गुरु समान दाता नहिं कोई ।भानु प्रकाश न नाशत जाको, सो अंधियारा डारै खोई ॥टेक॥मेघ समान सबन पै बरसै, कछु इच्छा जाके नहिं होई ।नरक पशू गति आग माहिं तैं, सुरग मुकत सुख थापै सोई ॥गुरु समान दाता नहिं कोई ॥१॥तीन लोक मन्दिर में जानौ, दीपकसम परकाशक लोई ।दीप तलैं अंधियार भरयो है, अन्तर बाहिर विमल है जोई ॥गुरु समान दाता नहिं कोई ॥२॥तारन - तरन जिहाज सुगुरु हैं, सब कुटुम्ब डोवै जगतोई ।'द्यानत' निशिदिन निरमल मन में, राखो गुरु - पद पंकज दोई ॥गुरु समान दाता नहिं कोई ॥३॥