जीव! तू भ्रमत सदैव अकेलासंग साथी कोई नहिं तेरा ॥टेक॥अपना सुखदुख आप हि भुगतै, होत कुटुंब न भेलास्वार्थ भयै सब बिछुरि जात हैं, विघट जात ज्यों मेला ॥१॥रक्षक कोइ न पूरन ह्वै जब, आयु अंत की बेलाफूटत पारि बँधत नहीं जैसे, दुद्धर जल को ठेला ॥२॥तन धन जोवन विनशि जात ज्यों, इन्द्रजाल का खेलाभागचन्द इमि लख करि भाई, हो सतगुरु का चेला ॥३॥