जंगल में मुनिराज अहो, मंगल स्वरूप निज ध्यावें।बैठ समीप संत चरणों में, पशु भी बैर भुलावें।। टेक।।अहो सिंहनी गौ वत्सों को, स्तन पान कराती।हो निःशंक गौ सिंह-सुतों पर, अपनी प्रीत जताती।।नेवला अहि मयूर सब ही मिल, तहँ आनंद मनावें।।1।।नहीं किसी से भय जिनको, जिनसे भी भय न किसी को।निर्भय ज्ञान गुफा में रह, शिव पथ दर्शाएँ सभी को।।जो विभाव के फल में भी, ज्ञायक स्वभाव निज ध्यावें।।2।वेदन जिन्हें असंग स्वभाव का, नहीं संग में अटकें।कोलाहल से दूर स्वानुभव, परम सुधारस गटकें।।भव्य जीव उपदेश श्रवण कर, जिनसे शिवपद पावें।।3।।ज्ञेयों से निरपेक्ष ज्ञानमय, अनुभव जिनका पावन।शुद्धातम दर्शाती वाणी, प्रशम मूर्ति मन भावन।।अहो जितेंद्रिय, गुरु अतीन्द्रिय, ज्ञायक ही नित ध्यावें।।4।।निज ज्ञायक ही निश्चय गुरूवर, अहो दृष्टि में आया ।स्वयं सिद्ध ज्ञानानन्द सागर, अंतर में लहराया ।।नित्य निरंजन रूप सुहाया, जाननहार जनावें।।5।।