चैतन्य मेरे, निज ओर चलो, ज्ञायक की छाँव तलेजहां राग नही, जहाँ द्वेष नहीं, बस ज्ञान की ज्योति जलेज्ञायक की छाँव तले ॥टेक॥मिथ्यात्व की काली घटाएं, अज्ञान का जल बरसातीहै मोह की दल-दल गहरी, प्रज्ञा मेरी भरमातीजिन दर्श किये--मम हर्ष हिये, सत्संग का लाभ मिलेज्ञायक की छांव तले ॥१॥परिणाम हुए अति पावन, ध्रुवता के गीत नित गायेस्व-पर को भिन्न समझ कर, निज में निजता ही ध्यायेसम भाव जगे, पथ मुक्ति सजे, समकित के कमल खिलेज्ञायक की छांव तले ॥२॥हे चेतन ! निज अनुभव से, निज से ही परिचय होगायह काल अनादि का फेरा, पल भर में निर्बल होगाजहाँ जन्म नही, अरु मरण नही, बस अमृत रस झलकेज्ञायक की छांव तले ॥३॥