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आप्त-मीमांसा
























- 01_आप्त-मीमांसा



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022


Index


गाथा / सूत्रविषय
001) देवों की पूजा आदि से आप महान नहीं हैं
002) विग्रह आदि महोदय से भी आप महान नहीं हैं
003) तीर्थंकरत्व हेतु से भी आप महान नहीं हैं
004) दोषों तथा आवरणों का पूर्णतया अभाव संभव है
005) सर्वज्ञ की व्यवस्था
006) आप ही निर्दोष सर्वज्ञ हैं
007) सर्वथा एकांतवाद प्रमाण से बाधित है
008) एकांत में शुभ-अशुभ आदि नहीं बनते
009) भावैकांत की मान्यता में दोष
010) प्रागभाव-प्रध्वंसाभाव को न मानने में दोष
011) अन्योन्याभाव-अत्यंताभाव को न मानने में दोष
012) अभावैकान्त की मान्यता में दोष
013) एकांतरूप भावाभाव और अवक्तव्य में दोष
014) भाव-अभाव आदि निर्दोष कैसे हैं ?
015) सत् असत् निर्दोष कैसे हैं ?
016) उभय और अवक्तव्य कथन निर्दोष कैसे हैं ?
017) भावधर्म अभाव के साथ रहता है
018) अभाव भाव के साथ रहता है
019) वस्तु भावाभावात्मक है
020) शेष भंग भी नय विवक्षा से बनेंगे
021) वस्तु एक रूप नहीं है
022) प्रत्येक धर्म का अर्थ पृथक् है
023) अन्य धर्मों में भी सप्तभंगी प्रक्रिया करना
024) अद्वैत एकांत में दोष
025) अद्वैत में शुभ-अशुभ आदि द्वैत नहीं बनते
026) अद्वैत में द्वैत आ जाता है
027) अद्वैत के बिना द्वैत कैसे ?
028) पृथक्त्वैकांत नहीं बनता
029) बौद्ध की पृथक्त्व मान्यता में दोष
030) क्या ज्ञान ज्ञेय से सर्वथा भिन्न है
031) बौद्ध के यहाँ वचन किसको कहते हैं ?
032) अद्वैत पृथक्त्व एकान्त में दोष
033) अद्वैत और पृथक्त्व सच्चे भी हैं
034) सभी वस्तुएँ एकत्व और पृथक्त्व रूप केसे हैं ?
035) सत् में ही विवक्षा और अविवक्षा होती है
036) एक वस्तु में भेद और अभेद दोनों केसे होंगे ?
037) वस्तु को सर्वथा नित्य मानने में दोष
038) प्रमाण और कारकों के नित्य होने में विक्रिया केसी ?
039) सर्वथा सत् रूप कार्य उत्पन्न केसे होगा ?
040) नित्य एकांत में पुण्य पापादि भी असंभव हैं
041) क्षणिक एकांत भी असंभव है
042) कार्य सर्वथा असत् से केसे होगा ?
043) क्षणिक एकांत में कार्यकारण भाव असंभव है
044) बौद्ध भिन्न-भिन्न कार्यक्षणों में एकत्व को संवृति से मानता है
045) बौद्ध के यहाँ चतुष्कोटि विकल्प अवक्तव्य है
046) एकांत से अवक्तव्य मान्यता में दोष
047) असत् का निषेध होता है क्या ?
048) अवस्तु ही अवक्तव्य है
049) सभी धर्मों से रहित को कहा नहीं जा सकता
050) आप बौद्ध वस्तु को अवाच्य क्यों मानते हो ?
051) सर्वथा क्षणिक में कृतनाश आदि दोष आते हैं
052) नाश को निर्हेतुक मानने में दोष
053) बौद्ध ने हेतु को विसदृश कार्य के लिए माना है
054) बौद्ध के यहाँ स्कंधादी में उत्पादादि नहीं बनते हैं
055) नित्य क्षणिक का उभय एकांत सदोष है
056) नित्य और क्षणिक स्याद्वाद में निर्दोष हैं
057) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की व्यवस्था
058) उत्पाद आदि अभिन्न हैं
059) एक द्रव्य के नाश आदि में भिन्न भाव होते है
060) वस्तु तत्त्व त्रयात्मक है
061) क्या कार्य कारण आदि सर्वथा भिन्न हैं ?
062) वैशेषिक के सर्वथा भिन्नैकांत में दोष
063) वैशेषिक को देश-काल भेद भी मानना चाहिए
064) समवाय से वृत्ति मानने में दोष
065) सामान्य समवाय एक-एक हैं
066) सामान्य समवाय भी परस्पर में भिन्न हैं
067) परमाणु की अन्यरूप परिणति न मानने में दोष
068) कार्य भ्रांत है तो कारण भी भ्रांत है
069) सांख्य के यहाँ कार्यकारणादि में एकत्व ही है
070) सर्वथा भिन्न-अभिन्न की उभय और अवाच्य भी सदोष है
071) कथंचित् कार्य-कारण आदि का भेद-अभेद ठीक है
072) 
073) धर्म, धर्मी सर्वथा आपेक्षिक या अनापेक्षिक ही नहीं है
074) आपेक्षिक-अनापेक्षिक का उभय एवं अवाच्य एकांत से नहीं घटता
075) आपेक्षिक-अनापेक्षिक की अनेकांत व्यवस्था
076) सर्वथा हेतु सिद्ध या आगम सिद्ध तत्त्व बाधित है
077) हेतु के और आगम के उभय एवं अवाच्य भी सदोष हैं
078) हेतु और आगम का अनेकांत
079) सर्वथा अंतरंग अर्थ मानना सदोष है
080) ज्ञान मात्र मानने से साध्य-साधन भी नहीं बनेंगे
081) सर्वथा बहिरंग अर्थ ही है ऐसा कहना भी सदोष है
082) अंतरंग और बहिरंग अर्थ का उभय और अवाच्य भी सदोष हैं
083) ज्ञान पदार्थ और बाह्य पदार्थ दोनों ही सिद्ध हैं
084) जीव शब्द बाह्य अर्थ से सहित है
085) संज्ञा रूप हेतु निर्दोष है
086) विज्ञानाद्वैतवादी का समाधान
087) ज्ञान और शब्द की प्रमाणता कैसे है ?
088) क्या भाग्य से ही सभी कार्य सिद्ध हो सकते हैं ?
089) क्या एकांत से पुरुषार्थ से ही कार्य सिद्ध होते हैं ?
090) भाग्य-पुरुषार्थ के उभय एवं अवाच्य का खंडन
091) भाग्य और पुरुषार्थ का अनेकांत
092) क्या पर को सुख-दु:ख देने से ही पुण्य-पाप बंध निश्चित है ?
093) क्या स्वयं में दु:ख-सुख से पुण्य-पाप होता है ?
094) पुण्य-पाप का उभय एवं अवक्तव्य भी एकांत से सदोष है
095) पुन: पुण्य-पाप का बंध कैसे होता है ?
096) क्या अज्ञान से बंध और अल्पज्ञान से मोक्ष होता है ?
097) अज्ञान, अल्पज्ञान से बंध-मोक्ष का उभय और अवक्तव्य नहीं बनता है
098) अज्ञान से बंध एवं अल्पज्ञान से मोक्ष की सुंदर व्यवस्था
099) कर्मबंध के अनुसार संसार विचित्र है
100) शुद्धि-अशुद्धि शक्तियाँ कैसी हैं
101) प्रमाण का लक्षण और भेद
102) प्रमाणों का फल क्या है ?
103) ‘स्यात्’ शब्द का महत्व
104) स्याद्वाद का स्वरूप
105) स्याद्वाद और केवलज्ञान में क्या अंतर है ?
106) नय और हेतु का लक्षण
107) द्रव्य का स्वरूप
108) मिथ्यानय-सम्यकनय का लक्षण
109) वस्तु को विधि आदि के द्वारा कहते है
110) उभयात्मक वस्तु को एक रूप कहना मिथ्या है
111) वचन का वास्तविक स्वभाव क्या है ?
112) स्यात्कार ही अभिप्रेत को प्राप्त कराने वाला है
113) स्याद्वाद की सम्यक् व्यवस्था
114) आप्त मीमांसा करने का उद्देश्य



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

स्वामी‌-श्री-समंतभाद्राचार्य-देव-विरचित

श्री
देवागम स्तोत्र

अपरनाम : आप्त मीमांसा

मूल संस्कृत गाथा,
आर्यिका ज्ञानमती कृत हिंदी टीका सहित

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥

अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥

अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥

॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबिधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीआप्त-मीमांसा नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्य श्रीसमन्तभद्राचार्यदेव विरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥



मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥

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+ देवों की पूजा आदि से आप महान नहीं हैं -
देवागम - नभोयान - चामरादि - विभूतय:
मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥1॥
अन्वयार्थ : हे भगवन् ! आपके जन्मोत्सव आदि में [देवागम] देवों का आना, केवलज्ञान होने के बाद [नभोयान] आकाश में गमन और [चामरादिविभूतय:] चमर, छत्र आदि समवसरण की विभूतियाँ ये सब [मायाविष्वपि] मायावी इंद्रजालिया आदि जनों में भी [दृश्यन्ते] देखी जाती हैं [अत:] इस कारण भगवन् ! [त्वं] आप [नो] हमारे लिए [महान्] महान / वंद्य [न असि] नहीं हैं ॥१॥

ज्ञानमती :

भगवन् ! पंचकल्याणक में तव, देवों का आगमन महान;;केवलज्ञान प्रगट होने पर, नभ में अधर गमन सुखदान;;छत्र, चमर आदिक वैभव सब, मायावी में भी दिखते;;अत: आप हम जैसों द्वारा, पूज्य-वंद्य नहीं हो सकते ॥१॥

आपके जन्म-कल्याणक आदिकों में देवों का आगमन, आप का आकाश मार्ग में गमन एवं समवसरण में चामर, छत्र आदि अनेक विभूतियों का होना आदि यह सब बाह्य वैभव मायावी विद्याधर मस्करी आदिकों में भी पाया जा सकता है अत: हे भगवन् ! इन कारणों से हम लोगों के लिए आप महान नहीं हैं -- स्तुति करने योग्य नहीं हैं ॥१॥

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+ विग्रह आदि महोदय से भी आप महान नहीं हैं -
अध्यात्मं बहिरप्येष, विग्रहादि-महोदय:
दिव्य: सत्यो दिवौकस्स्व-प्यस्ति रागादिमत्सु स: ॥2॥
अन्वयार्थ : [एष अध्यात्मं बहिरपि विग्रहादि महोदय:] यह अंतरंग और बहिरंग शरीर आदि का जो महोदय है [दिव्य: सत्य:] जो कि अमानुषिक और सत्य है [स: रागादि मत्सु दिवौकस्सु अपि अस्ति] वह महोदय राग-द्वेष आदि सहित देवों में भी पाया जाता है । इसलिए भी आप हमारे लिए महान नहीं हो सकते हैं ॥२॥

ज्ञानमती :

विग्रह आदि महोदय भगवन्! तव अध्यात्म क्षुधादि रहित;;बाह्य महोदय कुसुमवृष्टि, गंधोदक आदिक देव रचित;;दिव्य, सत्य ये वैभव फिर भी, रागादिक युत सुरगण में;;पाये जाते हैं, हे जिनवर! अत: आप नहिं पूज्य हमें ॥२॥

अंतरंग विग्रह आदि महोदय-निरन्तर पसीना-रहित-पना आदि एवं बहिरंग-गन्धोदक वृष्टि आदि महोदय जो कि दिव्य हैं, सत्य अर्थात् वास्तविक हैं । इस प्रकार अन्तरंग, बहिरंग शरीर आदि महोदय भी मस्करीपूरण आदि में न होते हुए भी राग-द्वेष-युक्त देवों में पाये जाते हैं, इसलिए भी हे भगवन् ! आप महान नहीं हैं ॥२॥

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+ तीर्थंकरत्व हेतु से भी आप महान नहीं हैं -
तीर्थकृत्समयानां च, परस्परविरोधत:
सर्वेषामाप्तता नास्ति, कश्चिदेव भवेद्गुरु: ॥3॥
अन्वयार्थ : [तीर्थकत्समयानां च] सभी तीर्थंकरों के आगमों में [परस्पर विरोधत:] परस्पर में विरोध पाया जाता है अत: [सर्वेषां आप्तता नास्ति] सभी आप्त नहीं हो सकते हैं [कश्चिदेव भवेत् गुरु:] इन सबमें से कोई एक ही महान गुरु हो सकता है ॥३॥

ज्ञानमती :

सभी मतो में तीर्थंकर, के आगम में दिखे विरोध;;सभी आप्त सच्चे परमेश्वर, नहिं हो सकते अत: जिनेश!;;इन सबमें से कोई एक ही, आप्त-सत्यगुरु हो सकता;;चित्-सर्वज्ञ देव परमात्मा, सत्त्वहितंकर जगभर्ता ॥३॥

परमागम लक्षण तीर्थ को करने वाले तीर्थकृत् कहलाते हैं । उनके समय अर्थात् आगमों में परस्पर में भिन्न-भिन्न अभिप्राय होने से विरोध पाया जाता है, अत: सभी को आप्तपना (सर्वज्ञपना) नहीं है, अर्थात् मीमांसक, सांख्य, सौगत, नैयायिक, चार्वाक, तत्वोपप्लववादी, यौग, ब्रह्माद्वैतवादी, ज्ञानाद्वैतवादी आदि अनेक एकान्तमतावलम्बी वादियों में सभी के ही सर्वज्ञता नहीं हो सकती है, इसलिए कोई एक गुरु-परमात्मा अवश्य है ॥३॥

श्री समंतभद्र स्वामी 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' आदि मंगलाचरण का आधार लेकर सर्वज्ञ भगवान की परीक्षा करने में प्रवृत्त होते हैं । तब वे भगवान से मानों प्रश्नोत्तर ही कर रहे हैं अत: पहली कारिका में तो स्वामी ने देवागम आदि वैभव से भगवान को पूज्य नहीं माना, दूसरी कारिका में शरीर आदि के विशेष महोदय से भी पूज्य नहीं माना है। पुन: तीसरी कारिका में तीर्थंकरत्व हेतु से भी पूज्य नहीं माना है । इसी कारिका में परस्पर विरोध शब्द से श्री विद्यानंद स्वामी ने अष्टसहस्री ग्रन्थ में मीमांसक आदि के वेदों में नियोग-वाद, विधिवाद आदि के निमित्त से विशेष-रूप से परस्पर के विरोध को स्पष्ट किया है एवं जो सर्वज्ञ को नहीं मानते हैं और वेदों को अपौरुषेय मानते हैं तथा चार्वाक और शून्यमतवादी भी आत्मा एवं परलोक का अस्तित्व न मानने से सर्वज्ञ का अभाव कहते हैं । इन सभी को समझाते हुए इनके मतों का खण्डन करके ठीक से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध किया है ।

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+ दोषों तथा आवरणों का पूर्णतया अभाव संभव है -
दोषावरणयोर्हानि-र्नि:शेषास्त्यतिशायनात्
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षय: ॥4॥
अन्वयार्थ : [क्वचित्] किसी जीव विशेष में [दोषावरणयोर्हानि: नि:शेषा अस्ति] दोष और आवरणों की हानि पूर्णतया पायी जाती है [अतिशायनात्] क्योंकि अन्य जीवो में दोष और आवरण की तरतमता देखी जाती है [यथा स्वहेतुभ्यो बहिरंत: मलक्षय:] जैसे अपने हेतु आदि से सुवर्ण के किट्ट, कालिमा आदि अंतरंग एवं बहिरंग मल का नाश देखा जाता है ॥४॥

ज्ञानमती :

किसी जीव में सर्व दोष अरु, आवरणों की हानि नि:शेष;;हो सकती है क्योंकि जगत में, तरतमता से दिखे विशेष;;रागादिक की हानि किन्हीं में, दिखती है कुछ अंशों से;;जैसे हेतू से बाह्यांतर, मल क्षय होता स्वर्णों से

किसी जीव में दोष और आवरण की हानि परिपूर्ण रूप से हो सकती है क्योंकि अन्यत्र उसका अतिशयपना पाया जाता है । जिस प्रकार से अपने हेतुओं के द्वारा कनक-पाषाणादि में बाह्य एवं अंतरंग मल का पूर्णतया अभाव पाया जाता है ॥४॥

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+ सर्वज्ञ की व्यवस्था -
सूक्ष्मांतरितदूरार्था:, प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति: ॥5॥
अन्वयार्थ : [सूक्ष्मांतरित दूरार्था: कस्यचित् प्रत्यक्षा:] सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं [अनुमेयत्वत:] क्योंकि ये अनुमान ज्ञान के विषय हैं [यथा अग्न्यादि:] जैसे अग्नि आदि पदार्थ अनुमान ज्ञान के विषय हैं अत: किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं [इति सर्वज्ञसंस्थिति:] इस प्रकार से सर्वज्ञ की सम्यक् प्रकार से स्थिति सुघटित है ॥५॥

ज्ञानमती :

सूक्ष्म वस्तु परमाणु आदि, अंतरित राम-रावण आदिक;;दूरवर्ति हिमवन सुमेरु ये, हैं प्रत्यक्ष किसी के नित;;क्योंकि ये अनुमेय कहे हैं, जैसे अग्न्यादिक अनुमेय;;इस अनुमान प्रमाण कथित, सर्वज्ञ व्यवस्था है स्वयमेव

सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि वे अनुमान-ज्ञान के विषय हैं जैसे अग्नि आदि, इस प्रकार से सर्वज्ञ सिद्धि होती है ।
  1. सूक्ष्म--स्वभाव से परोक्ष परमाणु आदिक,
  2. अन्तरित--काल से परोक्ष राम, रावण आदिक,
  3. दूरवर्ती--देश से परोक्ष हिमवान पर्वत, सुमेरु आदिक;
ये किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि अनुमेय हैं, जैसे अग्नि आदिक । इस अनुमान वाक्य से सर्वज्ञ की सम्यक् प्रकार से सिद्धि होती है ।

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+ आप ही निर्दोष सर्वज्ञ हैं -
स त्वमेवासि निर्दोषो, युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक्
अविरोधो यदिष्टं ते, प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥6॥
अन्वयार्थ : [स: निर्दोष: त्वमेव असि] हे भगवन् ! वह निर्दोष सर्वज्ञ आप ही हैं [युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक्] आपके वचन तर्क और आगम से विरोध-रहित हैं । [ते यत् इष्टं अविरोध:] और जो यह आपका इष्ट मत है वह अविरोधी है [प्रसिद्धेन न बाध्यते] क्योंकि वह प्रसिद्ध (प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों) से बाधित नहीं होता है ॥६॥

ज्ञानमती :

वह रागादिक दोष रहित, सर्वार्थविज्ञ प्रभु तुम्हीं कहे;;क्योंकि तुम्हारे वचन युक्ति, आगम से अविरोधी नित हैं;;प्रत्यक्षादि प्रमाणों से तव, तत्त्व अबाधित हैं जग में;;अत: प्रभो! यह शासन तेरा, नित अविरोधी जन जन में॥६॥

हे भगवन् ! दोष और आवरण से रहित निर्दोष सूक्ष्मादि पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाले एवं युक्ति-शास्त्र (तर्क व आगम) से अविरोधी वचन को बोलने वाले अर्हंत परमात्मा आप ही हैं क्योंकि आपका इष्ट (मत) विरोध रहित है उसमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है ॥६॥

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+ सर्वथा एकांतवाद प्रमाण से बाधित है -
त्वन्मतामृतबाह्यानां, सर्वथैकांतवादिनाम्
आप्ताभिमानदग्धानां, स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥7॥
अन्वयार्थ : [सर्वथैकांतवादिनां] वस्तु के एक-एक धर्म को सर्वथारूप से स्वीकार करने वाले एकांतवादी जन [त्वन्मतामृतबाह्यानां] जो कि आपके मतरूपी अमृत से बहिर्भूत हैं [आप्ताभिमानदग्धानां] और जो 'मैं आप्त हूँ' इस प्रकार के अभिमान से दग्ध हैं [स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते] उनका जो अपना इष्ट-मत है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है ॥७॥

ज्ञानमती :

प्रभु तव मत अमृत से बाहर, दुराग्रही-एकांतमती;;'मैं हूँ आप्त' सदा इस मद से, दग्ध हुए अज्ञानमती;;उनका वह ऐकांतिक शासन, इष्ट उन्हें फिर भी बाधित;;प्रत्यक्षादि प्रमाणों से वह, तत्त्व सदा निन्दित दूषित

हे भगवन् ! आपके मत रूप अमृत से जो बहिर्भूत हैं सर्वथा एकांतरूप मत को कहने वाले हैं और 'मैं ही आप्त हूँ' इस प्रकार के अभिमान से जो दग्ध हैं उनका इष्ट-मत प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित होता है ॥७॥

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+ एकांत में शुभ-अशुभ आदि नहीं बनते -
कुशलाऽकुशलं कर्म, परलोकश्च न क्वचित्
एकांत-ग्रह-रक्तेषु, नाथ! स्व-पर-वैरिषु ॥8॥
अन्वयार्थ : [नाथ एकांतग्रहरक्तेषु] हे नाथ ! जो लोग एकांत को ग्रहण में तत्पर हैं । [स्वपरवैरिषु] वे स्व और पर के शत्रु हैं । [क्वचित् कुशलाकुशलं कर्म च परलोक: न] उनके यहाँ पुण्य-पाप कर्म एवं परलोक भी नहीं सिद्ध होगा ।

ज्ञानमती :

नाथ! स्वपर वैरी एकांत-ग्रह पीड़ित जन के मत में;;शुभ अरु अशुभ क्रिया परलोका-दिक फल भी नहिं बनते हैं;;पुण्य-पाप फल बंध-मोक्ष की, नहीं व्यवस्था भी बनती;;क्योंकि सर्वथा नित्य-क्षणिक में, अर्थ क्रिया ही नहिं घटती

हे नाथ! नित्य अथवा अनित्य आदि एकान्त मान्यता का दुराग्रह करने वाले ऐसे स्व एवं पर के बैरी-शत्रु मिथ्यादृष्टि जनों में से किसी के यहाँ भी कुशल-पुण्य, अकुशल-पाप क्रियाएँ तथा परलोकादि की व्यवस्था भी नहीं बन सकती है ॥८॥

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+ भावैकांत की मान्यता में दोष -
भावैकांते पदार्थाना-मभावानामपन्हवात्
सर्वात्मकमनाद्यन्त-मस्वरूपमतावकम् ॥9॥
अन्वयार्थ : हे भगवन् ! [पदार्थानां भावैकांते अभावानां अपह्नवात्] यदि पदार्थों के अस्तित्व का ही एकांत माना जाये, तब तो अभावों का लोप हो जाता है [अतावकं सर्वात्मकं अनाद्यनंतं अस्वरूपं] पुन: आपसे भिन्न अन्य सभी के यहाँ सभी वस्तु सर्वात्मक, अनादि, अनंत और स्वरूप शून्य हो जावेंगी ।

ज्ञानमती :

सब पदार्थ एकांतरूप से, अस्तिरूप ही यदि जग में;;तो अभाव का लोप हुआ फिर, चार दोष है प्रमुख बने;;सब पदार्थ सबरूप, अनादि, अनिधन नि:स्वरूप होंगे;;हे भगवन् ! तव मत के द्वेषी, जन के यहाँ न कुछ होंगे

हे भगवन् ! यदि आप से भिन्न अन्य मतावलम्बियों के यहाँ सभी पदार्थ सर्वथा भावैकान्त--नित्यरूप ही माने जावेंगे, तब तो अभाव -- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव-रूप अभावों का नाश हो जाने से सभी पदार्थ सर्वात्मक, अनादि, अनन्त और अस्वरूप -- स्वरूप-रहित -- शून्यरूप हो जावेंगे ।

प्रत्येक वस्तु मैं जैसे भाव धर्म है वैसे ही अभाव धर्म भी है वह अभाव मुख्यतया चार भेद रूप है । यथा--प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यंताभाव । यहाँ कारिका के उत्तरार्ध में उन्हीं चार अभावों के न मानने से होने वाले दोषों के नाम बताये गए हैं । आगे ग्रंथकार स्वयं इस बात को प्रकट करेंगे ।

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+ प्रागभाव-प्रध्वंसाभाव को न मानने में दोष -
कार्यद्रव्यमनादि स्यात्, प्रागभावस्य निन्हवे
प्रध्वंसस्य च धर्मस्य, प्रच्यवेऽनतन्तां व्रजेत् ॥10॥
अन्वयार्थ : [प्रागभावस्य निन्हवे कार्यद्रव्यमनादि स्यात्] यदि प्रागभाव को न माना जावे, तब तो सभी कार्य अनादि हो जावेंगे [प्रध्वंसस्य च धर्मस्य, प्रच्यवेऽनतन्तां व्रजेत्] और प्रध्वंस धर्म को नहीं मानने पर सभी वस्तुएं अनंतकाल तक बनी रहेंगी ॥१०॥

ज्ञानमती :

प्रागभाव को यदि नहिं मानों, सभी कार्य हो अनादि सिद्ध;;मिट्टी में घट सदा बना है, फिर क्या करता चक्र निमित्त;;यदि प्रध्वंस धर्म नहिं मानों, किसी वस्तु का अन्त न हो;;पिता, पितामह आदि कभी भी, अंत-मरण को प्राप्त न हों

हे भगवन् ! यदि प्रागभाव का लोप करेंगे, तब तो सम्पूर्ण कार्य अनादि सिद्ध हो जावेंगे और यदि प्रध्वंसाभाव का अभाव करेंगे, तब तो सभी वस्तु की पर्यायें अनन्तपने को प्राप्त हो जावेंगी

इस कारिका के अर्थ में श्री विद्यानंदस्वामी ने अष्टसहस्री में अभाव के नहीं मानने वालों का विस्तृत खंडन किया है । चार्वाक प्रागभाव को स्वीकार नहीं करता है, नैयायिक प्रागभाव को तुच्छाभाव रूप मानते हैं । चार्वाक प्रध्वंसाभाव को भी नहीं मानता है अत: शब्द को नित्य एक अखण्ड सिद्ध करने का प्रयत्न करता है । नैयायिक शब्द को नित्यभूत आकाश का गुण मान रहे हैं ।

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+ अन्योन्याभाव-अत्यंताभाव को न मानने में दोष -
सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोह-व्यतिक्रमे
अन्यत्र समवाये न, व्यपदिश्येत सर्वथा ॥11॥
अन्वयार्थ : [अन्यापोहव्यतिक्रमे तदेकं सर्वात्मकं स्यात्] यदि अन्यापोह का लोप कर दिया जाये, तो वह अपना-अपना इष्ट एक तत्त्व सब रूप बन जावेगा [अन्यत्र समवाये सर्वथा न व्यपदिश्येत] और यदि अत्यंताभाव का लोप किया जावे, तब तो एक इष्ट तत्त्व का अन्य के तत्त्व में संमिश्रण हो जाने पर सर्वथा अपना इष्ट तत्त्व कहा ही नहीं जा सकेगा

ज्ञानमती :

यदि अन्योन्याभाव नहीं हो, एक वस्तु सब रूप बने;;एक समय में मनुज बने, सुर-पशु-नारक पर्याय घने;;यदि अत्यन्ताभाव न होवे, एक द्रव्य का अन्यों में;;हो जावे संमिश्रण फिर यह, जीव-अजीव न भेद बने

हे भगवन ! यदि अन्यापोह--इतरेतराभाव का लोप किया जावे, तो सभी वस्तु सर्वात्मक एकरूप हो जावेंगी । यदि अत्यन्ताभाव का लोप किया जावेगा, तब तो अन्यत्र समवाय स्वसमवायी आत्मा का भिन्न समवायी प्रधान आदि में समवाय हो जाने पर सभी का इष्ट तत्त्व सर्वथा कहा ही नहीं जा सकेगा ।

इस कारिका के अर्थ में श्री विद्यानंद महोदय ने उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य में प्रत्येक के ८१-८१ भेद बड़े ही रोचक ढंग से किये हैं एवं सत्ता का लक्षण भी विशेष वर्णन से सहित है । विशेष जिज्ञासुओं को अष्टसहस्री में ही देखना चाहिए ।

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+ अभावैकान्त की मान्यता में दोष -
अभावैकांत-पक्षेऽपि, भावापन्हव-वादिनाम्
बोधवाक्यं प्रमाणं न, केन साधनदूषणम् ॥12॥
अन्वयार्थ : [अभावैकांत पक्षेऽपि भावापन्हववादिनां] यदि एकांत से सभी वस्तु को अभाव रूप ही स्वीकार किया जावे, तब तो भावों का सर्वथा अभाव करने वाले इन वादियों के यहाँ [बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधनदूषणम्] ज्ञान और आगम दोनों का भी अभाव होने से दोनों प्रमाण नहीं रहेंगे । पुन: किसके द्वारा अपने पक्ष का साधन और पर के पक्ष में दूषण दिया जावेगा ॥१२॥

ज्ञानमती :

यदि सब वस्तु अभावरूप हैं, शून्यवाद जन के मत में;;तब तो भाव-पदारथ किंचित्, नहिं प्रतिभासित हों जग में;;ज्ञान और आगम भी किंचित्, नहिं प्रमाण होंगे तब तो;;कैसे अपने मत का साधन, परमत दूषण किससे हो

हे भगवन् ! पदार्थ का सर्वथा अपलाप करने वाले अभावैकांतवादी माध्यमिक-बौद्धों के यहाँ भी ज्ञान एवं वाक्य भी नहीं रहेंगे और पुन: बोध-वाक्यों की प्रमाणता न होने से वे लोग स्वपक्ष का साधन और परपक्ष का दूषण भी कैसे कर सकेंगे ?

