ।

    इसी आशय को अन्य प्रकार से कहते हैं -- ज्योतिषी, भवनवासी और व्यन्तर देवों में, नीचे की ६ नरक-पृथिवियों में, तिर्यञ्चों (कर्मभूमि तिर्यञ्च, भोगभूमि तिर्यञ्चनियों में), मनुष्यनियों में तथा देवांगनाओं में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते ॥१॥

    औपशमिक, वेदक और क्षायिक नामक तीन सम्यक्त्वों में से किस गति में कौन-सा सम्यक्त्व हो सकता है, सो कहते हैं -- सौधर्म आदि स्वर्गों में, असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्चों में एवं मनुष्यों में और रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में (उपशम, वेदक, क्षायिक) तीनों सम्यक्त्व होते हैं ॥२॥

    जिसने आयु बाँध ली है या नहीं बाँधी ऐसे कर्मभूमि-मनुष्यों के तीनों सम्यक्त्व होते हैं । परन्तु अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व महर्द्धिक देवों में ही होता है । शेष देवों व तिर्यञ्चों में और नीचे की छह नरकभूमियों में पर्याप्त जीवों के वेदक और उपशम ये दो ही सम्यक्त्व होते हैं ॥३॥ इस प्रकार निश्चय-व्यवहार रूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग अवयवी का प्रथम अवयवभूत सम्यग्दर्शन का व्याख्यान करने वाली गाथा समाप्त हुई ॥४१॥

    अब रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग के द्वितीय अवयव रूप सम्यग्ज्ञान के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वो का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।

    प्रश्न – आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या माना गया है ?

    उत्तर – सम्यक्दर्शन आत्मा का वास्तविक स्वरूप होता है।

    प्रश्न – ज्ञान में समीचीनता कैसे आती है ?

    उत्तर – सम्यक्दर्शन के होने पर सम्पूर्ण ज्ञान समीचीन या सम्यक्ज्ञान बन जाता है।

    प्रश्न – सम्यक्ज्ञान निर्दोष कैसे बनता है ?

    उत्तर – १. संशय २. विपर्यय और ३. अनध्यवसाय, ये तीन चीजें जब ज्ञान में नहीं होती हैं तब वह ज्ञान, सम्यग्ज्ञान निर्दोष बनता है।

    प्रश्न – दुरभिनिवेश किसे कहते हैं ?

    उत्तर – संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को दुरभिनिवेश कहते हैं।

    प्रश्न – संशय किसे कहते हैं ?

    उत्तर – विरुद्ध नाना कोटि के स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। इसके होने पर किसी पदार्थ का निश्चय नहीं हो पाता, क्योंकि इसके होने पर बुद्धि सो जाती है-‘समीचीनतया बुद्धि: शेते यस्मिन् स: संशय:।’

    प्रश्न – विपर्यय किसे कहते है ?

    उत्तर – विपरीत एक कोटि को स्पर्श करने वाला ज्ञान विपर्यय कहलाता है। जैसे-सीप को चाँदी समझ लेना।

    प्रश्न – संशय और विपर्यय में क्या अन्तर है ?

    उत्तर – संशय में सीप है या चाँदी ? ऐसा संशय बना रहता है। निर्णय नहीं हो पाता, परन्तु विपर्यय में एक कोटि का निश्चय होता है। जैसे-सीप को सीप न समझकर चाँदी समझ लेना।

    प्रश्न – अनध्यवसाय किसे कहते हैं ?

    उत्तर – अध्यवसाय का अर्थ है निश्चय और इसका न होना अनध्यवसाय कहलाता है। जैसे रास्ते में चलते समय पैरों के नीचे अनेक चीजें आती हैं, पर उनमें से निश्चय किसी एक का भी नहीं हो पाता है, यही ज्ञान अनध्यवसाय कहलाता है।

    प्रश्न – ज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप कब होता है ?

    उत्तर – सम्यग्दर्शन के होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है।

    प्रश्न – सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप क्यों है ?

    उत्तर – आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों में सम्यग्दर्शन नहीं होता, इसलिए सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप है।

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    + सम्यग्ज्ञान का स्वरूप -
    संसयविमोह विब्भम, विवज्जियं अप्पपरसरूवस्स
    गहणं सम्मं णाणं; सायार-मणेयभेयं तु ॥42॥
    संशयविमोहविभरमविरहित स्वपर को जो जानता ।
    साकार सम्यग्ज्ञान है वह है अनेकप्रकार का ॥४२॥
    अन्वयार्थ : [संसयविमोहविब्भम-विवज्जियं] संशय (अनेक कोटि को स्पर्श करने वाला संदेहात्मक ज्ञान), विपर्यय (वस्तु धर्म के विपरीत परिचय कराने वाला ज्ञान) और अनध्यवसाय (पदार्थ के विषय में कुछ भी निर्णय नहीं होने रूप ज्ञान -- इन तीन दोषों) से रहित [अप्पपरसरूवस्स] अपने आत्मा के तथा पर पदार्थों के स्वरूप का [गहणं] ग्रहण करना [सायारं] साकार/सविकल्प [च] और [अणेयभेयं] अनेक भेद वाला [सम्मण्णाणं] सम्यग्ज्ञान है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [संसयविमोहविब्भमविवज्जियं] संशय - शुद्ध आत्मतत्त्व आदि का प्रतिपादक शास्त्र ज्ञान, क्या वीतराग-सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है या अन्य-मतियों द्वारा कहा हुआ सत्य है, यह संशय है । इसका दृष्टान्त है - स्थाणु (ठूँठ) है या मनुष्य । विमोह - परस्पर सापेक्ष द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक इन दो नयों के अनुसार द्रव्य-गुण-पर्याय आदि का नहीं जानना, विमोह है । इसका दृष्टान्त- गमन करते हुए पुरुष के पैर में तृण आदि का स्पर्श होने पर स्पष्ट ज्ञात नहीं होता क्या लगा, अथवा जंगल में दिशा का भूल जाना । विभ्रम - अनेकान्तात्मक वस्तु को "यह नित्य ही है, यह अनित्य ही है" ऐसे एकान्त रूप जानना, विभ्रम है । इसका दृष्टान्त- सीप में चाँदी और चाँदी में सीप का ज्ञान है । [विवज्जियं] इन पूर्वोक्त लक्षणों वाले संशय, विमोह और विभ्रम से रहित, [अप्पपरसरूवस्स गहणं] सहज शुद्ध केवलज्ञान-दर्शन स्वभाव निज आत्मस्वरूप का जानना और परद्रव्य का अर्थात् जीव सम्बन्धी भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म का एवं पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों का और परजीव के स्वरूप का जानना, सो [सम्मण्णाणं] सम्यग्ज्ञान है । वह कैसा है? [सायारं] यह घट है, यह वस्त्र है इत्यादि जानने रूप व्यापार से साकार, विकल्प सहित, व्यवसायात्मक तथा निश्चय रूप ऐसा 'साकार' का अर्थ है । और फिर कैसा है? [अणेयभेयं च] अनेक भेदों वाला है ।

    उस सम्यग्ज्ञान के भेद कहे जाते हैं -- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन भेदों से वह सम्यग्ज्ञान पाँच प्रकार का है । अथवा श्रुतज्ञान की अपेक्षा द्वादशांग और अंगबाह्य से दो प्रकार का है । उनमें द्वादश (१२) अंगों के नाम कहते हैं- १.आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३.स्थानांग, ४. समवायांग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग, ६. ज्ञातृकथांग,७. उपासकाध्ययनांग, ८.अन्तकृदशांग, ९. अनुत्तरोपपादिकदशांग, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाकसूत्रांग और १२. दृष्टिवादांग, ये द्वादश अंगों के नाम हैं । अब दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. पूर्वगत तथा ५. चूलिका; ये पाँच भेद हैं । उनका वर्णन करते हैं उनमें १. चन्द्रप्रज्ञप्ति, २. सूर्यप्रज्ञप्ति, ३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, इस तरह परिकर्म पाँच प्रकार का है । सूत्र एक ही प्रकार का है । प्रथमानुयोग भी एक ही प्रकार का है । पूर्वगत -- १. उत्पादपूर्व, २. अग्रायणीयपूर्व, ३. वीर्यानुप्रवादपूर्व, ४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ५. ज्ञानप्रवादपूर्व, ६. सत्यप्रवादपूर्व,७. आत्मप्रवादपूर्व, ८. कर्मप्रवादपूर्व, ९. प्रत्याख्यानपूर्व, १०. विद्यानुवादपूर्व, ११. कल्याणपूर्व, १२. प्राणानुवादपूर्व, १३.क्रियाविशालपूर्व, १४. लोकबिन्दुसारपूर्व, इन भेदों से चौदह प्रकार का है । १. जलगत चूलिका, २. स्थलगत चूलिका, ३. आकाशगत चूलिका, ४. हरमेखला आदि मायास्वरूप चूलिका और ५. शाकिन्यादिरूप परावर्तन चूलिका, इन भेदों से चूलिका पाँच प्रकार की है । इस प्रकार संक्षेप से द्वादशांग का व्याख्यान है और जो अंगबाह्य श्रुतज्ञान है वह १. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृतिकर्म, ७. दशवैकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १०. कल्पाकल्प, ११. महाकल्प, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक और १४. अशीतिक, इन प्रकीर्णकरूप भेदों से चौदह प्रकार का जानना चाहिए । अथवा इस प्रकार उक्त लक्षण वाले चार अनुयोग रूप चार प्रकार का श्रुतज्ञान जानना चाहिए । अनुयोग, अधिकार, परिच्छेद और प्रकरण इत्यादि शब्दों का एक ही अर्थ है । अथवा छह द्रव्य, पंच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नौ पदार्थों में निश्चयनय से मात्र अपना शुद्ध आत्मद्रव्य, अपना शुद्ध जीव अस्तिकाय, निजशुद्ध-आत्मतत्त्व तथा निज शुद्ध आत्म पदार्थ उपादेय है । शेष हेय हैं । इस प्रकार संक्षेप से हेय-उपादेय भेद वाला व्यवहार-ज्ञान दो प्रकार का है ।

    अब विकल्परूप व्यवहारज्ञान से साध्य निश्चयज्ञान का कथन करते हैं । जैसे कि इस प्रकार उक्त लक्षण वाले माया, मिथ्या और निदान-शल्य रूप विभाव परिणाम आदि समस्त शुभ-अशुभ, संकल्पविकल्प से रहित, परम निज-स्वभाव के अनुभव से उत्पन्न यथार्थ परमानन्द एक लक्षण स्वरूप सुखामृत के रसास्वादन से तृप्त ऐसी अपनी आत्मा द्वारा जो निजस्वरूप का संवेदन, जानना व अनुभव करना है, वही निर्विकल्प-स्वसंवेदनज्ञान-निश्चयज्ञान कहा जाता है ।

    यहाँ शिष्य शंका करता है -- उक्त प्रकार से प्राभृत (पाहुड) शास्त्र में जो विकल्प-रहित स्वसंवेदन ज्ञान कहा गया है, वह घटित नहीं होता । (यदि कहो) क्यों नहीं घटित होता, तो कहता हूँ- जैनमत में सत्तावलोकनरूप चक्षु आदि दर्शन, जैसे निर्विकल्प कहा जाता है; वैसे ही बौद्धमत में "ज्ञान निर्विकल्प कहलाता है किन्तु निर्विकल्प होते हुए भी विकल्प को उत्पन्न करने वाला कहा गया है ।" जैनमत में तो ज्ञान विकल्प को उत्पन्न करने वाला ही नहीं है किन्तु स्वरूप (स्वभाव) से ही विकल्प-सहित है और इसी प्रकार स्व-पर-प्रकाशक है ।

    शंका का परिहार - जैन सिद्धान्त में ज्ञान को कथंचित् सविकल्प और कथंचित् निर्विकल्प माना गया है । सो ही दिखाते हैं जैसे विषयों में आनन्दरूप जो स्व-संवेदन है, वह राग के जानने रूप विकल्प-स्वरूप होने से सविकल्प है, तो भी शेष अनिच्छित ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं । इसीप्रकार निज-शुद्ध-आत्मा के अनुभवरूप वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान, आत्म-संवेदन के आकाररूप एक विकल्पमयी होने से यद्यपि सविकल्प है, तथापि उस ज्ञान में बाह्य विषयों के अनिच्छित (नहीं चाहे हुए) विकल्पों का, सद्भाव होने पर भी, उनकी मुख्यता नहीं है, इस कारण उस स्व-संवेदन ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं । यहाँ अपूर्व स्व-संवित्ति के आकाररूप अन्तरंग में मुख्य प्रतिभास के होने पर भी, क्योंकि बाह्य विषय सम्बन्धी अनिच्छित सूक्ष्म विकल्प भी हैं; अतः ज्ञान स्व-पर-प्रकाशक भी सिद्ध हो जाता है । यदि इस सविकल्पनिर्विकल्प तथा स्व-पर-प्रकाशक ज्ञान का व्याख्यान आगमशास्त्र-अध्यात्मशास्त्र-तर्कशास्त्र के अनुसार विशेषरूप से किया जाता तो महान् विस्तार हो जाता किन्तु यह द्रव्यसंग्रह अध्यात्मशास्त्र है, इस कारण ज्ञान का विशेष व्याख्यान यहाँ नहीं किया गया ।

    इस प्रकार रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गरूप अवयवी के दूसरे अवयवरूप ज्ञान के व्याख्यान द्वारा गाथा समाप्त हुई ॥४२॥

    अब विकल्प रहित सत्ता को ग्रहण करने वाले दर्शन का कथन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    पदार्थ के आकार का 'यह घट है' इत्यादि विकल्प रूप जानना यह ज्ञान का लक्षण है।

    प्रश्न – सम्यक्ज्ञान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित व आकार सहित अपने और पर के स्वरूप का जानना सम्यक्ज्ञान कहलाता है।

    प्रश्न – सम्यक्ज्ञान के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – पाँच भेद हैं—(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन:-पर्ययज्ञान और (५) केवलज्ञान।

    प्रश्न – श्रुतज्ञान के दो भेद कौन से हैं ?

    उत्तर – अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट के भेद से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है।

    प्रश्न – अंगबाह्य श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो आरातीय (कुन्दकुन्दादि) आचार्यो के द्वारा रचित है, वह अंग- बाह्य कहलाता है।

    प्रश्न – अंगबाह्य के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – अंगबाह्य को प्रकीर्णक कहते हैं, उसके चौदह भेद हैं। वह चौदह भेद निम्न प्रकार हैं-सामायिक, चतुर्विंशति संस्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, अनुत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और अशीतिक।

    प्रश्न – अंग प्रविष्ट किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो गणधर के द्वारा तथा पूर्वधर के द्वारा रचित हैं, वह अंग प्रविष्ट कहलाते हैं।

    प्रश्न – अंग प्रविष्ट श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – अंग प्रविष्ट श्रुतज्ञान के बारह भेद हैं।

    प्रश्न – अंग प्रविष्ट के बारह भेद कौन-कौन से हैं ?

    उत्तर – आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग, ज्ञातृकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्न-व्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं।

    प्रश्न – चौदह पूर्व के नाम कौन-कौन से हैं ?

    उत्तर – उत्पादपूर्व, अग्रणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञान प्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्माप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुप्रवादपूर्व, कल्याणवादपूर्व, प्राणानुप्रवादपूर्व, क्रियाविशालपूर्व, लोकबिन्दु- सारपूर्व ये चौदह पूर्व के नाम हैं।

    प्रश्न – अवधिज्ञान के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – सर्वावधि, परमावधि, देशावधि आदि अवधिज्ञान के भी अनेक भेद हैं।

    प्रश्न – मन:पर्यय ज्ञान के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मन:पर्यय ज्ञान के दो भेद हैं।

    प्रश्न – ज्ञान सम्यव् किससे बनता है ?

    उत्तर – सम्यग्दर्शन से ज्ञान में समीचीनता आती है क्योंकि सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से या क्षय से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान में समीचीनता और समीचीनता सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन से आती है।

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    + दर्शनोपयोग का स्वरूप -
    जं सामण्णं गहणं, भावाणं णेव कट्टुमायारं
    अविसेसदूण अट्ठे, दंसणमिदि भण्णए समये ॥43॥
    अर्थग्राहक निर्विकल्पक और है अविशेष जो ।
    सामान्य अवलोकन करे जो उसे दर्शन जानना ॥४३॥
    अन्वयार्थ : [अट्ठे] पदार्थों के विषय में [आयारं] आकार/विकल्प/भेद को [णेव कट्टुं] न करके [जं] जो [अविसेसिदूण] काला-नीला, छोटा-बड़ा, घट-पट आदि विशेषताओं से रहित [भावाणं] पदार्थों का [सामण्णं] सामान्य [गहणं] ग्रहण करना [समए] शास्त्र में [दंसणं] दर्शन [इदि] इस प्रकार [भण्णए] कहा गया है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [जं सामण्णं गहणं भावाणं] जो सामान्य से अर्थात् सत्तावलोकन से ग्रहण करना; किसका ग्रहण करना ? पदार्थों का ग्रहण करना । क्या करके? [णेव कट्टुमायारं] नहीं करके, किसको नहीं करके? [आयारं] आकार अथवा विकल्प को नहीं करके । वह भी क्या करके? [अविसेसिदूण अट्ठे] पदार्थों को विशेषित या भेद न करके । किस रूप से? यह शुक्ल है, यह कृष्ण है, यह बड़ा है, यह छोटा, यह घट है और यह पट है, इत्यादि रूप से भेद न करके । [दंसणमिदि भण्णए समए] वह परमागम में सत्तावलोकनरूप दर्शन कहा जाता है । इस दर्शन को तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण वाला सम्यग्दर्शन नहीं कहना चाहिए । क्यों नहीं कहना चाहिए? क्योंकि वह श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) तो विकल्परूप है और यह दर्शन-उपयोग विकल्परहित है । तात्पर्य यह है कि जब कोई भी किसी पदार्थ को देखता है, वह देखने वाला जब तक विकल्प न करे तब तक तो सत्तामात्र ग्रहण को दर्शन कहते हैं । पश्चात् शुक्ल आदि का विकल्प हो जाने पर ज्ञान कहा जाता है ॥४३॥

    छद्मस्थों के सत्तावलोकनरूप दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है और मुक्त जीवों के दर्शन और ज्ञान एक ही साथ होते हैं, अब ऐसा बतलाते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    'यह घट है', 'यह गोल है' इत्यादि भेद न करके जो निर्विकल्प मात्र ग्रहण होता है वह दर्शन है जो कि ज्ञान के पहले होता है।

    प्रश्न – दर्शनोपयोग किसे कहते हैं ?

    उत्तर – सामान्य अंश का जानना दर्शन कहलाता है। इसमें पदार्थ के आकार का ज्ञान नहीं होता है, केवल सत्ता का भान होता है। जैसे—सामने कोई पदार्थ आने पर सबसे पहले 'यह कोई पदार्थ है' इतना मात्र जानना 'दर्शनोपयोग' है।

    प्रश्न – दर्शन और ज्ञान में अन्तर क्या है ?

    उत्तर – यह घट है, पट है, कृष्ण है, शुक्ल है इन विकल्पों को ग्रहण करता है वह ज्ञान है और जिनमें घट-पटादि ज्ञेय पदार्थ का विकल्प, ज्ञेयाकार का विकल्प ग्रहण नहीं होता, वह दर्शन है। यह दोनों में अन्तर है।

    प्रश्न – सम्यग्दर्शन और दर्शन में क्या अन्तर है ?

