कबधौं मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करि हैं भवोदधि पारा हो ॥टेक॥भोगउदास जोग जिन लीनों, छाँडि परिग्रहभारा हो इन्द्रिय दमन वमन मद कीनो, विषय कषाय निवारा हो ॥१॥कंचन काँच बराबर जिनके, निंदक बंदक सारा हो दुर्धर तप तपि सम्यक निज घर, मनवचतनकर धारा हो ॥२॥ग्रीषम गिरि हिम सरिता तीरै, पावस तरुतल ठारा हो करुणाभीन चीन त्रसथावर, ईर्यापंथ समारा हो ॥३॥मार मार व्रत धार शील दृढ़, मोह महामल टारा हो मास छमास उपास वास वन, प्रासुक करत अहारा हो ॥४॥आरत रौद्रलेश नहिं जिनके, धर्म शुकल चित धारा हो ध्यानारूढ़ गूढ़ निज आतम, शुधउपयोग विचारा हो ॥५॥आप तरहिं औरनको तारहिं, भवजलसिंधु अपारा हो 'दौलत' ऐसे जैन-जतिनको, नितप्रति धोक हमारा हो ॥६॥