जब किसी वस्तु का सद्भाव ही नहीं है, सभी वस्तुओं का अभाव ही अभाव है, तब तो स्वार्थानुमान रूप ज्ञान एवं आगम आदि भी कहाँ रहेंगे ? और जब किसी वस्तु का ज्ञान, वचनों से उनका प्रतिपादन ही नहीं रहेगा, तब अपने शून्यवाद का वर्णन भी वैâसे किया जावेगा और अस्तित्ववादियों के तत्त्वों में दूषण भी कैसे दिया जावेगा ?

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+ एकांतरूप भावाभाव और अवक्तव्य में दोष -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम्
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥13॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वाद न्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्] स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ भाव और अभाव इन दोनों की एकता रूप मान्यता भी नहीं बनती है, क्योंकि इन भाव और अभाव का आपस में विरोध देखा जाता है । [अवाच्यतैकांतेऽपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते] यदि एकांत से वस्तु को 'अवक्तव्य' ही माना जाये, तो 'तत्व अवाच्य है', यह कथन भी नहीं बन सकेगा ।

ज्ञानमती :

अस्ति-नास्ति से उभयरूप ये, द्रव्य कदापि नहीं होंगे;;क्योंकि विरोध परस्पर इनका, स्याद्वाद विद्वेषी के;;यदि एकांत अवाच्य तत्त्व है, कहो कथन कैसे होगा?;;'तत्त्व अवाच्य' यही कहना तो, वाच्य हुआ स्ववचन बाधा

हे भगवन् ! स्याद्वाद न्याय के विद्वेषी अन्य मतावलम्बियों के यहाँ निरपेक्ष भावाभावात्मक रूप उभयैकांत-पक्ष भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि उसमें भी विरोध आता है । यदि कोई एकांत से तत्त्व को अवाच्य-अवक्तव्य ही कहें, तब तो 'तत्त्व अवाच्य है' यह कथन भी नहीं बन सकेगा ।

हम स्याद्वादियों के यहाँ तो भाव और अभाव इन दोनों की मान्यता का सप्त-भंगी में तृतीय भंग माना गया है एवं अवक्तव्य को चतुर्थ भंग कहा गया है, क्योंकि हमारे यहाँ कथंचित् पद से सब सुघटित हो जाते हैं किन्तु एकांतवादियों के यहाँ सर्वथा एकांत होने से ये दोनों बातें अघटित हैं ।

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+ भाव-अभाव आदि निर्दोष कैसे हैं ? -
कथंचित्ते सदेवेष्टं, कथंचिदसदेव तत्
तथोभयमवाच्यं च, नय-योगान्न सर्वथा ॥14॥
अन्वयार्थ : [ते कथंचित् सत् एव इष्टं तत् कथंचित् असदेव] हे भगवन् ! आपके मत में कथंचित् वस्तु 'सत्' रूप ही है एवं वही वस्तु कथंचित् 'असत्' रूप ही है । [तथा उभयं अवाच्यं न नय योगात् न सर्वथा] तथा वही वस्तु कथंचित् उभयरूप है और कथंचित् 'सत् अवक्तव्य' कथंचित् 'असत् अवक्तव्य' एवं कथंचित् 'सत् असत् अवक्तव्य' भी है, यह सभी व्यवस्था नयों की अपेक्षा से ही मानी गई है, किन्तु सर्वथा ऐसा नहीं है ॥

ज्ञानमती :

हे भगवन्! तव मत में वस्तू, तत्त्व कथंचित् सत् ही है;;वही कथंचित् असत् रूप ही, उभय कथंचित् वो ही है;;वह अवाच्य भी है नयशैली, से ही सप्तभंगयुत है;;वस्तु सर्वथा अस्तिरूप या, नास्ति आदि से अघटित है

हे भगवन् ! आपके मत में कथंचित् वस्तु सत्-रूप ही है, इष्ट है एवं वही कथंचित् उभय-रूप है और वही कथंचित् अवाच्य-रूप भी है परन्तु यह सब व्यवस्था नयों की अपेक्षा से ही है सर्वथा नहीं है ।

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+ सत् असत् निर्दोष कैसे हैं ? -
सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात्
असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥15॥
अन्वयार्थ : [स्वरूपादि चतुष्टयात् सर्वं सत् एव विपर्यासात् असत् एव को न इच्छेत्] स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव रूप चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तुएँ 'सत्' रूप ही हैं एवं परद्रव्य, परक्षेत्र परकाल की अपेक्षा से सभी वस्तुएँ 'असत्' रूप ही हैं इस प्रकार कौन स्वीकार नहीं करेगा ? [न चेत् न व्यवतिष्ठते] यदि कोई नहीं माने, तो किसी भी वस्तु की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है ।

ज्ञानमती :

अपने द्रव्य सुक्षेत्र काल अरु, भाव चतुष्टय से नित ही;;सभी वस्तुएँ अस्तिरूप ही, नास्तिरूप ही हैं वे भी;;परद्रव्यादि चतुष्टय से यह, कौन नहीं स्वीकार करे;;यदि नहिं माने तव मत हे जिन! वस्तु व्यवस्था नहीं बने

स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तु सत्-रूप ही हैं, ऐसा कौन स्वीकार नहीं करेगा ? एवं पर-द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तु असत्-रूप ही हैं । यदि ऐसा नहीं स्वीकार करें तो किसी के यहाँ भी अपने-अपने इष्ट-तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकेगी ।

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+ उभय और अवक्तव्य कथन निर्दोष कैसे हैं ? -
क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं, सहावाच्यमशक्तित:
अवक्तव्योत्तरा: शेषास्त्रयो भंगा: स्वहेतुत: ॥16॥
अन्वयार्थ : [क्रमार्पितद्वयात् द्वैतं, सह अशक्तित: अवाच्यं] अस्ति, नास्ति दोनों धर्मों का क्रम से कथन करने से 'अस्ति-नास्ति' रूप तृतीय भेद बनता है एवं पर-चतुष्टय के द्वारा कहे गये अस्ति, नास्ति दोनों धर्मों को एक साथ कह नहीं सकते हैं अत: 'अवक्तव्य' नाम का चौथा भंग होता है । [अवक्तव्योत्तरा: शेषा: त्रयो भंगा स्वहेतुत:] उपर्युक्त आदि के तीन भंगों के उत्तर में अवक्तव्य पद जोड़ देने से बचे हुए तीन भंग अपने-अपने हेतु से कथंचित् रूप से बन जाते हैं ।

ज्ञानमती :

क्रम से स्वपर चतुष्टय से ही, वस्तु उभय धर्मात्मक हैं;;युगपत् द्वय को नहिं कह सकते, अत: 'अवाच्य' वस्तु वह है;;बचे शेष त्रय भंगों में यह, अवक्तव्य उत्तर पद हैं;;सत् असत् उभय पदों के आगे, अवक्तव्य निज हेतुक है

क्रम से दोनों धर्मों की विवक्षा करने से स्यादस्तिनास्ति द्वैतरूप तीसरा भंग बन जाता है एवं एक साथ दोनों ही धर्मों को कहने की शक्ति किसी भी शब्द में नहीं है, अतएव सहावाच्य होने से चौथा अवक्तव्यरूप भंग हो जाता है, इसी प्रकार से प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भंग के उत्तर में अवक्तव्य पद के जोड़ देने से शेष तीन भंग भी अपने-अपने हेतु से सिद्ध हो जाते हैं ॥

प्रारंभ के अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति इन तीनों के साथ अवक्तव्य पद जोड़ देने से आगे पाँचवें, छठे और सातवें भंग बन जाते हैं यथासत् अवक्तव्य स्व-चतुष्टय की अपेक्षा एवं युगपत् दोनों धर्मों के न कह सकने से सत् अवक्तव्य भंग होता है । पर-चतुष्टय की अपेक्षा एवं युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से असत् अवक्तव्य भंग होता है तथा क्रम से स्व-परचतुष्टय की अपेक्षा और युगपत् दोनों को न कह सकने से सत् असत् अवक्तव्य भंग होता है ।

उपर्युक्त १४, १५, १६वीं कारिकाओं के अर्थ में अष्टसहस्री ग्रंथ में आचार्यदेव ने सप्तभंगी का बड़ा सुंदर विवेचन किया है । कोई विशेष चतुर अवक्तव्य नाम से एक आठवें भंग को मानने लगे थे, तब आचार्यश्री ने करुणा बुद्धि से उन्हें समझाकर सात ही भंग मानने का विधान किया है । प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी को भी बहुत ही स्पष्ट किया है ।

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+ भावधर्म अभाव के साथ रहता है -
अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽविनाभाव्येक-धर्मिणि
विशेषणत्वात्साधम्र्यं, यथा भेद-विवक्षया ॥17॥
अन्वयार्थ : [एक धर्मिणि अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽबिनाभावी] एक धर्मीरूप वस्तु में अस्तित्व धर्म अपने विरोधी नास्तित्व के साथ ही रहता है [विशेषणत्वात् यथा भेद-विवक्षया साधम्र्यं] क्योंकि वह विशेषण है जैसे अन्वय हेतु व्यतिरेक हेतु के साथ अविनाभाव संबंध को लिए हुए रहता है ।

ज्ञानमती :

एक वस्तु में अस्ति धर्म, अपने प्रतिषेधी नास्ति के;;बिना नहिं रह सकता अविनाभावी कहलाता इससे;;क्योंकि विशेषण है जैसे, अन्वय हेतू व्यतिरेक बिना;;नहीं रहे अविनाभावी है, ऐसा यह दृष्टांत बना

एक जीवादि धर्मी में अस्तित्व जो वस्तु का धर्म है, वह प्रतिषेध्य नास्तित्व के साथ अविनाभावी है, क्योंकि विशेषण है, जैसे कि हेतु में भेद विवक्षा से साधम्र्य, वैधम्र्य के साथ अविनाभावी है ॥

भावार्थ – जो जिसके बिना नहीं रहता है, उसका उसके साथ अविनाभाव कहा जाता है। प्रत्येक वस्तु में अस्ति धर्म नास्ति के साथ अविनाभावी है । जैसे पुस्तक स्वरूप से है पररूप चौकी आदि से नहीं है ।

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+ अभाव भाव के साथ रहता है -
नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽविनाभाव्येक धर्मिणि
विशेषणत्वाद्वैधम्र्यं यथाऽभेद-विवक्षया ॥18॥
अन्वयार्थ : [एक धर्मिणि नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽविनाभावि] एक वस्तु में नास्तित्व धर्म अपने विरोधी अस्तित्व के साथ अविनाभावी है [विशेषणत्वात् यथा अभेद विवक्षया वैधम्र्यं] क्योंकि वह विशेषण है जैसे व्यतिरेक हेतु अन्वय के साथ अविनाभावी है ॥

ज्ञानमती :

एक वस्तु में नास्ति धर्म भी, स्वविरोधी अस्ति के साथ;;अविनाभावी ही रहता है, क्योंकि विशेषण भी वह खास;;जैसे हेतू के प्रयोग में, है व्यतिरेक हेतु नित ही;;अन्वय हेतू के सह रहता, अविनाभावी सुघटित ही

एक धर्मी में नास्तित्व भी अपने प्रतिषेध्य-अस्तित्व के साथ अविनाभावी है, क्योंकि वह विशेषण है, जैसे कि अभेद विवक्षा (अन्वय की अपेक्षा) से किसी अनुमान में वैधम्र्य साधम्र्य के साथ अविनाभावी हैं ॥

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+ वस्तु भावाभावात्मक है -
विधेयप्रतिषेध्यात्मा, विशेष्य: शब्दगोचर:
साध्यधर्मो यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया ॥19॥
अन्वयार्थ : [विशेष्य: विधेयप्रतिषेध्यात्मा शब्दगोचर:] जो विशेषण के द्वारा जानने योग्य है वह विशेष्य है, वह विधि और प्रतिषेध करने योग्य ही होता है क्योंकि वह शब्द का विषय है [यथा साध्यधर्म: हेतु अपेक्षया च अहेतु अपि] जैसे साध्य साध्य का जो धर्म एक विवेक्षा से अहेतु रूप भी हो जाता है ॥

ज्ञानमती :

वस्तु सदा विधिप्रतिषेधात्मक, है विशेष्य धर्मी विख्यात;;क्योंकि शब्द के गोचर है वह, सत् असत् रूप जग ख्यात;;यथा-साध्य-अग्नी का साधन, धूम अग्नि का हेतू है;;वही अपेक्षा से हेतू भी, जल के लिए अहेतू है

शब्द के विषयभूत विशेष्य-जीवादि समस्त पदार्थ विधि एवं प्रतिषेध इन दोनों धर्मस्वरूप हैं, जैसे कि साध्य का धर्म अपेक्षा से हेतु एवं अहेतु भी होता है ॥

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+ शेष भंग भी नय विवक्षा से बनेंगे -
शेषभंगाश्च नेतव्या यथोक्त नय-योगत:
न च कश्चिद्विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र! तव शासने ॥20॥
अन्वयार्थ : [शेष भंगा: च यथोक्तनययोगत: नेतव्या:] आगे के जो शेष भंग हैं उनको भी यथायोग्य नयों की अपेक्षा से समझ लेना चाहिए [मुनीन्द्र ! तव शासने कश्चित् विरोधो न चास्ति] हे मुनीन्द्र! आपके शासन में कुछ भी विरोध नहीं आता है ॥२०॥

ज्ञानमती :

अस्ति, नास्ति उभयात्मक क्रम से, तीन भंग ये कहे गये;;यथायोग्य नय विधि से आगे, भंग चार हैं शेष कहे;;अवाच्य, अस्ति-अवाच्य, नास्ति-अवाच्य, अस्तिनास्ति- अवाच्य;;हे मुनीन्द्र! तव शासन में, कुछ भी विरोध नहिं दिखे कदापि

यथोक्त नयों की अपेक्षा से शेष भंग भी लगा लेना चाहिए । अतएव हे मुनीन्द्र ! आपके शासन में कुछ भी विरोध नहीं है ॥

विशेषार्थ – यहाँ शेष शब्द से तीन भंग के बाद आगे के चार शेष कहे गये हैं । श्रीमद् भट्टाकलंक देव ने तो अष्टशती में दो के बाद तृतीय से आगे तक को भी शेष शब्द से सूचित किया है एवं 'अथवा' कहकर तीन के बाद से चार को भी शेष कहा है । आप्तमीमांसा की वृत्ति को करने वाले श्री वसुनंदी सैद्धांतिकाचार्य ने इस कारिका के विरोध शब्द को उपलक्षण मात्र कहा है और इससे आठ दोषों को ग्रहण किया है । उनके नाम -- विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव ।

यहाँ कहना यह है कि हे भगवन् ! आपके मत में विरोध, वैयधिकरण्य आदि ८ दोष या इनके भेद-प्रभेद से और भी अनेकों दोष नहीं आते हैं । कोई इन दोषों को स्याद्वाद में घटित करता है । यथा इस प्रकार से अन्य जनों ने अर्हंत के शासन में ये विरोध आदि दोष दिखाये हैं किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि स्याद्वाद में एक भी दोष नहीं आता है ।

एक ही वस्तु में अविरोध रूप विरोधी दो धर्मों का रहना बन जाता है । विरोध के तीन भेद हैं बध्यघातक, सहानवस्थान और प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक । सर्प मैं नकुल का बध्यघातक भाव है क्योंकि सर्प को नेवला मार डालता है । दोनों एक साथ नहीं रहते । शीत उष्ण का सहानवस्थान विरोध है क्योंकि ये दोनों एक साथ नहीं रहते हैं । ये तीनों हमारे यहाँ असंभव हैं क्योंकि एक ही वस्तु में अस्ति-धर्म और उसी समय उसमें नास्ति-धर्म रह जाता है । जैसे एक ही राम में पिता, पुत्र ये दोनों विरोधी धर्म विद्यमान हैं । रामचन्द्र जी लवण और अंकुश के पिता हैं और दशरथ के पुत्र हैं ।

ये अस्ति-नास्ति धर्म परस्पर में विरोधी नहीं हैं एवं उनकी आधारभूत वस्तु भिन्न-भिन्न न होकर एक है । अतएव दोनों धर्मों का जीव में एकाधिकरण होने से वैयधिकरण दोष नहीं आता है । हमारे यहाँ एक धर्मी वस्तु में अनंतों धर्म रहते हैं किन्तु एक धर्म में अन्य कोई धर्म नहीं रहता है । अत: अनवस्था भी नहीं है । अस्ति-नास्ति दोनों धर्म अपने-अपने स्वभाव से सहित हैं अस्ति कभी भी नास्ति रूप और नास्ति कभी अस्ति-रूप से मिश्रित नहीं होता है । अत: संकर दोष भी नहीं आता है । अस्तित्व-रूप से नास्तित्व या नास्तित्व रूप से अस्तित्व नहीं बन सकते अत: व्यतिकर दोष नहीं आता है ।

विरुद्ध अनेक धर्मों के अवलंबन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं किन्तु यहाँ वस्तु स्व की अपेक्षाकृत अस्ति है और पर की अपेक्षा से नास्ति ही है अत: संशय का प्रश्न ही नहीं है । संशय के न होने से वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो जाता है अत: अप्रतिपत्ति दोष नहीं आता है ।

वस्तु की व्यवस्था सुघटित सिद्ध होने से अभाव नाम का दोष भी नहीं है । अत: यह निष्कर्ष निकला कि भगवान् जिनेन्द्र के शासन में विरोध आदि कोई भी दोष नहीं आते हैं ।

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+ वस्तु एक रूप नहीं है -
एवं विधि निषेधाभ्या-मनवस्थितमर्थकृत्
नेति चेन्न यथा कार्यं, बहिरन्तरुपाधिभि: ॥21॥
अन्वयार्थ : [एवं विधिनिषेधाभ्यां अनवस्थितं अर्थकृत] इस प्रकार से विधि और निषेध के द्वारा जो वस्तु अवस्थित रूप से एक रूप नहीं है वही वस्तु अर्थ-क्रियाकारी है [न इति चेत् न यथा बहिरंत: उपाधिभि: कार्यं] यदि ऐसा नहीं माना जाये, तो जैसे बाह्य और अंतरंग इन दोनों कारणों से कार्य माना गया है, वह उस प्रकार से नहीं बन सकेगा ।

ज्ञानमती :

ऐसे विधि निषेध द्वारा जो, एकरूप से नहीं कही;;वह अनवस्थित वस्तु जगत में, अर्थ क्रियाकारी नित ही;;यदि ऐसा नहिं मानों तो, बाह्याभ्यंतर द्वय कारण से;;कार्य कहा है, वह नहिं होगा, अर्थक्रिया नहिं होने से

इस प्रकार से विधि और निषेध के द्वारा अनवस्थित जीवादि वस्तु अर्थ-क्रियाकारी हैं । यदि ऐसा नहीं मानों, तो जिस प्रकार से बहिरंग-अंतरंग उपाधि -- सहकारी और उपादान कारणों से अनवस्थित--रहित कार्य अर्थ-क्रियाकारी नहीं है तथैव सभी जीवादिवस्तु विधि-निषेध से रहित अर्थ-क्रियाकृत् नहीं हो सकेंगी ।

भावार्थ – वस्तु में अस्ति या नास्ति दो में से कोई एक ही धर्म रहे तो वस्तु अवस्थित हो जावेगी, किन्तु दोनों धर्मों के रहने से वह वस्तु अनास्थित कहलती है । घटकार्य अंतरंग कारण मिट्टी और बहिरंग कारण चक्र, कुंभकार आदि से होता है । इसलिए अनवस्थित है । यदि अंतरंग या बहिरंग में से किसी भी एक कारण से ही उत्पत्ति मान लो, तो घट के कारण अवस्थित हो जाने से घट बन ही नहीं सकेगा ।

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+ प्रत्येक धर्म का अर्थ पृथक् है -
धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मण:
अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य, शेषान्तानां तदङ्गता ॥22॥
अन्वयार्थ : [अनंतधर्मण: धर्मिणो धर्मे धर्मे अन्य एव अर्थ:] अनंत धर्म वाली वस्तु के एक-एक धर्म में भिन्न ही अर्थ पाया जाता है [अन्यतमान्तस्य अंगित्वे शेषान्तानां तदङ्गता] उन बहुत धर्मों में से किसी एक धर्म को प्रधान करने पर शेष धर्मों की गौणता हो जाती है ।

ज्ञानमती :

अनंतधर्मा वस्तू के, प्रत्येक धर्म के पृथक्-पृथक्;;अर्थ कहे हैं अत: वस्तु है, अनंत धर्मात्मक शाश्वत;;अनंत धर्मों में जब इक ही, धर्म प्रधान कहा जाता;;तब वे शेष धर्म हो जाते, गौण यही जिन ने भाषा

अनंतधर्मों से विशिष्ट जीवादि एक धर्मी के प्रत्येक धर्म में भी भिन्न-भिन्न प्रयोजन आदि रूप अर्थ विद्यमान हैं एवं धर्मों के द्वारा ही धर्मी का कथन होता है तथैव उन धर्मों में से किसी एक धर्म को प्रधान करने पर शेष सभी धर्म गौण हो जाते हैं ।

भावार्थ – जब जीव का अस्ति धर्म प्रधान किया जाता है, तब नास्ति धर्म गौण हो जाता है और जब नास्ति धर्म प्रधान किया जाता है, तब अस्ति धर्म गौण हो जाता है ।

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+ अन्य धर्मों में भी सप्तभंगी प्रक्रिया करना -
एकाऽनेक-विकल्पादा-वुत्तरत्रापि योजयेत्
प्रक्रियां भंगिनीमेनां नयैर्नय-विशारद: ॥23॥
अन्वयार्थ : [नय विशारद: उत्तरत्र एकाऽनेक-विकल्पादौ अपि] जो नयों में कुशल हैं वे आगे-आगे एक-अनेक आदि भेदों में भी [नयै: एनां भंगिनीं प्रक्रियां योजयेत्] नयों के द्वारा इस सप्तभंगी प्रक्रिया को घटित कर लेवें ।

ज्ञानमती :

नय में निपुण जनों को नित ही, एक अनेक विकल्पों में;;नित्य क्षणिक आदिक में भी ये, सप्तभंग कर लेने हैं;;सुनय विवक्षा के द्वारा, प्रत्येक धर्म में सुघटित है;;सप्तभंग प्रक्रिया विधी यह, जिनमत में ही वर्णित है

नयों की योजना करने में कुशल स्याद्वादी को आगे इसी प्रकार से एक और अनेक आदि धर्मों में भी इस सप्तभंगी प्रक्रिया को द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों के अनुसार योजित कर लेना चाहिए ।

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+ अद्वैत एकांत में दोष -
अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि, दृष्टो भेदो विरुध्यते
कारकाणां क्रियायाश्च, नैवंâ स्वस्मात्प्रजायते ॥24॥
अन्वयार्थ : [अद्वैतैकांतपक्षेऽपि कारकाणां क्रियायाश्च दृष्ट: भेद: विरुध्यते] यदि अद्वैत रूप एकांत पक्ष लिया जाये, तो कारक और क्रियाओं का जो भेद दिख रहा है, वह विरुद्ध हो जाता है [एकं स्वस्मात् न जायते] क्योंकि कोई भी अपने से ही आप उत्पन्न नहीं हो सकता है ॥

ज्ञानमती :

यदि अद्वैतरूप है सब जग, यह एकांत लिया जावे;;तब तो कारक और क्रिया का, भेद दिखे वह नहिं पावे;;दिखता है साक्षात् भेद जो, वह भी है विरुद्ध होगा;;क्योंकि एक ही ब्रह्मा ही, निज से उत्पन्न नहीं होता

ब्रह्माद्वैत, शब्दाद्वैत, ज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत आदि अद्वैत एकांत पक्ष में भी कारक और क्रियाओं का देखा गया भेद विरोध को प्राप्त होता है, क्योंकि कोई भी एक (ब्रह्म) अपने से ही आप उत्पन्न नहीं होता है ।

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+ अद्वैत में शुभ-अशुभ आदि द्वैत नहीं बनते -
कर्मद्वैतं फलद्वैतं, लोकद्वैतं च नो भवेत्
विद्याऽविद्याद्वयं न स्याद्बंधमोक्षद्वयं तथा ॥25॥
अन्वयार्थ : [कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत्] इस अद्वैत सिद्धांत के मानने से शुभ-अशुभ कर्म का युगल, उसके फल-स्वरूप पुण्य-पाप का युगल अथवा सुख-दु:ख का युगल, इहलोक-परलोक का युगल-रूप द्वैत नहीं बन सकता है । [विद्याविद्याद्वयं तथा बंधमोक्षद्वयं न स्यात्] इसी प्रकार विद्या और अविद्या का द्वैत तथा बंध और मोक्ष का द्वैत भी नहीं बन सकता है ।

ज्ञानमती :

पुण्य-पाप द्वय, सुख-दुख फल द्वय, इह परलोक द्वैत जग में;;विद्या और अविद्या द्वय अरु, बंध-मोक्ष द्वय नहिं होंगे;;इन द्वैतों में एक द्वैत भी, यदि मानों अद्वैत नहीं;;अत: ब्रह्म या शब्द ज्ञान-मय, जगत् एक-मय घटे नहीं

इस अद्वैत एकांत पक्ष में दो कर्म, दो फल, दो लोक नहीं बन सकते हैं उसी प्रकार से विद्या और अविद्या, बंध और मोक्ष भी घटित नहीं हो सकते हैं ।

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+ अद्वैत में द्वैत आ जाता है -
हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद्-द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययो:
हेतुना चेद्विना सिद्धि-द्र्वैतं वाङ्मात्रतो न किम् ॥26॥
अन्वयार्थ : [हेतो: अद्वैतसिद्धि: चेत् हेतु साध्ययो: द्वैतं स्यात्] यदि हेतु से अद्वैत की सिद्धि मानों तब तो हेतु और साध्य के मानने पर द्वैत हो जाता है [चेत् हेतुना बिना सिद्धि: वाङ्मात्रत: द्वैतं किं न] यदि हेतु के बिना ही अद्वैत की सिद्धि मानते हो, तब तो वचन मात्र से ही द्वैत की सिद्धि भी क्यों न हो जावे ?