    उत्तर – सम्यग्दर्शन तत्वश्रद्धानरूप है और दर्शन सामान्य अवलोकनरूप है। सम्यग्दर्शन सम्यग्दृष्टि के ही होता है और दर्शन सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। दर्शन मोक्षमार्ग में अनुपयोगी है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में उपयोगी है। यह इन दोनों में मौलिक अन्तर है। विषय, विषयी के सन्निपात होने पर दर्शन होता है। वस्तु को जानने के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है अथवा ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से संबंधित स्वसंवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं।

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    + दर्शन और ज्ञान का क्रम -
    दंसणपुव्वं णाणं, छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा
    जुगवं जम्हा केवलि-णाहे जुगवं तु ते दो वि ॥44॥
    जिनवर कहें छद्मस्थ के हो ज्ञान दर्शनपूर्वक ।
    पर केवली के साथ हो दोनों सदा यह जानिये ॥४४॥
    अन्वयार्थ : [छदमत्थाणं] छद्मस्थ जीवों के [दंसणपुव्वं णाणं] दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है [जम्हा] क्योंकि छद्मस्थों के [दुण्णि] दोनों [उवओगा] उपयोग [जुगवं] एक साथ [ण] नहीं होते हैं [तु] किन्तु [केवलिणाहे] केवलीभगवान् में [ते दो वि] वे दोनों ही उपयोग [जुगवं] एक साथ होते हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं] छद्मस्थ-संसारी जीवों के सत्तावलोकन-रूप दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है । क्यों? [ण दुण्णि उवओगा जुगवं जम्हा] क्योंकि छद्मस्थों के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दोनों एक साथ नहीं होते । [केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि] और केवली भगवान् के ज्ञान दर्शन दोनों उपयोग एक ही साथ होते हैं ।

    इसका विस्तार से कथन करते हैं -- चक्षु आदि इन्द्रियों के अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार अपने योग्य देश में विद्यमान रूप आदि अपने विषयों का ग्रहण करना ही सन्निपात, सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष कहा गया है । यहाँ नैयायिक मत के समान चक्षु आदि इन्द्रियों का जो अपने-अपने रूप आदि विषयों के पास जाना है, उसको 'सन्निकर्ष' न कहना चाहिए । इन्द्रिय पदार्थ का वह सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष जिसका लक्षण है; ऐसे लक्षण वाला निर्विकल्पक-सत्तावलोकन दर्शन है, उस दर्शनपूर्वक "यह सफेद है" इत्यादि अवग्रह आदि विकल्परूप तथा पाँचों इन्द्रियों व अनिन्द्रिय मन से उत्पन्न होने वाला मतिज्ञान है । उक्त लक्षण वाले मतिज्ञानपूर्वक, धुँए से अग्नि के ज्ञान के समान, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को ग्रहण करने रूप लिंगज (चिह्न से उत्पन्न होने वाला) तथा इसी प्रकार घट आदि शब्दों के सुनने रूप शब्दज (शब्द से उत्पन्न होने वाला), ऐसे दो प्रकार का श्रुतज्ञान होता है (श्रुतज्ञान दो तरह का है- लिंगज और शब्दज । उनमें से एक पदार्थ को जानकर उसके द्वारा दूसरे पदार्थ को जानना, वह लिंगज श्रुतज्ञान है । शब्दों को सुनने से जो पदार्थ का ज्ञान होता है वह शब्दज श्रुतज्ञान है) । अवधिदर्शनपूर्वक अवधिज्ञान होता है । ईहामतिज्ञानपूर्वक मनःपर्ययज्ञान होता है ।

    यहाँ श्रुतज्ञान को और मनःपर्ययज्ञान को उत्पन्न करने वाला अवग्रह, ईहा आदिरूप मतिज्ञान कहा है, वह मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक होता है, इसलिए वह मतिज्ञान भी उपचार से दर्शन कहलाता है । इस कारण श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान, इन दोनों को भी दर्शनपूर्वक जानना चाहिए । इस प्रकार छद्मस्थ जीवों के सावरण क्षायोपशमिक-ज्ञान होने से, दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है । केवली भगवान् के निर्विकार स्वसंवेदन से उत्पन्न निरावरण क्षायिक ज्ञान होने से, बादल हट जाने पर सूर्य के युगपत् आतप और प्रकाश के समान, दर्शन और ज्ञान ये दोनों युगपत् होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ।

    प्रश्न – 'छद्मस्थ' शब्द का क्या अर्थ है?

    उत्तर – 'छद्म' शब्द से ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ये दोनों कर्म कहे जाते हैं, उस 'छद्म' में जो रहते हैं वे छद्मस्थ हैं । इस प्रकार तर्क के अभिप्राय से सत्तावलोकन रूप दर्शन का व्याख्यान किया ।

    इसके आगे सिद्धान्त के अभिप्राय से कहते हैं । चूँकि आगे होने वाले ज्ञान की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न, उस रूप निज-आत्मा का जो परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन, वह दर्शन कहलाता है । उसके अनन्तर बाह्य विषय में विकल्परूप से जो पदार्थ का ग्रहण है, वह ज्ञान है; यह वार्त्तिक है । जैसे कोई पुरुष पहले घट विषयक विकल्प करता हुआ स्थित है, पश्चात् उसका चित्त पट को जानने के लिए होता है तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर स्वरूप में जो प्रयत्न-अवलोकन-परिच्छेदन करता है; उसको दर्शन कहते हैं । उसके अनन्तर 'यह पट है' ऐसा निश्चय अथवा बाह्य विषयरूप से पदार्थ के ग्रहणरूप जो विकल्प होता है उस विकल्प को ज्ञान कहते हैं ।

    प्रश्न – यहाँ शिष्य पूछता है, यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर-पदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है; तो नैयायिकों के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है वैसे ही जैनमत में भी ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है; ऐसा दूषण आता है?

    उत्तर – नैयायिक मत में ज्ञान और दर्शन अलग-अलग दो गुण नहीं हैं, इस कारण उन नैयायिकों के मत में "आत्मा को जानने के अभावरूप" दूषण आता है किन्तु जैनसिद्धान्त में, आत्मा ज्ञान गुण से पर पदार्थ को जानता है तथा दर्शन गुण से आत्मा स्व को जानता है । इस कारण जैनमत में "आत्मा को न जानने का" दूषण नहीं आता ।

    प्रश्न – यह दूषण क्यों नहीं आता?

    उत्तर – जैसे एक ही अग्नि जलाती है, अतः वह दाहक है और पकाती है इस कारण पाचक है; विषय के भेद से दाहक, पाचक रूप अग्नि दो प्रकार की है । उसी प्रकार अभेदनय से चैतन्य एक ही है; भेदनय की विवक्षा में जब आत्मा को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उसका नाम 'दर्शन' है, और फिर जब पर पदार्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उस चैतन्य का नाम 'ज्ञान' है, इस प्रकार विषयभेद से चैतन्य दो प्रकार का होता है । विशेष बात यह है- यदि सामान्य के ग्रहण करने वाले को दर्शन और विशेष के ग्रहण करने वाले को ज्ञान कहा जावे तो ज्ञान को प्रमाणता नहीं आती । शंका- ज्ञान को प्रमाणता क्यों नहीं आती? समाधान- वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण है । वस्तु सामान्य-विशेष स्वरूप है । ज्ञान ने वस्तु का एक देश जो विशेष, उस विशेष को ही ग्रहण किया, न कि सम्पूर्ण वस्तु को ग्रहण किया । सिद्धान्त से निश्चयनय की अपेक्षा गुण-गुणी अभिन्न हैं; अतः संशय-विमोह-विभ्रम से रहित जो वस्तु का ज्ञान है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । जैसे प्रदीप स्वपर प्रकाशक है, उसी प्रकार आत्मा भी स्व और पर के सामान्य-विशेष को जानता है, इस कारण अभेद से आत्मा के ही प्रमाणता है ।

    शंका – यदि दर्शन बाह्य विषय को ग्रहण नहीं करता तो अन्धे की तरह सब मनुष्यों के अन्धेपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा?

    समाधान – ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य विषय में दर्शनाभाव होने पर भी आत्मा ज्ञान द्वारा विशेष रूप से सब पदार्थों को जानता है । विशेष यह है - जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है, तब आत्मा में व्याप्त ज्ञान का भी दर्शन द्वारा ग्रहण हो जाता है; ज्ञान के ग्रहण हो जाने पर ज्ञान की विषयभूत बाह्य वस्तु का भी ग्रहण हो जाता है ।

    शंका – जो आत्मा को ग्रहण करता है, यदि आप उसको दर्शन कहते हो, तो जो पदार्थों का सामान्य ग्रहण है वह दर्शन है यह गाथा-अर्थ आपके कथन में कैसे घटित होता है?

    उत्तर – वहाँ पर 'सामान्य-ग्रहण' शब्द का अर्थ "आत्मा का ग्रहण करना" है ।

    प्रश्न – "सामान्य ही आत्मा है", ऐसा अर्थ क्यों है?

    उत्तर – वस्तु का ज्ञान करता हुआ आत्मा, "मैं इसको जानता हूँ, इसको नहीं जानता हूँ", इस प्रकार का विशेष पक्षपात नहीं करता है । किन्तु सामान्यरूप से पदार्थ को जानता है । इस कारण 'सामान्य' शब्द से 'आत्मा' कहा जाता है । यह गाथा का अर्थ है ।

    बहुत कहने से क्या? यदि कोई भी तर्क और सिद्धान्त के अर्थ को जानकर, एकान्त दुराग्रह को त्याग करके, नयों के विभाग से मध्यस्थता धारण करके; व्याख्यान करता है तब तो तर्क-अर्थ व सिद्धान्त-अर्थ ये दोनों ही सिद्ध होते हैं ।

    प्रश्न – कैसे सिद्ध होते हैं?

    उत्तर – तर्क में मुख्यता से अन्य-मतों का व्याख्यान है । इसलिए उसमें यदि कोई अन्य-मतावलम्बी पूछे कि जैन-सिद्धान्त में जीव के दर्शन और ज्ञान, जो दो गुण कहे हैं; वे कैसे घटित होते हैं? तब इसके उत्तर में उन अन्य मतियों को कहा जाये कि, "जो आत्मा को ग्रहण करने वाला है, वह दर्शन है" तो वे अन्य मती इसको नहीं समझते । तब आचार्यों ने उनको प्रतीति कराने के लिए स्थूल व्याख्यान से बाह्य विषय में जो सामान्य का ग्रहण है उसका नाम दर्शन स्थापित किया; 'यह सफेद है' इत्यादि रूप से बाह्य विषय में जो विशेष का जानना है, उसका नाम ज्ञान स्थापित किया; अतः दोष नहीं है । सिद्धान्त में मुख्यता से निज समय का व्याख्यान है, इसलिए सिद्धान्त में सूक्ष्म व्याख्यान करने पर आचार्यों ने "जो आत्मा का ग्राहक है" उसको 'दर्शन' कहा है । अतः इसमें भी दोष नहीं ।

    यहाँ शिष्य शंका करता है कि सत्ता-अवलोकनरूप-दर्शन का ज्ञान के साथ भेद जाना किन्तु तत्त्वार्थ-श्रद्धानरूप-सम्यग्दर्शन और वस्तु-विचाररूप-सम्यग्ज्ञान इन दोनों में भेद नहीं जाना । यदि कहो कि कैसे नहीं जाना; तो पदार्थ का जो निश्चय, सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञान में है । इसलिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में क्या भेद है? इसका समाधान यह है - पदार्थ के ग्रहण में जानने रूप क्षयोपशम विशेष 'ज्ञान' कहलाता है । उस ज्ञान में ही, वीतराग सर्वज्ञ श्री जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में "यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है," इस प्रकार का जो निश्चय है, भेदनय से वह सम्यक्त्व है । निर्विकल्परूप अभेदनय से तो जो सम्यग्ज्ञान है, वही सम्यग्दर्शन है ।

    प्रश्न – ऐसा क्यों है?

    उत्तर – अतत्त्व में तत्त्व-बुद्धि, अदेव [देव नहीं] में देव-बुद्धि और अधर्म में 'धर्म-बुद्धि' इत्यादि विपरीताभिनिवेश से रहित ज्ञान की ही, सम्यक्' विशेषण से कहे जाने वाली अवस्था-विशेष 'सम्यक्त्व' कहलाती है ।

    शंका – यदि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में भेद नहीं है तो उन दोनों गुणों के घातक ज्ञानावरण और मिथ्यात्व दो कर्म कैसे कहे गये हैं?

    समाधान – जिस कर्म से पदार्थ के जानने रूप क्षयोपशम ढक जाता है; उसको ज्ञानावरण संज्ञा है और उस क्षयोपशम विशेष में जो कर्म, पूर्वोक्त लक्षण वाले विपरीत-अभिनिवेश को उत्पन्न करता है, उस कर्म की मिथ्यात्व संज्ञा है । इस प्रकार भेद नय से आवरण में भेद है । निश्चयनय से अभेद की विवक्षा में कर्मपने की अपेक्षा उन दो आवरणों को एक ही जानना चाहिए । इस प्रकार दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है; ऐसा व्याख्यान करने वाली गाथा समाप्त हुई ॥४४॥

    इसके बाद सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान-पूर्वक होने वाले रत्नत्रय-स्वरूप मोक्षमार्ग के तीसरे अवयवरूप और स्व-शुद्ध-आत्मा के अनुभवरूप-शुद्धोपयोग लक्षण वाले वीतराग चारित्र को परम्परा से साधने वाले, सराग-चारित्र का प्रतिपादन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    अल्पज्ञानियों के पहले क्षण में दर्शन पुन: ज्ञान ऐसे क्रम से दोनों उपयोग होते हैं। किन्तु केवली भगवान् के ये एक साथ ही प्रगट रहते हैं।

    प्रश्न – छद्मस्थ किसे कहते हैं ?

    उत्तर – मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन पाँच ज्ञानों में से प्रारम्भ के चार ज्ञान छद्मस्थ (अल्पज्ञान) कहलाते हैं।

    प्रश्न – छद्मस्थ जीव के उपयोग का क्रम बताइये।

    उत्तर – छद्मस्थ जीव पहले देखते हैं और फिर बाद में जानते हैं, किसी पदार्थ को देखे बिना छद्मस्थ उसे जान ही नहीं सकते इसलिये छद्मस्थों के पहले दर्शनोपयोग होता है और बाद में ज्ञानोपयोग होता है।

    प्रश्न – केवलज्ञानी के उपयोग का क्रम बताइये।

    उत्तर – केवलज्ञानी किसी भी पदार्थ को एक ही साथ देखते और जानते हैं इसलिये उनका दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एकसाथ होता है।

    प्रश्न – केवली भगवान के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एक साथ क्यों होते हैं ?

    उत्तर – केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन दोनों निरावरण हैं क्षायिक हैं इसलिए एक साथ होते हैं और छद्मस्थों के सावरण हैं क्षायोपशमिक हैं अत: उनके ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोग एक साथ नहीं हो ते, क्रमश: होते हैं।

    प्रश्न – छद्मस्थ किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम है, क्षय नहीं हुआ है ऐसे मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं।

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    + व्यवहार सम्यक्चारित्र और उसके भेद -
    असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं
    वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणया दु जिणभणियं ॥45॥
    अशुभ से विनिवृत्त हो व्रत समितिगुप्तिरूप में ।
    शुभभावमय हो प्रवृत्ती व्यवहारचारित्र जिन कहें ॥४५॥
    अन्वयार्थ : [ववहारणया] व्यवहारनय से [असुहादो विणिवित्ती] अशुभ क्रियाओं से निवृत्तिरूप [य] और [सुहे पवित्ति] शुभ क्रियाओं में प्रवृत्तिरूप [जिणभणियं] जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा हुआ [चारित्तं जाण] चारित्र जानो [दु] और वह चारित्र [वदसमिदिगुत्तिरूवं] व्रत, समिति और गुप्तिरूप है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    इसी सराग-चारित्र के एक देश अवयवरूप देश चारित्र को कहते हैं । वह इस प्रकार है- मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर अथवा अध्यात्म भाषा के अनुसार, निज-शुद्ध-आत्मा के सम्मुख परिणाम होने पर, शुद्ध-आत्म-भावना से उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय करके संसार, शरीर और भोगों में जो हेयबुद्धि है, वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध चतुर्थ गुणस्थान वाला व्रतरहित दार्शनिक है । जो अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषाय के क्षयोपशम होने पर, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच स्थावरों के वध में प्रवृत्त होते हुए भी, अपनी शक्ति अनुसार त्रसजीवों के वध से निवृत्त होता है । (अर्थात् यथाशक्ति त्रसजीवों की हिंसा नहीं करता है), उसको पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक कहते हैं ।

    उस पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के ११ भेद कहते हैं ।
    1. सम्यग्दर्शन-पूर्वक मद्य, माँस, मधु और पाँच उदुम्बर फलों के त्यागरूप आठ मूलगुणों को पालता हुआ जो जीव युद्धादि में प्रवृत्त होने पर भी पाप को बढ़ाने वाले शिकार आदि के समान बिना प्रयोजन जीव घात नहीं करता, उसको प्रथम दार्शनिक श्रावक कहते हैं ।
    2. वही दार्शनिक श्रावक जब त्रसजीव की हिंसा से सर्वथा रहित होकर पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का आचरण करता है तब व्रती नामक दूसरा श्रावक होता है ।
    3. वही जब त्रिकाल सामायिक में प्रवृत्त होता है तब तीसरी प्रतिमाधारी,
    4. प्रोषध-उपवास में प्रवृत्त होने पर चौथी प्रतिमाधारी,
    5. सचित्त के त्याग से पाँचवीं प्रतिमा,
    6. दिन में ब्रह्मचर्य धारण करने से छठी प्रतिमा,
    7. सर्वथा ब्रह्मचर्य को धारण करने से सप्तम प्रतिमा,
    8. आरम्भ आदि सम्पूर्ण व्यापार के त्याग से अष्टम प्रतिमा,
    9. पहनने-ओढ़ने के वस्त्रों के अतिरिक्त अन्य सब परिग्रहों को त्यागने से नवमी प्रतिमा,
    10. घरव्यापार आदि सम्बन्धी समस्त सावद्य (पापजनक) कार्यों में सम्मति (सलाह) देने के त्याग से दशमी प्रतिमा और
    11. उद्दिष्ट आहार के त्याग से ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक श्रावक होता है ।
    इन ग्यारह प्रकार के श्रावकों में, पहली छह प्रतिमा वाले तरतमता से जघन्य श्रावक हैं; सातवीं, आठवीं और नवीं इन तीन प्रतिमा वाले मध्यम श्रावक हैं; दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाओं के धारक उत्तम श्रावक हैं । इस प्रकार संक्षेप से देशचारित्र के दार्शनिक आदि ग्यारह भेद जानने चाहिए ।

    अब इस एकदेशचारित्र के व्याख्यान के अनन्तर सकलचारित्र को कहते हैं - [असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं] हे शिष्य! अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ में जो प्रवृत्ति है, उसको चारित्र जानो । वह कैसा है? [वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं] व्रतसमितिगुप्तिरूप है, व्यवहारनय से श्री जिनेन्द्र ने ऐसा कहा है । वह इस प्रकार है - "प्रत्याख्यानावरण नामक तीसरी कषाय के क्षयोपशम होने पर जिसका उपयोग विषय-कषायों में मग्न है, दुःश्रुति (विकथा), दुष्टचित्त और दुष्ट गोष्ठी (बुरी संगति), उग्र तथा उन्मार्ग (बुरे मार्ग) में तत्पर है, वह जीव अशुभ में स्थित है ॥१॥" "इस गाथा में कहे हुए अशुभोपयोग से छूटना और उक्त अशुभोपयोग से विलक्षण (उल्टा) शुभोपयोग में प्रवृत्त होना," हे शिष्य! उसको तुम चारित्र जानो । आचारआराधना आदि चरणानुयोग के शास्त्रों में कहे अनुसार वह चारित्र पाँच महाव्रत, पाँच समिति व तीन गुप्तिरूप है, तो भी अपहृतसंयम नामक शुभोपयोग लक्षण वाला सरागचारित्र होता है । उसमें भी बाह्य में जो पाँचों इन्द्रियों के विषय आदि का त्याग है, वह उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से चारित्र है और अन्तरंग में जो राग आदि का त्याग है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है । इस तरह नय-विभाग जानना चाहिए । ऐसे निश्चयचारित्र को साधने वाले व्यवहारचारित्र का व्याख्यान किया ॥४५॥

    अब उसी व्यवहारचारित्र से साध्य निश्चयचारित्र का निरूपण करते हैं -

    आर्यिका ज्ञानमती :
    व्यवहार चारित्र पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ऐसे तेरह प्रकार का है जो कि जिनदेव द्वारा कहा गया है।

    प्रश्न – व्यवहार चारित्र किसे कहते हैं ?

