हो संसार लगने लगा अब असार, निज ज्ञायक की सुधि आईयतियों के मार्ग की महिमा अपार, द्वादश अनुप्रेक्षा मन भाईउपशम रस की धारा बहती, अंतर परिणति ये ही कहतीजन्म मरण का अंत होएगा, अनगारियों का पंथ होएगालौकांतिक देवों ने की जय-जय कार, धन्य मुनिदशा मन भाई ॥हो संसार लगने लगा अब असार, निज ज्ञायक की सुधि आई ॥१॥दशों दिशाओं की चुनरिया, ओढ चले मुक्ति डगरियामुक्ति नगर को चले दिगंबर, हर्षित धरा और अंबरस्वर्गों से पुष्पों की वर्षा अपार, दिगंबर मुद्रा मन भाई ॥हो संसार लगने लगा अब असार, निज ज्ञायक की सुधि आई ॥२॥सुरपति शिविका ले आए, पालकी में प्रभू को बैठाएपंच मुष्टि केषलोंच करके, वस्त्राभूषण सब तजकेतिलतुष मात्र न परिग्रह धार, यथाजात मुद्रा मन भाई ॥हो संसार लगने लगा अब असार, निज ज्ञायक की सुधि आई ॥३॥