ज्ञानमती :

यदि अद्वैतसिद्धि हेतू से, तब तो साध्य और साधक;;द्वैत हुए क्योंकि ब्रह्मा है, साध्य हेतु उसका ज्ञापक;;यदी हेतु के बिना सिद्ध है, यह अद्वैत वचन से ही;;तब तो द्वैतसिद्धि भी क्यों नहिं, होवे वचनमात्र से ही

यदि हेतु से अद्वैत की सिद्धि होती है, तब तो हेतु और साध्य ये दो हो गये अत: द्वैत ही सिद्ध हुआ न कि अद्वैत। और यदि हेतु के बिना वचन मात्र से अद्वैत की सिद्धि होती है तब तो वाङ्मात्र से ही द्वैत की सिद्धि क्यों न हो जावे ।

भावार्थ – जब हेतु से अद्वैत को सिद्ध किया जावेगा, तब अद्वैत साध्य की कोटि में आ गया और हेतु तथा साध्य से द्वैत ही बन गया । अपने हाथ से ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली । सिद्ध करने चले थे अद्वैत को सिद्ध हो गया द्वैत । यदि हेतु के बिना ही अद्वैत की सिद्धि कहो, तब तो अपने वचनमात्र से ही तो अद्वैत को मानोगे, फिर भला वचन मात्र से द्वैत भी क्यों न हो जावे ?

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+ अद्वैत के बिना द्वैत कैसे ? -
अद्वैतं न विना द्वैता-दहेतुरिव हेतुना।
संज्ञिन: प्रतिषेधो न, प्रतिषेध्यादृते क्वचित्॥27॥
अन्वयार्थ : [द्वैतात् विना अद्वैतं न हेतुना अहेतु: इव] द्वैत के बिना अद्वैत नहीं हो सकता है जैसे कि हेतु के बिना अहेतु शब्द नहीं बन सकता [प्रतिषेध्यात् ऋते क्वचित् संज्ञिन: प्रतिषेधो न] क्योंकि निषेध करने योग्य वस्तु के बिना किसी भी नाम वाली वस्तु का निषेध नहीं किया जा सकता है।

ज्ञानमती :

द्वैत बिना अद्वैत न होगा, नञ् समास से बना सही;;यथा हेतु के बिना अहेतू, हो सकता है कभी नहीं;; वस्तू का निषेध-प्रतिषेध, योग्य वस्तु बिन बने नहीं;; है निषिद्ध ‘आकाशकुसुम’ फिर भी वह वृक्षों में नित ही

कारिकार्थ-जिस प्रकार से हेतु के बिना अहेतु सिद्ध नहीं है, उसी प्रकार से द्वैत के बिना अद्वैत भी नहीं बन सकता। क्योंकि प्रतिषेध्य-द्वैतादि के बिना अद्वैतरूप का प्रतिषेध भी नहीं हो सकता है।। भावार्थ-द्वैत एक नाम सहित-संज्ञी शब्द है और उसका निषेध करने वाला अद्वैत शब्द है ‘न द्वैतं-अद्वैतं’ के अनुसार अद्वैत द्वैत के बिना नहीं बन सकता है।

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+ पृथक्त्वैकांत नहीं बनता -
पृथक्त्वैकान्तपक्षेऽपि, पृथक्त्वादपृथक्तु तौ।
पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्थौ ह्यसौ गुण: ॥28॥
अन्वयार्थ : [पृथक्त्वैकांतपक्षेऽपि पृथक्त्वात् अपृथक्तु तौ] यदि प्रत्येक द्रव्य गुण आदि के पृथक्ता का ही एकांत माना जावे, तो पृथक् गुण से द्रव्यादि के भिन्न होने से वे गुणगुणी अपृथव्â अभिन्न हो जावेंगे [पृथक्त्वे पृथक्त्वं न स्यात् असौ गुण: हि अनेकस्थ:] यदि वे गुण गुणी पृथक् ही हैं, तब तो पृथक् नाम का कोई गुण सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि वह एक होते हुए भी अनेकों में स्थित रहने वाला माना गया है। अत: उसके पृथक्त्व रूप में कोई अस्तित्व नहीं बनता है।।

ज्ञानमती :

इस पृथक्त्वैकांत पक्ष में, द्रव्य गुणों से पृथक्त्व गुण;; अपृथक् है या पृथक् कहो यदि, अपृथक् है तब पक्ष अघट;; यदी कहो यह द्रव्य गुणों से, अलग पड़ा तब सिद्ध नहीं;; क्योंकि एक अनेकों में यह, रहता अत: असिद्ध सही

कारिकार्थ-पृथक्त्वैकांत पक्ष में भी पृथक्त्वगुण से पदार्थों को भिन्न मानने पर पृथक्-पृथक् रूप रहे हुए पदार्थ गुण और गुणी सब अपृथक्-अभिन्न हो जायेंगे। एवं सभी को पृथक्त्व-भिन्न-भिन्न मानने पर पृथक्त्वगुण की सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि यह पृथक्त्व गुण अनेक पदार्थों में रहने वाला माना गया है॥

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+ बौद्ध की पृथक्त्व मान्यता में दोष -
संतान: समुदायश्च साधम्र्यञ्च निरंकुश:।
प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्व-निन्हवे ॥29॥
अन्वयार्थ : [एकत्वनिन्हवे संतान: समुदाय: च साधम्र्यं च प्रेत्यभावश्च निरंकुश:] यदि एकत्व का सर्वथा लोप किया जावे, तो संतान, समुदाय, सदृशता और परलोक गमन जो कि अंकुश रहित-अबाधित सिद्ध हैं [तत्सर्वं न स्यात्] वे सभी घटित नहीं हो सकेंगे ॥

ज्ञानमती :

यदि एकत्व नहीं मानो, संतानरूप अन्वय कैसा?;;नहिं होवे समुदाय सदृशता, नहिं परलोक गमन होगा;;बाल-वृद्ध पर्याय अनेकों, नहीं घटेंगी जो निर्बाध;;क्षणिकैकांत पक्ष में क्षण-क्षण, में होता है सब कुछ नाश

एकत्व का सर्वथा निह्नव करने पर निरंकुश-सकल बाधक रहित अस्खलितरूप से प्रमाण प्रसिद्ध संतान, समुदाय, साधम्र्य, परलोक तथा दिये हुए को लेना आदि ये सब व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकते हैं।

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+ क्या ज्ञान ज्ञेय से सर्वथा भिन्न है -
सदात्मना च भिन्नं चेज्ज्ञानं ज्ञेयाद् द्विधाप्यसत्।
ज्ञानाऽभावे कथं ज्ञेयं बहिरन्तश्च ते द्विषाम् ॥30॥
अन्वयार्थ : [चेत् सदात्मना च ज्ञानं ज्ञेयात् भिन्नं द्विधा अपि असत्] यदि सत् रूप से भी ज्ञान ज्ञेय पदार्थों से भिन्न है, तब तो ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही असत् हो जावेंगे [ते द्विषां ज्ञानाऽभावे बहिरंतश्च ज्ञेयं कथं] हे भगवन्! आपके विद्वेषी ए कांतवादियों के यहाँ ज्ञान के अभाव में बहिरंग और अंतरंगभूत ज्ञेय पदार्थ केसे सिद्ध हो सकेंगे।

ज्ञानमती :

ज्ञान यदी निज ज्ञेय वस्तु से, सत्स्वरूप से भिन्न कहा;; तब तो ज्ञान-ज्ञेय दोनों का, भी अस्तित्व समाप्त हुआ;; प्रभो! ज्ञान के अभाव होने से बाह्याभ्यंतर सब ज्ञेय;;केसे होंगे सिद्ध! कहो फिर, तव मत विद्वेषी के मेय

यदि सत्रूप से भी ज्ञान ज्ञेय से भिन्न माना जाये, तब तो ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही असत्रूप हो जायेंगे, क्योंकि हे भगवन्! आपके द्वेषी सर्वथैकांतवादियों के यहाँ ज्ञान के अभाव में बहिस्तत्त्वरूप तथा अन्तस्तत्त्वरूप ज्ञेय पदार्थों की सिद्धि भी केसे हो सकेगी ?

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+ बौद्ध के यहाँ वचन किसको कहते हैं ? -
सामान्यार्था गिरोऽन्येषां, विशेषो नाऽभिलप्यते।
सामान्याभावतस्तेषां, मृषैव सकला गिर: ॥31॥
अन्वयार्थ : [अन्येषां गिर: सामान्यार्था: विशेषो न अभिलप्यते] आप बौद्धों के यहाँ वचन सामान्य अर्थ को ही कहते हैं, विशेष अर्थ को नहीं कहते हैं। [सामान्याऽभावत: तेषां सकला गिर: मृषा एव] विशेष के बिना सामान्य का भी अभाव हो जाने से आप बौद्धों के यहाँ सभी वचन मिथ्या ही ठहरते हैं।

ज्ञानमती :

बौद्धजनों के यहाँ वचन, सामान्य अर्थ को ही कहते;; है विशेष, वास्तविक स्वलक्षण, वचन उसे नहिं कह सकते;; बिन विशेष सामान्य कहाँ है, फिर सामान्य न होने से;; सारे वचन व्यर्थ अरु झूठे, ही होंगे उनके मत से

आप बौद्धों के यहाँ वचन सामान्य अर्थ को कहने वाले हैं, उन वचनों के द्वारा विशेष का कथन नहीं किया जा सकता है पुन: आपके यहाँ सामान्य का अभाव होने से सम्पूर्ण वचन असत्य-मिथ्या ही हैं।

भावार्थ-प्रत्येक वस्तु के सामान्य-विशेष ऐसे दो धर्म रहते हैं। यदि वचनों से सामान्य का ही कथन होवे, तब विशेष का कथन न हो सकने से विशेष का अभाव हो जाने से सामान्य नहीं रह सकेगा और सभी वचन असत्य अर्थ को ही कहने वाले हो जावेंगे।

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+ अद्वैत पृथक्त्व एकान्त में दोष -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं, स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥32॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्] स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ अद्वैत और द्वैत का एकात्म्य भी नहीं बन सकेगा, क्योंकि इन दोनों का परस्पर में विरोध पाया जाता है [आवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते] एकांत से इन दोनों की अवाच्यता स्वीकार करने पर भी ‘अवाच्य’ यह वचन नहीं बोला जा सकता है। अर्थात् स्याद्वाद को न मानने से ये बाधाएं आती हैं।

ज्ञानमती :

ये एकत्व पृथक्त्व उभय, आपस में नित्य विरोधी हैं;; स्याद्वाद विद्वेषी के ये, उभय तत्त्व निरपेक्ष रहें;; यदि दोनों हैं ‘अवाच्य’ द्वैताद्वैत कथन नहिं हो युगपत्;;तब निरपेक्ष अवाच्य यही वच, केसे होवेगा सुघटित?

स्याद्वाद न्याय से द्वेष रखने वाले एकांतवादियों के यहाँ उभयैकात्म्य भी सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि पृथक्त्वैकांत एवं अपृथक्त्वैकांत इन दोनों का परस्पर में विरोध है। यदि आप कहें कि हम तत्त्व को एकांत से अवाच्य मानते हैं, तब तो ‘‘अवाच्य’’ यह कथन भी नहीं बन सकेगा।

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+ अद्वैत और पृथक्त्व सच्चे भी हैं -
अनपेक्ष्ये पृथक्त्वैक्ये, ह्यवस्तु द्वय-हेतुत:
तदेवैक्यं पृथक्त्वं च, स्वभेदै: साधनं यथा ॥33॥
अन्वयार्थ : [अनपेक्ष्ये पृथक्त्वैक्ये हि अवस्तु द्वय हेतुत:] ये अद्वैत और पृथक्त्व एक-दूसरे की अपेक्षा न रखने से अवस्तु हैं क्योंकि दो हेतु पाये जाते हैं [तत् एव ऐक्यं पृथक्त्वं च यथा स्वभेदै: साधनं] उसी प्रकार अद्वैत और पृथक्त्व ये दोनों एक-दूसरे की अपेक्षा रखने से वस्तुभूत हैं जैसे कि हेतु अपने अन्वय व्यतिरेक भेदों से वास्तविक होता है

ज्ञानमती :

यदि एकत्व पृथक्त्व परस्पर, में निरपेक्ष रहें तब तो;;हेतुद्वय से उभय न होंगे, वस्तुभूत किन्चित् भी तो;;यदि अपृथक् पृथक्त्वापेक्षी, पृथक्-अपृथक् अपेक्षी है;;तब तो वस्तुभूत अविरोधी, भेदापेक्षि हेतुवत् हैं

यदि पृथक्त्व और एकत्व ये दोनों धर्म परस्पर निरपेक्ष हैं तो वे अवस्तुरूप हैं किन्तु दो प्रकार के हेतुओं से परस्पर सापेक्ष से ही पृथक्त्व और एकत्व धर्म वस्तुभूत हैं, जैसे पक्षधर्मत्व आदि अपने भेदों से निरपेक्ष हेतु अवस्तुरूप है और वही हेतु अपने भेदों से सापेक्ष होकर वस्तुरूप है।

भावार्थ-जीवादि वस्तु कथंचित् अद्वैत रूप हैं क्योंकि सत् की अपेक्षा से सभी वस्तुओं में एकत्व का अनुभव आ रहा है। उसी प्रकार से वे ही जीवादि वस्तु कथंचित् पृथक्त्व रूप हैं क्योंकि द्रव्य पर्याय आदि की अपेक्षा सबका पृथक्पृथक् अनुभव आ रहा है। ये दो हेतु सभी वस्तु को उभयरूप सिद्ध कर रहे हैं।

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+ सभी वस्तुएँ एकत्व और पृथक्त्व रूप केसे हैं ? -
सत्सामान्यात्तु सर्वैक्यं, पृथग्द्रव्यादिभेदत:
भेदाभेदविवक्षाया-मसाधारण-हेतुवत् ॥34॥
अन्वयार्थ : [सत्सामान्यात् तु सर्वैक्यं द्रव्यादिभेदत: पृथक्] सत् सामान्य की अपेक्षा से सभी वस्तु एकत्व रूप है एवं द्रव्य गुण आदि के भेद से सभी वस्तु भिन्न-भिन्न हैं। भेदाभेदविवक्षायां असाधारण-हेतुवत्] जिस प्रकार असाधारण हेतु अभेद दृष्टि से एक और भेद दृष्टि से अनेक रूप हो जाता है, उसी प्रकार से सभी पदार्थ सत् रूप से अभेद विवक्षा करने पर एक रूप हैं एवं द्रव्य, गुण, पर्यायों के भेद की विवक्षा से भिन्न-भिन्न हैं।

ज्ञानमती :

सत् सामान्य अपेक्षा जग में, सभी वस्तुएँ एकस्वरूप;;द्रव्य तथा गुण-पर्यय से सब, वस्तु पृथक् हैं भेदस्वरूप;;यथा असाधारण हेतू भी, भेदाभेद विवक्षा से;;है अनेक अरु एक उसी विधि, सब कुछ एक अनेक रहें

भेद और अभेद की विवक्षा में असाधारण हेतु की तरह सत्सामान्य की अपेक्षा से सभी जीवादि वस्तुओं में एकत्व है एवं द्रव्यादि के भेद की अपेक्षा पृथक्त्व भी है।

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+ सत् में ही विवक्षा और अविवक्षा होती है -
विवक्षा चाविवक्षा च, विशेष्येऽनन्तधर्मिणि
सतो विशेषणस्यात्र नाऽसतस्तैस्तदर्थिभि: ॥35॥
अन्वयार्थ : [अत्र अनंतधर्मिणि विशेष्ये सत: विशेषणस्य विवक्षा च अविवक्षा च] इस अनंतधर्मात्मक विशेष्य-जीवादि पदार्थों में सत् रूप विशेषण की ही विवक्षा और अविवक्षा [असत: न] असत् रूप विशेषण की नहीं की जाती है [तै: तदर्थिभि:] और ये विवक्षा-अविवक्षा उन-उन विशेषण के इच्छुक जनों द्वारा ही की जाती है।।

ज्ञानमती :

अनंतधर्मा वस्तू में ही, घटे विवक्षा अविवक्षा;;ये दोनों सतरूप विशेषण, को कहतीं न असत् इच्छा;;अर्थी करें विवक्षा तथा अनर्थी अविवक्षा करते;;सत् वस्तू में ही दोनों हैं, असत् वस्तु में नहिं घटते

अनंतधर्मात्मक जीवादि पदार्थरूप विशेष्य में एकत्वानेकत्वरूप विशेषणों के इच्छुक विद्वानों द्वारा सत् स्वरूप विशेषण की ही विवेक्षा और अविवक्षा की जाती है, असत् रूप विशेषण की नहीं की जाती है।

भावार्थ-यदि कोई वस्तु के एकत्व को कहने की इच्छा करते हैं तो वे उस एकत्व की विवक्षा के इच्छुक कहलाते हैं, यदि एकत्व के कहने की इच्छा नहीं करते हैं, तब वे एकत्व की अविवक्षा के इच्छुक कहलाते हैं। वस्तु के एक धर्म को कहने की इच्छा में उसी वस्तु का अन्य विरोधी गुण गौण हो जाता है। इसलिए उस गौण गुण की अविवक्षा हो जाती है। ये विवक्षा और अविवक्षा अस्तिरूप पदार्थों में ही होती है असत् रूप में नहीं क्योंकि असत्भूत पदार्थ आकाश कुसुमवत् है ही नहीं, तब उसमें विवक्षा-अविवक्षा केसे बन सकेगी ?

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+ एक वस्तु में भेद और अभेद दोनों केसे होंगे ? -
प्रमाणगोचरौ सन्तौ, भेदाभेदौ न संवृती
तावेकत्राऽविरुद्धौ ते, गुणमुख्यविवक्षया ॥36॥
अन्वयार्थ : [भेदाऽभेदौ प्रमाणगोचरौ सन्तौ न संवृती] ये भेद और प्रमाण के विषय हैं और सत् रूप हैं, संवृति रूप नहीं हैं [ते गुणमुख्यविवक्षया तौ एकत्रअविरुद्धौ] हे भगवन्! आपके मत में गौण और मुख्य की अपेक्षा से ये दोनों एक ही वस्तु में अविरोध रूप से रहते हैं। अर्थात् चार कारिका तक अद्वैत और पृथक्त्व का अनेकांत सिद्ध किया है।

ज्ञानमती :

सत्यज्ञान के गोचर होते, अस्तिरूप हैं भेद-अभेद!;; कल्पितरूप नहीं है क्योंकि, ये प्रमाण के विषय जिनेश!;; एक वस्तु में मुख्य गौण से, दोनों रहते अविरोधी;;जिनकी जहाँ विवक्षा हो वह, मुख्य दूसरा गौण सही

ये दोनों भेद और अभेद प्रमाण के विषय होने से सत् रूप हैवास्तविक है, संवृतिरूप-काल्पनिक नहीं है। हे भगवन्! आपके शासन में ये भेदाभेद एक ही जीवादि वस्तु में गौण और मुख्य की विवक्षा से विरोध रहित हैं।।

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+ वस्तु को सर्वथा नित्य मानने में दोष -
नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि, विक्रिया नोपपद्यते
प्रागेव कारकाभाव:, क्व प्रमाणं क्व तत्फलम् ॥37॥
अन्वयार्थ : [नित्यत्वैकांतपक्षे अपि विक्रिया न उपपद्यते] यदि सर्वथा सभी वस्तुओं को नित्य ही माना जाये, तब तो कुछ भी क्रिया आदि परिवर्तन नहीं होंगे [प्रागेव कारकाभाव: क्व प्रमाणं क्व तत्फलं] क्योंकि नित्य में पहले ही कत्र्ता-कर्मआदि कारकों का अभाव है पुन: प्रमाण कहाँ रहेगा और जब प्रमाण नहीं होगा, तब उसका फल भी कहाँ रहेगा ?

ज्ञानमती :

यदि सर्वथा सभी वस्तु हैं, नित्य कहो तब क्या होगा;;हलन, चलन परिणमनरूप, विक्रिया कार्य केसे होगा;;कत्र्तादि कारक के पहले, ही अभाव होगा निश्चित;;ज्ञाता बिन फिर ज्ञान कहाँ, अरु कहाँ ज्ञान का फल सुघटित ?

नित्यत्वैकांत पक्ष में भी परिणमन स्वरूप एवं परिस्पंदरूप विविध क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं क्योंकि कार्य की उत्पत्ति के पहले से ही कारक का अभाव है एवं कारक के अभाव में प्रमाण भी कहाँ रहेगा ? और उसका फल भी कहाँ रहेगा ?

भावार्थ-जब सभी जीवादि पदार्थ सर्वथा नित्य हैं, तब उनमें किसी भी प्रकार का परिणमन, एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त करना आदि नहीं बन सकता है। कथंचित् अनित्य मानने से ही जीव का जन्म, मरण, बचपन से युवावस्था आदि परिवर्तन घटित नहीं होंगे, सर्वथा में नहीं बनेंगे।

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+ प्रमाण और कारकों के नित्य होने में विक्रिया केसी ? -
प्रमाणकारकैव्यर्कतम, व्यक्तं चेदिन्द्रियार्थवत्
ते च नित्ये विकार्यं किम, साधोस्ते शासनाद्बहि: ॥38॥
अन्वयार्थ : [इन्द्रियार्थवत् प्रमाणकारकै: व्यक्तं व्यक्तं चेत्] जिस प्रकार से इन्द्रियाँ अपने विषय को व्यक्त करती हैं, उसी प्रकार से यदि प्रमाण और कारकों के द्वारा व्यक्त को अभिव्यक्त-प्रकट किया जाता है, तब तो [ते च नित्ये ते साधो: शासनाद्बहि: किम विकार्यं] आपके यहाँ वे प्रमाण और कारक सर्वथा नित्य हैं अत: हे साधो! आपके शासन से बहिर्भूत जनों के यहाँ व्यक्त को प्रकट करने रूप से भी विक्रिया केसे बन सकेगी ?

ज्ञानमती :

इन्द्रिय द्वारा विषयों की है, अभिव्यक्ति जैसे वैसे;;कारक और प्रमाणों द्वारा, वे अव्यक्त प्रगट होते;;ये प्रमाण कारक दोनों ही, नित्य सर्वथा सांख्य कहें;;भगवन्! तव शासन से बाहर, विधि क्रिया भी हो केसे?