    उत्तर – अशुभ कार्यों—हींसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह पापों का त्याग करना, यत्नाचारपूर्वक चलना, बोलना, बैठना, खाना आदि करना और अशुभ मन-वचन और काय को वश में करना तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना व्यवहार चारित्र है।

    प्रश्न – अशुभोपयोग किसे कहते हैं ?

    उत्तर – आत्र्तध्यान, रौद्रध्यान को अशुभोपयोग कहते हैं-अथवा विषय और कषायों में गाढ़ प्रीति, दु:शास्त्र श्रवण, दुष्टचित्तप्रवृत्ति, दु:गोष्ठी (बुरी संगति) आदि अशुभोपयोग हैं।

    प्रश्न – शुभोपयोग किसे कहते हैं ?

    उत्तर – सविकल्प धर्मध्यान को शुभोपयोग कहते हैं, अथवा व्यसन, कषाय, हिंसादि पापजनक कार्यों से विरक्त होकर दान, पूजा, व्रत, समिति, गुप्ति आदि में प्रवृत्ति करना शुभोपयोग कहलाता है। अथवा अशुभोपयोग से निवृत्ति और पाँच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप प्रवृत्ति को व्यवहार या सराग चारित्र कहते हैं। इसका दूसरा नाम अपहृत संयम भी है। यह शुभोपयोग सहित होता है। सराग चरित्र में बाह्य पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग है, यह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से चारित्र है। जितने अंश में कषायों का अभाव हुआ है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है। ऐस यह शुभोपयोग लक्षण धारक व्यवहार चारित्र निश्चयचारित्र का साधक है।

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    + निश्चयचारित्र का लक्षण -
    बहिरब्भंतरकिरिया-रोहो भवकारणप्पणासट्ठं
    णाणिस्स जं जिणुत्तं, तं परमं सम्मचारित्तं ॥46॥
    बाह्य अंतर क्रिया के अवरोध से जो भाव हों ।
    संसारनाशक भाव वे परमार्थ चारित्र जानिये ॥४६॥
    अन्वयार्थ : [भवकारणप्पणासट्ठं] संसार के कारणों का नाश करने के लिए [णाणिस्स] ज्ञानीजीव के [बहिरब्भंतर-किरिया-रोहो] बाह्य तथा आभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध [जंजिणुत्तं] जो जिनेन्द्रदेव ने कहा है [तं परमं सम्मचारित्तं] वह परम निश्चय सम्यक्चारित्र है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [तं] वह [परमं] परम उपेक्षा लक्षण वाला (संसार, शरीर, असंयम आदि में अनादर) तथा निर्विकार स्वसंवेदनरूप शुद्धोपयोग का अविनाभूत उत्कृष्ट [सम्मचारित्तं] सम्यक्चारित्र जानना चाहिए । वह क्या? [बहिरब्भंतरकिरियारोहो] निष्क्रिय-नित्य-निरंजन-निर्मल ज्ञानदर्शन स्वभाव वाले निज-आत्मा से प्रतिपक्षभूत (प्रतिकूल / विपरीत), बाह्य में वचन काय के शुभाशुभ व्यापाररूप, अन्तरंग में मन के शुभाशुभ विकल्परूप, ऐसी क्रियाओं के व्यापार का निरोध (त्याग) चारित्र है । वह चारित्र किसलिए है? [भवकारणप्पणासट्ठं] पाँच प्रकार के संसार से रहित निर्दोष परमात्मा से विलक्षण जो संसार, उस संसार के व्यापार का कारणभूत शुभ-अशुभ कर्म आस्रव, उस आस्रव के विनाश के लिए चारित्र है । ऐसा बाह्य, अन्तरंग क्रियाओं के त्यागरूप चारित्र किसके होता है? [णाणिस्स] निश्चय रत्नत्रय स्वरूप अभेदज्ञानी जीव के ऐसा चारित्र होता है । वह चारित्र फिर कैसा है ? [जंजिणुत्तं] वह चारित्र जिनेन्द्रदेव वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ है । इस प्रकार वीतराग सम्यक्त्व व ज्ञान का अविनाभूत तथा निश्चयरत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग का तीसरा अवयवरूप वीतरागचारित्र का व्याख्यान हुआ ॥४६॥ ऐसे दूसरे स्थल में छह गाथायें समाप्त हुईं ।

    इस प्रकार मोक्षमार्ग को प्रतिपादित करने वाले तीसरे अधिकार में निश्चय व्यवहार रूप मोक्षमार्ग के संक्षेप कथन से दो सूत्र और तदनन्तर उसी मोक्षमार्ग के अवयवरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र के विशेष व्याख्यान रूप से छह सूत्र हैं । इस प्रकार दो स्थलों के समुदायरूप आठ गाथाओं द्वारा प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

    अब इसके आगे ध्यान, ध्याता (ध्यान करने वाला) । ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) और ध्यान का फल इनके वर्णन की मुख्यता से प्रथम स्थल में तीन गाथायें, तदनन्तर पंच-परमेष्ठियों के व्याख्यान रूप से दूसरे स्थल में पाँच गाथायें और इसके पश्चात् उसी ध्यान के उपसंहाररूप विशेष व्याख्यान द्वारा तीसरे स्थल में चार गाथायें, इस प्रकार तीन स्थलों के समुदाय से बारह गाथा सूत्रमयी दूसरे अन्तराधिकार की समुदायरूप भूमिका है ।

    अतः निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग को साधने वाले ध्यान का आप सब अभ्यास करो, ऐसा उपदेश देते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    सम्पूर्ण अंतरंग बहिरंग प्रवृत्तियों को रोक करके जो आत्मा में स्थिर हो जाना है वही निश्चय सम्यक्चारित्र है जो कि महामुनियों के ही हो सकता है।

    प्रश्न – चारित्र के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – चारित्र के मुख्यत: दो भेद हैं-निश्चय और व्यवहार।

    प्रश्न – व्यवहार चारित्र किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो व्रत, समिति आदि भेदरूप है, जिसमें हिंसादि, अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति और अहिंसादि शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति होती है, वह व्यवहार चारित्र है।

    प्रश्न – व्यवहार चारित्र के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – देश चारित्र, सकल चारित्र आदि अनेक भेद हैं।

    प्रश्न – देश चारित्र किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिसमें अहिंसादि व्रतों का एकदेश पालन किया जाता है, वह श्रावक का व्रत कहलाता है, यह देशसंयम है, इसका दूसरा नाम संयमासंयम भी है।

    प्रश्न – देशसंयम को संयमासंयम क्यों कहते हैं ?

    उत्तर – संकल्पपूर्वक मन, वचन, काय से, कृत, कारित, अनुमोदना से त्रस घात का तो त्याग किया है, इसलिए संयम है। स्थावर घात का त्याग नहीं है, इसलिए असंयम है तथा संयम और असंयम दोनों एक साथ होने से इसे संयमासंयम कहते हैं।

    प्रश्न – देश संयम के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – सामान्यत: अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव से उत्पन्न होता है इसलिए एक प्रकार का है और प्रत्याख्यानावरण कषाय की तरतमता से इसके अनेक भेद हैं, उनको ग्यारह भागों में विभाजित किया है।

    प्रश्न – देश संयम के ग्यारह भेद कौन से हैं ?

    उत्तर – (१) दर्शन प्रतिमा-निर्दोष सम्यग्दर्शन और आठ मूलगुणों का पालन करना और संसार-शरीर-भोगों से विरक्त होकर पंचपरमेष्ठी की शरण में लीन रहना। (२) व्रत प्रतिमा-माया, मिथ्यात्व और निदानरूप तीन शल्यों का त्यागकर निरतिचार पाँच अणुव्रतों का पालन और अभ्यासरूप से सात शीलों का धारण।

    प्रश्न – सात शील किसे कहते हैं ?

    उत्तर – तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को सात शील कहते हैं। (३) सामायिक प्रतिमा-त्रिकाल देववंदना करना, चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त और चार शिरोनति करके। (४) प्रोषध प्रतिमा-अष्टमी और चतुर्दशी के दिन अपनी शक्ति के अनुसार प्रोषध (एकासन) उपवास और प्रोषधोपवास करना। (५) सचित्त त्याग प्रतिमा-अपक्व अंकुरोत्पत्ति के कारणभूत सचित्त जड़, फल, बीज आदि को अचित्त किये बिना नहीं खाना और अप्रासुक पानी नहीं पीना।

    प्रश्न – प्रासुक किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो पानी गर्म किया हो, या सौंफ, लौंग आदि डालने से जिसका रंग बदल गया है, वह पानी प्रासुक कहलाता है। (६) रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा-रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना तथा दिन में मैथुन सेवन नहीं करना। इस प्रतिमा का दूसरा नाम दिवामैथुनत्याग प्रतिमा भी है।

    प्रश्न – छट्ठी प्रतिमा में रात्रि भोजन का त्याग है तो पाँचवीं प्रतिमा तक रात्रि में पानी आदि पी सकता है क्या ? यदि नहीं पी सकता है, तो छट्ठी प्रतिमा को रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा क्यों कहा ?

    उत्तर – रात्रि में चार प्रकार के आहार का त्याग तो प्रथम प्रतिमा में ही हो जाता है, छट्ठी प्रतिमा में निरतिचार रात्रिभुक्ति त्याग होता है।

    प्रश्न – रात्रि भुक्ति का त्याग का अतिचार कौन सा है ?

    उत्तर – सूर्योदय के ४८ मिनट हो जाने के बाद और सूर्यास्त के ४८ मिनट पूर्व भोजन करना, रात्रि में भोजन कराना, रात्रि में बने हुए पदार्थों को भक्षण करना रात्रि भुक्ति त्याग का अतिचार है। छट्ठी प्रतिमाधारी इन सबका त्याग करके निरतिचार व्रत का पालन करता है। (७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-स्त्रीमात्र के संयोग का त्याग करना। (८) आरंभ त्याग प्रतिमा-नौकरी, खेती, व्यापार आदि हिंसाजनक आरंभ का त्याग। (९) परिग्रह त्याग प्रतिमा-बाह्य दश प्रकार के परिग्रह से ममत्व का त्याग कर अपने पहनने योग्य धोती, दुपट्टा आदि के सिवाय सर्व परिग्रह का त्याग करना। (१०) अनुमति त्याग-आरंभजन्य कार्यों में तथा लौकिक विवाहादिकार्यों में अनुमति नहीं देना। (११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-घर को छोड़कर मुनिराज के पास जाकर व्रतों को ग्रहण करके भिक्षावृत्ति से भोजन करता है और एक लंगोटी तथा एक दुपट्टा रखता है। ये देशसंयम के ११ भेद संक्षेप से कहे हैं, विस्तार से इसके असंख्यात भेद हैं।

    प्रश्न – सकल चारित्र किसे कहते हैं ?

    उत्तर – हिंसादि पाँचों पापों का सर्वथा त्याग करना तथा पंच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालन सकल चारित्र है।

    प्रश्न – सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात किस चारित्र के भेद हैं ?

    उत्तर – ये सब सकल चारित्र के भेद हैं।

    प्रश्न – निश्चयचारित्र किसे कहते हैं ?

    उत्तर – बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि को निश्चय सम्यक्चारित्र कहते हैं।

    प्रश्न – बाह्य-आभ्यन्तर क्रिया कौन रोकता है ?

    उत्तर – ‘णाणी’—ज्ञानी पुरुष अपनी मानसिक, वाचनिक व कायिक आभ्यन्तर और बाह्य क्रियाओं को रोकता है।

    प्रश्न – बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से ज्ञानी को क्या प्राप्त होता है ?

    उत्तर – ज्ञानी को बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से निश्चय चारित्र की प्राप्ति होती है।

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    + ध्यानाभ्यास की प्ररेणा -
    दुविहं पि मोक्खहेउं, झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा
    तम्हा पयत्तचित्ता, जूयं झाणं समब्भसह ॥47॥
    अरे दोनों मुक्तिमग बस ध्यान में ही प्राप्त हो ।
    इसलिए चित्तप्रसन्न से नित करो ध्यानाभ्यास तुम ॥४७॥
    अन्वयार्थ : [जं] जिस कारण से [मुणी] आत्मज्ञानी मुनि [दुविहं पि] दोनों प्रकार के ही [मोक्खहेउं] मोक्ष के कारणों को [झाणे] ध्यान में [णियमा] नियम से [पाउणदि] प्राप्त कर लेता है [तम्हा] उस कारण से [पयत्तचित्ता] प्रयत्नचित्त होते हुए [जूयं] तुम सब [झाणं] ध्यान का [समब्भसह] अच्छे प्रकार से अभ्यास करो ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [दुविहं पि मोक्खहेउंझाणे पाउणदि जं मुणी णियमा] क्योंकि मुनि नियम से ध्यान द्वारा दोनों प्रकार के मोक्ष-कारणों को प्राप्त होते हैं । जैसे कि निश्चय रत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्ष कारण अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग और इसीप्रकार व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप व्यवहार मोक्षहेतु अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्ग, जिनको साध्य-साधक भाव से (निश्चय-साध्य और व्यवहार-साधक है) पहले कहा है, उन दोनों प्रकार के मोक्षमार्गों को, क्योंकि मुनि निर्विकार स्वसंवेदन स्वरूप परमध्यान द्वारा प्राप्त होते हैं, [तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह] इसी कारण एकाग्रचित्त होकर हे भव्यजनों! तुम भले प्रकार से ध्यान का अभ्यास करो अथवा इसी कारण देखे-सुने और अनुभव किये हुए अनेक मनोरथ रूप शुभाशुभ राग आदि विकल्प समूह का त्याग करके तथा परम-निज-स्वरूप में स्थित होने से उत्पन्न हुए सहजानन्दरूप एक-लक्षण वाले सुखरूपी अमृतरस के आस्वाद के अनुभव में स्थित होकर, तुम ध्यान का अभ्यास करो ॥४७॥

    अब ध्यान करने वाले पुरुष का लक्षण कहते हैं --

    आर्यिका ज्ञानमती :
    निश्चय और व्यवहार ये दोनों मोक्ष मार्ग ध्यान से ही प्राप्त हो सकते हैं।

    प्रश्न – निश्चय और व्यवहार मोक्ष मार्ग की सिद्धि किससे होती है ?

    उत्तर – निश्चय और व्यवहार दोनों ही मोक्षमार्ग की सिद्धि ध्यान से होती है।

    प्रश्न – ध्यान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – किसी विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।

    प्रश्न – ध्यान के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – शुभ-अशुभ के भेद से ध्यान दो प्रकार का है।

    प्रश्न – अशुभ ध्यान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – पंचेन्द्रियजन्य विषयों में चित्त का एकाग्र हो जाना अशुभ ध्यान है।

    प्रश्न – अशुभ ध्यान के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – अशुभ ध्यान के दो भेद हैं-आत्र्तध्यान और रौद्रध्यान।

    प्रश्न – आत्र्तध्यान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – आत्र्त का अर्थ पीड़ा है। मानसिक और शारीरिक पीड़ा के कारण शोक, संताप, अरति और चिंता मन पर प्रभुत्व जमा लेती है, वह आत्र्तध्यान है।

    प्रश्न – आत्र्तध्यान कितने प्रकार का है ?

    उत्तर – आत्र्तध्यान चार प्रकार का है- (१) अनिष्ट संयोगज-अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर उसके वियोग- पृथक्करण के लिए होने वाली चिन्ता। (२) इष्ट वियोगज-इष्ट वस्तु के प्राप्त होने पर उसका संबंध विच्छेद न होने की चिंता और संबंध विच्छेद होने पर उसकी पुन: प्राप्ति की कामना। (३) पीड़ा चिन्तन-व्याधिजन्य दु:ख और पीड़ा से मुक्ति पाने की चिंता। (४) निदान-भविष्य में कमनीय स्वप्नों की पूर्ति की चिंता।

    प्रश्न – रौद्रध्यान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – रुद्र का अर्थ है-व्रूर आशय। व्रूर आशय से उत्पन्न होने वाली चित्तवृत्ति की एकाग्रता रौद्रध्यान है।

    प्रश्न – रौद्रध्यान के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – रौद्रध्यान के चार भेद हैं- (१) हिंसानुबंधी-प्राणि हिंसा का व्रूर संकल्प अथवा हिंसाजन्य कार्यों में मानसिक आनन्द का अनुभव होना। (२) मृषानुबंधी-असत्य, परपीड़ाजनक वाणी का प्रयोग करना व असत्य, अप्रिय, कठोर वचन बोलकर आनन्दित होना। (३) चौर्यानुबंधी-अदत्तादान की चित्त वृत्ति-या चोरी करने मेें आनन्द का अनुभव करना, चोरी करने का चिंतन करना। (४) विषयसंरक्षणानुबंधी-परिग्रह की रक्षा में संलग्नचित्त का होना या परिग्रह के प्राप्त होने पर मानसिक आनन्द का अनुभव होना। यहाँ पर मोक्षमार्ग का प्रकरण है-अत: इन अशुभ ध्यानों से कोई प्रयोजन नहीं है। यहाँ प्रयोजन है-शुभ और शुद्धध्यान से। वह शुभध्यान है-धर्मध्यान और शुद्धध्यान है शुक्लध्यान। धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष का कारण है और आत्र्त-रौद्रध्यान संसार का।

    प्रश्न – धर्मध्यान किसे कहते हैं ?

    उत्तर – धार्मिक कार्यों में चित्त का एकाग्र होना धर्मध्यान है।

    प्रश्न – धर्मध्यान के कितने भेद हैं ?

    उत्तर – धर्मध्यान के चार भेद हैं।

    प्रश्न – धर्मध्यान के चार भेद कौन-कौन हैं?

    उत्तर – आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये धर्मध्यान के चार भेद हैं।

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    + ध्यान का उपाय -
    मा मुज्झह मा रज्जह, मा दुस्सह इट्ठणिट्ठअत्थेसु
    थिरमिच्छह जइ चित्तं, विचित्तझाणप्पसिद्धीए ॥48॥
    यदि कामना है निर्विकल्पक ध्यान में हो चित्त थिर ।
    तो मोह-राग-द्वेष इष्टानिष्ट में तुम ना करो ॥४८॥
    अन्वयार्थ : [विचित्त-झाणप्पसिद्धीए] अनेक प्रकार के ध्यानों की सिद्धि के लिये [जइ चित्तं] यदि चित्त को [थिरंइच्छहि] स्थिर करना चाहते हो तो [इट्ठणिट्ठअट्ठेसु] इष्ट, अनिष्ट पदार्थों में [मुज्झह मा] मोह मत करो [रज्जह मा] राग मत करो और [दुस्सह मा] द्वेष मत करो ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [मा मुज्झह मा रज्जह मा दुस्सह] समस्त मोह, राग-द्वेष से उत्पन्न विकल्प समूह से रहित निज परमात्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न हुई एक परमानन्दरूप सुखामृत रस से उत्पन्न हुई और उसी परमात्मा के सुख के आस्वाद में लीनरूप जो परम कला अर्थात् परमसंवित्ति (आत्मस्वरूप का अनुभव), उसमें स्थित होकर, हे भव्य जीवो! मोह, राग-द्वेष को मत करो । किनमें मोह-राग-द्वेष मत करो? [इट्ठणिट्ठअट्ठेसु] माला, स्त्री, चन्दन, ताम्बूल आदिरूप इन्द्रियों के इष्ट विषयों में व सर्प, विष, काँटा, शत्रु तथा रोग आदि इन्द्रियों के अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष मत करो, [थिरमिच्छहि जइ चित्तं] यदि उसी परमात्मा के अनुभव में तुम निश्चल चित्त को चाहते हो । किसलिए स्थिर चित्त को चाहते हो? [विचित्तझाणप्पसिद्धीए] विचित्र अर्थात् अनेक तरह के ध्यान की सिद्धि के लिए । अथवा जहाँ पर चित्त से उत्पन्न होने वाला शुभ-अशुभ विकल्प समूह दूर हो गया है, सो विचित्र ध्यान' है, उस विचित्र ध्यान की सिद्धि के लिए ।

    अब प्रथम ही आगमभाषा के अनुसार उसी ध्यान के नानाप्रकार के भेदों का कथन करते हैं- वह इस प्रकार है इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग और रोग इन तीनों को दूर करने में तथा भोगों व भोगों के कारणों में वांछारूप चार प्रकार का आर्तध्यान है (१. इष्ट का वियोग, २. अनिष्ट का संयोग, ३. रोग, इनके होने पर इनके दूर करने की इच्छा करना और ४. भोग निदानों की वांछा करना) । वह आर्तध्यान तरतमता से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से प्रमत्तगुणस्थान तक के जीवों के होता है । वह आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवों के तिर्यञ्चगति के बन्ध का कारण होता है तथापि जिस जीव के सम्यक्त्व से पहले तिर्यञ्च आयु बँध चुकी, उसको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टि के वह आर्तध्यान तिर्यञ्चगति का कारण नहीं है ।

    शंका – क्यों नहीं है?

