निजरूप सजो भवकूप तजो, तुम काहे कुरूप बनावत हो ।चितपिण्ड, अखण्ड, प्रचण्ड जिया, तुम रत्न-करण्ड कहावत हो ॥टेक॥ स्वर्गादिक में पछतावत हो, नर देह मिले तो करूँ तप को ।अब भूल गए, प्रतिकूल भये, मद फूल गए इतरावत हो ॥निजरूप सजो भवकूप तजो, तुम काहे कुरूप बनावत हो ॥१॥दुख नर्क निगोद विशाल जहां, अति शीतल उष्ण सहे तुमने ।वहाँ ताती त्रिया लपटाती तुम्हें, फिर हूँ मद में लपटावत हो ॥निजरूप सजो भवकूप तजो, तुम काहे कुरूप बनावत हो ॥२॥त्रस थावर त्रास सहे बन्धन, बध छेदन, भेदन भूख सहा ।सुख रंच न सञ्च करो तुम क्यों, पर-पञ्च में उलझावत हो ॥निजरूप सजो भवकूप तजो, तुम काहे कुरूप बनावत हो ॥३॥ तेरे द्वार पे कर्म किवाड़ लगे, तापर मोह ने ताला लगा दिया ।सम्यक्त्व की कुञ्जी से खोल 'भुवन' कुञ्जी क्यों देर लगावत हो ॥निजरूप सजो भवकूप तजो, तुम काहे कुरूप बनावत हो ।चितपिण्ड, अखण्ड, प्रचण्ड जिया, तुम रत्न-करण्ड कहावत हो ॥४॥