जिस प्रकार इन्द्रियों के द्वारा अर्थ अपने-अपने विषय के पदार्थ अभिव्यक्त किये जाते हैं, उसी प्रकार प्रमाण और कारकों के द्वारा व्यक्त-महान, अहंकार आदि तत्त्व अभिव्यक्त किये जाते हैं। इस प्रकार से यदि सांख्य कहें तो उचित नहीं है। उनके यहाँ प्रमाण और कारक तो सर्वथा नित्य हैं, इसलिएहे भगवन्! आपके शासन से बहिर्भूत उन सांख्यों के यहाँ विकार्य-अभिव्यक्तिया अवस्था परिणमन केसे हो सकता है ? अर्थात् किसी भी प्रकार का अभिव्यक्ति- रूप भी परिणमन नहीं हो सकता है।

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+ सर्वथा सत् रूप कार्य उत्पन्न केसे होगा ? -
यदि सत्सर्वथा कार्यं पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति
परिणाम-प्रक्ऌप्तिश्च, नित्यत्वैकान्त-बाधिनी ॥39॥
अन्वयार्थ : [यदि कार्यं सर्वथा सत् पुंवत् उत्पत्तुं न अर्हति] यदि कार्य को सर्वथा विद्यमान रूप ही माना जाये, तो पुरुष के समान उत्पन नहीं हो सकता है [परिणामप्रक्ऌप्ति: च नित्यत्वैकांतबाधिनी] क्योंकि जो वस्तु में परिणमनपरिवर्तन की कल्पना है वह सर्वथा नित्यत्व एकांत को बाधित करने वाली है।

ज्ञानमती :

विद्यमान यदि कार्य हमेशा, कारण क्यों माना जावे;; उत्पत्ती के योग्य न आत्मा, वैसे ही घट मत होवे;;मिट्टी में घट सदा उपस्थित, चक्र दण्ड फिर क्या करते ?;;यदि परिणमन व्यवस्था है फिर, नित्यपक्ष बाधित उससे

यदि कार्य को सर्वथा सत् रूप माना जाये, तब तो पुरुष के समान वह उत्पन्न ही नहीं हो सकता है और यदि परिणमन की कल्पना करें, तब तो नित्यत्वैकांत में बाधा आ जाती है।

भावार्थ-सांख्य कार्य को सर्वथा विद्यमान रूप ही मानता है उसका कहनाहै कि मिट्टी में घड़ा, बीज में अंकुरे सदा ही विद्यमान हैं चक्र, कुंभकार एवं किसान मिट्टी, जल आदि कारण सामग्री केवल कार्य को प्रकट कर देती हैंं। वे कारण कलाप कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं।

इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि यह कल्पना ठीक नहीं है। हेतु के दो भेद हैं-कारक हेतु और ज्ञापक हेतु। मिट्टी से घट बनाने में कुंभकार, चक्र, दण्डआदि कारक हेतु हैं और कमरे में घट-पट आदि वस्तुएँ रखी हैं अंधेरा होने सेदिखती नहीं है। तब दीपक आदि से उन्हें प्रकट कर देना, देख लेना होता है अत:दीपक आदि ज्ञापक हेतु हैं। संसार के बहुत से कार्य कारक हेतु से ही बनते हैं। यदि ऐसा न माने तो पदार्थों में जो परिवर्तन देखा जाता है, वह केसे बनेगा क्योंकि परिवर्तन होने से सर्वथा नित्य एकांत की व्यवस्था नहीं है।

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+ नित्य एकांत में पुण्य पापादि भी असंभव हैं -
पुण्य-पापक्रिया न स्यात्, प्रेत्यभाव: फलं कुत:
बन्ध-मोक्षौ च तेषां न, येषां त्वं नाऽसि नायक: ॥40॥
अन्वयार्थ : [येषां त्वं नायक: न असि] हे भगवन्! जिनके आप स्वामी नहीं हैं [तेषां पुण्यपापक्रिया न स्यात्] उनके यहाँ पुण्य और पाप क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं [प्रेत्यभावं फलं कुत: बंधमोक्षौ च न] पुण्य पाप के फलस्वरूप परलोक गमन भी केसे होगा? पुन: बंध और मोक्ष की व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी।

ज्ञानमती :

नित्यैकांत पक्ष में शुभ अरु अशुभ क्रिया भी नहिं होवे;;नहिं होगा परलोकगमन फिर, सुख-दु:ख फल केसे होवे;; कर्मबंध अरु मोक्ष व्यवस्था, भी उनके मत में नहिं है;; हे भगवन्! जिनके तुम स्वामी, नहीं उन्हें सब दुर्घट है

सर्वथा नित्य पक्ष में पुण्य, पापरूप क्रिया नहीं हो सकती है। उसके अभाव में परलोक एवं सुख-दु:खादि फल भी केसे हो सकते हैं ? हे भगवन ्! जिनके आप नायक-स्वामी नहीं हैं उनके यहाँ बंध और मोक्ष भी नहीं हो सकते हैं।

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+ क्षणिक एकांत भी असंभव है -
क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि, प्रेत्यभावाद्यसंभव:
प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न, कार्यारम्भ: कुत: फलम् ॥41॥
अन्वयार्थ : [क्षणिकैकांत पक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्य संभव:] यदि वस्तु को सर्वथा क्षणिक रूप ही माना जाये, तो भी परलोक गमन आदि असंभव ठहरते हैं [प्रत्यभिज्ञाद्यभावात् कार्यारंभ: न फलं कुत:] और प्रत्यभिज्ञान, स्मरण, अनुमान आदि ज्ञानों का अभाव हो जाने से कार्य का आरंभ भी नहीं हो सकेगा पुन: कार्य के अभाव में सुख-दु:खादि फल भी केसे बन सकेगे ?

ज्ञानमती :

क्षणिकैकांत पक्ष में भी, परलोकगमन कैसे होगा?;;बंध-मोक्ष प्रक्रिया असंभव, है फिर धर्म कहाँ होगा?;;प्रत्यभिज्ञान असंभव, है स्मृति अनुमान कहाँ?;;पुन: कार्य आरंभ न होगा, फल भी उसका रहा कहाँ?

क्षणिकैकांत पक्ष में भी प्रेत्यभाव आदि असंभव हैं, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान आदि का अभाव होने से कार्यादि का आरंभ नहीं हो सकता है पुन: फल कैसे हो सकेगा ?

भावार्थ-प्रत्येक वस्तु को यदि सर्वथा क्षण-क्षण में नष्ट होने वाली मान लिया जावे, तब तो आत्मा का अस्तित्व कुछ काल के लिए भी नहीं रह सकता है। पुन: पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष, परलोक-गमन आदि किसको होंगे और स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान आदि के न होने से कोई भी व्यक्ति कुछ भी कार्य कैसे करसकेगा एवं उसका फल सुख-दु:ख भी कैसे भोगेगा? अर्थात् क्षणिकैकांत में भी कुछ भी व्यवस्था नहीं बन सकती है।

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+ कार्य सर्वथा असत् से केसे होगा ? -
यद्यसत्सर्वथा कार्यं, तन्माजनि ख-पुष्पवत्
मोपादान-नियामोऽभून्माऽऽश्वास: कार्य-जन्मनि ॥42॥
अन्वयार्थ : [यदि सर्वथा कार्यं असत् तत् खपुष्पवत् मा जनि] यदि कार्य को सर्वथा असत् ही माना जावे, तब तो वह कार्य आकाश पुष्पवत् उत्पन्न मत होवे [उपादाननियामो मा भूत् कार्यजन्मनि आश्वास: मा] असत् के उत्पाद में तो कार्य के उपादान का नियम भी नहीं बन सकता एवं कार्य की उत्पत्ति में कुछ भी विश्वास नहीं रहेगा।

ज्ञानमती :

यदि कार्य सर्वथा असत् है, गगन कुसुमवत् निंह होगा;;यदि असत् की हो उत्पत्ती, उपादान फिर क्या होगा?;;जौ बीजों से जौ ही हों, यह उपादान कारण निष्फल;;पुन: कार्य के उत्पादन में, सब विश्वास रहा असफल

यदि कार्य को सर्वथा असत्रूप ही मानें, तब तो आकाश पुष्प के समान वह कभी उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा एवं उसके उपादान कारण का नियम भी नहीं बन सकेगा तथा उसके अभाव में कार्य की उत्पत्ति का कोई विश्वास भा नहीं हो सकेगा।

भावार्थ-बौद्धों का कहना पूर्वोक्त सांख्य से सर्वथा उल्टा ही रहता है। सांख्य ने कहा था कि मिट्टी में घट सदा विद्यमान ही रहता है और बौद्ध कहता है कि मिट्टी के पिंड का सर्वथा नाश हो जाने के बाद घड़ा उत्पन्न होता है अत: घट कार्य सर्वथा अविद्यमान से ही बना है।

इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो जैसे आकाश के फूल नहीं हैं वैसे ही कारण के नहीं रहने से वे कार्य भी नहीं होंगे। यदि जबरदस्ती मान भी लेवोगे तो भी उस कार्य की उत्पत्ति में उपादान कारण का कुछ भी नियम नहीं रहेगा। कारण दो प्रकार के होते हैं एक निमित्तकारण, दूसरा उपादान कारण। घट के बनने में मिट्टी उपादान कारण है, वही घटरूप परिणत हो जाती है। दण्ड, चाक, कुंभार आदि निमित्त कारण हैं ये छूट जाते हैं। यदि उपादान कारण का सर्वथा विनाश करके घड़ा बना है, तब तो तन्तु से या बीज से भी घड़ा बन जावे, मिट्टी से घट, तंतु से वस्त्र और बीज से अंकुर ऐसा नियम नहीं बन सकेगा तथा कार्य की उत्पत्ति में भी विश्वास न रहने से कृषक गेहूँ के बीज को बोकर गेहूँ की उत्पत्ति में विश्वास नहीं कर पावेगा।


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+ क्षणिक एकांत में कार्यकारण भाव असंभव है -
न हेतु-फल-भावादि-रन्यभावादनन्वयात्
सन्तानान्तरवन्नैक:, सन्तानस्तद्वत: पृथक् ॥43॥
अन्वयार्थ : [हेतुफलभावादि: न अन्यभावात् सन्तानान्तरवत् अनन्वयात्] सर्वथा क्षणिक एकांत में कार्य कारण भाव आदि नहीं बन सकते हैं क्योंकि वे परस्पर में भिन्न होते हैं उनमें भिन्न सन्तान के समान अन्वय नहीं पाया जाता है [एक: संतान: तद्वत: पृथक् न] जो एक संतान होता है, वह संतानी से भिन्न नहीं होता है।

ज्ञानमती :

हेतुभाव फलभाव न होंगे, क्योंकि न अन्वय हैं उनमें;;भिन्न-भिन्न संतान सदृश, है अन्यभाव पूर्वोत्तर में;;पूर्वोत्तर क्षण में इक ही, संतान कहो तो ठीक नहीं;;क्योंकि निज वस्तू से इक, संतान पृथक् है कभी नहीं

इस क्षणिक एकांत पक्ष में भिन्न संतान के समान कारणकार्यभाव आदि कुछ भी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि इनमें अन्वय के न होने स भिन्नपना है। संतानी से पृथक् कोई एक संतान नहीं है।

भावार्थ-बौद्धो के यहाँ मृत्पिंड और घट में कारण कार्य भाव नहीं बनता है क्योंकि उनके यहाँ दोनों ही भिन्न हैं। दोनों में अन्वय रूप द्रव्य एक नहीं है। हम जैनों ने तो मृत्पिंड और घट दोनों में अन्वय रूप द्रव्य एक माना है ये लोग नहीं मानते हैं। अतएव जैसे देवदत्त और जिनदत्त भिन्न-भिन्न हैं, उनमें अन्वय भाव नहीं है। वैसे ही देवदत्त की बाल्यावस्था, युवावस्था रूप पर्यायें भी भिन्न ही हैं क्योंकि इन पर्यायों में भी बौद्ध अन्वय रूप एक आत्मा नहीं मानता है। अत: संतानी से भिन्न एक संतान परमार्थभूत कोई वस्तु नहीं है।

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+ बौद्ध भिन्न-भिन्न कार्यक्षणों में एकत्व को संवृति से मानता है -
अन्येष्वनन्यशब्दोऽयं, संवृत्तिर्न मृषा कथम्
मुख्यार्थ: संवृत्तिर्न स्याद्, विना मुख्यान्न संवृति: ॥44॥
अन्वयार्थ : [अन्येषु अनन्यशब्द: अयं संवृति: मृषा कथं न] यदि कहा जाये कि भिन्न-भिन्न चित्तक्षणों में जो अभिन्न एक आत्मा कहा जाता है, वह संवृति से कहा जाता है तब यह संवृति काल्पनिक होने से मिथ्या क्यों नहीं है। [मुख्यार्थ: संवृति: न स्यात्] क्योंकि संवृति मुख्य अर्थ को कहने वाली नहीं है [मुख्यात् बिना संवृति: न] और मुख्य अर्थ के बिना संवृति हो नहीं सकती है।

ज्ञानमती :

भिन्न चित्तक्षण में जो है, संतानरूप से इक आत्मा;;यह संवृति से कथन यदि तव, संवृति क्यों नहिं हो मिथ्या;;यदि संतति को मुख्य कहो तो, मुख्य अर्थ संवृत्ति नहिं है;;यदि संवृति है पुन: मुख्य के, बिन संवृत्ति नहीं घटती है।

अन्य भिन्न-भिन्न क्षणों में अनन्य-ये क्षण अभिन्न है ऐसा कहना यह संवृति है तो यह असत्य क्यों नहीं होगी ? क्योंकि संवृत्ति मुख्य अर्थ को नहीं कह सकती है और मुख्य के बिना भी संवृति हो नहीं सकती है।

भावार्थ-कार्य-कारण आदि भिन्न-भिन्न लक्षणों में जो एकता का व्यवहार है, वह संवृति से कहा जाता है और बौद्धों की यह संवृति काल्पनिक है ऐसा स्वयं उन्होंने ही संवृति का लक्षण किया है, तब यह संवृति मुख्य अर्थ को कहने वाली न होने से असत्य अर्थ को ही कहती है और यह नियम है कि मुख्य अर्थ के बिना काल्पनिक अर्थ भी असंभव है, जैसे अग्नि पदार्थ मुख्य है तभी क्रोधी बालक में अग्नि की कल्पना की जाती है अन्यथा नहीं।

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+ बौद्ध के यहाँ चतुष्कोटि विकल्प अवक्तव्य है -
चतुष्कोटेर्विकल्पस्य, सर्वान्तेषूक्त्ययोगत:
तत्त्वाऽन्यत्वमवाच्यं चेत्तयो: संतानतद्वतो: ॥45॥
अन्वयार्थ : [चेत् सर्वान्तेषु चतुष्कोटे: विकल्पस्य उक्त्ययोगत:] यदि यह कहा जाये कि सभी धर्मों में चतुष्कोटि विकल्प के कहने का अभाव है [तयो: संतानतद्वतो: तत्त्वान्यत्वं अवाच्यं] अत: उन संतान और संतान का भी तत्त्वएकत्वधर्म और अन्यत्वधर्म अवाच्य ठहरता है। बौद्ध के कथन का आचार्य आगे की कारिका द्वारा उत्तर दे रहे हैं।

ज्ञानमती :

सब धर्मों में चार कोटि से, भेद कहे नहिं जा सकते;;सत् या असत् उभय-अनुभय, इन चारों में ही दोष दिखे;;इसीलिए संतान और संतानी तत्त्व ‘अवाच्य’ कहे;;क्योंकि ये दोनों हि एक या, भिन्न नहीं यह बौद्ध कहें

सर्वांत-समस्त धर्मों में चार कोटि रूप विकल्प के कहने का अभाव होने से उन संतान और संतानी के तत्त्व-एकत्व और अन्यत्व-अनेकत्व धर्म अवाच्य हैं यदि बौद्ध ऐसा कहते है, तब तो आचार्य उसका स्पष्टीकरण करते हुए आगे कारिका में कहेंगे।

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+ एकांत से अवक्तव्य मान्यता में दोष -
अवक्तव्यचतुष्कोटि-विकल्पोऽपि न कथ्यताम्
असर्वान्तमवस्तु स्या-दविशेष्य-विशेषणम् ॥46॥
अन्वयार्थ : [अवक्तव्यचतुष्कोटिविकल्प: अपि न कथ्यताम्] तब तो चार कोटि का विकल्प ‘अवक्तव्य’ है, यह भी नहीं कहना चाहिए [असर्वांतं अवस्तु अविशेष्यविशेषणं स्यात्] क्योंकि जो वस्तु सभी धर्मों से रहित है वह अवस्तु है और उसमें विशेषण-विशेष्य भाव भी नहीं बन सकता है।

ज्ञानमती :

तब तो चतुष्कोटि का विकल्प, अवक्तव्य है इस विध भी;;नहीं कथन हो सकता फिर सब, वस्तु विकल्पातीत हुई;;सब धर्मों से विरहित वस्तू, सदा अवस्तूरूप हुई;;चूँकि विशेष्य-विशेषण भी, उसमें हो सकता कभी नहीं

''चतुष्कोटि विकल्प अवक्तव्य है'' ऐसा भी नहीं कहा जा सकेगा, पुन: वे जीवादि पदार्थ असर्वांत-सभी धर्मों से रहित होते हुए अवस्तुरूप ही हो जायेंगे।

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+ असत् का निषेध होता है क्या ? -
द्रव्याद्यन्तरभावेन, निषेध: संज्ञिन: सत:
असद्भेदो न भावस्तु, स्थानं विधि-निषेधयो: ॥47॥
अन्वयार्थ : [संज्ञिन: सत: द्रव्याद्यंतर भावेन निषेध:]जो संज्ञी और सत् है उसी का परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से निषेध किया जाता है [असद्भेदो भावस्तु विधिनिषेधयो: स्थानं न] क्योंकि असत् रूप पदार्थ विधि और निषेध का स्थान नहीं हो सकता है।

ज्ञानमती :

संज्ञी स्वद्रव्यादि चतुष्टय, से सत्रूप प्रसिद्ध रहे;;उसका परद्रव्यादि चतुष्टय, से ही सदा निषेध कहें;;असत्रूप का निषेध केसे, हो सकता है कहो सही;;चूँकि सर्वथा असत् पदारथ, विधि-निषेध का विषय नहीं

सतरूप संज्ञी पदार्थ का ही द्रव्यांतर आदि की अपेक्षा से निषेध किया जाता है। क्योंकि असत् रूप वस्तु विधि -निषेध का स्थान ही नहीं हो सकती है।

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+ अवस्तु ही अवक्तव्य है -
अवस्त्वनभिलाप्यं स्यात्सर्वान्तै: परिवर्जितम्
वस्त्वेवावस्तुतां याति, प्रक्रियाया विपर्ययात्॥48॥
अन्वयार्थ : [सर्वान्तै: परिवर्जितं अवस्तु अनभिलाप्यं स्यात्] जो सभी धर्मों से रहित है वही अवस्तु है और वही अवक्तव्य है [प्रक्रियाया विपर्ययात् वस्तु एव अवस्तुतां याति] क्योंकि प्रक्रिया के पलट देने से वस्तु ही अवस्तुपने को प्राप्त हो जाती है।

ज्ञानमती :

सब धर्मों से रहित वस्तु में, सदा अवस्तू ही होंगी;;वे तो ‘अवक्तव्य’ कोटि में, वाच्य वचन से नहिं होंगी;;वस्तू ही प्रक्रिया पलटने, से अवस्तु बन जाती है;;परद्रव्यादि चतुष्टय से ही, वस्तु अवस्तु कहाती है

जो समस्त धर्मों से रहित है वह अवस्तु है और वही अवाच्यहै। क्योंकि प्रक्रिया के विपर्यय से-स्वरूपादि से विपरीत पररूपादि से वस्तु ही अवस्तु रूप हो जाती है।

भावार्थ-जब वस्तु में परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चतुष्टय की अपेक्षा करते हैं, तभी वह वस्तु कथंचित् अवस्तु कहलाती है न कि सभी धर्मों से रहित अवस्तु।

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+ सभी धर्मों से रहित को कहा नहीं जा सकता -
सर्वान्ताश्चेदवक्तव्यास्तेषां किम वचनं पुन:
संवृत्तिश्चेन्मृषैवेषा परमार्थ-विपर्ययात् ॥49॥
अन्वयार्थ : [चेत् सर्वांता अवक्तव्या: पुन: तेषां वचनं किम] यदि सभी धर्म अवक्तव्य हैं, तब तो उनका धर्म देशना आदि कथन भी कैसे होगा ? [संवृति: चेत् परमार्थविपर्ययात् एषा मृषा एव] यदि कहो कि अवक्तव्य का कथन संवृति रूप है, तब तो यह संवृति परमार्थ से विपरीत होने से असत्य ही है।

ज्ञानमती :

यदि सब धर्म अवाच्य रहेंगे, पुन: कथन उनका कैसे?;;धर्मदेशना, स्वपर पक्ष, साधन दूषण वाणी कैसे?;;यदी वचन संवृतीरूप, फिर मिथ्या ही वे सिद्ध हुए।;;इन परमार्थ विरुद्ध वचन से, नहिं सत्यार्थ बोध होवे

यदि सभी धर्म अवक्तव्य ही हैं पुन: आपके यहाँ उनका कथन भी कैसे हो सकेगा ? और यदि आप कहें कि उनका कथन संवृति रूप है तब तो परमार्थ से विपरीत होने से यह संवृति तो असत्य ही है।

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+ आप बौद्ध वस्तु को अवाच्य क्यों मानते हो ? -
अशक्यत्वादवाच्यं किमभावात्किमबोधत:
आद्यन्तोक्ति-द्वयं न स्यातकिम व्याजेनोच्यतां स्फुटम् ॥50॥
अन्वयार्थ : [किम अशक्यत्वात् अवाच्यं अभावात् किम अबोधत:] क्या वस्तु का कहना शक्य न होने से वह अवाच्य है अथवा उसका अभाव है या उसका ज्ञान नहीं है ? [अद्यान्तोक्तिद्वयं न स्यात् व्याजेन किम स्फुटं उच्यताम्] इन तीनों प्रश्नों में से आदि के और अंत के हेतु तो हो नहीं सकते हैं अत: बहानेबाजी से क्या ? स्पष्ट कहिए कि वस्तु का अभाव है।

ज्ञानमती :

कहो बौद्ध जी! तत्त्व आपका, ‘अवक्तव्य’ किस विध से है?;;क्या अशक्ति से या अभाव से या अबोध से नहिं कहते;;इन तीनों में आदि-अंत के, कारण शक्य नहीं दिखते;;अत: बहाना करने से क्या, साफ कहो कि अभाव है

आप बौद्धों के यहाँ तत्व अवाच्य क्यों है ? क्या अशक्य होने से अवाच्य है या उसका अभाव होने से अवाच्य है अथवा उसका ज्ञान न होने से अवाच्य है ? इनमें से आदि और अन्त रूप दो पक्ष तो बन नहीं सकते। इसलिए बहानेबाजी से क्या ? स्पष्ट कहिए कि तत्त्व का अभाव है।

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+ सर्वथा क्षणिक में कृतनाश आदि दोष आते हैं -
हिनस्त्यनभिसंधातृ, न हिनस्त्यभिसंधिमत्
बध्यते तद्द्वयापेतं, चित्तं बद्धं न मुच्यते ॥51॥
अन्वयार्थ : [अनभिसंधातृ हिनस्ति अनभिसंधिमत् न हिनस्ति] क्षणिक एकांत में हिंसा के अभिप्राय से रहित जीव हिंसा करता है और हिंसा के अभिप्राय से सहित आत्मा हिंसा नहीं कर सकती है [तद्द्वयापेक्षं बध्यते बद्धं चित्तं न मुच्यते] अभिप्राय और अनभिप्राय इन दोनों अवस्थाओं से रहित अन्य ही आत्मा बंध को प्राप्त होती है और बंधी हुई आत्मा नहीं छूटती है।

ज्ञानमती :

हिंसा के अभिप्राय रहित, हिंसा करता कोई निश्चित;;हिन्सा के अभिप्राय सहित, नहिं हिंसा कर सकता किन्चित्;;इन दोनों से रहित बंधा है, बद्ध जीव नहीं छूटेगा;;क्षणिक निरन्वय नाश पक्ष में, अन्य जीव फल भोगेगा

हिंसा के अभिप्राय से सहित चित्त तो हिंसक नहीं होगा तथा अभिप्राय से रहित चित्त हिंसा करे एवं हिंसा के अभिप्राय से सहित और रहित से भिन्न तीसरा ही चित्त बंध को प्राप्त होगा तथा जो बंधा है, उससे भिन्न चौथा ही चित्त बंध से युक्त हो सकेगा अर्थात् आप बौद्धों के क्षणिकैकांत में यह व्यवस्था हो जायेगी।

भावार्थ-बौद्ध के क्षणिक एकांत मत में जो हिंसा का अभिप्राय करता है, वह द्वितीय क्षण में समाप्त हो गया और दूसरा कोई आत्मा आ गया, जो हिंसा कर डालता है पुन: द्वितीय क्षण में वह समाप्त हो जाता है, तब तीसरा ही इस हिंसा के पाप से बंध जाता है और वह समाप्त हो जाता है, इत्यादि बाधाएँ आती हैं।

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+ नाश को निर्हेतुक मानने में दोष -
अहेतुकत्वान्नाशस्य, हिंसाहेतुर्न हिंसक:
चित्त-सन्तति-नाशश्च, मोक्षो नाष्टांग-हेतुक: ॥52॥
अन्वयार्थ : [नाशस्य अहेतुकत्वात् हिंसाहेतु: हिंसक: न] नाश को अहेतुक मानने से हिंसक हिंसा में हेतु नहीं हो सकता है [चित्तसंततिनाश: मोक्ष: च अष्टांगहेतुक: न] यदि चित्तसंतति के नाशरूप मोक्ष होता है, तब वह मोक्ष अष्टांग हेतुक नहीं बन सकता है।

ज्ञानमती :

यदी नाश निर्हेतुक है, हिंसक हिंसा में हेतु नहीं;;तथा चित्तसंतति विनाश से, मोक्ष कहा निर्हेतु सही;;पुन: आप अष्टांग निमित्तक, मोक्ष कहा सो कैसे हो?;;यदी नाश निर्हेतुक है तब मोक्ष सहेतुक कैसे हो?

