जयवन्तो जिनबिम्ब जगत में, जिन देखत निज पाया है॥वीतरागता लखि प्रभुजी की, विषय दाह विनशाया है।प्रगट भयो संतोष महागुण, मन थिरता में आया है॥अतिशय ज्ञान षरासन पै धरि, शुक्ल ध्यान शरवाया है।हानि मोह अरि चंड चौकडी, ज्ञानादिक उपजाया है॥वसुविधि अरि हर कर शिवथानक, थिरस्वरूप ठहराया है।सो स्वरूप रुचि स्वयंसिद्ध प्रभु, ज्ञानरूप मनभाया है॥यद्यपि अचित तदपि चेतन को, चितस्वरूप दिखलाया है।कृत्य कृत्य जिनेश्वर प्रतिमा, पूजनीय गुरु गाया है॥