    उत्तर – "निज-शुद्ध-आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है" ऐसी भावना के कारण सम्यग्दृष्टि जीवों के तिर्यञ्चगति का कारणरूप संक्लेश नहीं होता ।

    अब रौद्रध्यान को कहते हैं । १. रौद्रध्यान-हिंसानन्द (हिंसा करने में आनन्द मानना), २. मृषानन्द (झूठ बोलने में आनन्द मानना), ३. स्तेयानन्द (चोरी करने में प्रसन्न होना), ४. विषयसंरक्षणानन्द (परिग्रह की रक्षा में आनन्द मानना) के भेद से चार प्रकार का है । वह मिथ्यादृष्टि से पंचम गुणस्थान तक के जीवों के तरतमता से होता है । रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि जीवों के नरकगति का कारण है, तो भी जिस जीव ने सम्यक्त्व से पूर्व नरकायु बाँध ली है उसके अतिरिक्त अन्य सम्यग्दृष्टियों के वह रौद्रध्यान नरकगति का कारण नहीं होता ।

    प्रश्न – ऐसा क्यों है?

    उत्तर – सम्यग्दृष्टियों के "निजशुद्ध-आत्मतत्त्व ही उपादेय है" इस प्रकार के विशिष्ट भेदज्ञान के बल से नरकगति का कारणभूत तीव्र संक्लेश नहीं होता ।

    इसके आगे आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान के त्यागरूप, १. आज्ञाविचय, २. अपायविचय, ३. विपाकविचय और ४. संस्थानविचय इन चार भेद वाला तरतम वृद्धि के क्रम से असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त इन चार गुणस्थान वाले जीवों के होने वाला और प्रधानता से पुण्य-बन्ध का कारण होने पर भी परम्परा से मोक्ष का कारणभूत, ऐसा धर्मध्यान कहा जाता है । वह इस प्रकार है- स्वयं अल्पबुद्धि हो तथा विशेष ज्ञानी गुरु की प्राप्ति न हो तब शुद्ध जीव आदि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर, श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ जो सूक्ष्म तत्त्व है वह हेतुओं से खण्डित नहीं हो सकता, अतः जो सूक्ष्म तत्त्व है उसको जिनेन्द्रदेव की आज्ञानुसार ग्रहण करना चाहिए क्योंकि श्री जिनेन्द्र अन्यथावादी (झूठा उपदेश देने वाले) नहीं हैं ॥१॥

    इस श्लोक के अनुसार पदार्थ का निश्चय करना, आज्ञाविचय प्रथम धर्मध्यान कहलाता है । उसी प्रकार भेद-अभेद-रत्नत्रय की भावना के बल से हमारे अथवा अन्य जीवों के कर्मों का नाश कब होगा, इस प्रकार का चिन्तन अपायविचय दूसरा धर्मध्यान जानना चाहिए । शुद्ध निश्चयनय से यह जीव शुभ-अशुभ कर्मों के उदय से रहित है, फिर भी अनादि कर्म-बन्ध के कारण पाप के उदय से नारक आदि के दुःखरूप फल का अनुभव करता है और पुण्य के उदय से देव आदि के सुखरूप विपाक को भोगता है; इस प्रकार विचार करना सो विपाकविचय तीसरा धर्मध्यान जानना चाहिए । पहले कही हुई लोकानुप्रेक्षा का चिन्तन करना, संस्थानविचय चौथा धर्मध्यान है । इस तरह चार प्रकार का धर्मध्यान होता है ।

    अब १.पृथक्त्ववितर्कवीचार, २.एकत्ववितर्क अवीचार, ३.सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ४. व्युपरतक्रियानिवृत्ति, ऐसे चार प्रकार के शुक्लध्यान को कहते हैं । पृथक्त्व-वितर्कवीचार प्रथम शुक्लध्यान का कथन करते हैं । द्रव्य, गुण और पर्याय के भिन्नपने को 'पृथक्त्व' कहते हैं । निजशुद्ध-आत्मा के अनुभवरूप भावश्रुत को और निज-शुद्ध-आत्मा को कहने वाले अन्तरजल्परूप वचन को 'वितर्क' कहते हैं । इच्छा बिना ही एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक वचन से दूसरे वचन में, मन-वचन-काय इन तीनों योगों में से किसी एक योग से दूसरे योग में, जो परिणमन (पलटन) है, उसको वीचार कहते हैं । इसका यह अर्थ है- यद्यपि ध्यान करने वाला पुरुष निज-शुद्धआत्मसंवेदन को छोड़कर बाह्य पदार्थों की चिन्ता नहीं करता, तथापि जितने अंशों से स्वरूप में स्थिरता नहीं है उतने अंशों से अनिच्छितवृत्ति से विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यान को पृथक्त्ववितर्कवीचार कहते हैं । यह प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरण-उपशमक, अनिवृत्तिकरण-उपशमक, सूक्ष्मसाम्पराय-उपशमक और उपशान्तकषाय, इन (८, ९,१०,११) चार गुणस्थानों में होता है । क्षपक-श्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरणक्षपक, अनिवृत्तिकरणक्षपक और सूक्ष्मसाम्परायक्षपक नामक (८, ९,१०) इन तीन गुणस्थानों में होता है । इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यान का व्याख्यान हुआ ।

    निज-शुद्ध-आत्मद्रव्य में या विकार रहित आत्मसुख-अनुभवरूप पर्याय में या उपाधिरहित स्वसंवेदन गुण में, इन तीनों में से जिस एक द्रव्य, गुण या पर्याय में (जो ध्यान) प्रवृत्त हो गया और उसी में वितर्क नामक निजात्मानुभवरूप भावश्रुत के बल से स्थिर होकर अवीचार अर्थात् द्रव्य, गुण, पर्याय में परावर्तन नहीं करता, वह एकत्ववितर्क अवीचार नामक, क्षीणकषाय (१२) गुणस्थान में होने वाला, दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है । इस दूसरे शुक्लध्यान से ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है । अब सूक्ष्म काय की क्रिया के व्यापाररूप और अप्रतिपाति (कभी न गिरे) ऐसा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान है । वह उपचार से सयोगिकेवलि-जिन (१३वें) गुणस्थान में होता है । विशेषरूप से उपरत अर्थात् दूर हो गई है क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति अर्थात् निवृत्ति न हो (मुक्त न हुआ हो) वह व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा चतुर्थ शुक्लध्यान है । वह उपचार से अयोगिकेवलिजिन के (१४ वें गुणस्थान में) होता है । आगम भाषा से नाना प्रकार के ध्यानों का संक्षेप से कथन हुआ ।

    अध्यात्म भाषा से, सहज-शुद्ध-परम-चैतन्यशाली तथा परिपूर्ण आनन्द का धारी भगवान् निज-आत्मा में उपादेयबुद्धि (निज-शुद्ध आत्मा ही ग्राह्य है) करके, फिर "मैं अनन्त ज्ञानमयी हूँ, मैं अनन्त सुखरूप हूँ' इत्यादि भावनारूप अन्तरंग धर्मध्यान है । पंचपरमेष्ठियों की भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल शुभ अनुष्ठान का करना बहिरंग धर्मध्यान है । उसी प्रकार निजशुद्ध-आत्मा में विकल्परहित समाधिरूप शुक्लध्यान है । अथवा, मन्त्रवाक्यों में स्थित पदस्थध्यान है, निज-आत्मा का चिन्तन पिण्डस्थध्यान है, सर्वचिद्रूप का चिन्तन रूपस्थध्यान है और निरंजन का ध्यान रूपातीत ध्यान है ॥१॥

    इस श्लोक में कहे हुए क्रम के अनुसार अनेक प्रकार का ध्यान जानना चाहिए ।

    अब ध्यान के प्रतिबन्धक (रोकने वाले) मोह, राग तथा द्वेष का स्वरूप कहते हैं । शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में विपरीत अभिप्राय को उत्पन्न करने वाला मोह, दर्शनमोह अथवा मिथ्यात्व है । निर्विकार-निज-आत्मानुभवरूप वीतराग चारित्र को ढंकने वाला चारित्रमोह अथवा राग-द्वेष कहलाता है ।

    प्रश्न – चारित्रमोह शब्द से राग-द्वेष कैसे कहे गये?

    उत्तर – कषायों में क्रोध-मान ये दो द्वेष अंश हैं और माया-लोभ ये दोनों राग अंश हैं । नोकषायों में स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद ये तीन तथा हास्यरति ये दो, ऐसी पाँच नोकषाय राग के अंश; अरति-शोक ये दो, भय तथा जुगुप्सा ये दो, इन चार नोकषायों को द्वेष का अंश जानना चाहिए ।

    शिष्य द्वारा प्रश्न – राग-द्वेष आदि, कर्मों से उत्पन्न हुए हैं या जीव से?

    इसका उत्तर – स्त्री और पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान, चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लाल रंग की तरह, राग-द्वेष आदि जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए हैं । नय की विवक्षा के अनुसार, विवक्षित एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से तो राग-द्वेष कर्मजनित कहलाते हैं । अशुद्ध-निश्चयनय से जीवजनित कहलाते हैं । यह अशुद्ध-निश्चयनय, शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय ही है ।

    शंका – साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय से ये राग-द्वेष किसके हैं; ऐसा हम पूछते हैं?

    समाधान – स्त्री और पुरुष के संयोग बिना पुत्र की अनुत्पत्ति की भाँति और चूना व हल्दी के संयोग बिना लाल रंग की अनुत्पत्ति के समान साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से इन राग-द्वेषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती । इसलिए हम तुम्हारे प्रश्न का उत्तर ही कैसे देवें । (जैसे पुत्र न केवल स्त्री से ही होता है और न केवल पुरुष से ही होता है किन्तु स्त्री व पुरुष दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है; इसी प्रकार राग-द्वेष आदि न केवल कर्मजनित ही हैं और न केवल जीव-जनित ही है किन्तु जीव और कर्म इन दोनों के संयोगजनित हैं । साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की दृष्टि में जीव और पुद्गल दोनों शुद्ध हैं और इनके संयोग का अभाव है । इसलिए साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा राग-द्वेष आदि की उत्पत्ति ही नहीं है) । इस प्रकार ध्याता (ध्यान करने वाले) के व्याख्यान की प्रधानता से तथा उसके आश्रय से विचित्र ध्यान के कथन से यह गाथा सूत्र समाप्त हुआ ॥४८॥

    अब आगे "मन्त्रवाक्यों में स्थित जो पदस्थ ध्यान" कहा गया है, उसका वर्णन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    मोह, राग और द्वेष इनके निमित्त से मन ही एकाग्रता नहीं हो सकती है इसीलिए इनको हटाना आवश्यक है।

    प्रश्न – राग किसे कहते हैं ?

    उत्तर – इष्ट वस्तु में प्रीति को राग कहते हैं।

    प्रश्न – द्वेष किसे कहते हैं ?

    उत्तर – अनिष्ट वस्तु में अप्रीति को द्वेष कहते हैं।

    प्रश्न – ध्यान के अनेक प्रकार कौन-से हैं ?

    उत्तर – (१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ तथा (४) रूपातीत।

    प्रश्न – धर्मध्यान में लीन होने का उपाय क्या है ?

    उत्तर – इष्ट, अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना ही ध्यान में लीन होने का उपाय है, क्योंकि सांसारिक पदार्थों में रागद्वेष करने से आत्मा आत्र्त-रौद्र- ध्यान में पंâसकर संसार में भटकती है और रागद्वेष का त्याग कर आत्मस्वभाव में लीन होने से रत्नत्रय के कारणभूत धर्मध्यान और शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है और आत्मा संसार से छूट जाती है।

    प्रश्न – णमोकार मंत्र के अक्षरों का ध्यान किस ध्यान में गर्भित होता है ?

    उत्तर – णमोकार मंत्र के अक्षरों का ध्यान पदस्थ ध्यान में गर्भित है।

    प्रश्न – ध्यान किस गुण की पर्याय है ?

    उत्तर – ध्यान चारित्र गुण की पर्याय है।

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    + ध्यान के योग्य मंत्र -
    पणतीस सोल छप्पण, चदुदुगमेगं च जबह झाएह
    परमेट्ठिवाचयाणं, अण्णं च गुरूवएसेण ॥49॥
    परमेष्ठीवाचक एक दो छह चार सोलह पाँच अर ।
    पैंतीस अक्षर जपो नित अर अन्य गुरु उपदेश से ॥४९॥
    अन्वयार्थ : [गुरूवएसेण] गुरुओं के उपदेश से [परमेट्ठि-वाचयाणं] परमेष्ठियों के वाचक [पणतीस] पैंतीस [सोल] सोलह [छप्पण] छह, पाँच [चदु दुगं] चार, दो [च] और [एगं] एक अक्षर के मन्त्र को तथा [अण्णं च] अन्य भी मन्त्रों को [जवह झाएह] जपो और ध्यान करो ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [पणतीस] 'णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं' ये पैंतीस अक्षर 'सर्वपद' कहलाते हैं । [सोल] 'अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू' ये १६ अक्षर पंचपरमेष्ठियों के नाम पद कहलाते हैं । [] 'अरिहन्तसिद्ध' ये छह अक्षर-अर्हन्त-सिद्ध इन दो परमेष्ठियों के नाम पद कहे जाते हैं । [पण] 'अ सि आ उ सा' ये पंच अक्षर पंच परमेष्ठियों के 'आदि-पद' कहलाते हैं । [चउ] 'अरिहन्त' ये चार अक्षर अर्हन्त परमेष्ठी के नामपद हैं । [दुगं] 'सिद्ध' ये दो अक्षर सिद्ध परमेष्ठी के नामपद हैं । [एगं च] 'अ' यह एक अक्षर अर्हत्परमेष्ठी का आदिपद हैं ।

    अथवा 'ॐ' यह एक अक्षर पाँचों परमेष्ठियों के आदि-पद स्वरूप हैं ।

    प्रश्न – ॐ यह पंच-परमेष्ठियों के आदि-पद रूप कैसे है?

    उत्तर – "अरिहंत का प्रथम अक्षर 'अ', अशरीर (सिद्ध) का प्रथम अक्षर 'अ', आचार्य का प्रथम अक्षर 'आ', उपाध्याय का प्रथम अक्षर 'उ', मुनि का प्रथम अक्षर 'म्' इस प्रकार इन पाँचों परमेष्ठियों के प्रथम अक्षरों से बना हुआ 'ॐकार' है, वही पंचपरमेष्ठियों के नाम का आदिपद है । इस प्रकार गाथा में कहे हुए जो प्रथम अक्षर (अ अ आ उ म्) हैं, इनमें पहले "समानः सवर्णे दीर्घी भवति" इस सूत्र से अ अ आ मिलकर दीर्घ आ बनाकर "परश्च लोपम्" इस सूत्र से पर अक्षर 'आ' का लोप करके अ अ आ इन तीनों के स्थान में एक 'आ' सिद्ध किया फिर "उवर्णे ओ" इस सूत्र से 'आउ' के स्थान में 'ओ' बनाया ऐसे स्वरसंधि करने से 'ओम्' यह शब्द निष्पन्न हुआ । किस कारण? [जवह ज्झाएह] सब मन्त्रशास्त्र के पदों में सारभूत इस लोक तथा परलोक में इष्ट फल को देने वाले इन पदों का अर्थ जानकर फिर अनन्त-ज्ञान आदि गुणों के स्मरण रूप वचन का उच्चारण करके जाप करो । इसी प्रकार शुभोपयोगरूप त्रिगुप्त (मन, वचन, काय इन तीनों की गुप्ति) अवस्था में मौनपूर्वक (इन पदों का) ध्यान करो । फिर किन पदों को जपें, ध्यावें? [परमेट्ठिवाचयाणं] 'अरिहन्त' पद वाचक है और अनन्त ज्ञान आदि गुणों से युक्त 'श्रीअर्हत्' इस पद का वाच्य व अभिधेय (कहा जाने वाला) है; आदि प्रकार से पंचपरमेष्ठियों के वाचकों को जपो । [अण्णं न गुरूवएसेण] पूर्वोक्त पदों से अन्य का भी तथा बारह-हजार श्लोक प्रमाण पंचनमस्कारमाहात्म्य नामक ग्रन्थ में कहे हुए क्रम से लघुसिद्धचक्र, बृहत् सिद्धचक्र इत्यादि देवों के पूजन के विधान का,भेदाभेद-रत्नत्रय के आराधक गुरु के प्रसाद से जानकर, ध्यान करना चाहिए । इस प्रकार पदस्थ ध्यान के स्वरूप का कथन किया ॥४९॥

    इस प्रकार "पाँचों इंद्रियों और मन को रोकने वाला ध्याता (ध्यान करने वाला) है; यथास्थित पदार्थ, ध्येय हैं; एकाग्र चिन्तन ध्यान है; संवर तथा निर्जरा ये दोनों ध्यान के फल हैं ॥१॥" इस श्लोक में कहे हुए लक्षण वाले ध्याता, ध्येय, ध्यान और फल का संक्षेप से कथन करने वाली तीन गाथाओं से द्वितीय अन्तराधिकार में प्रथम स्थल समाप्त हुआ ।

    अब इसके आगे राग आदि विकल्परूप उपाधि से रहित निज-परमात्म-पदार्थ की भावना से उत्पन्न होने वाले सदानन्द एक लक्षण वाले सुखामृत रसास्वाद से तृप्ति रूप निश्चय-ध्यान का परम्परा से कारणभूत जो शुभोपयोग लक्षण वाला व्यवहार ध्यान है उसके ध्येयभूत पंचपरमेष्ठियों में से प्रथम ही जो अर्हत् परमेष्ठी हैं उनका स्वरूप कहता हूँ, यह एक पातनिका है । पूर्व गाथा में कहे हुए सर्वपद-नामपद-आदि-पदरूप वाचकों के वाच्य जो पंच-परमेष्ठी, उनका व्याख्यान करने में प्रथम ही श्री जिनेन्द्र के स्वरूप को निरूपण करता हूँ, यह दूसरी पातनिका है । अथवा पदस्थ, पिण्डस्थ तथा रूपस्थ इन तीन ध्यानों के ध्येयभूत श्री अर्हन्त सर्वज्ञ के स्वरूप को दिखलाता हूँ, यह तीसरी पातनिका है । इस प्रकार इन पूर्वोक्त तीनों पातनिकाओं को मन में धारण करके सिद्धान्तदेव श्री नेमिचन्द्र आचार्य इस अग्रिम गाथासूत्र का प्रतिपादन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    णमोकार मंत्र में पैंतीस अक्षर हैं, 'अरिहन्त सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू' यह सोलह अक्षर का मंत्र है, 'अरिहन्त सिद्ध' 'ऊँ नम: सिद्धेभ्य:' इनमें छह 'अ सि आ उ सा' में पाँच, अरिहन्त में चार, सिद्ध में दो और ऊँ या ह्रीं में एक अक्षर है। अथवा गुरु की आज्ञा से सिद्ध चक्र आदि मंत्रों का जाप्य या ध्यान करना चाहिए।

    प्रश्न – परमेष्ठी किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जो परम पद में स्थित हैं वे परमेष्ठी कहलाते हैं।

    प्रश्न – परमेष्ठीवाचक पैंतीस अक्षरों का मंत्र कौन-सा है ?

