मैं ये निर्ग्रंथ प्रतिमा, देखूँ जब ध्यान से ।बैठे पद्मासन जिनवर, देखो किस शान से ॥टेक॥राग-द्वेष का नाम नहीं, बैठे अपने अन्तर में । दृष्टि को अंदर करके, प्रभु बैठे हैं निज घर में ।अन्जन से पापी तिर गए, जिनके गुणगान से ।मैं ये निर्ग्रंथ प्रतिमा, देखूँ जब ध्यान से ॥१॥कर्मकालिमा नष्ट करी और अष्टकर्म को जीता ।वो भी हो जाता जिनवर सम, जो आतम रस पीता । आत्म के अनुभवी देखें सबको निष्काम से ।मैं ये निर्ग्रंथ प्रतिमा, देखूँ जब ध्यान से ॥२॥देती ये उपदेश मूर्ति, अरे जगत के जीवों ।चौरासी से थकान लगी, तो आतम रस पीवो ।हम तो थक कर बैठे, हैं सारे जहान से ।मैं ये निर्ग्रंथ प्रतिमा, देखूँ जब ध्यान से ॥३॥हाथ पै हाथ धरे बैठे जो वही वीतरागी है ।तीन लोक की सभी सम्पदा, जिनवर ने त्यागी है ।अब भी भगवान हो तुम, पहले भी भगवान थे ।मैं ये निर्ग्रंथ प्रतिमा, देखूँ जब ध्यान से ॥४॥