गुरुवर थारी परिणति अंतरमयीपायो सिद्ध स्वपद का राज, गुरुवर आनंद अपार।।टेक।।ग्रीष्म ऋतु में पर्वत राजे,अपना ज्ञायक रूप निहारे।गुरु शीतल रहे अविकार, गुरुवर आनन्द अपार। गुरुवर थारी…।।१।।होय विरागी परिग्रह डारा, शुद्धोपयोग रूप धर्म है धारा।।हुयी दृष्टि अंतर मा अविकार, गुरुवर आनंद अपार। गुरुवर थारी…।।२।।शुद्धातम में मग्न सु रहते, ज्ञान सुधारस पीते-पीते।भासा सारा जगत निस्सार, गुरुवर आनंद अपार। गुरुवर थारी…।।३।।गुरुसम निज गुरुता को ध्याऊँ, धन्य दशा वह कब प्रगटाऊँ ।पाऊँ ऐसा पद अविकार, गुरुवर महिमा अपार। गुरुवर आनंद…।।४।।