    उत्तर – णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। इसे णमोकार मंत्र, अनादिनिधन मंत्र, अपराजित आदि अनेक नामों से जाना जाता है।

    प्रश्न – ध्यान की सिद्धि के लिये जाप्य की विधि क्या है ?

    उत्तर – जाप्य तीन प्रकार से किया जाता है—(१) वाचनिक, (२) मानसिक, (३) उपांशु जाप्य। वाचनिक—वचन से बोलकर जप करना। मानसिक—मन-मन में उच्चारण करना। उपांशु—ओठों को हिलाते हुये मंद-मंद स्वर में जाप करना। इनमें मानसिक जाप उत्तम है। उसका फल भी उत्तम है। 'उपांशु' जाप मध्यम है तथा वाचनिक जाप जघन्य माना जाता है।

    प्रश्न – सोलह अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

    उत्तर – अरिहंत सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू। अथवा ॐ अर्हदाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो नम: आदि।

    प्रश्न – छह अक्षरों का मंत्र कौन सा है ?

    उत्तर – अरिहंत सिद्ध। ॐ नम: सिद्धेभ्य:। अरहंत सिद्ध। नमोर्हत्सिद्धेभ्य:। इत्यादि छह अक्षर के मंत्र हैं।

    प्रश्न – पाँच अक्षरों का मंत्र कौन सा है ?

    उत्तर – असि आ उसा। अर्हद्भ्यो नम: इत्यादि पाँच अक्षर से निष्पन्न मंत्र हैं।

    प्रश्न – चार अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

    उत्तर – अरिहंत यह चार अक्षरों से निष्पन्न मंत्र हैं।

    प्रश्न – दो अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

    उत्तर – सिद्ध दो अक्षर का मंत्र है।

    प्रश्न – एक अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

    उत्तर – ॐ, ह्रीं इत्यादि एकाक्षरी मंत्र हैं।

    प्रश्न – ॐ अक्षर की निष्पत्ति कैसे हुई है, यह किसका वाचक है ?

    उत्तर – यह 'ॐ' अक्षर अरिहंत आदि के प्रथम अक्षर से निष्पन्न है अत: यह पंचपरमेष्ठी वाचक है। सो ही कहा है- अरिहंता असरीरा, आइरिया तह उवज्झया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पञ्च परमेट्ठी॥ अरिहंत का आदि अक्षर 'अ', अशरीरी (सिद्ध) का प्रथम अक्षर 'अ', आचार्य का प्रथम अक्षर 'आ', उपाध्याय का प्रथम अक्षर 'उ' और साधु अर्थात् मुनि का प्रथम अक्षर 'म्' इस प्रकार पंच परमेष्ठियों के प्रथम अक्षर (अ±अ±आ±उ±म्) इस प्रकार संधि करने पर 'ॐ' मंत्र की निष्पत्ति होती है। अर्थात् अ±अ± की संधि दीर्घ आ±आ·आ। आ±उ±-ओ। म्-का अनुस्वार लगता है। अत: यह 'ॐ' पंचपरमेष्ठी वाचक है। पदस्थ धर्मध्यान में मन को स्थिर करने के लिए परमेष्ठी वाचक बीजाक्षरों का और मंत्राक्षरों का ध्यान किया जाता है।

    प्रश्न – इन मंत्राक्षरों के सिवाय अन्य भी कोई मंत्र है जिसका ध्यान कर सकते हैं ?

    उत्तर – सिद्धचक्र, ऋषिमंडल यंत्र, कलिकुण्ड आदि अनेक ध्यान करने योग्य मंत्र हैं, जिनका गुरुओं के उपदेश से जानकर ध्यान करना चाहिए।

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    + अरिहंत परमेष्ठी का लक्षण -
    णट्ठचदुघाइकम्मो, दंसणसुहणाणवीरियमइयो
    सुहदेहत्थो अप्पा, सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो ॥50॥
    नाशकर चऊ घाति दर्शन ज्ञान सुख अर वीर्यमय ।
    शुभदेहथित अरिहंत जिन का नित्यप्रति चिन्तन करो ॥५०॥
    अन्वयार्थ : [णट्ठ-चदुघाइकम्मो] नष्ट कर दिये हैं चार घातिया कर्म जिन्होंने ऐसे [दंसणसुहणाणवीरियमइओ] अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तज्ञान व अनन्तवीर्य से सहित [सुहदेहत्थो] शुभ, परम औदारिक शरीर में स्थित [सुद्धो अप्पा] अठारह दोषों से रहित शुद्ध, आत्मा [अरिहो] अरिहन्त परमेष्ठी हैं वे [विचिंतिज्जो] विशेष चिन्तन/ध्यान के योग्य हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [णट्ठचदुघाइकम्मो] निश्चयरत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोगमयी ध्यान के द्वारा पहले घातिया कर्मों में प्रधान मोहनीयकर्म का नाश करके, पश्चात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों ही घातिया कर्मों का एक ही साथ नाश करने से, जो चारों घातिया कर्मों का नष्ट करने वाले हो गये हैं । [दंसणसुहणाणवीरियमईओ] उन घातिया कर्मों के नाश से उत्पन्न अनन्त चतुष्टय (अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य) के धारक होने से स्वाभाविक-शुद्ध-अविनाशी-ज्ञान-दर्शनसुख-वीर्यमयी हैं । [सुहदेहत्थो] निश्चयनय से शरीर रहित हैं तो भी व्यवहारनय की अपेक्षा, सात धातुओं (कुधातु) से रहित व हजारों सूर्यों के समान देदीप्यमान ऐसे परम औदारिक शरीर वाले हैं, इस कारण शुभदेह में विराजमान हैं । "सुद्धो"- १. क्षुधा, २. तृषा, ३. भय, ४. द्वेष, ५. राग, ६. मोह, ७. चिन्ता, ८.जरा, ९. रुजा (रोग), १०. मरण, ११.स्वेद (पसीना), १२. खेद, १३. मद, १४. अरति, १५, विस्मय, १६. जन्म, १७. निद्रा, १८. विषाद; इन १८ दोषों से रहित निरंजन आप्त श्री जिनेन्द्र हैं ॥२॥

    इस प्रकार इन दो श्लोकों में कहे हुए अठारह दोषों से रहित होने के कारण शुद्ध हैं ।

    [अप्पा] पूर्वोक्त गुणों की धारक आत्मा है । [अरिहो] 'अरि' शब्द से कहे जाने वाले मोहनीय कर्म का, 'रज' शब्द से वाच्य ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दोनों कर्मों का तथा 'रहस्य' शब्द का वाच्य अन्तरायकर्म, इन चारों कर्मों का नाश करने से इन्द्र आदि द्वारा रची हुई गर्भावतार-जन्माभिषेक-तपकल्याणक-केवलज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण समय में होने वाली पाँच महाकल्याण रूप पूजा के योग्य होते हैं, इस कारण अर्हन् कहलाते हैं । [विचिंतिज्जो] हे भव्यों! तुम पदस्थ, पिण्डस्थ व रूपस्थ ध्यान में स्थित होकर, आप्त-उपदिष्ट आगम आदि ग्रन्थ में कहे हुए तथा इन उक्त विशेषणों सहित वीतराग-सर्वज्ञ आदि एक हजार आठ नाम वाले अर्हन्त जिन-भट्टारक का विशेष रूप से चिन्तन करो ।

    इस अवसर पर भट्ट और चार्वाक मत का आश्रय लेकर शिष्य पूर्व पक्ष करता है-

    प्रश्न – सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि, उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग?

    उत्तर – सर्वज्ञ की प्राप्ति क्या इस देश और इस काल में नहीं है या सब देश और सब काल में नहीं है, यदि कहो कि इस देश और इस काल में सर्वज्ञ नहीं है, तब तो ठीक ही है, क्योंकि हम भी ऐसा ही मानते हैं । यदि कहो सर्व देश और सर्व कालों में सर्वज्ञ नहीं है, तो तुमने यह कैसे जाना कि तीनों लोक और तीनों काल में सर्वज्ञ का अभाव है । यदि कहो कि अभाव जान लिया, तो तुम ही सर्वज्ञ हो गये (जो तीन लोक तथा तीन काल के पदार्थों को जानता है वही सर्वज्ञ है, सो तुमने यह जान ही लिया है कि तीनों लोक और तीनों कालों में सर्वज्ञ नहीं है, इसलिए तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हुए) । "तीन लोक व तीनों काल में सर्वज्ञ नहीं" इसको यदि नहीं जाना तो "सर्वज्ञ नहीं है" ऐसा निषेध कैसे करते हो? दृष्टान्त- जैसे कोई निषेध करने वाला, घट की आधारभूत पृथ्वी को नेत्रों से घट रहित देख कर, फिर कहे कि “इस पृथ्वी पर घट नहीं है", तो उसका यह कहना ठीक है; परन्तु जो नेत्रहीन है, उसका ऐसा वचन ठीक नहीं है । इसी प्रकार जो तीन जगत्, तीनकाल को सर्वज्ञ रहित जानता है, उसका यह कहना कि तीन जगत् तीन काल में सर्वज्ञ नहीं, उचित हो सकता है; किन्तु जो तीन जगत् तीन काल को जानता है, वह सर्वज्ञ का निषेध किसी भी प्रकार नहीं कर सकता । क्यों नहीं कर सकता? तीन जगत् तीनकाल को जानने से वह स्वयं सर्वज्ञ हो गया, अतः वह सर्वज्ञ का निषेध नहीं कर सकता ।

    सर्वज्ञ के निषेध में "सर्वज्ञ की अनुपलब्धि" जो हेतु वाक्य है, वह भी ठीक नहीं ।

    प्रश्न – क्यों ठीक नहीं?

    उत्तर – क्या आपके ही सर्वज्ञ की अनुपलब्धि (अप्राप्ति) है या तीन जगत् तीन काल के पुरुषों की अनुपलब्धि है । यदि आपके ही सर्वज्ञ की अनुपलब्धि है, तो इतने मात्र से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जैसे पर के मनोविचार तथा परमाणु आदि की आपके अनुपलब्धि है, तो भी उनका अभाव सिद्ध नहीं होता । यदि तीन जगत् तीन काल के पुरुषों के 'सर्वज्ञ' की अनुपलब्धि है, तो इसको आपने कैसे जाना? यदि कहो "जान लिया" तो आप ही सर्वज्ञ हुए, ऐसा पहले कहा जा चुका है । इस प्रकार से 'हेतु' में दूषण जानना चाहिए । सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि में जो "गधे के सींग" का दृष्टान्त दिया था, वह भी ठीक नहीं है । गधे के सींग नहीं हैं किन्तु गौ आदि के सींग हैं । सींग का जैसे अत्यन्त (सर्वथा) अभाव नहीं, वैसे ही 'सर्वज्ञ' का विवक्षित देश व काल में अभाव होने पर भी सर्वथा अभाव नहीं है । इस प्रकार दृष्टान्त में दूषण आया ।

    प्रश्न – आपके द्वारा सर्वज्ञ के सम्बन्ध में बाधक प्रमाण का तो खण्डन हुआ किन्तु सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करने वाला क्या प्रमाण है?

    ऐसा पूछे जाने पर उत्तर – "कोई पुरुष (आत्मा) सर्वज्ञ है", इसमें 'पुरुष' धर्मी है और 'सर्वज्ञता', जिसको सिद्ध करना है, वह धर्म है; इस प्रकार "धर्मी धर्म समुदाय" को पक्ष कहते हैं (जिसको सिद्ध करना वह साध्य अर्थात् धर्म है । जिसमें धर्म पाया जावे या रहे, वह धर्मी है । धर्म और धर्मी दोनों मिलकर 'पक्ष' कहलाते हैं) । इसमें हेतु क्या है? पूर्वोक्त अनुसार "बाधक प्रमाण का अभाव" यह हेतु है । किसके समान? अपने अनुभव में आते हुए सुख-दु:ख आदि के समान, यह दृष्टान्त है । इस प्रकार सर्वज्ञ के सद्भाव में पक्ष, हेतु तथा दृष्टान्त रूप से तीन अंगों का धारक अनुमान जानना चाहिये । अथवा, सर्वज्ञ के सद्भाव का साधक दूसरा अनुमान कहते हैं । राम और रावण आदि काल से दूर व ढके पदार्थ, मेरु आदि देश से अन्तरित पदार्थ, भूत आदि भव से ढके हुए पदार्थ तथा पर पुरुषों के चित्तों के विकल्प और परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, ये धर्मी "किसी भी विशेष पुरुष के प्रत्यक्ष देखने में आते हैं", यह उन राम रावणादि धर्मियों में सिद्ध करने योग्य धर्म है; इस प्रकार धर्मी और धर्म के समुदाय से पक्षवचन (प्रतिज्ञा) है । राम रावणादि किसी के प्रत्यक्ष क्यों हैं? “अनुमान का विषय होने से" यह हेतु वचन है । किसके समान? "जो जो अनुमान का विषय है, वह-वह किसी के प्रत्यक्ष होता है, जैसे-अग्नि आदि', यह अन्वय दृष्टान्त का वचन है । "देश काल आदि से अन्तरित पदार्थ भी अनुमान के विषय हैं" यह उपनय का वचन है । इसलिए "राम रावण आदि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं" यह निगमन वाक्य है ।

    अब व्यतिरेक दृष्टान्त को कहते हैं - "जो किसी के भी प्रत्यक्ष नहीं होते वे अनुमान के विषय भी नहीं होते; जैसे कि आकाश के पुष्प आदि" यह व्यतिरेक दृष्टान्त का वचन है । "राम रावण आदि अनुमान के विषय हैं" यह उपनय का वचन है । इसलिए "राम रावणादि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं" यह निगमन वाक्य है । "राम रावणादि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं, अनुमान के विषय होने से" यहाँ पर "अनुमान के विषय होने से" यह हेतु है । सर्वज्ञ रूप साध्य में यह हेतु सब तरह से सम्भव है; इस कारण यह हेतु स्वरूपासिद्ध, भावासिद्ध, इन विशेषणों से असिद्ध नहीं है तथा उक्त हेतु, सर्वज्ञ रूप अपने पक्ष को छोड़कर सर्वज्ञ के अभाव रूप विपक्ष को सिद्ध नहीं करता, इस कारण विरुद्ध भी नहीं है । और जैसे "सर्वज्ञ के सद्भाव रूप अपने पक्ष में रहता है, वैसे सर्वज्ञ के अभाव रूप विपक्ष में नहीं रहता, इस कारण उक्त हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है । अनैकान्तिक का क्या अर्थ है? 'व्यभिचारी' । प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित भी नहीं है, तथा सर्वज्ञ को न मानने वाले भट्ट और चार्वाक के लिए सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करता है अतः इन दोनों कारणों से अकिंचित्कर भी नहीं है । इस प्रकार से "अनुमान का विषय होने से" यह हेतुवचन असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, अकिंचित्कर रूप हेतु के दूषणों से रहित है, इस कारण सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करता ही है । इस प्रकार सर्वज्ञ के सद्भाव में पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन रूप से पाँचों अंगों वाला अनुमान जानना चाहिए ।

    और भी जैसे नेत्रहीन पुरुष को दर्पण के विद्यमान रहने पर भी प्रतिबिम्बों का ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार नेत्रों के स्थानभूत सर्वज्ञतारूप गुण से रहित पुरुष को दर्पण के स्थानभूत वेदशास्त्र में कहे हुए प्रतिबिम्बों के स्थानभूत परमाणु आदि अनन्त सूक्ष्म पदार्थों का किसी भी समय ज्ञान नहीं होता । ऐसा कहा भी है कि-

    जिस पुरुष के स्वयं बुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है? क्योंकि नेत्रों से रहित पुरुष का दर्पण क्या उपकार करेगा? (अर्थात् कुछ उपकार नहीं कर सकता) ॥१॥ इस प्रकार यहाँ संक्षेप से सर्वज्ञ की सिद्धि जाननी चाहिए । ऐसे पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपस्थ इन तीनों ध्यानों में ध्येयभूत सकल-परमात्म-श्रीजिन-भट्टारक के व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ॥५०॥

    अब सिद्धों के समान निज-परमात्म-तत्त्व में परमसमरसी-भाव वाले रूपातीत नामक निश्चय-ध्यान के परम्परा से कारणभूत तथा मुक्ति को प्राप्त, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी की भक्तिरूप 'णमो सिद्धाणं' इस पद के उच्चारणरूप लक्षण वाला जो पदस्थ-ध्यान, उसके ध्येयभूत सिद्धपरमेष्ठी के स्वरूप को कहते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – अरिहंत परमेष्ठी किन्हें कहते हैं ?

    उत्तर – जिनने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं तथा जो अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य से युक्त हैं और १८ दोषों से रहित होते हैं, उन्हें अरिहंत कहते हैं।

    प्रश्न – घातिया कर्म किसे कहते हैं ? वे कौन से हैं ?

    उत्तर – जो जीव के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं वे घातिया कर्म कहलाते हैं। वे चार—(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) मोहनीय और(४) अन्तराय हैं।

    प्रश्न – अनन्त चतुष्टय कौन से हैं ?

    उत्तर – अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये अनन्त-चतुष्टय कहलाते हैं।

    प्रश्न – किस कर्म के नाश से कौन-सा गुण प्रगट होता है ?

    उत्तर – ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्तज्ञान, दर्शनावरण कर्म के क्षय से अनन्तदर्शन, मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्तसुख तथा अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्तवीर्य प्रकट होता है।

    प्रश्न – अरिहंतों के साथ शुद्ध विशेषण क्यों दिया ?

    उत्तर – अठारह दोषों से रहित होने से वे शुद्ध आत्मा हैं, इसलिये शुद्ध विशेषण दिया है।

    प्रश्न – अठारह दोष कौन-कौन हैं ?

    उत्तर – क्षुधा (भुख), प्यास, बुढ़ापा, रोग, मरण, जन्म, भय, विस्मय, चिंता, अरति, खेद, स्वेद (पसीना) मद, राग, द्वेष, मोह, शोक, जुगुप्सा। ये अठारह दोष अरिहंत के नहीं होते हैं।

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    + सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप -
    णट्ठट्ठकम्मदेहो, लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा
    पुरुसायारो अप्पा, सिद्धो झाएह लोय सिहरत्थो ॥51॥
    लोकाग्रथित निर्देह लोकालोक ज्ञायक आत्मा ।
    आठ कर्म नाशक सिद्ध प्रभु का ध्यान तुम नित ही करो ॥५१॥
    अन्वयार्थ : [णट्ठट्ठ-कम्मदेहो] नष्ट हो गए हैं आठकर्म और औदारिक आदि शरीर जिनका [लोयालोयस्स] लोक और अलोक को [जाणओ दट्ठा] जानने देखने वाला [लोयसिहरत्थो] लोक के शिखर पर स्थित [पुरिसायारो] जिस पुरुष देह से मोक्ष हुआ है उस पुरुष के आकार वाला [अप्पा] आत्मा [सिद्धो] सिद्ध परमेष्ठी है उसका [झाएह] ध्यान करो ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [णट्ठट्ठकम्मदेहो] शुभ-अशुभ मन-वचन और काय की क्रियारूप तथा द्वैत शब्द के अभिधेयरूप कर्म समूह का नाश करने में समर्थ, निज-शुद्ध-आत्म-स्वरूप की भावना से उत्पन्न, रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित, परम आनन्द एक लक्षण वाला, सुन्दर-मनोहर-आनन्द को बहाने वाला, क्रियारहित और अद्वैत शब्द का वाच्य, ऐसे परमज्ञानकाण्ड द्वारा ज्ञानावरण आदि कर्म एवं औदारिक आदि पाँच शरीरों को नष्ट करने से, जो नष्ट-अष्ट-कर्म-देह है । [लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा] पूर्वोक्त ज्ञान-काण्ड की भावना के फलस्वरूप पूर्ण निर्मल केवलज्ञान और दर्शन दोनों के द्वारा लोकालोक के तीन कालवर्ती सर्व पदार्थ सम्बन्धी विशेष तथा सामान्य भावों को एक ही समय में जानने और देखने से, लोकालोक को जानने-देखने वाले हैं । [पुरिसायारो] निश्चयनय की दृष्टि से इन्द्रियागोचर-अमूर्तिक-परमचैतन्य से भरे हुए शुद्ध-स्वभाव की अपेक्षा आकार रहित हैं; तो भी व्यवहार से भूतपूर्व नय की अपेक्षा अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले होने के कारण, मोमरहित मूस के बीच के आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्ब के समान, पुरुषाकार है । [अप्पा] पूर्वोक्त लक्षणवाली आत्मा; वह क्या कहलाती है? [सिद्धो] अञ्जनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, खड्गसिद्ध और मायासिद्ध आदि लौकिक (लोक में कहे जाने वाले) सिद्धों से विलक्षण केवलज्ञान आदि अनन्तगुणों की प्रकटतारूप सिद्ध कहलाती है । [झाएह लोयसिहरत्थो] हे भव्य-जनो! तुम देखे-सुने अनुभव किये हुए जो पाँचों इंद्रियों के भोग आदि समस्त मनोरथरूप अनेक विकल्प-समूह के त्याग द्वारा मन-वचन-काय की गुप्तिस्वरूप रूपातीत ध्यान में स्थिर होकर, लोक के शिखर पर विराजमान पूर्वोक्त लक्षण वाले सिद्ध परमेष्ठी को ध्यावो! इस प्रकार अशरीरी सिद्ध परमेष्ठी के व्याख्यानरूप यह गाथा समाप्त हुई ॥५१॥

    अब उपाधि रहित शुद्ध-आत्मभावना की अनुभूति (अनुभव) का अविनाभूत निश्चयपंच-आचार-रूप-निश्चय-ध्यान का परम्परा से कारणभूत, निश्चय तथा व्यवहार इन दोनों प्रकार के पाँच आचारों में परिणत (तत्पर वा तल्लीन) ऐसे आचार्य परमेष्ठी की भक्तिरूप और 'णमो आयरियाणं' इस पद के उच्चारण-रूप जो पदस्थ ध्यान, उस पदस्थ-ध्यान के ध्येयभूत आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – सिद्ध परमात्मा कैसे होते हैं?