यदि आप बौद्ध नाश को अहेतुक मानते हैं तो हिंसा के हेतु को हिंसक नहीं मानना चाहिए और चित्तसंतति के निरोधरूप मोक्ष को भी अष्टांग हेतुक नहीं कहना चाहिए।

भावार्थ-बौद्धों ने नाश को निष्कारणक माना है और चित्त संतति के नाश को मोक्ष कहा है पुन: उस मोक्ष को सम्यक्त्व, संज्ञा, संज्ञी, वाक्कायकर्म, अंतव्र्यायाम, अजीव, स्मृति और समाधि इन आठ कारणों से होना बताया है। उधर नाश को अहेतुक कह दिया है पुन: चित्तसंतति के नाशरूप मोक्ष को अष्टांग हेतुक कह दिया, यह बात परस्पर विरुद्ध हो गई है।

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+ बौद्ध ने हेतु को विसदृश कार्य के लिए माना है -
विरूपकार्यारम्भाय, यदि हेतुसमागम:
आश्रयिभ्यामनन्योऽसा-वविशेषादयुक्तवत् ॥53॥
अन्वयार्थ : [यदि विरूपकार्यारम्भाय हेतु समागम:] यदि विसदृश कार्य को उत्पन्न करने के लिए हेतु का समागम माना जावे [असौ आश्रयिभ्यां अनन्य: अविशेषात् अयुक्तवत्] तो यह हेतु नाश तथा उत्पाद दोनों का कारण होने स अपने इन दोनों आश्रयियों से भिन्न नहीं है, क्योंकि उन नाश, उत्पाद रूप दोनों आश्रयीभूतों में परस्पर में भेद नहीं है। जैसे अपृथक् सिद्ध पदार्थों का कारण अपने आश्रयियों से भिन्न नहीं होता है।

ज्ञानमती :

कार्य विसदृश करने हेतू, हेतु समागम यदी कहो;;तब वह हेतू नाश और उत्पाद उभय में निमित अहो;;आश्रयभूत अत: हेतू, इन दोनों से अभिन्न रहता;;इक ही मुद्गर घट का नाश, कपाल उत्पाद उभय करता

यदि आप विसदृश कार्य को आरंभ करने के लिए हेतु का समागम स्वीकार करते हैं। तब तो यह हेतु का व्यापार अपने आश्रयी-नाश और उत्पाद से अभिन्न ही है क्योंकि उन दोनों में परस्पर में कोई भेद नहीं है। जैसेअयुक्त-अपृथक् सिद्ध पदार्थों का कारण अपने आश्रयियों से भिन्न नहीं होता है।।

भावार्थ-बौद्ध का यह कहना है कि नाश तो निर्हेतुक है किन्तु उससे जो कार्य होता है, वह सहेतुक है। जैसे किसी ने घड़े पर मुद्गर मारा तो घड़े का फूटना मुद्गर हेतुक नहीं है, किन्तु जो कपाल बन गये हैं वे मुद्गर हेतुक हैं क्योंकि वे विसदृश कार्य हैं किन्तु जैनाचार्यों का कहना है कि एक मुद्गर ही घड़े के फूटने में और कपाल के उत्पन्न होने में दोनों में हेतु है अत: एक ही हेतु नाश और उत्पाद दोनों को करता है, वह बात ही स्पष्ट सिद्ध है।

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+ बौद्ध के यहाँ स्कंधादी में उत्पादादि नहीं बनते हैं -
स्कन्धा: सन्ततयश्चैव, संवृतित्वादसंस्कृता:
स्थित्युत्पत्तिव्ययास्तेषां, न स्यु: खर-विषाणवत् ॥54॥
अन्वयार्थ : [स्कन्धा: संततयश्चैव असंस्कृता: संवृतित्वात्] बौद्धों के यहाँ संततियाँ अकार्य रूप हैं क्योंकि वे संवृति रूप हैं [तेषां स्थित्युत्पत्तिव्यया: खरविषाणवत् न स्यु:] अत: उनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य नहीं हो सकते हैं जैसे कि गधे के सींग में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का अभाव है।

ज्ञानमती :

बौद्धों की स्कंध संततियाँ, कही गई हैं असंस्कृतरूप।;;क्योंकी वे संवृत्तिरूप हैं, नहिं परमार्थभूत सत्रूप;;रूप, वेदना, विज्ञान अरु संज्ञा, संस्कार पांच स्कंध;;व्यय, उत्पाद, ध्रौव्य उनमें नहिं, घट सकता जैसे खरशृंग

स्कन्धो की परम्परा असंस्कृत ही है। क्योंकि वह संवृत्ति रूप है, इसलिए खर विषाण के समान इन स्कन्धो में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भी नहीं हो सकता है।

भावार्थ-बौद्धों ने हमेशा ही प्रत्येक परमाणु-परमाणु को पृथक्-पृथक् आपस में स्पर्श रहित माना है अत: उसके यहाँ स्कंध परम्परा असत्य ही है पुन: वह कपाल आदि कार्यरूप कैसे हो सकेगी और जब स्कंध वास्तविक नहीं है,तब उनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य व्यवस्था असंभव है। बौद्ध के यहाँ स्कंध के पाँच भेद हैं-रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार। इनकी उत्पत्ति आदि कैसे बनेगी, क्योंकि ये कार्यभूत नहीं हैं।

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+ नित्य क्षणिक का उभय एकांत सदोष है -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥55॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्] स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों के यहाँ नित्य क्षणिक का उभय एकात्म्य भी असंभव है, क्योंकि परस्पर में विरोध आता है [अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते] और इन दोनों का अवाच्य एकांत माना जावे, तो 'तत्त्व अवाच्य है' यह कथन भी युक्त नहीं है।

ज्ञानमती :

नित्य अनित्य उभय धर्मों का, मेल सदैव विरोधी है;;स्याद्वाद नय के विद्वेषी चूँकि सदा निरपेक्ष कहें;;इन दोनों का ‘अवक्तव्य’ भी, यदि एकांत विधी से है;;तब तो अवक्तव्य यह कहना, सचमुच स्ववचन बाधित है

स्याद्वादनीति से द्वेष रखने वालों के यहाँ नित्यत्व, अनित्यत्व रूप उभयैकांत मानना भी सिद्ध नहीं है क्योंकि निरपेक्ष उभयैकांत में परस्पर में विरोध है तथा यदि तत्त्व को सर्वथा अवाच्यरूप ही स्वीकार करें तो भी ‘‘तत्त्व अवाच्य है’’ यह कथन भी युक्त नहीं हो सकता है।

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+ नित्य और क्षणिक स्याद्वाद में निर्दोष हैं -
नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा
क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्ध्यसंचरदोषत:॥56॥
अन्वयार्थ : [ते तत् नित्यं प्रत्यभिज्ञानात् अकस्मात् न तत् अविच्छिदा] हे भगवन्! आपके मत में वह वस्तु नित्य है क्योंकि उसका प्रत्यभिज्ञान पाया जाता है और यह प्रत्यभिज्ञान आकस्मिक नहीं है क्योंकि वह अविच्छिन्न रूप से अनुभव में आता है [क्षणिकं कालभेदात् बुद्ध्यसंचरदोषत:] वही वस्तु क्षणिक भी है क्योंकि काल के भेद से परिणमन पाया जाता है। यदि ऐसा न मानें, तो ज्ञान का संचार नहीं होना यह दोष आ जावेगा।

ज्ञानमती :

वस्तु सभी हैं नित्य कथंचित् चूँकि उनका प्रत्यभिज्ञान;;नहिं होता यह अकस्मात् अविच्छिन्नरूप से अनुभवज्ञान;;वस्तु कथंचित् अनित्य भी है, चूँकि काल से भेद दिखें;;भगवन्! यदि सर्वथा कहें तब ज्ञान असंचर दोष दिखे

हे भगवन्! आपके यहाँ सभी वस्तु कथंचित् नित्य हैं क्योंकि प्रत्यभिज्ञान से जानी जाती है। यह प्रत्यभिज्ञान आकस्मिक-निर्विषयक भी नहीं है। क्योंकि उसका अविच्छेद रूप से अनुभव होता है तथा वे ही जीवादि वस्तुएँ काल भेद की अपेक्षा से कथंचित् क्षणिक भी हैं अन्यथा बुद्धि का वहाँ संचरण नहीं हो सकता है।

भावार्थ-सभी वस्तुएँ कथंचित् नित्य हैं क्योंकि ‘यह वही है’ ऐसा जोड़ रूप ज्ञान होता है। यह ज्ञान अकस्मात् तो हो नहीं सकता है प्रत्युत अविच्छिन्न परम्परा से अनुभव में आ रहा है। दस वर्ष पहले किसी को देखा है यदि वह सामने आ गया, तब दस वर्ष पहले की याद होकर ‘यह वही है’ ज्ञान देखा जाता है। यदि ज्ञान एक आत्मा के अन्वयरूप से विच्छेद रहित न हो, तो ऐसा कैसे होगा ? उसी प्रकार वे ही सभी वस्तुएँ कथंचित् अनित्य हैं क्योंकि काल के निमित्त से परिणमन हो रहा है। एक ही पर्याय में बचपन का नाश, जवानी का उत्पाद अथवा देवपर्याय का नाश, मनुष्य पर्याय का उत्पाद आदि देखा जाता है।

यदि सभी वस्तुओं को कथंचित् नित्य और अनित्य न मानों तो ज्ञान में जो संचरण-परिणमन दिखता है, वह नहीं होना चाहिए।

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+ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की व्यवस्था -
न सामान्यात्मनोदेति, न व्येति व्यक्तमन्वयात्
व्येत्युदेति विशेषात्ते, सहैकत्रोदयादि सत् ॥57॥
अन्वयार्थ : [ते सामान्यात्मना न उदेति न व्येति व्यक्तं अन्वयात्] हे भगवन्! आपके यहाँ सभी वस्तुएँ सामान्य रूप से न उत्पन्न होती हैं न विनष्ट ही होती हैं क्योंकि प्रगटरूप से अन्वयरूप हैं [विशेषात् व्येति उदेति एकत्र सह उदयादि सत्] और विशेष-पर्याय रूप से वे ही वस्तुएँ नष्ट होती हैं एवं उत्पन्न होती हैं क्योंकि एक ही वस्तु में एक साथ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का होना ‘सत्’ कहलाता है।

ज्ञानमती :

भगवन्! तव मत में द्रव्यार्थिक नय से वस्तू नहिं उपजे;;नहिं विनशे भी कोई वस्तू, क्योंकि अन्वय प्रगट रहे;;वही वस्तु पर्यायदृष्टि से, विनशे उपजे क्षण-क्षण में;;एक वस्तु में युगपत् व्यय, उत्पाद घ्रौव्य होना सत् है

हे भगवन्! आपके अनेकांत शासन में सभी जीवादि वस्तु सामान्य रूप से न तो उत्पन्न होती हैं, न विनष्ट होती हैं। क्योंकि उनमें सामान्य रूप अन्वय स्पष्टतया देखा जाता है। किन्तु विशेष की अपेक्षा से वही उत्पन्न होती और विनष्ट होती है एवं युगपत् एक वस्तु में उत्पादादि तीनों ही पाये जाते हैं, क्योंकि ‘सत्’ उत्पादादि त्रयात्मक ही है।

भावार्थ-‘‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’’ इस प्रकार से सत् का लक्षण माना गया है और वही सत् द्रव्य का लक्षण है ‘‘सद्द्रव्यलक्षणं’’ इस सूत्र से स्पष्ट है। द्रव्य का यह लक्षण प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय पाया जाता है।

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+ उत्पाद आदि अभिन्न हैं -
कार्योत्पाद: क्षयो हेतोर्नियमाल्लक्षणात्पृथक्
न तौ जात्याद्यवस्थाना-दनपेक्षा: खपुष्पवत्॥58॥
अन्वयार्थ : [हेतो: क्षय: नियमात् कार्योत्पाद: लक्षणात् पृथक्] जो उपादान कारणभूत हेतु का नाश है, वही नियम से कार्य का उत्पाद है एवं लक्षण से दोनों में भिन्नता है [न तौ जात्याद्यवस्थानात् अनपेक्षा: खपुष्पवत्] किन्तु जाति अवस्थान के कारण उत्पाद, व्यय भिन्न नहीं है। परस्पर की अपेक्षा से रहित उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आकाश पुष्प के समान असत् ही हैं।

ज्ञानमती :

उपादान कारण का जो क्षय, वही कार्य का है उत्पाद;;एक हेतु है दोनों में, फिर भी लक्षण से भिन्न विभाग;;जाती आदि अवस्थित कारण, से दोनों में भेद नहीं;;उत्पादादि यदी अनपेक्षित, गगनपुष्पवत् असत् सही

कार्य का उत्पाद ही एक हेतु नियम से अपने मृत्पिंड रूप उपादान कारण का विनाश है। उत्पाद और विनाश ये दोनों अपने-अपने लक्षण से भिन्न-भिन्न हैं तथा जाति सामान्य आदि के अवस्थान से ये दोनों भिन्न नहीं है। परस्पर में अनपेक्ष उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीनों ही खपुष्प के समान हैं।

भावार्थ-मृत्पिंड रूप उपादान कारण का नाश होकर ही घटरूप कार्यउत्पन्न होता है, ऐसा नियम देखा जाता है। यदि उत्पाद व्यय सर्वथा भिन्न ही हों, तो व्यवस्था नहीं बन सकती है। हाँ! दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न अवश्य है। उपादान कारण का पूर्व के आकार से नष्ट हो जाना व्यय है, उत्तराकार से प्रगट हो जाना उत्पाद है एवं दोनों अवस्थाओं में वस्तु का अस्तित्व विद्यमान रहना ध्रौव्य है। ये कथंचित् सापेक्ष होकर ही रहते हैं।

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+ एक द्रव्य के नाश आदि में भिन्न भाव होते है -
घट-मौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम्
शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥59॥
अन्वयार्थ : [अयं जन: घटमौलिसुवर्णार्थी] जो मनुष्य घट, मुकुट या स्वर्ण के इच्छुक हैं वे क्रम से [नाशोत्पादस्थितिषु सहेतुकम् शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं याति] घट के नाश में सकारणक शोक को, मुकुट के उत्पाद में प्रमोद को एवं दोनों अवस्थाओं में सुवर्ण के रहने से सुवर्ण इच्छुक माध्यस्थ भाव को प्राप्त होते हैं।

ज्ञानमती :

घट का इच्छुक घड़ा नाश से, करता शोक सहेतुक है;;मुकुट अर्थि तो मुकुटोत्पाद से, हर्षित हुआ सहेतुक है;;स्वर्णार्थी इन उभय अवस्था, में मध्यस्थ स्वभाव धरे;;व्यय-उत्पाद-ध्रौव्य के ये, दृष्टांत सहेतुक कहे खरे

घट, मौलि एवं सुवर्ण के इच्छुक ये तीन व्यक्ति नाश, उत्पाद एवं स्थिति में सहेतुक ही शोक, प्रमोद एवं माध्यस्थ भाव को प्राप्त होते हैं।

भावार्थ-यदि कोई सुवर्ण के घट को तुड़वाकर उससे मुकुट बनवा रहा है, तो घट का इच्छुक जन शोक को प्राप्त हो जाता है और उसका शोक सकारणक होता है। जो मुकुट चाहता था, वह मनुष्य मुकुट पाकर प्रसन्न हो जाता है एवं यदि कोई सुवर्ण मात्र का इच्छुक था, तो वह दोनों ही अवस्थाओं में शोक-हर्ष न करके मध्यस्थ भाव से उसे ले लेता है। नाश, उत्पाद और ध्रौव्य इन तीनों ही अवस्थाओं में मनुष्य की प्रवृत्ति विषाद आदिरूप हो रही है, वह सहेतुक है, अहेतुक नहीं है।

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+ वस्तु तत्त्व त्रयात्मक है -
पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोत्ति दधिव्रत:
अगोरसव्रतो नोभे, तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥60॥
अन्वयार्थ : [पयोव्रतो न दधि अत्ति दधिव्रत: न पय: अत्ति] जिसको दूध पीने का व्रत है वह दही नहीं खाता है, दधि के नियम वाला दूध को नहीं पीता है [अगोरसव्रतो न उभे तस्मात् तत्त्वं त्रयात्मकं] और जिसको गो रस का त्याग है, वह दूध-दही दोनों को नहीं पीता है, इसीलिए वस्तु तत्त्व त्रयात्मक है।

ज्ञानमती :

क्षीर पिऊँगा यह व्रत जिसके, दही नहीं वह खाता है;;दधिव्रत वाला क्षीर न पीता, चूँकि क्षीर को त्यागा है;;गोरस त्यागी उभय न लेता, चूँकि द्रव्य पर दृष्टि धरे;;इससे वस्तू तत्त्व त्रयात्मक, सह ध्रुव व्यय उत्पाद धरें

जिसका दूध ही लेने का नियम है वह दधि को नहीं खाता है और जिसको दधि को लेने का नियम है वह दूध नहीं पीता है और जिसका गोरस का ही त्याग है वह दूध और दही दोनों को ही नहीं खाता है इसलिए तत्त्व भी त्रयात्मक है।

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+ क्या कार्य कारण आदि सर्वथा भिन्न हैं ? -
कार्य-कारण-नानात्वं, गुणं-गुण्यन्यतापि च।
सामान्य-तद्वदन्यत्वं, चैकान्तेन यदीष्यते ॥61॥
अन्वयार्थ : [यदि एकांतेन कार्यकारणनानात्वं गुणगुण्यन्यतापि च] यदि आप एकांत से कार्य-कारण में और गुण-गुणी में भेद मानते हैं [सामान्यतद्वदन्यत्वं इष्यते] और सामान्य एवं सामान्यवान् में भी भेद मानते हैं, तब तो क्या दोष आता है उसे अगली कारिका में बताते हैं।

ज्ञानमती :

कार्य और कारण में भेद, गुणी से गुण भी भिन्न रहे;;उसी तरह सामान्य और, सामान्यवान् भी पृथक् कहें;;वैशेषिक मत कहे सर्वथा, भिन्न-भिन्न गुण द्रव्य सभी;;पुन: वस्तु से सत्त्व पृथक हैं, अत:वस्तु हैं असत् सभी

कार्य कारण में सर्वथा भिन्नता है, गुण और गुणी में भी सर्वथा भिन्नता है एवं सामान्य और सामान्यवान् में सर्वथा भिन्नता है। यदि आप एकांत से ऐसा मानते हैं तो इस कारिका की अष्टसहस्री टीका में इनकी एकांत मान्यता देकर अगली कारिका में उसका निराकरण किया है।

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+ वैशेषिक के सर्वथा भिन्नैकांत में दोष -
एकस्याऽनेक-वृत्तिर्न, भागाऽभावाद्बहूनि वा।
भागित्वाद्वाऽस्य नैकत्वं, दोषो वृत्तेरनार्हते ॥62॥
अन्वयार्थ : [एकस्य अनेकवृत्ति: न भागाऽभावाद् बहूनि वा] सर्वथा कार्यकारण आदि में भेद मानने पर तो एक की अनेकों में वृत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि उस एक में विभाग के अभाव से निरंशता है अथवा अनेकों में रहना मानों, तो वह एक बहुत हो जावेंगे [भागित्वात् वा अस्य एकत्वं न अनार्हते वृत्ते: दोष:] अथवा यदि उस एक को भागित्व रूप मानकर वृत्ति मानों तो उसका एकत्व नहीं बन सकता है। इस प्रकार से अर्हंत मत से भिन्न सर्वथा एकांत में एक की अनेक में वृत्ति मानने से अनेकों दोष आ जाते हैं।

ज्ञानमती :

एक अनेकों में नहिं रहता, चूँकि अंश नहिं है उसमें;;यदि वा अंश कहो उसमें, तब कार्य एक ही बहुत बनें;;यदि भागित्व कहो तब तो वह, एक न एक कहा सकता;;अर्हत् मत से भिन्न जनों में, वृत्ति दोष यह कहलाता

एक की अनेक में वृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि उनमें भागअंशों का अभाव है अथवा यदि वृत्ति मानोगे तब तो एक को अनेक रूप मानना पड़ेगा तथा यदि एक ही अवयवी के भाग-अंश मानोगे, तब तो यह एक रूप नहीं कहा जायेगा, इस प्रकार से एक की अनेक वृत्ति मानने पर हे अर्हंत्! आपके मत से बाह्य परमतावलम्बियों के यहाँ अनेक दोष आते हैं।

भावार्थ-वैशेषिक कार्य-कारण आदि को सर्वथा भिन्न मानते हैं उनके यहाँ वस्त्र एक कार्य है और वह अंश कल्पना से रहित है तथा अपने अनेक तंतु कारणों में रहता है कुछ समझ में नहीं आता है कि एक निरंश कार्य अनेकों कारण तंतुओं में कैसे रहता है? हम जैनियों के यहाँ मात्र परमाणु को निरंश कहा है और आकाश को भी अंश सहित सिद्ध किया है वह कार्य कारण में कैसे रहता है, इत्यादि का अष्टसहस्री में स्पष्टीकरण किया गया है।

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+ वैशेषिक को देश-काल भेद भी मानना चाहिए -
देश-काल-विशेषेऽपि, स्याद्वृत्तिर्युत-सिद्धवत्।
समान-देशता न स्यान्मूर्तकारण-कार्ययो: ॥63॥
अन्वयार्थ : [देशकालविशेषे अपि युतसिद्धवत् वृत्ति: स्यात्] यदि अवयव अवयवी का परस्पर में सर्वथा भेद माना जाये, तो देश और काल की अपेक्षा से भी भेद मानना पड़ेगा, तब युतसिद्धवत् पृथक्-पृथक् आश्रय में रहने वाले घट- घट के समान इनमें भी वृत्ति माननी होगी। [मूर्तकारणकार्ययो: समानदेशता न स्यात्]पुन: मूर्तिक कारण और कार्य में जो समान देशता देखी जाती है, वह नहीं हो सकेगी।

ज्ञानमती :

यदि अवयव-अवयवी आदि में, भेद सर्वथा कहो सुजान;;देश-काल से भी होगा यह, भेद पुन: युतसिद्ध समान;;पृथक्-पृथक् आश्रय वाले, घट-पट में भी वृत्ती होगी;;तब तो मूर्त कार्य कारण में, एकदेशता नहिं होगी

अवयव, अवयवी आदि में परस्पर में अत्यन्त भेद मानने पर देशकाल की अपेक्षा से भी इनमें भेद मानना होगा एवं देश, काल से भी भेद के मानने पर इनकी वृत्ति युतसिद्ध पदार्थों की तरह होगी, पुन: मूर्त कार्य-कारण में सामान्य देशता-एकदेशपना नहीं बन सकेगा।

भावार्थ-इसका भाव यह है कि जब धर्म और धर्मी में अवयव-अवयवी आदि पदार्थों में सर्वथा ही अत्यंत भेद है तब देश और काल की अपेक्षा भी उनमें भेद मानना पड़ेगा। जैसे घट और वृक्ष आदि पदार्थ सर्वथा भिन्न हैं वैसे ही जीव और ज्ञान, वस्त्र और तंतु आदि भी सर्वथा ही भिन्न रहेंगे। घट और उसकी मिट्टी में भी सर्वथा भेद ही बना रहेगा।

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+ समवाय से वृत्ति मानने में दोष -
आश्रयाश्रयिभावान्न स्वातन्त्र्यं समवायिनाम्।
इत्ययुक्त: स संबन्धो न युक्त: समवायिभि: ॥64॥
अन्वयार्थ : [समवायिनां आश्रयाश्रयिभावात् स्वातंत्र्यं न] यदि कहा जाये कि समवायी अवयव-अवयवी आदि में आश्रय-आश्रयी भाव होने के कारण स्वतंत्रता नहीं है [इति समवायिभि: अयुक्त: स संबंध: न युक्त:] तब तो समवायियों के साथ अयुक्त-दूसरे समवाय संबंध से असंबंधित वह समवाय संबंध घटता ही नहीं है। अर्थात् जो स्वयं असंबद्ध है, वह एक का दूसरे के साथ संबंध कैसे करा सकता है ?

ज्ञानमती :

यदि समवायी पदार्थ का है आश्रय और आश्रयी भाव;;अत: स्वतंत्र नहीं है जिससे, भिन्नों में है वृत्ति अभाव;;चूँकि स्वयं जो असम्बद्ध, वह एक अवयवी वस्तू का;;अवयव बहुतों से कैसे तद्वत् संबंध करा सकता?

आश्रय और आश्रयी भाव के होने से समवायि-तंतुपटादिकों में स्वतंत्रता-भिन्नता नहीं है यदि आप वैशेषिक ऐसा कहते हैं, तब तो समवायियों के साथ अयुक्त (दूसरे समवाय संबंध से असंबंधित) वह समवाय संबंध युक्तियुक्त नहीं है अर्थात् समवाय लक्षण संबंध समवायियों के साथ असंबंधित होने से सिद्ध नहीं हो पाता है।

भावार्थ-वैशेषिक का कहना है कि कार्यकारण, क्रिया-क्रियावान्, गुणगुणी आदि में स्वतंत्रता नही है कि जिससे युत-सिद्ध पदार्थों के समान देश और काल आदि के भेद से उनकी वृत्ति मानी जा सके, इनमें आश्रय-आश्रयी भाव है। अवयव आदि आश्रयभूत हैं और अवयवी आदिकों में आश्रयी भाव है तथा ये परस्पर में समवाय संबंध से बंधे हैं, अत: ये समवायी पदार्थ देश काल आदि के भेद से अपनी वृत्ति नहीं कर सकते हैं।

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+ सामान्य समवाय एक-एक हैं -
सामान्यं समवायश्चाप्येवैकैकत्र समाप्तित:।
अन्तरेणाश्रयं न स्यान्नाशोत्पादिषु को विधि: ॥65॥
अन्वयार्थ : [सामान्यं समवायश्च अपि आश्रयं अन्तरेण न स्यात् एकैकत्र समाप्तित:] ये सामान्य और समवाय दोनो भी आश्रय के बिना नहीं रह सकते हैं क्योंकि ये दोनों एक-एक ही हैं अत: एक-एक द्रव्य आदि में ही समाप्त हो जाते हैं [नाशोत्पादिषु क: विधि:] तब नाश हुए और उत्पन्न हुए अनित्य कार्यों में उन सामान्य और समवाय की व्यवस्था कैसे बनेगी ?

ज्ञानमती :

आश्रय बिन सामान्य और समवाय नहीं रहते प्रत्येक;;एक-एक द्रव्यादि नित्य में, समाप्त होते ये इक-एक;;पुन: नष्ट उत्पन्न अनित्यों कार्यों में कैसे होंगे?;;चूँकि नित्य ये दोनों उन, वस्तू में कैसे ठहरेंगे

जिस प्रकार से सामान्य सत्ता बिना आश्रय के नहीं रह सकता है, तथैव समवाय भी बिना आश्रय के नहीं रह सकता है और अपने आश्रयभूत प्रत्येक नित्य व्यक्तियों-पदार्थों में ये दोनों पूर्णरूप से रहते हैं। इसलिए नाशोत्पादादि-अनित्य पदार्थों में इनका विधान कैसे होगा अर्थात् इनका अस्तित्व वहाँ कैसे सिद्ध होगा ?

