जिनवर चरण-भक्ति वर गंगा, ताहि भजो भवि नित सुखदानी । स्याद्वाद हिमगिरि तैं उपजी, मोक्ष-महासागरहि समानी ॥टेक॥ज्ञान-विरागरूप दोऊ ढाये, संयम भाव मगर हित आनी ।धर्म-ध्यान जहाँ भँवर परत है, शम-दम जामें सम-रस पानी ॥२॥जिन-संस्तवन तरंग उठत हैं, जहाँ नहीं भ्रम-कीच निशानी । मोह-महागिरि चूर करत हैं, रत्नत्रय शुद्ध पन्थ ढलानी ॥३॥सुर-नर-मुनि-खग आदिक पक्षी, जहाँ रमत नित सम-रस ठानी ।'मानिक' चित्त निर्मल स्थान करि, फिर नहीं होत मलिन भवि प्राणी ॥४॥