    उत्तर – जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्मों से रहित हैं, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर से रहित हैं, जो लोक-अलोक को जानने वाले हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी हैं।

    प्रश्न – सिद्ध परमेष्ठी कहाँ रहते हैं?

    उत्तर – सिद्धपरमेष्ठी लोक के अग्रभाग में रहते हैं।

    प्रश्न – लोक के अग्रभाग को क्या कहते हैं?

    उत्तर – लोक के अग्रभाग को 'सिद्धालय' कहते हैं।

    प्रश्न – सिद्धालय में सिद्धों का आकार कैसी होता है ?

    उत्तर – सिद्ध परमेष्ठी का आकार पुरुषाकार होता है। वे लोकाग्र में अपने अंतिम शरीर से किञ्चित् न्यून आकार के रूप में रहते हैं।

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    + आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप -
    दंसणणाणपहाणे, वीरियचारित्त-वरतवायारे
    अप्पं परं च जुंजइ, सो आइरियो मुणी झेओ ॥52॥
    ज्ञान-दर्शन-वीर्य-तप एवं चरित्राचार में ।
    जो जोड़ते हैं स्वपर को ध्यावो उन्हीं आचार्य को ॥५२॥
    अन्वयार्थ : जो [मुणी] मुनि [दंसणणाणपहाणे] दर्शनाचार और ज्ञानाचार की प्रधानता वाले [वीरिय-चारित्त-वर-तवायारे] वीर्याचार, चारित्राचार व श्रेष्ठ तपाचार में [अप्पं च परं] अपने को व दूसरों को [जुंजइ] जोड़ता/लगाता है [सो आइरिओ] वह आचार्य परमेष्ठी [झेओ] ध्यान करने योग्य है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [दंसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे] सम्यग्दर्शनाचार और सम्यग्ज्ञानाचार की प्रधानता सहित, वीर्याचार, चारित्राचार और तपश्चरणाचार में [अप्पं परं च जुंजइ] अपने को और अन्य अर्थात् शिष्यजनों को लगाते हैं, सो [आइरिओ मुणी झेओ] वे पूर्वोक्त लक्षण वाले आचार्य तपोधन ध्यान करने योग्य हैं ।

    जैसे कि भूतार्थनय (निश्चयनय) का विषयभूत, 'शुद्धसमयसार' शब्द से वाच्य, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म आदि समस्त पर-पदार्थों से भिन्न और परम-चैतन्य के विलास-रूप लक्षण वाली, यह निज-शुद्ध-आत्मा ही उपादेय है; ऐसी रुचि सम्यक्दर्शन है; उस सम्यग्दर्शन में जो आचरण अर्थात् परिणमन, वह निश्चयदर्शनाचार है ॥१॥

    उसी शुद्ध आत्मा को, उपाधि रहित स्वसंवेदनरूप भेदज्ञान द्वारा मिथ्यात्व-राग आदि परभावों से भिन्न जानना, सम्यग्ज्ञान है; उस सम्यग्ज्ञान में आचरण अर्थात् परिणमन, वह निश्चयज्ञानाचार है ॥२॥

    उसी शुद्ध आत्मा में राग आदि विकल्परूप उपाधि से रहित स्वाभाविक सुखास्वाद से निश्चल-चित्त होना, वीतरागचारित्र है; उसमें जो आचरण अर्थात् परिणमन, वह निश्चयचारित्राचार है ॥३॥

    समस्त परद्रव्यों को इच्छा के रोकने से तथा अनशन आदि बारह-तप-रूप-बहिरंग सहकारी कारण से जो निज स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजयन, वह निश्चयतपश्चरण है; उसमें जो आचरण अर्थात् परिणमन निश्चयतपश्चरणाचार है ॥४॥

    इन चार प्रकार के निश्चय आचार की रक्षा के लिए अपनी शक्ति को नहीं छिपाना, निश्चयवीर्याचार है ॥५॥

    ऐसे उक्त लक्षणों वाले पाँच प्रकार के निश्चय आचार में और इसी प्रकार, छत्तीस गुणों से सहित, पाँच प्रकार के आचार को करने का उपदेश देने वाले तथा शिष्यों पर अनुग्रह (कृपा) रखने में चतुर जो धर्माचार्य हैं, उनको मैं सदा वन्दना करता हूँ॥१॥

    इस गाथा में कहे अनुसार आचार आराधना आदि चरणानुयोग के शास्त्रों में विस्तार से कहे हुए बहिरंग सहकारीकारणरूप पाँच प्रकार के व्यवहार आचार में जो अपने को तथा अन्य को लगाते हैं (स्वयं उस पंचाचार को साधते हैं और दूसरों से सधवाते हैं) वे आचार्य कहलाते हैं । वे आचार्य परमेष्ठी पदस्थध्यान में ध्यान करने योग्य हैं । इस प्रकार आचार्य परमेष्ठी के व्याख्यान से गाथासूत्र समाप्त हुआ ॥५२॥

    अब निज शुद्ध-आत्मा में जो उत्तम अध्ययन अर्थात् अभ्यास करना है, उसको निश्चय स्वाध्याय कहते हैं । उस निश्चयस्वाध्याय रूप निश्चयध्यान के परम्परा से कारणभूत भेद-अभेदरत्नत्रय आदि तत्त्वों का उपदेश करने वाले, परम उपाध्याय की भक्तिस्वरूप 'णमो उवज्झायाणं' इस पद के उच्चारणरूप जो पदस्थध्यान उसके ध्येयभूत, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – आचार्य परमेष्ठी किन्हें कहते हैं?

    उत्तर – जो पंचाचार का स्वयं पालन करते हैं तथा शिष्यों से भी पालन कराते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।

    प्रश्न – पंचाचार के नाम क्या हैं?

    उत्तर – १. दर्शनाचार, २. ज्ञानाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार, ५. वीर्याचार। इनकी संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है- १. दर्शनाचार-निर्दोष सम्यक् दर्शन का पालन करना दर्शनाचार है। २. ज्ञानाचार-अष्टांग सहित सम्यक्ज्ञान की आराधना करना ज्ञानाचार है। ३. चारित्राचार- तेरह प्रकार के चारित्र का निर्दोषरूप से आचरण करना चारित्राचार है। ४. तपाचार-बारह प्रकार के तपों का निर्दोष रीति से पालन करना तपाचार है। ५. वीर्याचार-अपनी शक्ति को नहीं छिपाते हुए उत्साहपूर्वक संयम की आराधना करना वीर्याचार है।

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    + उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप -
    जो रयणत्तयजुत्तो, णिच्चं धम्मोवएसणे णिरदो
    सो उवझाओ अप्पा, जदिवरवसहो णमो तस्स ॥53॥
    रत्नत्रय युत नित निरत जो धर्म के उपदेश में ।
    सब साधु जन में श्रेष्ठ श्री उवझाय को वंदन करें ॥५३॥
    अन्वयार्थ : [जो] जो [रयणत्तय-जुत्तो] रत्नत्रय से युक्त [णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो] हमेशा मुनि आदि को धर्म का उपदेश करने में निरत/तत्पर हैं [सो जदिवरवसहो] वह मुनिवरों में प्रधान [अप्पा] आत्मा [उवज्झाओ] उपाध्याय परमेष्ठी हैं [तस्स णमो] उनको नमस्कार हो ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [जो रयणत्तयजुत्तो] जो बाह्य, आभ्यन्तर रत्नत्रय के अनुष्ठान (साधन) से युक्त हैं (निश्चय-व्यवहार-रत्नत्रय को साधने में लगे हुए हैं)[णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो] "छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व व नव पदार्थों में निज-शुद्ध-आत्मद्रव्य, निज-शुद्ध-जीवास्तिकाय, निज-शुद्ध-आत्मतत्त्व और निज-शुद्ध-आत्म पदार्थ ही उपादेय है, अन्य सब हेय हैं ।" इस विषय का तथा उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों का जो निरन्तर उपदेश देते हैं, वे नित्य धर्मोपदेश देने में तत्पर कहलाते हैं । [सो उवज्झाओ अप्पा] इस प्रकार की वह आत्मा उपाध्याय है । उसमें और क्या विशेषता है? [जदिवरवसहो] पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जीतने से निज-शुद्ध-आत्मा में प्रयत्न करने में तत्पर, ऐसे मुनीश्वरों में वृषभ अर्थात् प्रधान होने से यतिवृषभ हैं । [णमो तस्स] उन उपाध्याय परमेष्ठी को द्रव्य तथा भावरूप नमस्कार हो । इस प्रकार उपाध्याय परमेष्ठी के व्याख्यान से गाथासूत्र पूर्ण हुआ ॥५३॥

    अब निश्चयरत्नत्रयस्वरूप-निश्चयध्यान का परम्परा से कारणभूत, बाह्य-अभ्यन्तरमोक्षमार्ग के साधने वाले परमसाधु की भक्तिस्वरूप 'णमो लोए सव्वसाहूणं' पद के उच्चारण, जपने और ध्यानेरूप जो पदस्थ ध्यान उसके ध्येयभूत, ऐसे साधु परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – मुनियों में श्रेष्ठ कौन हैं?

    उत्तर – 'उपाध्याय परमेष्ठी'।

    प्रश्न – 'उपाध्याय परमेष्ठी' कौन कहलाते हैं।

    उत्तर – जो रत्नत्रय से युक्त हैं, नित्य धर्मोपदेश देने में तत्पर हैं। वे 'उपाध्याय परमेष्ठी' हैं।

    प्रश्न – रत्नत्रय कौन से हैं?

    उत्तर – सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-ये तीन रत्न ही रत्नत्रय कहलाते हैं।

    प्रश्न – उपाध्याय परमेष्ठी में और आचार्य परमेष्ठी में क्या अन्तर है ?

    उत्तर – आचार्य परमेष्ठी मार्गप्रवर्तक हैं दीक्षा-शिक्षा देते हैं-प्रायश्चित्त देते हैं उपाध्याय परमेष्ठी मार्गदर्शक हैं-वे वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं समझाते हैं, मार्ग दिखाते हैं, परन्तु दीक्षा वा प्रायश्चित्त देकर मार्ग में प्रवृत्ति नहीं कराते हैं।

    प्रश्न – उपाध्याय परमेष्ठी के कितने गुण हैं ?

    उत्तर – उपाध्याय परमेष्ठी दिगम्बर मुनि हैं-अत: अट्ठाईस मूलगुण तो होते ही हैं तथा ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का पठन-पाठन करते हैं, अत: पच्चीस मूलगुण और होते हैं।

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    + साधु परमेष्ठी का स्वरूप -
    दंसणणाण समग्गं, मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं
    साधयदि णिच्चसुद्धं, साहू सो मुणी णमो तस्स ॥54॥
    जो ज्ञान-दर्शनपूर्वक चारित्र की आराधना ।
    कर मोक्षमारग में खड़े उन साधुओं को है नमन ॥५४॥
    अन्वयार्थ : [जो] जो [मुणी] मुनि [मोक्खस्स मग्गं] मोक्ष के मार्गभूत [दंसण-णाणसमग्गं] सम्यग्दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण [णिच्चसुद्ध] सदा शुद्ध अर्थात् रागादि रहित [चारित्तं] चारित्र को [हु] निश्चय से [साधयदि] साधते हैं [सो साहू] वे साधु परमेष्ठी हैं [तस्स णमो] उनको नमस्कार हो ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [साहू सो मुणी] वे मुनि साधु होते हैं । वे क्या करते हैं? [जो हु साधयदि] जो प्रकट रूप से साधते हैं । किसको साधते हैं? [चारित्तं] चारित्र को साधते हैं । किस प्रकार के चारित्र को साधते हैं? [दंसणणाण समग्गं] वीतराग सम्यग्दर्शन व ज्ञान से परिपूर्ण चारित्र को साधते हैं । पुनः चारित्र कैसा है? [मग्गं मोक्खस्स] जो चारित्र मार्गस्वरूप है । किसका मार्ग है? मोक्ष का मार्ग है । वह चारित्र किस रूप है? [णिच्च सुद्धं] जो चारित्र नित्य सर्वकालशुद्ध अर्थात् रागादि रहित है । (वीतराग सम्यग्दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण, मोक्षमार्ग-स्वरूप, नित्य रागादि रहित, ऐसे चारित्र को अच्छी तरह पालने वाले मुनि, साधु हैं)[णमो तस्स] पूर्वोक्त गुण सहित उस साधु परमेष्ठी को नमस्कार हो ।

    कहा भी गया है --

    दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनका जो उद्योतन, उद्योग, निर्वहण, साधन और निस्तरण है, उसको सत् पुरुषों ने आराधना कहा है ॥१॥

    इस आर्याछन्द में कही हुई बहिरंग-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आराधना के बल से तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप, ये चारों आत्मा में निवास करते हैं, इस कारण आत्मा ही मेरे शरणभूत हैं ॥१॥

    इस गाथा में कहे अनुसार, आभ्यन्तर एवं निश्चय चार प्रकार की आराधना के बल से बाह्य-आभ्यन्तर-मोक्षमार्ग दूसरा नाम है जिसका ऐसी बाह्य-आभ्यन्तर आराधना करके जो वीतराग चारित्र के अविनाभूत निज शुद्ध-आत्मा को साधते हैं अर्थात् भावते हैं; वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं । उन्हीं के लिए मेरा स्वाभाविक-शुद्ध-सदानन्द की अनुभूतिरूप भावनमस्कार तथा 'णमो लोए सव्वसाहूणं' इस पद के उच्चारणरूप द्रव्य नमस्कार हो ॥५४॥

    उक्त प्रकार से पाँच गाथाओं द्वारा मध्यमरूप से पंच परमेष्ठी के स्वरूप का कथन किया गया है, यह जानना चाहिए । अथवा निश्चयनय से अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँचों परमेष्ठी हैं, वे भी आत्मा में स्थित हैं; इस कारण आत्मा ही मुझे शरण है ॥१॥

    इस गाथा में कहे हुए क्रमानुसार संक्षेप से पंचपरमेष्ठियों का स्वरूप जानना चाहिए । विस्तार से पंचपरमेष्ठियों का स्वरूप, पंचपरमेष्ठी का कथन करने वाले ग्रन्थ से क्रमानुसार जानना चाहिए तथा सिद्धचक्र आदि देवों की पूजन-विधिरूप जो मन्त्रवाद-सम्बन्धी पंचनमस्कार माहात्म्य नामक ग्रन्थ हैं, उससे पंचपरमेष्ठियों का स्वरूप अत्यन्त विस्तारपूर्वक जानना चाहिए । इस प्रकार पाँच गाथाओं से दूसरा स्थल समाप्त हुआ ।

    अब उसी ध्यान को विकल्पित निश्चय और अविकल्पित निश्चयरूप प्रकारान्तर से संक्षेपपूर्वक कहते हैं । "गाथा के प्रथम पाद में ध्येय का लक्षण, द्वितीय पाद में ध्याता (ध्यान करने वाले) का लक्षण, तीसरे पाद में ध्यान का लक्षण और चौथे पाद में नयों का विभाग कहता हूँ ।" इस अभिप्राय को मन में धारण करके भगवान् (श्री नेमिचन्द्र) सूत्र का प्रतिपादन करते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    प्रश्न – साधु परमेष्ठी किसे कहते हैं?

    उत्तर – जो रत्नत्रय की साधना शुद्ध रीति से करते हैं, वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं।

    प्रश्न – आचार्य के कितने गुण होते हैं ?

    उत्तर – अट्ठाईस मूलगुण तो होते ही हैं-उनके सिवाय, दश धर्म, बारह तप, तीन गुप्ति, पाँच आचार और छह आवश्यक का पालन ये छत्तीस गुण होते हैं।

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    + निश्चयध्यान का लक्षण -
    जं किंचिवि चिंतंतो, णिरीहवित्ती हवे जदा साहू
    लद्धूणय एयत्तं, तदा हु तं तस्स णिच्चयं झाणं ॥55॥
    निजध्येय में एकत्व निष्पृहवृत्ति धारक साधुजन ।
    चिन्तन करें जिस किसी का भी सभी निश्चय ध्यान है॥५५॥
    अन्वयार्थ : [य] और वह [साहू] साधु [जदा] जिस समय [जं किंचिवि] जो कुछ भी [चिंतंतो] चिंतन करता हुआ [एयत्तं] एकाग्रता को [लद्धूण] प्राप्त करके [णिरीहवित्ती] इच्छा रहित [हवे] होता है [तदा] उस समय [तस्स] उस साधु का [तं] वह [णिच्छयं झाणं] निश्चय ध्यान है ऐसा [आहु] तीर्थंकरदेव कहते हैं ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [तदा] उस काल में, [आहु] कहते हैं, [तं तस्स णिच्छयं झाणं] उसको, उसका निश्चय ध्यान (कहते हैं) । जब क्या होता है? [णिरीहवित्ती हवे जदा साहु] जब निष्पृहवृत्ति वाला साधु होता है । क्या करता है? [जंकिंचिवि चिंतंतो] जिस किसी ध्येय वस्तु स्वरूप का विशेष चिंतन करता है । पहले क्या करके? [लद्धूण य एयत्तं] उस ध्येय में प्राप्त होकर । क्या प्राप्त होकर? एकपने को अर्थात् एकाग्र-चिन्ता-निरोध को प्राप्त होकर । (ध्येय पदार्थ में एकाग्र-चिन्ता का निरोध करके यानि एकचित्त होकर, जिस किसी ध्येय वस्तु का चिन्तन करता हुआ साधु जब निस्पृहवृत्ति वाला होता है, उस समय साधु के उस ध्यान को निश्चयध्यान कहते हैं)

    विस्तार से वर्णन- गाथा में यत् किंचित् ध्येयम् (जिस किसी भी ध्येय पदार्थ को) इस पद से क्या कहा है? प्रारम्भिक अवस्था की अपेक्षा से जो सविकल्प अवस्था है, उसमें विषय और कषायों को दूर करने के लिए तथा चित्त को स्थिर करने के लिए पंचपरमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होते हैं । फिर जब अभ्यास से चित्त स्थिर हो जाता है तब शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव निज-शुद्ध-आत्मा का स्वरूप ही ध्येय होता है । निस्पृह शब्द से मिथ्यात्व, तीनों वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चौदह अन्तरंग परिग्रहों से रहित तथा क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य और भाण्ड नामक दस बहिरंग परिग्रहों से रहित, ध्यान करने वाले का स्वरूप कहा गया है । 'एकाग्र-चिन्ता-निरोध' से पूर्वोक्त नानाप्रकार के ध्यान करने योग्य पदार्थों में स्थिरता और निश्चलता को ध्यान का लक्षण कहा है । 'निश्चय' शब्द से, अभ्यास प्रारम्भ करने वाले की अपेक्षा व्यवहार-रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए और ध्यान में निष्पन्न पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चय ग्रहण करना चाहिए । विशेष निश्चय आगे कहा जाने वाला है । इस प्रकार सूत्र का अर्थ है ॥५५॥

    यहाँ (ध्याता पुरुष) शुभ-अशुभ मन-वचन-काय का निरोध करने पर आत्मा में स्थिर होता है । वह स्थिर होना ही परम ध्यान है, ऐसा उपदेश देते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    पूर्णतया निर्विकल्प होकर जो साधु ध्यान करते हैं वही निश्चय-ध्यान माना गया है।

    प्रश्न – साधु के निश्चय ध्यान कब होता है?

