जीवन के परिनामनि की यह, अति विचित्रता देखहु ज्ञानी ॥टेक॥नित्य-निगोद माहितैं कढ़िकर, नर परजाय पाय सुखदानी ।समकित लहि अंतर्मुहूर्तमें, केवल पाय वरै शिवरानी ॥१॥मुनि एकादश गुणथानक चढ़ि, गिरत तहांतैं चितभ्रम ठानी ।भ्रमत अर्ध-पुद्गल-परावर्तन, किंचित् ऊन काल परमानी ॥२॥निज परिनामनि की सँभाल में, तातैं गाफिल मत ह्वै प्रानी ।बंध मोक्ष परिनामनि ही सों, कहत सदा श्री जिनवरवानी ॥३॥सकल उपाधिनिमित भावनिसों, भिन्न सु निज परनतिको छानी ।ताहिं जानि रुचि ठानि हो हु थिर, 'भागचन्द' यह सीख सयानी ॥४॥