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+ सामान्य समवाय भी परस्पर में भिन्न हैं -
सर्वथानभिसंबंध: सामान्यसमवाययो:।
ताभ्यामर्थो न संबद्धस्तानि त्रीणि खपुष्पवत् ॥66॥
अन्वयार्थ : [सामान्यसमवाययो: सर्वथा अनभिसंबंध:] सामान्य और समवाय का सर्वथा ही परस्पर में कोई संबंध नहीं है [ताभ्यां अर्थो न संबद्ध: तानि त्रीणि खपुष्पवत्] तब उन दोनों के साथ द्रव्य गुण आदि अर्थ भी संबंधित नहीं है पुन: सामान्य समवाय और पदार्थ ये तीनों ही आकाशपुष्पवत् असत् ठहरते हैं।

ज्ञानमती :

आपस में सामान्य और, समवाय सदा संबंध रहित;;इन दोनों से द्रव्य गुणादिक, पदार्थ नहिं हैं संबंधित;;इसीलिए सामान्य तथा, समवाय अर्थ ये तीनों ही;;गगनकुसुमवत् ‘असत्’ अवस्तू हो जावे परमत में ही

सामान्य और समवाय का सर्वथा-संयोगादि प्रकार से संबंध नहीं है। क्योंकि संयोग दो द्रव्यों में ही होता है और इन दोनों के द्वारा अर्थ- पदार्थ संबंधित नहीं होता है। अत: सामान्य-समवाय और पदार्थ ये तीनों ही खपुष्प के समान असत् हो जायेंगे।

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+ परमाणु की अन्यरूप परिणति न मानने में दोष -
अनन्यतैकान्तेऽणूनां संघातेऽपि विभागवत्।
असंहतत्वं स्याद्भूतचतुष्कं भ्रान्तिरेव सा ॥67॥
अन्वयार्थ : [अणूनां अनन्यतैकांते विभागवत् संघाते अपि असंहतत्त्वं स्यात्] यदि परमाणुओं को एकांत रूप से अनन्य-एकरूप ही माना जावे अर्थात् परमाणुओं का कभी भी भिन्न-भिन्नरूप परिणमन न माना जाये, तब तो परमाणुओं का संघात होने पर भी स्कन्धरूप होना नहीं बन सकेगा जैसे कि परमाणुओं के विभाग में स्कन्ध होना नहीं बनता है [सा भूतचतुष्कभ्रांति: एव] पुन: जो भूत चतुष्क हैं वे भ्रांति रूप ही रहेंगे।

ज्ञानमती :

यदि परमाणु सदा नित्य हैं, अन्य रूप परिणमें नहीं;;तब स्कंध रूप में भी वे, भिन्न-भिन्न ही रहें सही;;पुन: भूमि-जल-वायु अग्नि, इन भूतचतुष्टय का स्कंध;;भ्रांतरूप ही हो जावेगा, क्योंकि अणू सब पृथक्-पृथक्

परमाणुओं में अभिन्न रूप एकांत पक्ष के मानने पर उनकी संघात-स्कंध अवस्था में भी विभाग-विभक्त पदार्थों की तरह उनको पृथक्पृथक् परस्पर असंबंधित ही मानना पड़ेगा, पुन: ऐसी स्थिति में आपके द्वारा स्वीकृत भूतचतुष्क भ्रांतिरूप ही हो जायेगा, अर्थात् पार्थिव जलीय, तैजस एव वायवीय परमाणुओं के संघातरूप पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, भूतचतुष्क हैं। ये भ्रांत हो जायेंगे।

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+ कार्य भ्रांत है तो कारण भी भ्रांत है -
कार्यभ्रान्तेरणु-भ्रान्ति: कार्यलिंगं हि कारणम्।
उभयाऽभावतस्तत्स्थं, गुणजातीतरच्च न ॥68॥
अन्वयार्थ : [कार्य भ्रांते: अणुभ्रांति: कारणं कार्यलिंगं हि] यदि स्कंधरूप भूतचतुष्टय को भ्रांत कहोगे, तो उसके कारणभूत परमाणु भी भ्रांत ही मानें जावेंगे, क्योंकि कारण कार्य हेतुक ही होता है [उभयभावत: तत्स्थं गुणजातीरत् च न] पुन: कार्यकारण दोनों ही भ्रांत होने से दोनों का अभाव हो जावेगा और तब उनमें रहने वाले गुण जाति क्रियादि भी नहीं बन सकेंगे।

ज्ञानमती :

यदि कार्य स्कंध भ्रांत हैं, तब कारण परमाणू भ्रांत;;चूँकि कार्य हेतू से होता, कारण परमाणू का ज्ञान;;यदि दोनों ये भ्रांत हुए तब, दोनों का हो गया अभाव;;उनमें रहने वाले गुण जात्यादिक का फिर नहिं सद्भाव

कार्यभूत चतुष्क को भ्रांत मानने से परमाणुओं को भी भ्रांत मानना पड़ेगा। क्योंकि कार्य के हेतु से ही कारण का ज्ञान होता है एवं इन दोनों के अभाव से इनमें स्थित रहने वाले गुण, जाति और क्रिया आदि कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकेंगे।

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+ सांख्य के यहाँ कार्यकारणादि में एकत्व ही है -
एकत्वेऽन्यतराभाव:, शेषाऽभावोऽविनाभुव:।
द्वित्वसंख्याविरोधश्च, संवृत्तिश्चेन्मृषैव सा ॥69॥
अन्वयार्थ : [एकत्वे अन्यतराभाव: शेषाभावो अविनाभुव:] यदि सांख्य मतानुसार कार्य-कारण आदि में सर्वथा एकत्व ही माना जाये तो एक की मान्यता में दो में से किसी एक का अभाव ही ठहरेगा पुन: जो एक बचा है उसका भी अभाव हो जावेगा, क्योंकि वह पहले के साथ अविनाभावी था (द्वित्वसंख्याविरोधश्च संवृति: चेत् सा मृषा एव) पुन: द्वित्व आदि संख्या का भी विरोध हो जावेगा। यदि कहो कि द्वित्व आदि संख्याएँ संवृति रूप हैं तब तो यह संवृति तो असत्य ही है।

ज्ञानमती :

कार्य और कारण में यदि, एकत्व कहो तब एक रहे;;चूँकी दोनों अविनाभावी, अत: शेष भी नहीं रहे;;द्वित्व कथन भी विरुद्ध होता, यदि संवृत्ति से मानोगे;;संवृत्ति तो यह मृषा कहाती, अत: सभी मिथ्या होंगे

आप सांख्य आदि सर्वथा कार्य-कारण में एकत्व स्वीकार करेंगे तब तो दोनों में से किसी एक का अभाव हो जायेगा। पुन: एक किसी का अभाव होने पर शेष दूसरे बचे हुए का भी अभाव हो जायेगा; क्योंकि उन दोनों में अविनाभाव नियम है तथा च ‘यह कार्य है और यह कारण है’ इस तरह की दो की संख्या में भी विरोध हो जायेगा। यदि आप कहें कि संवृत्ति से ये सब कार्य-कारण, द्वित्व संख्यादि हैं तब तो वह आपकी संवृत्ति तो सर्वथा असत्य ही है।

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+ सर्वथा भिन्न-अभिन्न की उभय और अवाच्य भी सदोष है -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥70॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्] स्याद्वाद न्याय के विद्वेषी लोगों के यहाँ कार्य-कारण आदि की भिन्नता और अभिन्नता इन दोनों का एकात्म्य माना जाये, तो भी नहीं बनता है क्योंकि इन भिन्न-अभिन्न का परस्पर में विरोध है [अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते] यदि सर्वथा दोनों को अवाच्यरूप स्वीकार किया जावे, तो कार्य-कारण का भेद-अभेद अवाच्य है, यह कथन भी नहीं बन सकेगा।

ज्ञानमती :

यदी कार्य कारण में भेदा-भेद उभय का ऐक्य कहो;;स्याद्वादमत द्वेषी के यह, कैसे होगा सत्य अहो;;यदी कार्य-कारण का भेदा-भेद अवाच्य कहे कोई;;तब ‘अवाच्य’ यह कथन असंगत, स्याद्वाद बिन घटे नहीं

स्याद्वाद नीति के शत्रुओं के यहाँ अन्यता और अनन्यतारूप उभयैकात्म्य संभव नहीं है, क्योंकि वे दोनों परस्पर विरोधी हैं। यदि कोई कहे कि हम तत्त्व को अन्यत्व, अनन्यत्व से रहित ‘‘अवाच्यरूप’’ मानते हैं, तब तो तत्त्व अवाच्य है। इस प्रकार से वाक्य द्वारा कथन भी नहीं कहा जा सकता है।

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+ कथंचित् कार्य-कारण आदि का भेद-अभेद ठीक है -
द्रव्यपर्याययोरैक्यं, तयोरव्यतिरेकत:।
परिणामविशेषाच्च, शक्तिमच्छक्तिभावत: ॥71॥
अन्वयार्थ : 

ज्ञानमती :

द्रव्य और पर्याय कथंचित्, एकरूप हैं अभेद ही;;क्योंकि उभय है अभिन्न उनका, पृथक्करण है शक्य नहीं;;द्रव्य और पर्याय कथंचित्, भिन्न कहे सर्वथा नहीं;;चूँकि भिन्न परिणमन भेद से, शक्तिमान अरु शक्ति से भी

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+  -
संज्ञासंख्या-विशेषाच्च, स्वलक्षणविशेषत:।
प्रयोजनादिभेदाच्च, तन्नानात्वं न सर्वथा ॥72॥
अन्वयार्थ : [द्रव्यपर्याययो: ऐक्यं तयो: अव्यतिरेकत:] द्रव्य और पर्यायों में कथंचित् अभिन्नता है क्योंकि उन दोनों को पृथक् नहीं कर सकते हैं [तन्नात्वं परिणामविशेषात् च शक्तिमत् शक्तिभावत:] कथंचित् द्रव्य और पर्यायों में भिन्नता भी है क्योंकि उनमें परिणमन भेद पाया जाता है और शक्तिमान् एवं शक्तिभाव से भी भेद है। [संज्ञासंख्याविशेषात् च स्वलक्षणविशेषत: प्रयोजनादिभेदात् च] द्रव्य पर्याय में कथंचित् नाम, संख्या आदि भेद से भी भेद हैं। अपने-अपने लक्षण भेद से भी भेद है एवं प्रयोजन, काल, प्रतिभास आदि से भी भेद है [सर्वथा न] किन्तु द्रव्य पर्यायों में सर्वथा भेद नहीं है।

ज्ञानमती :

नाम भेद से संख्या से भी, द्रव्य और पर्याय पृथक्;;निज-निज लक्षण भेद उभय में, इसीलिए हैं पृथक्-पृथक्;; दोनों का है भिन्न प्रयोजन, अरु प्रतिभास भेद भी है;;इसी अपेक्षा द्रव्य और, पर्याय कथंचित् भिन्न रहें

द्रव्य और पर्याय में एकत्व हैं, क्योंकि वे दोनों सर्वथा भिन्न नहीं है तथा परिणाम विशेष से शक्तिमान, शक्तिभाव से, संज्ञा, संख्या की विशेषता से, अपने-अपने लक्षणों की भिन्नता से एवं प्रयोजनादि के भेद से वे दोनों नाना-भिन्न-भिन्न भी हैं, किन्तु सर्वथा भिन्न-भिन्न नहीं हैं।

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+ धर्म, धर्मी सर्वथा आपेक्षिक या अनापेक्षिक ही नहीं है -
यद्यापेक्षिकसिद्धि: स्यान्न द्वयं व्यवतिष्ठते।
अनापेक्षिकसिद्धौ च, न सामान्यविशेषता ॥73॥
अन्वयार्थ : [यदि आपेक्षिकसिद्धि: स्यात् न द्वयं व्यवतिष्ठते] यदि सर्वथा धर्म-धर्मी की परस्पर में अपेक्षाकृत ही सिद्धि मानी जावे, तो दोनों ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे [अनापेक्षिकसिद्धौ च सामान्यविशेषता न] यदि सर्वथा धर्म-धर्मी में एक-दूसरे की अपेक्षा न करके ही सिद्धि मानी जावे, तो भी सामान्य और विशेष भाव नहीं बन सकेंगे।

ज्ञानमती :

धर्म और धर्मी आपस में, यदि आपेक्षिक सिद्ध कहें;;एक दूसरे के अभाव से, दोनों ही तब नष्ट हुए;;यदी परस्पर अनपेक्षा से, दोनों सिद्ध कहे जाते;;तब सामान्य विशेष उभय भी, एक बिना नहिं रह सकते

यदि धर्म और धर्मी की सिद्धि सर्वथा अपेक्षाकृत ही मानी जावें, तब तो इन दोनों की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी क्योंकि एक के द्वारा एक का विघात हो जावेगा। यदि दोनों की सिद्धि सर्वथा अनापेक्षिक ही माने जावे, तब तो इस स्थिति में सामान्य और विशेष भाव सिद्ध नहीं हो सकेंगे।

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+ आपेक्षिक-अनापेक्षिक का उभय एवं अवाच्य एकांत से नहीं घटता -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं, स्याद्वादन्यायविद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥74॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्] स्याद्वाद न्याय के बैरियों के आपेक्षिक-अनापेक्षिक इन दोनों का एकात्म्य भी नहीं बन सकता है क्योंकि दोनों में परस्पर में विरोध है [अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते] और यदि इन दोनों का अवाच्य एकांत ही स्वीकार किया जावे, तो भी नहीं बन सकता है क्योंकि ‘अवाच्य’ है यह कथन भी शक्य नहीं हो सकेगा।

ज्ञानमती :

यदि आपेक्षिक सिद्धि अनापेक्षिक सिद्धी का ऐक्य कहें;;स्याद्वाद बिन नहीं घटेगा, चूँकि परस्पर विरुद्ध हैं;;इन दोनों का ‘अवक्तव्य’, एकांतरूप से यदि मानों;;तब तो ‘अवक्तव्य’ यह कहना, स्ववचन बाधित ही जानो

स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ एकांत से आपेक्षिक और अनापेक्षिक रूप उभयैकात्म्य भी सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि परस्पर में विरोध आता है। एकांत से अवाच्यता को ही मानने पर तो ‘‘अवाच्य’’ इस प्रकार से कथन भी नहीं बन सकता है।

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+ आपेक्षिक-अनापेक्षिक की अनेकांत व्यवस्था -
धर्मधम्र्यविनाभाव: सिद्धयत्यन्योऽन्यवीक्षया।
न स्वरूपं स्वतो ह्येतत्, कारकज्ञापकाङ्गवत् ॥75॥
अन्वयार्थ : [धर्म-धम्र्यविनाभाव: अन्योन्यवीक्षया सिद्ध्यति] धर्म और धर्मी में अविनाभाव है वह परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा से ही सिद्ध होता है [न स्वरूपं, स्वतो हि एतत् कारकज्ञापकाङ्गवत्] किन्तु इन धर्म-धर्मी का स्वरूप परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा कृत् नहीं है वह स्वरूप तो स्वत: ही सिद्ध है जैसे कि कारक के कत्र्ता-कर्म आदि अवयव एवं ज्ञापक के बोध्य-बोधक आदि अवयव स्वत: सिद्ध हैं।

ज्ञानमती :

धर्म और धर्मी का अविनाभावरूप संबंध सदा;;आपस में सापेक्ष कथंचित्, आपेक्षिक है कहलाता;; किन्तु धर्म-धर्मी दोनों का, निज स्वरूप है स्वत: प्रसिद्ध;; कारक-ज्ञापक अवयव सदृश, नहिं स्वभाव है आपेक्षिक

धर्म और धर्मी का अविनाभाव ही परस्पर की अपेक्षा से सिद्ध होता है। किन्तु वह इनका स्वरूप नहीं है। क्योंकि कारक और ज्ञापक के अंगों के समान यह स्वरूप तो स्वत: ही सिद्ध है

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+ सर्वथा हेतु सिद्ध या आगम सिद्ध तत्त्व बाधित है -
सिद्धं चेद्धेतुत: सर्वं न प्रत्यक्षादितो गति:
सिद्धं चेदागमात्सर्वं विरुद्धार्थमतान्यपि ॥76॥
अन्वयार्थ : [हेतुत: सर्वं सिद्धं चेत् प्रत्यक्षादित: गति: न] यदि सभी तत्त्व हेतु से सिद्ध हैं तब तो प्रत्यक्षादि प्रमाण से किसी वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकेगा [आगमात् सर्वं सिद्धं चेत् विरुद्धार्थमतानि अपि] यदि आगम से सभी तत्त्व सिद्ध माने जावेंगे, तब तो विरुद्ध अर्थ को कहने वाले आगम भी प्रमाण हो जावेंगे।

ज्ञानमती :

यदी हेतु से सभी तत्त्व की, सिद्धी मानी जाए सही;;तब प्रत्यक्ष अनुमान आदि से, वस्तुस्थिति अरु ज्ञान नहीं;;यदि आगम से सभी तत्त्व को, सच्चे सिद्ध कोई करते;;तब विरुद्ध मत वाले आगम, से विरुद्ध मत सच होंगे

यदि सभी तत्त्व एकांत से हेतु से ही सिद्ध होते हैं तब तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से किसी तत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी। यदि सभी तत्त्व आगम से ही सिद्ध माने जायेंगे, तब तो विरुद्ध अर्थ के प्रतिपादन करने वाले मत भी आगम से सिद्ध हो जावेंगे।

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+ हेतु के और आगम के उभय एवं अवाच्य भी सदोष हैं -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं, स्याद्वादन्यायविद्विषाम्
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥77॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न] स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ हेतु और आगम के उभय का एकात्म्य भी नहीं हो सकता है [अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते] यदि इन उभय तत्त्व को सर्वथा अवाच्य कहा जाये, तो ‘अवाच्य’ यह कथन भी नहीं किया जा सकता है।

ज्ञानमती :

हेतू-आगम दोनों का, एकात्म्य बने नहिं परमत में;;स्याद्वाद विद्वेषी जन के, दिखे विरोध परस्पर में;;यदि दोनों का ‘अवक्तव्य’ है, यह एकांत लिया जावे;;तब तो ‘अवक्तव्य’ पर से भी, क्यों वक्तव्य किया जावे

स्याद्वादन्याय के द्वेषी जनों के यहाँ हेतुवाद और आगमवादरूप उभयैकात्म्य भी नहीं बन सकता है क्योंकि परस्पर में विरोध आता है तथा इन दोनों के अवक्तव्यैकांत को स्वीकार करने पर तो ‘अवाच्य’ इस प्रकार का शब्द प्रयोग भी नहीं किया जा सकता है।

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+ हेतु और आगम का अनेकांत -
वक्तर्यनाप्ते यद्धेतो: साध्यं तद्धेतुसाधितम्
आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात्साध्यमागमसाधितम् ॥78॥
अन्वयार्थ : [अनाप्ते वक्तरि हेतो: यत् साध्यं तत् हेतु साधितम्] यदि वक्ता आप्त नहीं है तब हेतु से जो साध्य है वह हेतु साधित कहलाता है [आप्ते वक्तरि तत् वाक्यात् साध्यं आगमसाधितं] यदि वक्ता आप्त है तब उनके वचनों से जो तत्त्व सिद्ध होते हैं वे आगम साधित कहलाते हैं।

ज्ञानमती :

वक्ता आप्त नहीं होने से, हेतू से जो सिद्ध हुआ;;युक्तसिद्ध वह तत्त्व सदा ही, हेतू साधित कहा गया;;वक्ता आप्त यही होवे तो, उनके वचनों से साधित;;सभी तत्त्व निर्बाधरूप से, कहलाते आगम साधित

वक्ता के आप्त न होने पर जो हेतु से साध्य होता है, वह हेतु साधित है और वक्ता जब आप्त होता है, तब उसके वाक्य से जो सिद्ध होता है,वह आगम साधित है

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+ सर्वथा अंतरंग अर्थ मानना सदोष है -
अन्तरङ्गार्थतैकान्ते बुद्धिवाक्यं मृषाऽखिलम्
प्रमाणाभासमेवातस्तत् प्रमाणादृते कथम् ॥79॥
अन्वयार्थ : [अंतरङ्गार्थतैकांते अखिलं बुद्धिवाक्यं मृषा] यदि एकांत से अंतरंग अर्थरूप ज्ञान तत्त्व को ही माना जाये, तब तो सम्पूर्ण बुद्धिरूप अनुमान और वाक्य् ारूप आगम मिथ्या हो जावेंगे [अत: प्रमाणाभासं एव तत् प्रमाणात् ऋते कथं] इसी सेवे प्रमाणाभास हो जावेंगे पुन: प्रमाणाभास भी प्रमाण के बिना कैसे संभव है ?

ज्ञानमती :

स्वसंविदित जो ज्ञान तत्व है, अन्तरंग यदि अर्थ वही;;तब बुद्धि-अनुमान-शास्त्र सब, बाह्य वस्तु हैं मृषा सही;;अत: प्रमाणाभास हुये ये, अनुमान आगम चूंकि मृषा;;बिन प्रमाण के कहाँ प्रमाणाभास बनेगा सभी सफा

यदि अंतरंग-ज्ञानरूप पदार्थ को ही वास्तविक मानकर उसका एकांत स्वीकार किया जावे, तब तो सभी बुद्धि-अनुमान और वाक्य-आगम मिथ्या ही हो जावेगा। अत: वे बुद्धि और वाक्य प्रमाणाभास ही सिद्ध होंगे। पुन: वह प्रमाणाभास भी प्रमाण के बिना कैसे सिद्ध हो सकेगा ?

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+ ज्ञान मात्र मानने से साध्य-साधन भी नहीं बनेंगे -
साध्यसाधनविज्ञप्तेर्यदि विज्ञप्तिमात्रता
न साध्यं न च हेतुश्च, प्रतिज्ञाहेतुदोषत: ॥80॥
अन्वयार्थ : [यदि साध्यसाधनविज्ञप्ते: विज्ञप्तिमात्रता] यदि साध्य और साधन के ज्ञान को ज्ञानमात्र ही माना जाये, तब तो [न साध्यं न च हेतु: च प्रतिज्ञाहेतुदोषत:] साध्य और हेतु ये दोनों नहीं बनते हैं एवं द्वितीय चकार से दृष्टांत भी नहीं बनता है, क्योंकि ऐसा कहने में प्रतिज्ञा दोष और हेतु दोष उपस्थित होता है।

ज्ञानमती :

साध्य हेतु का ज्ञान यदी, बस ज्ञान मात्र माना जावे;;तब तो साध्य नहीं होगा, हेतू दृष्टांत नहीं होंगे;;चूँकि ‘प्रतिज्ञादोष’ कहा जो, स्ववचन बाधित आवेगा;;‘हेतुदोष’ है असिद्धादि ये, आते सब दूषित होगा

साध्य और साधन की विज्ञप्ति को यदि विज्ञान मात्र ही स्वीकार किया जावे, तब तो प्रतिज्ञा और हेतु के दोष से न साध्य ही सिद्ध होगा न हेतु एवं दृष्टांत ही बन सकेंगे।

भावार्थ-प्रतिज्ञा दोष अर्थात् स्ववचन विरोध होता है और हेतु दोष अर्थात् असिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक दोष आते हैं। साध्य सहित पक्ष के कहने को ‘प्रतिज्ञा’ एवं साधन के वचन को हेतु कहते हैं। विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध सभी तत्त्वों को ज्ञान मात्र ही कहता है तब साध्य और साधन व्यवस्था कैसे बनेगी ?

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+ सर्वथा बहिरंग अर्थ ही है ऐसा कहना भी सदोष है -
बहिरङ्गार्थतैकान्ते प्रमाणाभासनिन्हवात्
सर्वेषां कार्यसिद्धि:स्याद्विरुद्धार्थाऽभिधायिनाम् ॥81॥
अन्वयार्थ : [बहिरङ्गार्थतैकांते प्रमाणाभासनिन्हवात्] यदि एकांत से बाह्य पदार्थ ही माने जावें, अंतरंग ज्ञान तत्त्व न माना जावे, तब तो इससे प्रमाणाभास का लोप हो जावेगा [विरुद्धार्थाभिधायिनां सर्वेषां कार्यसिद्धि: स्यात्] तब तो विरुद्ध अर्थ को कहने वाले सभी जनों के सभी कार्य सिद्ध हो जावेंगे।

ज्ञानमती :

बाह्य अर्थ को ही यदि मानों, चेतन का बस नाश हुआ;;तभी प्रमाणाभास विपर्यय, संशय आदि समाप्त हुआ;;पुन: विरोधी कथनी वाले, सबके सभी विरोधी मत;;सच्चे हो जावेंगे फिर तो, नहीं रहें मिथ्यात्वी जन

घट-पटादि बाह्य पदार्थ ही एकांत से हैं अंतरंग पदार्थ नहीं हैं, ऐसी एकांत मान्यता में तो संशयादि रूप प्रमाणाभास का निन्हव हो जाने से सभीविरुद्धार्थ को कहने वालों की भी कार्यसिद्धि हो जावेगी, क्योंकि बाह्य पदार्थसभी सत्यरूप ही हैं।

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+ अंतरंग और बहिरंग अर्थ का उभय और अवाच्य भी सदोष हैं -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥82॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्] स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ ज्ञान तत्त्व और बाह्य तत्त्व इन उभय का एकात्म्य भी नहीं हो सकता है क्योंकि इनका परस्पर में विरोध है [अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते] यदि इन दोनों का सर्वथा अवाच्य स्वीकार किया जावे, तब तो ‘अवाच्य’ यह कथन भी नहीं हो सकेगा।

ज्ञानमती :

अंतरंग बहिरंग ज्ञेय का, जो ऐकांतिक ‘ऐक्य’ कहा;;स्याद्वाद विद्वेषी जन के, मत में सदा विरोध रहा;;ज्ञान और बाह्यार्थ वस्तु को, यदी अवाच्य कहा जिसने;;तब तो वचनों से ‘अवाच्य’ को, कैसे वाच्य किया उसने

स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों के यहाँ एकान्त से इन दोनों का उभयैकात्म्य भी संभव नहीं है, क्योंकि परस्पर में विरोध आता है एवं तत्व को अवाच्य रूप स्वीकार करने पर तो ‘‘अवाच्य’’ यह शब्द भी नहीं कहा जा सकता है।

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+ ज्ञान पदार्थ और बाह्य पदार्थ दोनों ही सिद्ध हैं -
भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिन्हव:
बहि:प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ॥83॥
अन्वयार्थ : [ते भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिन्हव:] हे भगवन्! आपके मत में अंत: प्रमेय की अपेक्षा करने पर प्रमाणाभास का लोप हो जाता है [बहि: प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च] बाह्य पदार्थों के प्रमेय की अपेक्षा करने पर प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही होते हैं।

ज्ञानमती :

भाव प्रमेयापेक्षा करके, नहीं प्रमाणाभास रहे;;चूँकी ज्ञान स्व-स्वरूप, संवेदन से हि प्रमाण कहे;;बाह्य पदार्थ प्रमेयापेक्षा, कहे प्रमाण, प्रमाणाभास;;अत: नाथ! तव मत में अंत:-बाह्य तत्त्व दोनों विख्यात

हे भगवन्! आपके सिद्धान्त में भाव-ज्ञान को प्रमेयरूप से अपेक्षित करने पर प्रमाणाभास का लोप हो जाता है एवं बाह्य पदार्थ को प्रमेय रूप से अपेक्षित करने पर तो प्रमाण एवं प्रमाणाभास दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं।

भावार्थ-स्वसंवेदन ज्ञान की अपेक्षा से सभी ज्ञान प्रमाण हैं चाहे संशय आदि ही क्यों न हों क्योंकि सभी ज्ञान अपने-अपने स्वरूप के द्योतक होने से अपने-अपने विषय में प्रमाण ही हैं। वहाँ प्रमाणाभास का नाम ही नहीं है, किन्तु जब बाह्य पदार्थों को प्रमेय करते हैं तब प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही व्यवस्थाएँ बन जाती हैं। जहाँ विसंवाद होता है अथवा बाधा आती है वहाँ प्रमाणाभास बनता है, किन्तु जहाँ विसंवाद न होकर निर्बाधता रहती है वहाँ प्रमाण बनता है। इस प्रकार से प्रमाण-अप्रमाण की व्यवस्था में कोई विरोध नहीं आता है।

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+ जीव शब्द बाह्य अर्थ से सहित है -
जीवशब्द: सबाह्यार्थ: संज्ञात्वाद्धेतुशब्दवत्
मायादिभ्रान्तिसंज्ञाश्च, मायाद्यै: स्वै: प्रमोक्तिवत् ॥84॥
अन्वयार्थ : [जीवशब्द: सबाह्यार्थ: संज्ञात्वात् हेतुशब्दवत्] ‘जीव’ यह शब्द अपने बाह्य अर्थ से युक्त है क्योंकि संज्ञा या नाम वाला है जैसे हेतु शब्द बाह्य अर्थ के बिना नहीं होता है [मायादिभ्रांति संज्ञाश्च स्वै: मायाद्यै: प्रमोक्तिवत्] माया आदि भ्रांत अर्थवाचक शब्द भी अपने-अपने माया आदि भ्रांत अर्थ को लिए हुए ही होते हैं जैसे कि प्रमाण शब्द अपने अर्थ को लिए हुए होता है।

ज्ञानमती :