    उत्तर – जब साधु विषयकषायों से विमुख होकर अरहन्तादि का ध्यान करते हुए आत्म-चिन्तन में लीन हो जाते हैं, तब उनके निश्चय ध्यान होता है।

    प्रश्न – निश्चय ध्यान किसे कहते हैं?

    उत्तर – पर से भिन्न स्व आत्मा में लीनता निश्चय ध्यान है।

    प्रश्न – ध्यान करने वाला क्या कहलाता है?

    उत्तर – ध्यान करने वाला 'ध्याता' कहलाता है।

    प्रश्न – जिसका ध्यान किया जाता है, उसे क्या कहते हैं?

    उत्तर – जिसका ध्यान किया जाता है, उसे 'ध्येय' कहते हैं।

    प्रश्न – चित्त की एकाग्रता को क्या कहते हैं?

    उत्तर – चित्त की एकाग्रता को 'ध्यान' कहते हैं।

    प्रश्न – धर्म और शुक्लध्यान का ध्याता कौन होता है ?

    उत्तर – पृथक्त्ववितर्व वीचार और एकत्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान के ध्याता चौदह पूर्व के ज्ञाता भावश्रुतकेवली होते हैं। सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान के ध्याता सयोग केवली और व्युपरत क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान के ध्याता अयोगकेवली होते हैं। धर्मध्यान के दो भेद हैं-सविकल्प और निर्विकल्प। निर्विकल्प धर्मध्यान के ध्याता दिगम्बर मुनि ही होते हैं इसलिए इस गाथा में निर्विकल्प ध्यान का ध्याता साधु को कहा है, सविकल्प ध्यान के ध्याता मुख्यत: मुनिराज होते हैं और गौणत: सम्यग्दृष्टी श्रावक भी होता है।

    प्रश्न – ध्येय किसे कहते हैं ?

    उत्तर – जिस आत्मस्वरूप का या णमोकार मंत्र, देव-शास्त्र-गुरु, सात तत्व आदि का चिंतन किया जाता है, वह ध्येय कहलाता है।

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    + परमध्यान का लक्षण -
    मा चिठ्ठह माजंपह, मा चिंतह विंवि जेण होइ थिरो
    अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥56॥
    बोलो नहीं सोचो नहीं अर चेष्टा भी मत करो ।
    उत्कृष्टतम यह ध्यान है निज आतमा में रत रहो ॥५६॥
    अन्वयार्थ : [किंवि] कुछ भी [चिट्ठह मा] चेष्टा मत करो [जंपह मा] बोलो मत [चिंतह मा] चिन्तन/विचार मत करो [जेण] जिससे [अप्पा अप्पम्मि] आत्मा आत्मा में [रओ] रत होता हुआ [थिरो हवे] स्थिर होवे [इणं एव] यह ही [परं झाणं] परम ध्यान [होइ] होता है ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि] हे विवेकी पुरुषों! नित्य निरंजन और क्रियारहित निज-शुद्ध-आत्मा के अनुभव को रोकने वाली शुभ-अशुभ चेष्टारूप काय की क्रिया को तथा शुभ-अशुभ-अन्तरंग-बहिरंगरूप वचन को और शुभ-अशुभ विकल्प समूहरूप मन के व्यापार को कुछ भी मत करो । [जेण होइ थिरो] जिन तीनों योगों के रोकने से स्थिर होता है । वह कौन? [अप्पा] आत्मा । कैसा होकर स्थिर होता है? [अप्पम्मि रओ] स्वाभाविक शुद्ध-ज्ञान-दर्शन-स्वभाव जो परमात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक परम-ध्यान के अनुभव से उत्पन्न, सर्व प्रदेशों को आनन्ददायक ऐसे सुख के अनुभवरूप परिणति सहित स्व-आत्मा में रत, तल्लीन, तच्चित्त तथा तन्मय होकर स्थिर होता है । [इणमेव परं हवे ज्झाणं] यही जो आत्मा के सुखस्वरूप में तन्मयपना है, वह निश्चय से परम उत्कृष्ट ध्यान है ।

    उस परमध्यान में स्थित जीवों को जो वीतराग परमानन्द सुख प्रतिभासित होता है वही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है । वह अन्य पर्यायवाची नामों से क्या-क्या कहा जाता है, सो कहते हैं । वही शुद्ध आत्म-स्वरूप है, वही परमात्मा का स्व-रूप है, वही एक देश में प्रकटतारूप विवक्षित एक देश शुद्ध-निश्चयनय से निज-शुद्ध-आत्मानुभव से उत्पन्न सुखरूपी अमृत-जल के सरोवर में राग आदि मलों से रहित होने के कारण परमहंस-स्वरूप है । परमात्मध्यान के भावना की नाममाला में इस एकदेश व्यक्तिरूप शुद्धनय के व्याख्यान को यथासम्भव सब जगह लगा लेना चाहिए (ये नाम एकदेश शुद्धनिश्चयनय से अपेक्षित हैं)

    वही परब्रह्मस्वरूप है, वही परमविष्णुरूप है, वही परमशिवरूप है, वही परमबुद्धस्वरूप है, वही परमजिनस्वरूप है, वही परम-निज-आत्मोपलब्धिरूप सिद्धस्वरूप है, वही निरंजनस्वरूप है, वही निर्मलस्वरूप है, वही स्वसंवेदनज्ञान है, वही परमतत्त्वज्ञान है, वही शुद्धात्मदर्शन है, वही परम अवस्थास्वरूप है, वही परमात्मदर्शन है, वही परमात्मज्ञान है, वही परमावस्थारूप परमात्मा का स्पर्शन है, वही ध्यान करने योग्य शुद्ध-पारिणामिक-भावरूप है, वही ध्यानभावनारूप है, वही शुद्धचारित्र है, वह ही परमपवित्र है, वही अन्तरंग तत्त्व है, वही परम-तत्त्व है, वही शुद्धात्म-द्रव्य है, वही परम-ज्योति है, वही शुद्ध-आत्मानुभूति है, वही आत्मा की प्रतीति है, वही आत्म-संवित्ति ( आत्म-संवेदन) है, वही निज-आत्मस्वरूप की प्राप्ति है, वही नित्य पदार्थ की प्राप्ति है, वही परम समाधि है, वही परम-आनन्द है, वही नित्य आनन्द है, वही स्वाभाविक आनन्द है, वही सदानन्द है, वही शुद्ध आत्म-पदार्थ के अध्ययन रूप है, वही परमस्वाध्याय है, वही निश्चय मोक्ष का उपाय है, वही एकाग्र-चिन्ता-निरोध है, वही परमज्ञान है, वही शुद्ध-उपयोग है, वही परम-योग (समाधि) है, वही भूतार्थ है, वही परमार्थ है, वही निश्चय-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्यरूप निश्चय पंचाचार है, वही समयसार है; वह ही अध्यात्मसार है । वही समता आदि निश्चय-षट्-आवश्यक स्वरूप है, वह ही अभेद-रत्नत्रय-स्वरूप है, वही वीतराग सामायिक है, वही परमशरणरूप उत्तम मंगल है, वही केवल-ज्ञानोत्पत्ति का कारण है, वही समस्त कर्मों के क्षय का कारण है, वही निश्चय-दर्शन-ज्ञानचरित्र-तप-आराधनास्वरूप है, वही परमात्मा-भावनारूप है, वही शुद्धात्म-भावना से उत्पन्न सुख की अनुभूतिरूप परम-कला है, वही दिव्य-कला है, वही परम-अद्वैत है, वही अमृतस्वरूप परमधर्मध्यान है, वही शुक्लध्यान है, वही राग आदि विकल्परहित ध्यान है, वही निष्फल ध्यान है, वही परम-स्वास्थ्य है, वही परम-वीतरागता है, वही परम-समता है, वही परम एकत्व है, वही परमभेदज्ञान है, वही परम-समरसी-भाव है; इत्यादि समस्त रागादि विकल्प-उपाधि-रहित, परम आह्लाद एक-सुख-लक्षणमयी ध्यान-स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग को कहने वाले अन्य बहुत से पर्यायवाची नाम परमात्मतत्त्व ज्ञानियों के द्वारा जानने योग्य होते हैं ॥५६॥

    यद्यपि पहले ध्यान करने वाले पुरुष का लक्षण और ध्यान की सामग्री का बहुत प्रकार से वर्णन कर चुके हैं, फिर भी चूलिका तथा उपसंहार रूप से ध्याता पुरुष और ध्यान सामग्री को इसके आगे कहते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    काय, वचन और मन की सभी क्रियाओं को रोककर तथा मन को स्थिर करके जो आत्मा अपने आप में लीन हो जाता है उस समय ही उसका ध्यान निर्विकल्प परम ध्यान कहलाता है।

    प्रश्न – परम ध्यान किसे कहते हैं?

    उत्तर – मानसिक, वाचनिक और कायिक व्यापार को छोड़कर आत्मा का आत्मा में लीन हो जाना परम-उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है।

    प्रश्न – परम ध्यान की सिद्धि किसे होती है?

    उत्तर – वीतरागी, निर्र्ग्रन्थ, दिगम्बर मुनिराज को ही परम ध्यान की सिद्धि होती है।

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    + ध्यान का कारण -
    तवसुदवदवं चेदा, झाणरह-धुरंधरो हवे जम्हा
    तम्हा तत्तियणिरदा, तल्लद्धीए सदा होई ॥57॥
    व्रती तपसी श्रुताभ्यासी ध्यान में हो धुरंधर ।
    निज ध्यान करने के लिए तुम करो इनकी साधना ॥५७॥
    अन्वयार्थ : [जम्हा] जिस कारण से [तवसुदवदवं] तप, श्रुत और व्रत वाली [चेदा] आत्मा [झाणरहधुरंधरो] ध्यानरूपी रथ की धुरी को धारण करने वाली [हवे] होती है [तम्हा] उस कारण से [तल्लद्धीए] उस ध्यान की प्राप्ति के लिये [सदा] हमेशा [तत्तियणिरदा] तप, श्रुत और व्रत इन तीनों में निरत [होइ] होओ ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा] क्योंकि तप, श्रुत और व्रतधारी आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने के लिए समर्थ होता है । [तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होइ] हे भव्यो! इस कारण से तप, श्रुत और व्रत, इन तीन में सदा लीन हो जाओ । किसलिए? उस ध्यान की प्राप्ति के लिए । विशेष वर्णन --

    १. अनशन (उपवास करना), २. अवमौदर्य (कम भोजन करना), ३. वृत्तिपरिसंख्यान (अटपटी आखड़ी करके भोजन करने जाना), ४.रस परित्याग (दूध, दही, घी, तेल, खाण्ड व नमक, इन छह रसों में से एक दो आदि रसों का त्याग करना), ५. विविक्तशय्यासन (निर्जन और एकान्त स्थल में शयन करना, रहना, बैठना), ६. कायक्लेश (आत्मशुद्धि के लिए आतापन योग आदि करना) यह छह प्रकार का बाह्य तप; १. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग (बाह्य अभ्यन्तर उपाधि का त्याग) और ६. ध्यान; यह छह प्रकार का अन्तरंग तप; ऐसे बाह्य तथा अभ्यन्तररूप बारह प्रकार का (व्यवहार) तप है । उसी (व्यवहार) तप से सिद्ध होने योग्य निज-शुद्ध-आत्म-स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजय करने रूप निश्चय तप है । इसी प्रकार आचार-आराधना आदि द्रव्यश्रुत है तथा उस द्रव्य-श्रुत के आधार से उत्पन्न व विकार रहित निज-शुद्ध-स्वसंवेदनरूप ज्ञान, भावश्रुत है तथा हिंसा, अनृत, स्तेय (चोरी), अब्रह्म (कुशील) और परिग्रह, इनका द्रव्य व भावरूप से त्याग करना, पाँच व्रत हैं । ऐसे पूर्वोक्त तप, श्रुत और व्रत से सहित पुरुष ध्याता (ध्यान करने वाला) होता है । तप, श्रुत तथा व्रत ही ध्यान की सामग्री है । सो ही कहा है- १. वैराग्य, २. तत्त्वों का ज्ञान, ३. परिग्रहों का त्याग, ४. साम्यभाव और ५. परीषहों का जीतना ये पाँच ध्यान के कारण हैं ॥१॥

    शंका – भगवान् ! ध्यान तो मोक्ष का कारण है, मोक्ष चाहने वाले पुरुष को पुण्यबन्ध का कारण होने से व्रत त्यागने योग्य है (व्रतों से पुण्य कर्म का बन्ध होता है; पुण्यबन्ध संसार का कारण है; इस कारण मोक्षार्थी व्रतों का त्याग करता है) किन्तु आपने तप, श्रुत और व्रतों को ध्यान की सामग्री बतलाया है । सो यह आपका कथन कैसे सिद्ध होता है?

    उत्तर – केवल व्रत ही त्यागने योग्य नहीं हैं किन्तु पापबन्ध के कारण हिंसा आदि अव्रत भी त्याज्य हैं । सो ही श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है- अव्रतों से पाप का बन्ध और व्रतों से पुण्य का बन्ध होता है, पाप तथा पुण्य इन दोनों का नाश होना मोक्ष है, इस कारण मोक्षार्थी पुरुष जैसे अव्रतों का त्याग करता है, वैसे ही अहिंसादि व्रतों का भी त्याग करे ॥१॥ परन्तु मोक्षार्थी पुरुष पहले अव्रतों का त्याग करके पश्चात् व्रतों को धारण करके निर्विकल्पसमाधि (ध्यान) रूप आत्मा के परम पद को प्राप्त होकर तदनन्तर एकदेश व्रतों का भी त्याग कर देता है । यह भी श्री पूज्यपादस्वामी ने समाधिशतक में कहा है

    मोक्ष चाहने वाला पुरुष अव्रतों का त्याग करके व्रतों में स्थित होकर परमात्मपद प्राप्त करे और परमपद पाकर उन व्रतों का भी त्याग करे ॥१॥

    विशेष यह है कि जो व्यवहाररूप से प्रसिद्ध एकदेशव्रत हैं, ध्यान में उनका त्याग किया है; किन्तु समस्त त्रिगुप्तिरूप स्व-शुद्ध-आत्म-अनुभवरूप निर्विकल्प ध्यान में समस्त शुभ-अशुभ की निवृत्ति रूप निश्चयव्रत ग्रहण किये हैं, उनका त्याग नहीं किया है ।

    प्रश्न – प्रसिद्ध अहिंसादि महाव्रत एकदेश रूप व्रत कैसे हो गये?

    उत्तर – अहिंसा महाव्रत में यद्यपि जीवों के घात से निवृत्ति है; तथापि जीवों की रक्षा करने में प्रवृत्ति है । इसी प्रकार सत्य महाव्रत में यद्यपि असत्य वचन का त्याग है, तो भी सत्य वचन में प्रवृत्ति है । अचौर्यमहाव्रत में यद्यपि बिना दिये हुए पदार्थ के ग्रहण का त्याग है, तो भी दिये हुए पदार्थों (पिच्छिका, कमण्डलु, शास्त्र) के ग्रहण करने में प्रवृत्ति है, इत्यादि एकदेश प्रवृत्ति की अपेक्षा से ये पाँचों महाव्रत देशव्रत हैं । इन एकदेश रूप व्रतों का, त्रिगुप्ति स्वरूप निर्विकल्प समाधि-काल में त्याग है । किन्तु समस्त शुभ-अशुभ की निवृत्तिरूप निश्चयव्रत का त्याग नहीं है ।

    प्रश्न – त्याग शब्द का क्या अर्थ है?

    उत्तर – जैसे हिंसा आदि पाँच अव्रतों की निवृत्ति है, उसी प्रकार अहिंसा आदि पंच महाव्रतरूप एकदेश व्रतों की भी निवृत्ति है, यहाँ त्याग शब्द का यह अर्थ है ।

    शंका – इन एकदेश व्रतों का त्याग किस कारण होता है?

    उत्तर – त्रिगुप्तिरूप अवस्था में प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप विकल्प का स्वयं स्थान नहीं है । (ध्यान में कोई विकल्प नहीं होता । अहिंसादिक महाव्रत विकल्परूप हैं अतः वे ध्यान में नहीं रह सकते) । अथवा वास्तव में वह निर्विकल्प ध्यान ही निश्चयव्रत है क्योंकि उसमें पूर्ण निवृत्ति है । दीक्षा के बाद दो घड़ी (४८ मिनट) काल में ही भरतचक्रवर्ती ने जो मोक्ष प्राप्त किया है, उन्होंने भी जिन-दीक्षा ग्रहण करके, थोड़े काल तक विषय-कषाय की निवृत्तिरूप व्रत का परिणाम करके, तदनन्तर शुद्धोपयोगरूप रत्नत्रयमयी निश्चयव्रत नामक वीतराग सामायिक संज्ञा वाले निर्विकल्पध्यान में स्थित होकर केवलज्ञान प्राप्त किया है । परन्तु व्रत परिणाम के स्तोक काल के कारण लोग श्री भरतजी के व्रत-परिणाम को नहीं जानते । अब उन ही भरतजी के दीक्षाविधान का कथन करते हैं । श्री वर्द्धमान तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में श्रेणिक महाराज ने प्रश्न किया कि हे भगवन्! भरतचक्रवर्ती को जिनदीक्षा लेने के पीछे कितने समय में केवलज्ञान हुआ? श्री गौतम गणधर ने उत्तर दिया -

    हे श्रेणिक! पंच-मुष्ठियों से बालों को उखाड़कर (केशलौंच करके) कर्मबन्ध की स्थिति तोड़ते हुए, केशलौंच के अनन्तर ही भरतचक्रवर्ती ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ॥१॥

    शिष्य का प्रश्न – इस पंचमकाल में ध्यान नहीं है क्योंकि इस काल में उत्तम संहनन (वज्रवृषभनाराच संहनन) का अभाव है तथा दश एवं चौदहपूर्व श्रुतज्ञान भी नहीं पाया जाता?

