तर्ज : प्यार में होता है क्या जादूचाँद सी महबूबा हो मेरे कब
कैसी सुन्दर जिन प्रतिमा है, कैसा सुंदर है जिन रूप ।जिसे देखते सहज दीखता, सबसे सुंदर आत्मस्वरूप ॥नग्न दिगम्बर नहीं आडम्बर, स्वाभाविक है शांत स्वरूप ।नहीं आयुध नहीं वस्त्राभूषण, नहीं संग नारी दुःख रूप ॥१॥बिन श्रृंगार सहज ही सोहे, त्रिभुवन माहि अतिशय रूप ।कायोत्सर्ग दशा अविकारी, नासा दृष्टि आनंदरूप ॥२॥अर्हत प्रभु की याद दिलाती, दर्शाती अपना प्रभु रूप ।बिन बोले ही प्रगट कर रही, मुक्तिमार्ग अक्षय सुखरूप ॥३॥जिसे देखते सहज नशावे, भव-भव के दुष्कर्म विरूप ।भावों में निर्मलता आवे, मानो हुए स्वयं जिनरूप ॥४॥महाभाग्य से दर्शन पाया, पाया भेद-विज्ञान अनूप ।चरणों में हम शीश नवावें, परिणति होवे साम्यस्वरूप ॥कैसी सुन्दर जिन प्रतिमा है, कैसा सुंदर है जिन रूप ॥५॥