जीव शब्द निज बाह्य अर्थ से, युक्त नित्य चैतन्य पुरुष;;चूँकि संज्ञारूप कहा है जैसे हेतू शब्द सुलभ;;माया आदि शब्द दिखते हैं, भ्रांतरूप फिर भी वे सब;;ज्ञान शब्दवत् अपना-अपना, अर्थ प्रगट करते संतत

संज्ञारूप होने से ‘हेतु’ इस शब्द की तरह जीव यह शब्द भी जीव लक्षण अपने बाह्य अर्थ से सहित हैं। जैसे प्रमाण वचन अपने अर्थ से युक्त हैं तथैव मायादि, भ्रांति शब्द अपने मायादि अर्थों से सहित हैं।

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+ संज्ञा रूप हेतु निर्दोष है -
बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रो बुद्ध ्यादिवाचिका:
तुल्या बुद्ध्यादिबोधाश्च, त्रयस्तत्प्रतिबिम्बका: ॥85॥
अन्वयार्थ : [बुद्धिशब्दार्थसंज्ञा: ता: तिस्र: बुद्ध्यादिवाचका:] बुद्धि, शब्द और अर्थ ये तीनों नाम अपने से भिन्न बुद्धि, शब्द एवं अर्थ रूप अपने वाच्य अर्थ को कहते हैं [बुद्ध्यादिबोधा: च तुल्या: त्रय: तत्प्रतिबिम्बका:] तथा जो बुद्धि शब्द और अर्थरूप तीनों के ज्ञान हैं वे तुल्य हैं एवं ये तीनों ही बुद्ध्यादि विषय के प्रतिबिम्बक हैं।

ज्ञानमती :

बुद्धी, शब्द, अर्थ ये तीनों, संज्ञा नाम कहे जाते;;निज से पृथक् बुद्धि अरु शब्द, अर्थ वस्तु को ये कहते;;अत: तुल्य है तथा नाम त्रय, के प्रतिबिम्बक भी तीनों;;बुद्धि शब्द अरु अर्थ ज्ञान ये, बाह्य वस्तु व्यंजक तीनों

ज्ञान, शब्द एवं अर्थ इन तीनों की संज्ञाएँ बुद्धि आदि पदार्थ को कहने वाली हैं। अत: वे तुल्य हैं तथा बुद्धि, शब्द और अर्थ रूप ज्ञान हैं वे भा तीनों बुद्धि आदि विषय के प्रतिबिम्बक हैं।

भावार्थ-उच्चरित शब्द से जो निश्चित ज्ञान होता है वही उसका निजी अर्थ है जैसे घट शब्द के उच्चारण से श्रोता को कम्बूग्रीवादि सहित घट पदार्थ का बोध होता है अत: घट शब्द का अर्थ घटरूप पदार्थ माना गया है। वैसे ही शब्द-शब्द से उसका बाह्य अर्थ स्पष्ट झलक जाता है।

जीवार्थक जीव शब्द, बुद्धि अर्थक जीव शब्द एवं नाम अर्थक जीव शब्द ये तीनों ही अपने से भिन्न अर्थ ज्ञान एवं नामरूप तीन वाच्य अर्थ को कहते हैं क्योंकि इनके प्रतिबिम्बक ज्ञान तीन ही होते हैं। इस प्रकार से एक जीव पदार्थ का ज्ञान नाम एवं अर्थ रूप से प्रतिपादन करने वाली होने से इन संज्ञाओं में समानता है एवं एक जीव को ही ज्ञान नाम एवं अर्थ रूप संज्ञाओं में दिखाने वाले होने से इनके प्रतिबिम्बक ज्ञानों में समानता है।

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+ विज्ञानाद्वैतवादी का समाधान -
वक्त्रश्रोतृप्रमात¸णां बोधवाक्यप्रमा: पृथक
भ्रान्तावेव प्रमाभ्रान्तौ बाह्याऽर्थौ तादृशेतरौ ॥86॥
अन्वयार्थ : [वक्त्रंश्रोतृप्रमात¸णां बोधवाक्यप्रमा: पृथक्] वक्ता श्रोता और प्रमाता इन तीनों के ज्ञान, वाक्य और प्रमा पृथक्-पृथक् हैं [भ्रांतै एव प्रमाभ्रांतौ बाह्यार्थौ तादृशेतरौ] यदि इनको भ्रांतरूप माना जावे, तो ज्ञान भी भ्रांतरूप हो जावेगा। प्रमाण और अप्रमाण एवं इष्ट अनिष्ट पदार्थ भी भ्रांत स्वरूप ही हो जावेंगे।

ज्ञानमती :

वक्ता, श्रोता और प्रमाता, इनके ज्ञान अरु वाक्य प्रमाण;;पृथक्-पृथक् हैं यदि ज्ञानादिक, भ्रांतरूप ही कहे तमाम;;प्रमा भ्रांत होने से तो फिर, इष्ट अनिष्ट पदार्थ सभी;;तथा प्रमाण अरु अप्रमाण ये, भ्रांत रूप हो जाएं सही

वक्ता, श्रोता एवं प्रमाता के बोध वाक्य एवं प्रमा ये शब्द भिन्नभिन्न ही अवभासित होते हैं। यदि बोध, वाक्य और प्रमा को भ्रांतिरूप ही मानाजावे, तब तो प्रमाण भी भ्रांतरूप हो जायेगा, पुन: तादृशभ्रांत-अप्रमाण एवं इतरअभ्रांत-प्रमाण रूप वे इष्ट और अनिष्ट बाह्य पदार्थ भी भ्रांत ही मनाने पड़ेंगे।

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+ ज्ञान और शब्द की प्रमाणता कैसे है ? -
बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं, बाह्यार्थे सति नाऽसति
सत्यानृतव्यवस्थैवं, युज्यतेऽर्थाप्त्यनाप्तिषु ॥87॥
अन्वयार्थ : [बाह्यार्थे सति बुद्धि शब्दप्रमाणत्वं असति न] बाह्य पदार्थ के होने पर ही ज्ञान और शब्द में प्रमाणता आती है और बाह्य अर्थ के नहीं होने पर नहीं आती है [एवं अर्थाप्त्यनाप्तिषु सत्यानृतव्यवस्था युज्यते] इसी प्रकार सेबाह्य पदार्थ की प्राप्ति में सत्य की व्यवस्था एवं प्राप्ति न होने में असत्य की व्यवस्था बनती है।

ज्ञानमती :

बाह्य पदार्थ के होने पर, ज्ञान अरु शब्द प्रमाण सही;;बाह्य पदारथ नहिं होवे यदि, ज्ञान अरु शब्द प्रमाण नहीं;;अत: अर्थ की प्राप्ती से ही, वस्तु व्यवस्था घटती है;;किन्तु अर्थ यदि प्राप्त न हो तब, मृषा व्यवस्था बनती है

बाह्य पदार्थ के होने पर बुद्धि-ज्ञान और शब्द को प्रमाणता है एवं बाह्यार्थ के नहीं होने पर उनको प्रमाणरूपता नहीं है। इस प्रकार से अर्थ की प्राप्ति और अप्राप्ति में सत्य एवं असत्य की व्यवस्था की जाती है।

भावार्थ-विज्ञानाद्वैतवादी ज्ञान को ही प्रमाण मानता है। इस पर आचार्य कहते हैं कि बाह्य पदार्थों को माने बिना ज्ञान में प्रमाणता-अप्रमाणता की व्यवस्था नहीं बन सकती है। अंतज्र्ञेय रूप ज्ञान को ही प्रमेय करने की अपेक्षा रखने पर तो सम्यग्ज्ञान एवं मिथ्याज्ञान सब में प्रमाणता होती है क्योंकि संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रूप मिथ्याज्ञान भी अपने-अपने स्वरूप को जैसे का तैसा कहते हैं अत: स्वरूप ज्ञान की अपेक्षा सभी ज्ञान प्रमाण ही हैं किन्तु जब ज्ञान में प्रमाणता की कसौटी करनी होती है तब उस ज्ञान के द्वारा जाने गये पदार्थों की ओर दृष्टि डालनी पड़ती है।

यदि ज्ञान का विषयभूत पदार्थ जिस रूप से ज्ञान से जाना गया है। वैसा ही दिख रहा है तब तो वह ज्ञान सत्य माना जाता है। यदि उस रूप से नहीं दिख रहा है। तब वह ज्ञान असत्य माना जाता है। इसलिए ज्ञान में प्रमाणता और अप्रमाणता बाह्यार्थ के होने पर ही आती है अन्यथा नहीं। वैसे ही शब्द में प्रमाणता और अप्रमाणता भी बाह्य अर्थ के होने पर ही आती है अन्यथा नहीं, क्योंकि स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण शब्द बिना एवं बाह्य अर्थ के बिना नहीं बन सकते हैं। इसलिए बाह्य अर्थ वास्तविक हैं, ऐसा मानना चाहिए।

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+ क्या भाग्य से ही सभी कार्य सिद्ध हो सकते हैं ? -
दैवादेवार्थसिद्धिश्चेद्दैवं पौरुषत: कथम्
दैवतश्चेदनिर्मोक्ष: पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥88॥
अन्वयार्थ : [चेत् दैवात् एव अर्थसिद्धि: पौरुषत: दैवं कथं] यदि एकांत से भाग्य से ही सभी कार्यों की सिद्धि हो जाती है तब पुरुष के व्यापाररूप पुरुषार्थ द्वारा भाग्य का निर्माण कैसे होता है ? [दैवत: चेत् अनिर्मोक्ष: पौरुषं निष्फलंभवेत्] यदि पूर्व के भाग्य से भाग्य बनता है, तब तो कभी भी किसी को मोक्षनहीं हो सकेगी क्योंकि पूर्व-पूर्व के भाग्य से भाग्य का निर्माण होता ही रहेगा और मोक्ष का अभाव मानने से तो पुरुषार्थ निष्फल ही हो जावेगा।

ज्ञानमती :

यदी भाग्य से सभी कार्य की, सिद्धि मान लिया तबतो;;पुरुषारथ से भाग्यरूप यह, कार्य बना यह कहना क्यों;;यदी भाग्य यह पूर्व-पूर्व के, भाग्यों से ही बन जाता;;तब तो मोक्ष नहीं किसको भी, पौरुष भी निष्फल होगा

यदि दैव-भाग्य से ही अर्थ-प्रयोजन की सिद्धि मानी जाये, तब तो वह दैव पौरुष से पुरुष के व्यापार से कैसे सिद्ध होगा ? यदि ऐसा कहो कि उस दैव की सिद्धि भी दैव से ही होती है, तब तो मोक्ष भी कभी नहीं हो सकेगा अत: उस मोक्ष का अभाव हो जावेगा एवं मोक्ष के कारणरूप से स्वीकृत पौरुष-पुरुषार्थ भी निष्फल हो जावेगा।

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+ क्या एकांत से पुरुषार्थ से ही कार्य सिद्ध होते हैं ? -
पौरुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुषं दैवत: कथम्?
पौरुषाच्चेदमोघं स्यात्, सर्वप्राणिषु पौरुषम् ॥89॥
अन्वयार्थ : [चेत् पौरुषात् एव सिद्धि: दैवत: पौरुषं कथं] यदि पुरुषार्थ से ही सम्पूर्ण कार्यों की सिद्धि मानी जाये, तो भाग्य से पुरुषार्थ कैसे माना जावेगा? [पौरुषात् चेत् अमोघं स्यात् सर्वप्राणिषु पौरुषं] यदि कहो कि पुरुषार्थ से ही पुरुषार्थ बनता है तब तो सभी के कार्य सिद्ध हो जावेंगे, क्योंकि पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में पाया जाता है।

ज्ञानमती :

यदि पुरुषार्थ अकेले से ही, सभी कार्य की सिद्धि कहो;;तब तो भाग्य उदय से यह, पुरुषारथ कैसे बना अहो!;;यदि पुरुषार्थ स्वयं पौरुष से, होता तब तो सब जन के;;सभी कार्य की सिद्धी होगी, चूंकि सभी में पौरुष है

यदि केवल पुरुषार्थ से ही अर्थ की सिद्धि मानी जावे, तब तो दैव से पुरुषार्थ देखा जाता है, वह कैसे घटेगा? यदि कहो कि पुरुषार्थ भी पुरुषार्थ से ही उत्पन्न होता है पुन: किये गये सभी कार्य सफल होने चाहिए, क्योंकि पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में पाया जाता है।

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+ भाग्य-पुरुषार्थ के उभय एवं अवाच्य का खंडन -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥90॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्] स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ भाग्य और पुरुषार्थ इन दोनों का एकात्म्य भी संभव नहीं है क्योंकि दोनों का परस्पर में विरोध है [अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: ना युज्यते] यदि अवाच्यता का एकांत माना जाता है तो ‘ये दोनों तत्त्व अवाच्य हैं’’ ऐसा कहना भी असंभव हो जाता है।

ज्ञानमती :

भाग्य और पुरुषार्थ उभय का, ऐक्य नहीं है आपस में;;चूँकि विरोधी हैं ये दोनों, स्याद्वाद नय द्वेषी के;;यदि इन दोनों की ‘अवाच्यता’, कहो सर्वथा की विधि से;;तब तो वचनों से ‘अवाच्य’ इस, पद को वाच्य किया कैसे?

स्याद्वाद न्याय के बैरियों के यहाँ उभय ऐकात्म्य भी नहीं हैं अर्थात् पृथक् कार्य की अपेक्षा से दैव एवं पौरुष के एकात्म्य को मीमांसक ने माना है वह भी सिद्ध नहीं है, क्योंकि परस्पर में विरोध आता है। एकांत से अवाच्यता के मानने पर ‘अवाच्य’ यह उक्ति ही असंभव है।

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+ भाग्य और पुरुषार्थ का अनेकांत -
अबुद्धिपूर्वाऽपेक्षाया-मिष्टानिष्टं स्वदैवत:
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥91॥
अन्वयार्थ : [अबुद्धिपूर्वापेक्षायां इष्टानिष्टं स्वदैवत:] बुद्धि व्यापार की अपेक्षा रखे बिना अनायास ही जो इष्ट-अनिष्ट कार्य सिद्ध हो जाते हैं वे अपने-अपने भाग्य से सिद्ध होते हैं। [बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायां इष्टानिष्टं स्वपौरुषात्] एवं बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा करके जो इष्ट-अनिष्ट कार्य सिद्ध होते हैं वे पुरुषार्थकृत हैं।

ज्ञानमती :

बिना विचारे अनायास ही, इष्ट अनिष्ट कार्य कोई;;जब बन जावे तब समझो तुम, भाग्य प्रधान हमारा ही;;बुद्धीपूर्वक यदि प्रयत्न से, इष्ट अनिष्ट कार्य बनते;;तब तो निज के पुरुषार्थ को, मुख्यभाग्य को गौण कहें

अबुद्धिपूर्वक की अपेक्षा में जो इष्ट एवं अनिष्ट कार्य होते हैं वे स्वभाग्य से होते हैं एवं बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा करने पर सभी इष्ट, अनिष्ट कार्य अपने पुरुषार्थ से होते हैं।

भावार्थ-ये भाग्य और पुरुषार्थ सदैव एक-दूसरे की अपेक्षा रखकर होते हैं भाग्य के बिना अकेला पुरुषार्थ एवं पुरुषार्थ के बिना अकेला भाग्य असंभव है। जब कोई भी कार्य बिना प्रयास के सफल होते हैं तब भाग्य की प्रधानता और पुरुषार्थ गौण है एवं जब कोई भी कार्य प्रयत्नपूर्वक सिद्ध होते हैं तब पुरुषार्थ प्रधान है भाग्य गौण है।

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+ क्या पर को सुख-दु:ख देने से ही पुण्य-पाप बंध निश्चित है ? -
पापं धु्रवं परे दु:खात् पुण्यं च सुखतो यदि
अचेतनाऽकषायौ च, बध्येयातां निमित्तत: ॥92॥
अन्वयार्थ : [यदि परे दु:खात् पापं ध्रुवं सुखत: च पुण्यं] यदि पर को दु:ख देने से निश्चित ही पाप का बंध होता है और पर को सुख देने से पुण्य बंध होताहै [अचेतनाकषायौ च निमित्तत: बध्येयातां] तब तो अचेतन और कषाय रहित भी निमित्त से बंध जावेंगे।

ज्ञानमती :

यदि पर को दु:ख देने से ही, पाप बंध सुख से हो पुण्य;;कंटक आदि अचेतन को तब, पाप बंध हो पय१ को पुण्य;;यदि चेतन नहिं बंधते है तब, अकषायी मुनि गतरागी;;जन को सुख-दु:ख के निमित्त से, पुण्य-पाप के हों भागी

यदि दूसरे प्राणी में दु:ख उत्पन्न करने से एकांतत: पाप का बंध तथा सुख देने से पुण्य का बंध माना जायेगा, तब तो अचेतन पदार्थ एवं वीतरागी भी निमित्त से पुण्य-पाप रूप बंध को प्राप्त हो जावेंगे।

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+ क्या स्वयं में दु:ख-सुख से पुण्य-पाप होता है ? -
पुण्यं ध्रुवं स्वतो दु:खात् पापं च सुखतो यदि
वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यान्निमित्तत: ॥93॥
अन्वयार्थ : [यदि स्वत: दु:खात् ध्रुवं पुण्यं सुखत: च पापं] यदि स्वयं में दु:ख उत्पन्न करने से निश्चित ही पुण्य का बंध एवं स्वयं को सुख देने से पाप का बंध होता है तब तो [वीतरागो विद्वान् मुनि: निमित्तत: ताभ्यां युंज्यात्] कषाय रहित वीतराग मुनि और विद्वान् मुनिजन भी पुण्य-पाप का बंध करने लगेंगे क्योंकि ये भी अपने सुख-दु:ख की उत्पत्ति में निमित्त कारण होते हैं।

ज्ञानमती :

यदि अपने को दु:ख देने से, पुण्य बंध सुख से हो पाप;;तब तो वीतराग मुनि निज में, कायक्लेश से सहते ताप;;मुनि विद्वान् तत्त्व को समझें, संतोषामृत सुख भोगी;;ये दोनों फिर पुण्य-पाप से, बंधे मुक्ति किसको होगी

यदि अपने आप में दु:ख को उत्पन्न करने से एकांत से पुण्य बंध एवं सुख उत्पादन करने से पाप बंध माना जावे, तो वीतराग एवं विद्वान् मुनि भी निमित्त से पुण्य, पाप से बंध जाने चाहिए।

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+ पुण्य-पाप का उभय एवं अवक्तव्य भी एकांत से सदोष है -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥94॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्] स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ इन पुण्य-पापरूप दोनों सिद्धांतों का एकात्म्य भी नहीं है क्योंकि परस्पर में विरोध आता है [अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते] यदि दोनों को अवाच्य ही एकांत से कहा जाये, तो यह पुण्य-पाप बंध अवाच्य है यह कथन भी अशक्य हो जावेगा।

ज्ञानमती :

पुण्य-पाप के बंध, उभय का, यदि एकात्म्य लिया जावे;;स्याद्वाद विद्वेषी जन में, सदा विरोधि रहा आवे;;यदि दोनों की ‘अवक्तव्यता’, कहो सदा एकांत सही;;तब तो ‘अवक्तव्य’ इस वच से, स्वमत कथन यह शक्य नहीं

स्याद्वादविद्वेषी के यहाँ उभयैकात्म्य भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि परस्पर में विरोध आता है। सर्वथा ‘अवाच्य’ तत्त्व को स्वीकार करने पर तो ‘अवाच्य’ यह कथन भी नहीं बन सकेगा।

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+ पुन: पुण्य-पाप का बंध कैसे होता है ? -
विशुद्धिसंक्लेशाङ्गं चेत् स्वपरस्थं सुखाऽसुखम्
पुण्यपापास्रवौ युक्तौ न चेद्व्यर्थस्तवाऽर्हत: ॥95॥
अन्वयार्थ : [चेत् स्वपरस्थं सुखासुखं विशुद्धिसंक्लेशांङ्गं] यदि स्वपर को होने वाला सुख और दु:ख विशुद्धि और संक्लेश के कारण है [पुण्यपापास्रवौ युक्तौ न चेत् तव अर्हत: व्यर्थ:] तब तो उनसे पुण्य और पाप का आस्रव होना युक्त है। यदि वे सुख-दु:ख विशुद्धि और संक्लेश के कारण नहीं है तब तो अर्हन् भगवन्! वे व्यर्थ ही हैं।

ज्ञानमती :

यदी स्व-पर का सुख उनके, परिणाम विशुद्धी में हेतू;;तथा स्व-पर का दु:ख उनके, संक्लेश भाव में यदि हेतू;;तब ये सुख-दु:ख पुण्य-पाप के, आस्रव में हेतू बनते;;यदि ऐसा नहिं तब तो अर्हन्! तव मत में यह व्यर्थ कहे

यदि अपने सुख-दु:ख एवं परसंबंधी सुख, दु:ख विशुद्धि एवं संक्लेश के निमित्त से होते हैं तब तो उनसे ही पुण्य और पाप का आस्रव होना युक्त ही है। यदि विशुद्धि और संक्लेश रूप परिणाम नहीं है, तब तो वे व्यर्थ ही हैं अर्थात् पुण्य, पाप का आस्रव हो ही नहीं सकता है, ऐसा आप अर्हत्प्रभु का सिद्धान्त है।

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+ क्या अज्ञान से बंध और अल्पज्ञान से मोक्ष होता है ? -
अज्ञानाच्चेद्ध्रुवो बन्धो, ज्ञेया ऽनन्त्यान्न केवली
ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद्बहुतोऽन्यथा ॥96॥
अन्वयार्थ : [चेत् अज्ञानात् ध्रुवो बंधो ज्ञेयानन्त्यात् केवली न] यदि अज्ञान से निश्चित बंध होता है तब ज्ञेय पदार्थ अनंत है उनका ज्ञान न हो सकने से कोई भी केवली नहीं हो सकता है [चेत् ज्ञानस्तोकात् विमोक्ष: बहुतो अज्ञानात्अन्यथा] यदि अल्पज्ञान से मोक्ष होता है तब उसी जीव के बहुत सा अज्ञान रहने से बंध भी होता रहेगा पुन: मोक्ष नहीं हो सकेगा।

ज्ञानमती :

यदि अज्ञान बंध का हेतू, निश्चित है मानो, तब तो;;ज्ञेय पदारथ कहे अनन्तों, कोई केवली कैसे हो?;;अल्पज्ञान से यदि मुक्ती हो, तब तो उसका बहु अज्ञान;;बंध हेतु होगा निश्चित तब, नहीं किसी को मुक्तिलाभ

यदि सांख्य मत के अनुसार अज्ञान से बंध अवश्यंभावी मानों तब तो ज्ञेय पदार्थों के अनन्त होने से कोई केवली नहीं बन सकेगा। यदि एकांत से अल्पज्ञान से ही मोक्ष मानी जावे, तब तो अवशिष्ट बहुत से अज्ञान से अन्यथा-बंध की प्राप्ति हो जावेगी।

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+ अज्ञान, अल्पज्ञान से बंध-मोक्ष का उभय और अवक्तव्य नहीं बनता है -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥97॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्] स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ अज्ञान से बंध और अल्पज्ञान से मोक्ष इनका उभय एकात्म्य भी ठीक नहीं है। क्योंकि परस्पर में विरोध है [अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इतिउक्ति: न युज्यते] यदि सर्वथा इन दोनों का अवाच्य ही कहा जाये, तो अज्ञान- ज्ञान से बंध-मोक्ष की व्यवस्था कह नहीं सकते अत: ‘अवाच्य है’ यह कथन भी वाच्य ही होने से आपका एकांत नहीं रहता है।

ज्ञानमती :

यदि अज्ञान-ज्ञान से बंध-मोक्ष उभय का ऐक्य कहो;;स्याद्वाद विद्वेषी मत में, उभय विरोधी हैं तब तो;;यदि दोनों का ‘अवक्तव्य’ ही, अनपेक्षित हो मान लिया;;तब तो अवक्तव्य इसको भी, कैसे वच से प्रकट किया

स्याद्वादन्याय के द्वेषियों के यहाँ इन दोनों का परस्पर निरपेक्ष एकांत भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि विरोध आता है। एकांत में अवाच्यता को स्वीकार करने पर ‘अवाच्य’ यह वचन ही कथमपि शक्य नहीं है।

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+ अज्ञान से बंध एवं अल्पज्ञान से मोक्ष की सुंदर व्यवस्था -
अज्ञानान्मोहिनो बन्धो नाऽज्ञानाद्-वीतमोहत:
ज्ञानस्तोकाच्च मोक्ष: स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ॥98॥
अन्वयार्थ : [मोहिनो अज्ञानात् बंध: वीतमोहत: अज्ञानात् न] मोह सहित अज्ञान से बंध होता है एवं मोहरहित अज्ञान से बंध नहीं होता है [अमोहात् ज्ञानस्तोकात् च मोक्ष: स्यात् मोहिनो अन्यथा] मोह रहित अल्पज्ञान से मोक्ष होता है और मोह सहित अल्पज्ञान से बंध ही होता है।

ज्ञानमती :

स्याद्वाद में मोह सहित, अज्ञान बंध का कारण है;;मोहरहित अज्ञान बहुत भी, नहीं बंध का कारण है;;अल्पज्ञान भी मोहरहित है, उससे मोक्ष प्राप्त होगा;;किन्तु मोहयुत बहुत ज्ञान से, कर्मबंध निश्चित होता

मोह सहित अज्ञान से बंध एवं मोह रहित अज्ञान से बंध नहीं होता है। मोह रहित अल्पज्ञान से भी मुक्ति होती है किन्तु मोह सहित ज्ञानस्तोक से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है।

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+ कर्मबंध के अनुसार संसार विचित्र है -
कामादिप्रभवश्चित्र: कर्मबन्धाऽनुरूपत:
तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्ध्यशुद्धित: ॥99॥
अन्वयार्थ : [कामादिप्रभव: चित्र: कर्मबंधानुरूपत:] यह काम, क्रोध आदि से होने वाला संसार विचित्ररूप है वह संसार अपने-अपने कर्म के अनुकूल ही होता है [तत् च कर्मस्वहेतुभ्य:] और वह कर्म भी अपने-अपने रागादि परिणाम के निमित्त से होता है (ते जीवा: शुद्ध्यशुद्धित:) जिनको कर्मबंध होता है, वे जीव भी शुद्धि और अशुद्धि के भेद से दो प्रकार के होते हैं।

ज्ञानमती :

काम कृधादिक भावों से है, यह उत्पन्न भाव संसार;;स्वयं उपार्जित कर्मों के, अनुरूप दिखे हैं विविध प्रकार;;वह ही कर्म हुआ है अपने, रागादिक परिणामों से;;कर्म सहित प्राणी दो विध हैं, भव्य-अभव्य प्रकारों से