    उत्तर – इस समय शुक्लध्यान नहीं है परन्तु धर्मध्यान है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने मोक्षप्राभृत में कहा है- भरतक्षेत्र विषम दुःषमा नामक पंचमकाल में ज्ञानी जीव के धर्मध्यान होता है । यह धर्मध्यान आत्म-स्वभाव में स्थित के होता है । जो यह नहीं मानता, वह अज्ञानी है ॥१॥ इस समय भी जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय से शुद्ध जीव आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपद अथवा लौकान्तिकदेव पद को प्राप्त होते हैं और वहाँ से चयकर नरदेह ग्रहण करके मोक्ष को जाते हैं ॥२॥

    ऐसा ही तत्त्वानुशासन ग्रन्थ में भी कहा है- इस समय (पंचमकाल) में जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं; किन्तु श्रेणी से पूर्व में होने वाले धर्मध्यान का अस्तित्व बतलाया है ॥१॥ तथा - जो यह कहा है कि- "इस काल में उत्तम संहनन का अभाव है इस कारण ध्यान नहीं होता" सो यह उत्सर्ग वचन है अपवादरूप व्याख्यान से तो उपशमश्रेणी तथा क्षपक श्रेणी में शुक्लध्यान होता है और वह उत्तम संहनन से ही होता है; किन्तु अपूर्वकरण (८ वें) गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में जो धर्मध्यान होता है, वह धर्मध्यान पहले तीन उत्तम संहननों के अभाव होने पर भी अन्तिम के (अर्द्धनाराच, कीलक और सृपाटिका) तीन संहननों से भी होता है ।

    यह भी उसी तत्त्वानुशासन ग्रन्थ में कहा है -- वज्रकाय (संहनन) वाले के ध्यान होता है, ऐसा आगम-वचन उपशम तथा क्षपक श्रेणी के ध्यान की अपेक्षा कहा है । यह वचन नीचे के गुणस्थानों में धर्मध्यान का निषेधक नहीं है ।

    जो ऐसा कहा है कि "दश तथा चौदहपूर्व तक के श्रुतज्ञान से ध्यान होता है" वह भी उत्सर्गवचन है । अपवाद व्याख्यान से तो पाँच समिति और तीन गुप्ति को प्रतिपादन करने वाले सारभूत श्रुतज्ञान से भी ध्यान और केवलज्ञान होता है । यदि ऐसा अपवाद व्याख्यान न हो, तो तुष-माष का उच्चारण करते हुए श्री शिवभूति मुनि केवलज्ञानी हो गये इत्यादि गन्धर्वाराधनादि ग्रन्थों में कहा हुआ कथन कैसे सिद्ध होवे ।

    शंका – श्री शिवभूति मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों को प्रतिपादन करने वाले द्रव्य श्रुत को जानते थे और भावश्रुत उनके पूर्णरूप से था ।

    उत्तर – ऐसा नहीं है, क्योंकि यदि शिवभूति मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों का कथन करने वाले द्रव्यश्रुत को जानते थे तो उन्होंने "मा तूसह मा रूसह" अर्थात् "किसी में राग और द्वेष मत कर" इस एक पद को क्यों नहीं जाना । इसी कारण से जाना जाता है कि पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप आठ प्रवचनमातृका प्रमाण ही उनके भावश्रुत था और द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं था । यह व्याख्यान मैंने ही कल्पित नहीं किया है, किन्तु चारित्रसार आदि शास्त्रों में भी यह वर्णन हुआ है, तथाहि- अन्तर्मुहूर्त में जो केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं वे क्षीणकषाय गुणस्थान में रहने वाले 'निर्ग्रन्थ' नामक ऋषि कहलाते हैं और उनके उत्कृष्टता से ग्यारह अंग, चौदह पूर्व पर्यन्त श्रुतज्ञान होता है, जघन्य से पाँच समिति तीन गुप्ति मात्र ही श्रुतज्ञान होता है ।१।

    शंका – मोक्ष के लिए ध्यान किया जाता है और इस पंचम काल में मोक्ष होता नहीं, अतः ध्यान करने से क्या प्रयोजन?

    समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि इस पंचमकाल में भी परम्परा से मोक्ष है ।

    प्रश्न – परम्परा से मोक्ष कैसे है?

    उत्तर – (ध्यानी पुरुष) निजशुद्ध-आत्म-भावना के बल से संसार-स्थिति को अल्प करके स्वर्ग में जाते हैं । वहाँ से आकर मनुष्य भव में रत्नत्रय की भावना को प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्ष जाते हैं । जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचन्द्र, पाण्डव (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम) आदि मोक्ष गये हैं, वे भी पूर्वभव में भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से संसार-स्थिति को स्तोक करके फिर मोक्ष गये । उसी भव में सबको मोक्ष हो जाता है, ऐसा नियम नहीं । उपर्युक्त कथनानुसार अल्पश्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है । यह जानकर क्या करना चाहिए? द्वेष से किसी को मारने, बाँधने व अंग काटने आदि का और राग से परस्त्री आदि का जो चिन्तन करना है, निर्मल बुद्धि के धारक आचार्य जिनमत में उसको अपध्यान कहते हैं ॥१॥ हे जीव! संकल्परूपी कल्पवृक्ष का आश्रय करने से तेरा चंचल चित्त इस मनोरथरूपी सागर में डूब जाता है, वैसे उन संकल्पों में जीव का वास्तव में कुछ प्रयोजन नहीं सधता, प्रत्युत कलुषता से समागम करने वालों का अर्थात् कलुषित चित्त वालों का अकल्याण होता है ॥२॥ जिस प्रकार दुर्भाग्य से दुःखित मन वाले तेरे अन्तरंग में भोग भोगने की इच्छा से व्यर्थ तरंगें उठती रहती हैं । उसी प्रकार यदि वह मन परमात्मरूप स्थान में स्फुरायमान हो तो तेरा जन्म कैसे निष्फल हो सकता है? अर्थात् तेरा जन्म सफल हो जावे ॥३॥ आकांक्षा से कलुषित हुआ और काम भोगों में मूर्च्छित, यह जीव भोगों को नहीं भोगता हुआ भी भावों से कर्मों को बाँधता है ॥४॥

    इत्यादि रूप दुर्ध्यान को छोड़कर निर्ममत्व में स्थित होकर अन्य पदार्थों में ममत्व बुद्धि का त्याग करता हूँ, मेरे आत्मा का ही आलम्बन है, अन्य सबको मैं त्यागता हूँ ॥१॥

    मेरा आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही संवर है और आत्मा ही योग है ॥२॥ ज्ञान-दर्शन का धारक अविनाशी एक मेरा आत्मा है और शेष सब संयोग लक्षण वाले बाह्य भाव हैं ॥३॥ इत्यादि सारभूत पदों को ग्रहण करके ध्यान करना चाहिए ।

    अब मोक्ष के विषय में फिर भी नय विचार कहते हैं - मोक्ष बन्धपूर्वक है । सो ही कहा है - यदि जीव मुक्त है तो पहले इस जीव के बन्ध अवश्य होना चाहिए क्योंकि यदि बन्ध न हो तो मोक्ष (छूटना) कैसे हो सकता है । इसलिए अबन्ध (न बँधे हुए) की मुक्ति नहीं हुआ करती, उसके तो मुंच धातु (छूटने की वाचक) का प्रयोग ही व्यर्थ है (कोई मनुष्य पहले बँधा हुआ हो, फिर छूटे, तब वह मुक्त कहलाता है । ऐसे ही जो जीव पहले कर्मों से बँधा हो उसी को मोक्ष होता है) । शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से बन्ध है ही नहीं । इस प्रकार शुद्ध-निश्चयनय से बन्धपूर्वक मोक्ष भी नहीं है । यदि शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा बन्ध होवे तो सदा ही बन्ध होता रहे, मोक्ष ही न हो । जैसे जंजीर से बँधे हुए पुरुष के, बन्ध नाश के कारणभूत जो भावमोक्ष है उसकी जगह जो जंजीर के बन्धन को छेदने का कारणभूत उद्यम है, वह पुरुष का स्वरूप नहीं है और इसी प्रकार द्रव्यमोक्ष के स्थान में जो जंजीर और पुरुष इन दोनों का अलग होना है, वह भी पुरुष का स्वरूप नहीं है किन्तु उन उद्यम और जंजीर के छुटकारे से जुदा जो देखा हुआ हस्तपाद आदि रूप आकार है, वही पुरुष का स्वरूप है । उसी प्रकार शुद्धोपयोगरूप जो भाव मोक्ष का स्वरूप है, वह शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव का स्वरूप नहीं है और उसी तरह उस भावमोक्ष से साध्य जो जीव और कर्म के प्रदेशों के पृथक् होने रूप द्रव्य मोक्ष का स्वरूप है, वह भी जीव का स्वभाव नहीं है किन्तु उन भाव व द्रव्यमोक्ष से भिन्न तथा उनका फलभूत जो अनन्त ज्ञान आदि गुण-रूप स्वभाव है, वही शुद्ध जीव का स्वरूप है । यहाँ तात्पर्य यह है कि, जैसे विवक्षित-एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से पहले मोक्षमार्ग का व्याख्यान है; उसी प्रकार पर्यायमोक्ष रूप जो मोक्ष है, वह भी एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से है; किन्तु शुद्ध-निश्चयनय से नहीं है । जो शुद्ध-द्रव्य की शक्ति रूप शुद्ध-पारिणामिक परमभाव रूप परमनिश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहले ही विद्यमान है, वह परमनिश्चय मोक्ष जीव में अब होगा, ऐसा नहीं है । राग आदि विकल्पों से रहित मोक्ष का कारणभूत ध्यान-भावना-पर्याय में, वही परम निश्चय मोक्ष ध्येय होता है, वह निश्चय मोक्ष ध्यान-भावना-पर्यायरूप नहीं है । यदि एकान्त से द्रव्यार्थिक नय से भी उसी (परमनिश्चय मोक्ष) को मोक्ष का कारणभूत ध्यान-भावना-पर्याय कहा जावे, तो द्रव्य और पर्याय रूप दो धर्मों के आधारभूत जीव-धर्मी का, मोक्षपर्याय प्रकट होने पर, जैसे ध्यान-भावना-पर्यायरूप से विनाश होता है, उसी प्रकार शुद्ध-पारिणामिक-भाव स्वरूप द्रव्य रूप से भी ध्येयभूत जीव का विनाश प्राप्त होगा; किन्तु द्रव्य रूप से जीव का विनाश नहीं है । इस कारण, "शुद्ध-पारिणामिक भाव से जीव के बन्ध और मोक्ष नहीं है" यह कथन सिद्ध हो गया ।

    अब आत्मा शब्द का अर्थ कहते हैं । 'अत' धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थ में है और सब गमनार्थक धातु ज्ञानार्थक होती हैं । इस वचन से यहाँ पर 'गमन' शब्द से ज्ञान कहा जाता है । इस कारण जो यथासम्भव ज्ञान सुख आदि गुणों में सर्व प्रकार वर्त्तता है, वह आत्मा है । अथवा शुभअशुभ मन-वचन-काय की क्रिया के द्वारा यथासम्भव तीव्र-मन्द आदि रूप से जो पूर्णरूपेण वर्तता है, वह आत्मा है । अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों धर्मों के द्वारा जो पूर्णरूप से वर्तता है, वह आत्मा है ।

    शंका – जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जल के भरे हुए घटों में देखा जाता है, इसी प्रकार एक ही जीव अनेक शरीरों में रहता है?

    उत्तर – यह कथन घटित नहीं होता ।

    प्रश्न – क्यों नहीं घटित होता?

    उत्तर – चन्द्रकिरणरूप उपाधि-वश से घटों में स्थित जलरूपी, पुद्गल ही नाना-चन्द्र-आकार रूप परिणत हुआ है, एक चन्द्रमा अनेक रूप नहीं परिणमा है । दृष्टान्त कहते हैं- जैसे देवदत्त के मुख रूप उपाधि के वश से अनेक दर्पणों में स्थित पुद्गल ही अनेक मुख रूप परिणमते हैं, एक देवदत्त का मुख अनेक रूप नहीं परिणमता । यदि कहो कि देवदत्त का मुख ही अनेक मुख रूप परिणमता है, तो दर्पणस्थित देवदत्त के मुख के प्रतिबिम्ब भी, देवदत्त के मुख की तरह, चेतन (सजीव) हो जायेंगे, परन्तु ऐसा नहीं है (दर्पणों में मुख-प्रतिबिम्ब चेतन नहीं हैं) यदि अनेक शरीरों में एक ही जीव हो तो, एक जीव को सुख-दुःख-जीवन-मरण आदि प्राप्त होने पर, उसी क्षण सब जीवों को सुख-दुःखजीवन-मरण आदि प्राप्त होने चाहिए; किन्तु ऐसा देखने में नहीं आता ।

    अथवा जो ऐसा कहते हैं कि, "जैसे एक ही समुद्र कहीं तो खारे जल वाला है, कहीं मीठे जल वाला है, उसी, प्रकार एक ही जीव सब देहों में विद्यमान है" सो यह कहना भी घटित नहीं होता ।

    प्रश्न – क्यों नहीं घटित होता ।

    उत्तर – समुद्र में जलराशि की अपेक्षा से एकता है, जलपुद्गलों (कणों) की अपेक्षा से एकता नहीं है । यदि जलपुद्गलों की अपेक्षा से एकता होती (एक अखण्ड द्रव्य होता) तो समुद्र में से थोड़ा जल ग्रहण करने पर शेष जल भी उसके साथ ही क्यों न आ जाता । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि -- सोलह-वानी के सुवर्ण की राशि के समान अनन्तज्ञान आदि लक्षण की अपेक्षा जीवराशि में एकता है और एक जीव की (समस्त जीवराशि में एक ही जीव है, इस) अपेक्षा से जीवराशि में एकता नहीं है ।

    अब 'अध्यात्म' शब्द का अर्थ कहते हैं । मिथ्यात्व-राग आदि समस्त विकल्प, समूह के त्याग द्वारा निज-शुद्ध-आत्मा में जो अनुष्ठान (प्रवृत्ति का करना) उसको 'अध्यात्म' कहते हैं । इस प्रकार ध्यान की सामग्री के व्याख्यान के उपसंहार रूप से यह गाथा समाप्त हुई ॥५७॥

    अब ग्रन्थकार अपने अभिमान के परिहार के लिए छन्द कहते हैं --


    आर्यिका ज्ञानमती :
    तपश्चरण, शास्त्र ज्ञान और व्रत इन तीनों के बिना ध्यान की सिद्धि असम्भव है अत: इन तीनो में तत्पर हो जाना चाहिए।

    प्रश्न – ध्याता कैसा होना चाहिए?

    उत्तर – बारह तप, पाँच महाव्रतों का पालन करने वाला एवं शास्त्रों का मनन करने वाला तपवान, श्रुतवान और व्रतवान आत्मा ही योग्य ध्याता हो सकता है।

    प्रश्न – क्यों?

    उत्तर – क्योंकि वही ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने में समर्थ होता है।

    प्रश्न – ध्यानी आत्मा का वाहन क्या होता है?

    उत्तर – ध्यानरूपी 'रथ' ध्यानी का वाहन कहलाता है।

    प्रश्न – ध्यानरूपी रथ में यात्रा करने वाला किस नगर में प्रवेश करता है?

    उत्तर – ध्यानरूपी रथ में बैठकर यात्रा करने वाला महापुरुष 'मोक्षनगर' में प्रवेश करता है।

    प्रश्न – ध्यान की सिद्धि के लिए आवश्यक सामग्री क्या है?

    उत्तर – ध्यान की सिद्धि के लिए-तप, श्रुत और व्रतों का परिपालन करना आवश्यक है। अत: यही उसकी आवश्यक सामग्री है।

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    + ग्रन्थकर्ता का लघुता प्रकाशन -
    दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सुदपुण्णा
    सोधयंतु तणुसुत्तधरेण, णेमिचंदमुणिणा भणियं जं ॥58॥
    अल्प श्रुतधर नेमिचंद मुनि द्रव्यसंग्रह संग्रही ।
    अब दोषविरहित पूर्णश्रुतधर साधु संशोधन करें ॥५८॥
    अन्वयार्थ : [तणुसुत्तधरेण] अल्पश्रुत को धारण करने वाले [णेमिचंदमुणिणा] मुझ नेमिचन्द्र मुनि के द्वारा [जं इणं दव्वसंगहं भणियं] जो यह द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ कहा गया है इसको [दोससंचयचुदा[या दोषों के समूह से रहित [सुदपुण्णा] श्रुत में परिपूर्ण [मुणिणाहा] मुनियों के नाथ बहुश्रुत ज्ञाता गुरुजन [सोधयंतु] शुद्ध करें ।

    ब्रह्मदेव सूरि :
    [सोधयंतु] शुद्ध करें । कौन शुद्ध करें? [मुणिणाहा] मुनिनाथ, मुनियों में प्रधान अर्थात् आचार्य । कैसे हैं वे आचार्य? [दोससंचयचुदा] निर्दोष-परमात्मा से विलक्षण से जो राग आदि दोष तथा निर्दोष-परमात्मादि तत्त्वों के जानने में संशय-विमोह-विभ्रमरूप दोष, इन दोषों से रहित होने से, दोषों से रहित हैं । फिर कैसे हैं? [सुदपुण्णा] वर्तमान परमागम नामक द्रव्य-श्रुत से तथा उस परमागम के आधार से उत्पन्न निर्विकार-स्व-अनुभव रूप भावश्रुत से परिपूर्ण होने से श्रुत पूर्ण हैं । किसको शुद्ध करें? [दव्वसंगहमिणं] शुद्ध-बुद्ध-एकस्वभाव परमात्मा आदि द्रव्यों के संग्रह रूप जो द्रव्यसंग्रह इस प्रत्यक्षीभूत 'द्रव्यसंग्रह' नामक ग्रन्थ को । कैसे द्रव्यसंग्रह को? [भणियं जं] जिस ग्रन्थ को कहा है । किसने कहा है? [णेमिचंदमुणिणा] सम्यग्दर्शन आदि निश्चय-व्यवहार रूप पंच-आचार सहित 'श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव' नामक मुनि ने । कैसे नेमिचन्द्र ने? [तणुसुत्तधरेण] अल्पश्रुतज्ञानी ने । जो स्तोक श्रुत को धारण करे वह अल्पश्रुतज्ञानी है । इस प्रकार क्रिया और कारकों का सम्बन्ध है । इस प्रकार ध्यान के उपसंहार रूप तीन गाथाओं से तथा ज्ञान के अभिमान के परिहार के लिए एक प्राकृत छन्द से द्वितीय अन्तराधिकार में तृतीय स्थल समाप्त हुआ ॥५८॥

    ऐसे दो अन्तराधिकारों द्वारा बीस गाथाओं से मोक्षमार्ग-प्रतिपादक तृतीयाधिकार समाप्त हुआ॥

    इस ग्रन्थ में विवक्षित विषय की सन्धि होती है इस वचन-अनुसार पदों की सन्धि का नियम नहीं है । (कहीं पर सन्धि की है और कहीं पर नहीं) । सरलता से बोध कराने के लिए, वाक्य छोटे-छोटे बनाये गये हैं । लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सम्बन्ध, समास, विशेषण और वाक्य-समाप्ति आदि दूषण एवं शुद्ध-आत्मा आदि तत्त्वों के कथन में विस्मरण (भूल) आदि दूषण इस ग्रन्थ में हों, उन्हें विद्वान् पुरुष ग्रहण न करें ।

    इस तरह जीवमजीवं दव्वं इत्यादि २७ गाथाओं का षट्द्रव्यपंचास्तिकायप्रतिपादकनामा प्रथम अधिकार है । तदनन्तर आस्सव बंधण इत्यादि ११ गाथाओं का सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादकनामा दूसरा अधिकार है । उसके पश्चात् सम्मद्दंसण आदि बीस गाथाओं का मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा तीसरा अधिकार है ।

    इस प्रकार श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव विरचित तीन अधिकारों की ५८ गाथाओं वाले द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की श्रीब्रह्मदेवकृत संस्कृत-वृत्ति समाप्त हुई ।


    आर्यिका ज्ञानमती :
    श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती महामुनिराज अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि मैं अल्पसूत्रों का जानने वाला हूँ अत: पूर्ण श्रुत केवली और रागादि दोषों से रहित मुनि प्रधान इस मेरी कृति का संशोधन करें।

    प्रश्न – 'द्रव्यसंग्रह' के रचयिता कौन हैं?

    उत्तर – आचार्यश्री १०८ नेमिचन्द्र महामुनि ने द्रव्यसंग्रह ग्रंथ रचा है।

    प्रश्न – अल्पज्ञानी शब्द किस बात का सूचक है?

    उत्तर – अल्पज्ञानी शब्द आचार्य देव की लघुता प्रदर्शन एवं विनयगुण का प्रतीक है।

    प्रश्न – यहाँ नेमिचन्द्र मुनिराज ने शास्त्र शुद्धि करने का अधिकार किसे दिया है?

    उत्तर – यहाँ श्री नेमिचन्द्राचार्य का अभिप्राय है कि निर्दोष मुनिराज जो कि समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हैं वे मुनिराज ही शास्त्र शुद्ध करने के अधिकारी हैं। अर्थात् हम और आप जैसे अल्पज्ञानी मनुष्य इसमें कोई संशोधन नहीं कर सकते हैं।

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