(तर्ज:—अशरीरी सिद्ध भगवान,ऐ मेरे दिले नादां) हे ज्ञान सिन्धु भगवान, हम आये शरण तेरे,निज आत्म सुमरने से, मिट जाये भव फेरे ॥टेक॥निज आत्म मगन होर, महिमा को तेरी जाना,चैतन्य के वैभव से, स्वातम को पहिचाना,निज ज्ञान के अनुभव से, मिटे मोह माया घेरे ॥१॥सम्यक्त्व के होने पर, सुख की कणिका प्रगटी,अतीन्द्रिय आनंद से क्रोध, मान, लोभ, विघटी,प्रज्ञामय छेनी से मिटे राग द्वेष घेरे ॥२॥नि:शल्य स्वभावी मैं, शल्यों को दूर करूँ,परमामृत औषधि से, कर्मों को दूर करूँ,त्रिगुप्ति में गुप्त होकर, काटो कर्मों के घेरे ॥३॥द्रव्य, गुण, पर्यायें, सत् मैंने ऐसा जाना,निज द्रव्य की शक्ति को, मैंने अब पहिचाना,शुद्धात्म रमण करके, केवल निधि को तेरे ॥४॥अध्यात्म में भीगे, आतम हित की अभिलाषा,रत्नाकर को पाऊँ, चिर शांति में हो वासा,आनंद के अनुभव से, मिले मुक्ति में डेरे ॥५॥