जो काम-रागादिकों का उत्पाद होता है वह कार्यरूप-भाव संसार नाना प्रकार का है वह ज्ञानावरणादि कर्मबंध के अनुसार ही होता है औरवह कर्म अपने हेतुभूत रागादि परिणामों से ही होता है तथा वे जीव शुद्धि- भव्यत्व और अशुद्धि-अभव्यत्व के भेद से दो प्रकार के हैं।

भावार्थ-कोई इस संसार को ईश्वर कृत मानते हैं, किन्तु जैनाचार्यों ने इस संसार को कर्मबंध के निमित्त से होता है, ऐसा माना है। कर्मसहित संसारी जीव के भी दो भेद माने हैं भव्य और अभव्य। आगे कारिका में इसी का स्पष्टीकरण करते हैं।

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+ शुद्धि-अशुद्धि शक्तियाँ कैसी हैं -
शुद्ध्यशुद्धी पुन: शक्ती ते पाक्या ऽपाक्यशक्तिवत्
साद्यनादी तयोव्र्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचर:॥100॥
अन्वयार्थ : [पुन: ते शुद्ध्यशुद्धी शक्ती पाक्याऽपाक्यशक्तिवत्] पुन: जीव की वे शुद्धि-अशुद्धि शक्तियाँ पकने योग्य न पकने योग्य की शक्ति के समान हैं [तयो: व्यक्ती साद्यनादी] उन दोनों शक्तियों की व्यक्ति-प्रकटता सादि और अनादि है [स्वभाव: अतर्कगोचर:] क्योंकि स्वभाव तर्क के गोचर नहीं होता है।

ज्ञानमती :

भव्य अभव्य कही दो शक्ती, पकने योग्य न पकने योग्य;;उड़द शक्तिवत् इन दोनों की, अभिव्यक्ती है सादि-अनादि;;सम्यक्त्वादि प्रकट भव्यों के, अभव्य कोरडू मूंग समान;;वस्तु स्वभाव तर्क करने का, विषय नहीं हो सके प्रधान

जीवों की ये शुद्धि और अशुद्धि रूप दो शक्तियाँ मूंग आदि के पकने योग्य एवं न पकने योग्य शक्ति के समान हैं पुन: इन दोनों की शक्ति भव्य एवं अभव्य जीवों की अपेक्षा से सादि एवं अनादि है वस्तु का यह स्वभाव तर्क के अगोचर है।

भावार्थ-संसारी जीव के भव्य-अभव्य के भेद से दो भेद हैं उनमें जो शक्तियाँ हैं, वे पकने योग्य उड़द या नहीं पकने योग्य उड़द के समान है। जैसेकोरडू मूंग या उड़द चाहे जितना पकाओ नहीं पकता है वैसे ही अभव्य जीव कभी भी मोक्ष नहीं जा सकते हैं उनकी शुद्धता प्रकट नहीं हो सकती है, इसीलिए य अशुद्ध ही हैं इनकी अशुद्धि अनादि है, अनंत हैं किन्तु भव्य जीव कर्मों का नाश करके शुद्ध हो जाते हैं इसलिए इनकी शुद्धता की प्रकटता सादि है। कोई कहे ऐसा क्यों ? तो इसका कोई उत्तर नहीं है, क्योंकि वस्तु का स्वभाव प्रश्न का विषय नहीं होता है।

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+ प्रमाण का लक्षण और भेद -
तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते, युगपत्सर्वभासनम्
क्रमभावि च यज्ज्ञानं, स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥101॥
अन्वयार्थ : [ते तत्त्वज्ञानं प्रमाणं युगपत् सर्वभासनं] हे भगवन्! आपके तत्त्वज्ञान को प्रमाण कहा है, उसमें युगपत् सर्व पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान केवलज्ञान है [क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतं] और क्रम से उत्पन्न होने वाले जो ज्ञान हैं वे स्याद्वाद और नयों से संस्कृत हैं।

ज्ञानमती :

भगवन्! तव शासन में तत्त्वज्ञान प्रमाण कहा जाता;;उसमें युगपत् सर्वप्रकाशी, केवलज्ञान कहा जाता;;क्रमभावी हैं मतिज्ञानादिक, तत्त्व प्रमाणीभूत सही;;स्याद्वाद से नय से संस्कृत, जो क्रमभावी ज्ञान वही

हे भगवन्! आपके सिद्धान्तानुसार तत्त्वज्ञान ही प्रमाण है, उसमें युगपत् सर्वपदार्थों का अवभासन करने वाला ज्ञान केवलज्ञान है एवं क्रमभावी जो ज्ञान हैं वे स्याद्वाद और नय से संस्कृत मतिश्रुतज्ञानादि हैं।

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+ प्रमाणों का फल क्या है ? -
उपेक्षा फलमाद्यस्य, शेषस्यादानहानधी:
पूर्वं वाऽज्ञाननाशो वा, सर्वस्याऽस्य स्वगोचरे ॥102॥
अन्वयार्थ : [आद्यस्य फलं उपेक्षा शेषस्य आदानहानधी:] आदि के केवल-ज्ञान का फल उपेक्षा है एवं शेष क्रमवर्ती ज्ञानों का फल ग्रहण योग्य को ग्रहण करना और छोड़ने योग्य को छोड़ना इस बुद्धि का होना है [सर्वस्य अस्य पूर्वा वा स्वगोचरे अज्ञाननाशो वा] अथवा सभी ज्ञानों का फल उपेक्षा है अथवा सभी ज्ञानों का फल अपने-अपने विषय में अज्ञान का अभाव होना ही है।

ज्ञानमती :

केवलज्ञान प्रमाणरूप का, कहा उपेक्षा फल जानो;;शेषज्ञान क्रमभावी का फल, ग्रहण त्याग बुद्धी मानों;;अथवा क्रमभावी ज्ञानों का, कहा उपेक्षा फल यदि वा;;सब ज्ञानों का फल स्व-स्व, विषयक अज्ञान नाश होना

केवलज्ञान का व्यवहित फल उपेक्षा, शेष, मति, श्रुत आदि चारों ज्ञानों का व्यवहित फल ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना, छोड़ने योग्य को छोड़ना तथा उपेक्षा करना है एवं इन पाँचों ज्ञानों का ही साक्षात् फल अपनेअपने विषयभूत पदार्थों में अज्ञान का नाश होना ही है।

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+ ‘स्यात्’ शब्द का महत्व -
वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम्
स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥103॥
अन्वयार्थ : [तव केवलिनां अपि स्यात् निपातो अर्थयोगित्वात्] हे भगवन्! आपके तथा श्रुतकेवलियों के भी मतानुसार ‘स्यात्’ यह निपात शब्द है जो कि अर्थ के साथ संबंधित है [वाक्येषु अनेकांतद्योती गम्यं प्रति विशेषणम्] यह वाक्यों में अनेकांत का द्योतक तथा गम्य रूप अर्थ के प्रति विशेषण माना गया है।

ज्ञानमती :

नाथ! आपके या श्रुतकेवलि मुनियों के भी वाक्यों में;;स्यात् शब्द है निपात् चूँकि, अर्थ साथ संबंधित है;;इसीलिए यह सब वाक्यों में, ‘अनेकांत’ का द्योतक है;;गम्य वस्तु के प्रती विशेषण, अर्थ विवक्षित सूचक है

हे भगवन्! श्रुत केवलियों के सिद्धान्त में एवं आप केवलज्ञानी के सिद्धांतानुसार ‘‘स्यात्’’ यह शब्द निपात सिद्ध है वाक्यों में अनेकांत काउद्योतन करने वाला है और गम्य-अर्थ के प्रति समर्थ विशेषण रूप है क्योंकि यह अपने अर्थ से रहित है।

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+ स्याद्वाद का स्वरूप -
स्याद्वाद: सर्वथैकान्त-त्यागात् किमवृतचिद्विधि:
सप्तभंगनयापेक्षो हेयाऽऽदेयविशेषक: ॥104॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वाद: सर्वथैकांतत्यागात् किम वृत्तचिद्विधि:] यह ‘स्याद्वाद’ पद सर्वथा एकांत का त्याग करने वाला है किम शब्द से चित् अव्यय लगकर जा शब्द ‘कथंचित्’ आदि निष्पन्न होते हैं, वे इसके पर्यायवाची हैं (सप्तभंग नयापेक्षो हेयादेयविशेषक:) यह स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखने वाला है तथा हेय और उपादेय का भेद करने वाला होता है।

ज्ञानमती :

सदा सर्वथैकांत त्याग से, स्याद्वाद है सुखकर ही;;स्यात्-कथंचित् और कथंचन, शब्दों से एकार्थ सही;;सप्तभंग अरु सभी नयों की, सदा अपेक्षा रखता है;;सभी वस्तु में हेय और आदेय व्यवस्था करता है

सर्वथा एकांत के त्याग से ही स्याद्वाद होता है और कथंचित् आदि इसके पर्यायवाची ही हैं। यह सप्तभंग नयों की अपेक्षा रखने वाला है और हेय उपादेय की विशेष व्यवस्था करने वाला है।

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+ स्याद्वाद और केवलज्ञान में क्या अंतर है ? -
स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने
भेद: साक्षादसाक्षाच्च, ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥105॥
अन्वयार्थ : [स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने] स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ही सभी तत्त्वों के प्रकाशक हैं [भेद: साक्षात् असाक्षात् च अन्यतमं हि अवस्तु भवेत्] इन दोनों के प्रकाशन में पदार्थों का साक्षात् करने और साक्षात् न करने का ही अंतर है इन दोनों ज्ञानों में से जो वस्तु किसी ज्ञान के द्वारा प्रकाशित नहीं होती है, वह अवस्तु कहलाती है।

ज्ञानमती :

स्याद्वाद कैवल्यज्ञान ये, सभी तत्त्व के परकाशक;;स्याद्वाद सब परोक्ष जाने, केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रगट;;अंतर इतना ही इन दोनों, में परोक्ष-प्रत्यक्ष कहा;;इन दोनों से नहीं प्रकाशित, अर्थ अवस्तूरूप हुआ

स्याद्वाद और केवलज्ञान ये दोनों ही सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले हैं। इन दोनों में अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान साक्षात् सम्पूर्ण तत्त्वों का प्रकाशक है एवं स्याद्वाद असाक्षात् परोक्षरूप से प्रकाशक है, क्योंकि इन दोनों के बिना प्रकाशित वस्तु अवस्तु रूप ही है।

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+ नय और हेतु का लक्षण -
सधर्मणैव साध्यस्य, साधम्र्यादविरोधत:
स्याद्वादप्रविभक्ताऽर्थ-विशेषव्यञ्जको नय: ॥106॥
अन्वयार्थ : [सधर्मणा एव साधम्र्यात् अविरोधत:] सपक्ष के साथ ही अपने साध्य के साधम्र्य से जो बिना किसी विरोध से [स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेष्यव्यञ्जक: नय:] श्रुत प्रमाणरूप स्याद्वाद के द्वारा जाने गये अर्थ विशेष का व्यंजक होता है, वह नय कहलाता है।

ज्ञानमती :

जो सपक्ष के साथ साध्य के, साधम्र्यों से अविरोधी;;साध्य अर्थ का ज्ञान कराने, वाला ‘नय’ है प्रगट सही;;स्याद्वाद से प्रगट किये ही, अर्थ विशेषों का व्यंजक;;सुप्रमाण से ज्ञात वस्तु के, अंश-अंश को करे प्रगट

सपक्ष (दृष्टान्त) के साथ ही साध्य के साधम्र्य से अविरोध रूप से जो स्याद्वादश्रुत प्रमाण के द्वारा विषयीकृत पदार्थ विशेष का व्यंजक होता है वह नय कहलाता है। यह नय का लक्षण है इसे ही हेतु कहते हैं।

भावार्थ-नय हेतुवाद है और स्याद्वादरूप आगम अहेतुवाद है। इन दोनों से संस्कृत तत्त्वज्ञान ही युक्ति एवं आगम से अविरुद्ध होता हुआ सुनिश्चित रूप से बाधक प्रमाण होने से रहित है। यहाँ नय का लक्षण प्रगट किया है और उसे हेतु स्वरूप बतलाया है। क्योंकि जो हेतु का स्वरूप है वही नय का स्वरूप है जो आपने साध्य के साथ अविनाभाव संबंध रखता है, वही हेतु है इससे यह स्पष्ट है कि विलक्षण और पंचरूप हेतु वास्तविक नहीं है केवल एक अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का निर्दोष वास्तविक लक्षण है।

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+ द्रव्य का स्वरूप -
नयोपनयैकान्तानां, त्रिकालानां समुच्चय:
अविभ्राड्भावसम्बन्धो, द्रव्यमेकमनेकधा ॥107॥
अन्वयार्थ : [त्रिकालानां नयोपनयैकान्तानां समुच्चय:] त्रिकालवर्ती नय और उपनयों के एकांत विषयों का जो समुच्चय है [अविभ्राट् भावसंबंध: द्रव्यं एकं अनेकधा] वह कथंचित् तादात्म्य स्वभाव के संबंध को लिए हुए है उसी का नाम द्रव्य है वह द्रव्य एक है और अनेक भेदरूप है।

ज्ञानमती :

त्रिकालवर्ती नय-उपनय के, एकांतों का जो समुदाय;;अपृथक् है तादात्म्य भावयुत, वही द्रव्य है सहज स्वभाव;;द्रव्य कहा यह एकरूप भी, और अनेकरूप भी है;;अनंतधर्मा द्रव्य के इक-इक, धर्म कहे नय वो ही हैं

त्रिकाल विषयक, नय और उपनयों के एकांत का जो समुच्चय है और अविभ्राड् भाव संबंध-अपृथक् स्वभाव संबंधरूप है वही द्रव्य है और वह एक भी है अनेक प्रकार का भी है।

भावार्थ-द्रव्य और पर्याय के भेद से नय के अनेक भेद हैं वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाले वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं एवं नयों की शाखा-उपशाखा को उपनय कहते हैं। अनंतधर्म विशिष्ट वस्तु के एक धर्म को ही ग्रहण करना इनका एकांत है त्रिकालवर्ती इन नय और उपनयों का विषयभूत जो पर्याय विशेषों का समुदाय है वह द्रव्य है, वह एकानेक स्वरूप है। यह समुदाय कथंचित् तादात्म्य संबंध रूप है।

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+ मिथ्यानय-सम्यकनय का लक्षण -
मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्ततास्ति न:
निरपेक्षा नया मिथ्या, सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत ॥108॥
अन्वयार्थ : [मिथ्या समूहो मिथ्या चेत् न: मिथ्यैकांतता न अस्ति] यदि कहो कि नयों और उपनयों के एकांतों का जो समूह है वह मिथ्याओं का समूह है वह मिथ्या ही है यदि ऐसा कहो तो ठीक नहीं है, क्योंकि हमारे यहाँ मिथ्या एकांतता नहीं है [ते निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा अर्थकृत् वस्तु] हे भगवन्! आपके मत में जो नय परस्पर में निरपेक्ष हैं वे मिथ्या हैं एवं जो नय परस्पर में सापेक्ष हैं वे सम्यक हैं उनके विषय में अर्थक्रियाकारी हैं इसलिए उनका समूह ही वस्तु है।

ज्ञानमती :

यदि मिथ्या एकांतों का, समुदाय हुआ वह मिथ्या ही;;तब तो सदा हमारे मत में, वह मिथ्या एकांत नहीं;;नय निरपेक्ष कहे मिथ्या हैं, नय सापेक्ष कहे सम्यक;;सुनय अर्थ क्रियाकारी हैं, उसका समुदय है सम्यक्

मिथ्याभूत एकांत का समुदाय यदि मिथ्यारूप ही है तब तो वह मिथ्या एकांत हम जैनियों के यहाँ नहीं है। हे भगवन्! आपके मत में निरपेक्ष नय मिथ्या हैं और सापेक्ष नय वस्तु हैं, अर्थक्रियाकारी हैं।

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+ वस्तु को विधि आदि के द्वारा कहते है -
नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिना वारणेन वा
तथाऽन्यथा च सोऽवश्य-मविशेष्यत्वमन्यथा ॥109॥
अन्वयार्थ : [विधिना वारणेन वा वाक्येन अर्थ: नियम्यते] विधि वाक्य अथवा निषेध वाक्य के द्वारा पदार्थ का नियम किया जाता है [स: तथा अन्यथा च अवश्यं अन्यथा अविशेष्यं] जो अर्थ जिस वाक्य से निश्चित है वह अन्यथारूप होने से विशेष्य न होकर अविशेष्य ही है।

ज्ञानमती :

विधिवाक्य या निषेधवाक्यों से, पदार्थ का कथन सही;;विधिवाक्य से वस्तु अस्ति है, निषेध वच से नास्ति कही;; यदि ऐसा नहिं मानों तब तो, वस्तु विशेषण शून्य रही;;पुन: विशेष्य नहीं होने से, वस्तु ‘अवस्तू’ असत् हुई

विधि वाक्य अथवा निषेध वाक्य के द्वारा अर्थ का निश्चय किया जाता है। यह अर्थ विधि वाक्य से विधि और प्रतिषेध वाक्य से प्रतिषेध रूपसिद्ध है, अन्यथा-एकांत रूप से विचार करने पर तो अर्थ के सत्त्व-असत्त्व में भेद ही नहीं हो सकेगा।

भावार्थ-प्रत्येक वस्तु विधीवाक्य अथवा निषेध वाक्य के द्वारा प्रसिद्ध है विधिवाक्य से वस्तु अस्तिरूप है एवं निषेध वाक्य से नास्तिरूप है। यदि ऐसा न मानो तो वह वस्तु किसी भी विशेषण से कही नहीं जा सकेगी।

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+ उभयात्मक वस्तु को एक रूप कहना मिथ्या है -
तदतद्वस्तुवागेषा, तदेवेत्यनुशासती
न सत्या स्यान्मृषावाक्यै:, कथं तत्त्वार्थदेशना ॥110॥
अन्वयार्थ : [तत् अतत् वस्तु तत् एव इति अनुशासती एषा वाक् सत्या न स्यात्] प्रत्येक वस्तु तत् अतत् रूप हैं किन्तु वस्तु ‘तत् रूप ही है’ इस प्रकार से कहने वाले वचन सत्य नहीं हैं (मृषावाक्यै: तत्त्वार्थदेशना कथं) अत: मृषा वचनों से तत्त्वार्थ का उपदेश कैसे हो सकता है।

ज्ञानमती :

वस्तू तत् अरु अतत् रूप है, परन्तु जो ‘तत्’ ही कहते;;ऐसे वच तो असत्य ही हैं, चूँकि वस्तु ‘अतत्’ भी है;;पुन: मृषा वचनों से कैसे, तत्त्वों का उपदेश घटे;;विधीवाक्य से अस्ति मात्र ही, कोई पदारथ नहीं दिखे

ये वचन ‘‘तत्, अतत्’’ स्वभाव वाली वस्तु का प्रतिपादन करते हैं, यदि वचन वह ही है, इस प्रकार स्वरूप के समान पररूप से भी विधिरूप मात्र ही वस्तु को प्रतिपादित करें तब तो वे वचन असत्य हो जायेंगे पुन:असत्य वचनों से तत्त्वार्थ का उपदेश कथन कैसे हो सकेगा ?

भावार्थ-विधिवादी वेदांती लोगों का कहना है कि वचन केवल वस्तु के अस्तित्व को ही कहते हैं, किन्तु यह बात गलत है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु विधिनिषेध आदि रूप से अनंत धर्मात्मक है और प्रत्येक वचन अपने अर्थ को कहते हुए अन्य अर्थ का निषेध अवश्य कर देते हैं।

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+ वचन का वास्तविक स्वभाव क्या है ? -
वाक्स्वभावोऽन्यवागर्थ-प्रतिषेधनिरंकुश:
आह च स्वार्थसामान्यं, तादृग् वाच्यं खपुष्पवत् ॥111॥
अन्वयार्थ : [वाक् स्वभाव: अन्यवागर्थ प्रतिषेधनिरंकुश: स्वार्थसामान्यं चआह] वचन का यह स्वभाव है कि अन्य वचन के अर्थ के प्रतिषेध करने मेंनिरंकुश और अपने अर्थ सामान्य को कहता है [तादृक् वाच्यं खपुष्पवत्] इसवचन के स्वभाव से भिन्न जो वचन केवल निषेध मुख अर्थ का प्रतिपादन करते हैं वे आकाशपुष्पवत् असत् हैं।

ज्ञानमती :

अन्य वचन के अर्थों के, प्रतिबोध हेतु निरअंकुश ही;;निज सामान्य अर्थ को कहना, ऐसा वचन स्वभाव सही;;किन्तू केवल निषेध मुख से, वचन स्वार्थ प्रतिपादक हैं;;ऐसे वच से कथित वस्तु ही, गगनकमलवत् ‘असत्’ रहे

वचन का स्वभाव अन्य वचन के अर्थ का प्रतिषेध करने से निरंकुश है और वह पदार्थ सामान्य निरपेक्ष अपने अर्थ सामान्य को कहता है। किन्तु ‘केवल निषेध मुख से ही वचन अपने अर्थ को कहते हैं।’ ऐसा बौद्धों का कथन आकाश पुष्प के समान असत् है।

भावार्थ-बौद्धों ने वचनों को अन्यापोह अर्थ का कहने वाला माना है अर्थात् किसी ने गौ: शब्द कहा उस शब्द का यह अर्थ है कि ‘‘अगो: व्यावृत्ति: गौ:’’ गो से भिन्न अन्य अश्व नहीं है गधा नहीं है इत्यादि से अन्य अर्थों का निषेध करके ही शब्द अर्थ को कहते हैं। गौ शब्द से गाय अर्थ को नहीं कहते हैं।

इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि केवल अन्य अर्थ के निषेध को कहने वाले वचन असत्य हैं क्योंकि प्रत्येक शब्द प्रथम अपने अर्थ को अवश्य कहते हैं। गौ शब्द के सुनते ही मनुष्य को गाय का बोध हो जाता है।

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+ स्यात्कार ही अभिप्रेत को प्राप्त कराने वाला है -
सामान्यवाग् विशेषे चेन्न शब्दार्थो मृषा हि सा
अभिप्रेतविशेषाप्ते: स्यात्कार: सत्यलाञ्छन: ॥112॥
अन्वयार्थ : [सामान्यवाग् विशेषे चेत् शब्दार्था मृषा हि सा] यदि कहा जाये कि सामान्य वाक्य पर के अभावरूप विशेष में ही रहता सो ठीक नहीं है। क्योंकि यह वाक्य विशेष शब्द के अर्थ को नहीं कहता है अत: यह वाक्य मिथ्या ही हैं [अभिप्रेतविशेषाप्ते: स्यात्कार: सत्यलाञ्छन:] अभिप्राय में स्थित अभिप्रेत विशेष की प्राप्ति कराने में सच्चा साधनभूत सत्य चिन्ह वाला यह ‘स्यात्कार’ शब्द है।

ज्ञानमती :

ये सामान्य वचन ही कहते, अन्यापोह विशेषार्थक;;ऐसा कथन असंगत चूंकी, ये वच नहिं शब्दार्थ कथक;;अत: वचन ये मृषा परन्तू जो अभिप्रेत विशेषारथ;;प्राप्त कराने हेतू ऐसा, स्यात्कार है चिन्ह सुतथ्य

सामान्य वचन विशेष का कथन नहीं करते हैं फिर भी यदि आप मान लेंवे तब तो शब्दार्थ असत्य ही हो जायेंगे। अतएव अभिप्रेत विशेष की प्राप्ति के लिए सत्य लाञ्छन वाला स्यात्कार पद ही है।

भावार्थ-अभिप्राय में इष्ट अर्थ विशेष को बताने वाला यह ‘स्यात्’ शब्द चिन्हित स्याद्वाद ही है अन्य सामान्य वचन आदि नहीं है।

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+ स्याद्वाद की सम्यक् व्यवस्था -
विधेयमीप्सितार्थाङ्गं प्रतिषेध्याऽविरोधि यत्
तथैवाऽऽदेय-हेयत्व-मिति स्याद्वादसंस्थिति: ॥113॥
अन्वयार्थ : [यत् विधेयं ईप्सितार्थाङ्गं प्रतिषेध्याऽविरोधि] जो विधि वाक्य के द्वारा कहा गया विधेय है वह इच्छित अर्थ का कारण है और अपने प्रतिषेध्यनास्ति के साथ अविनाभावी होने से अविरोधी है [तथैव आदेयहेयत्वं इति स्याद्वादसंस्थिति:] और उसी प्रकार वस्तु का उपादेय एवं हेयपना सिद्ध है अन्यथा नहीं। इस प्रकार से स्याद्वाद की सम्यक् प्रकार से व्यवस्था हो जाती है।

ज्ञानमती :

जो विधेय है वह अपने, प्रतिषेध्य नास्ति सह अविरोधी;;इच्छित अर्थों का साधन वह, स्याद्वाद उभयात्मक ही;;वैसे ही आदेय-हेय है, वस्तु का सर्वथा नहीं;;इस प्रकार से स्याद्वाद की, सम्यक् स्थिति घटित हुई

‘अस्ति’ इत्यादि शब्द से वाच्य विधेय वाक्य ही ईप्सित अर्थक्रिया के प्रति कारण है और वह प्रतिषेध्य-नास्तित्वादि धर्म से अविरोधीअविनाभावी है एवं उसी प्रकार से ही आदेय और हेय हैं इस प्रकार से स्याद्वाद की सम्यक् व्यवस्था हो जाती है।

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+ आप्त मीमांसा करने का उद्देश्य -
इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम्
सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥114॥
अन्वयार्थ : [इति इयं आप्तमीमांसा हितं इच्छतां] इस प्रकार से यह आप्तमीमांसा हित के चाहने वालों को [सम्यक्-मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये विहिता] सम्यक् उपदेश और मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष का ज्ञान कराने के लिए की गई है।

ज्ञानमती :

हित के इच्छुक भव्यजनों को, सत्य-असत्य बताने को;;सम्यक् मिथ्या उपदेशों के, अर्थ विशेष समझाने को;;इस प्रकार से रची गई यह, आप्त समीक्षा को करती;;कुशल‘आप्तमीमांसा’ स्तुति यह, सम्यक् ‘‘ज्ञानमती’’ करती

हित प्राप्ति की इच्छा करने वाले भव्य जीवों को सम्यक उपदेश और मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष का ज्ञान कराने के लिए यह आप्तमीमांसा नाम की स्तुति रचना मैंने (श्री समंतभद्र स्वामी ने) बनाई है।

भावार्थ-जो भव्य हैं वे ही अपनी आत्मा के हित की भावना करेंगे न किअभव्य, अत: भव्य जीव ही सम्यक् उपदेश को प्राप्तकर-ग्रहणकर मिथ्या उपदेश का त्याग करेंगे। यह आप्तमीमांसा स्तोत्र हमारे और आपके सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और विशुद्धि में निमित्त बनें, यही श्रीजिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है।

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