आतमरूप सुहावना, कोई जानै रे भाई ।जाके जानत पाइये, त्रिभुवन ठकुराई ॥मन इन्द्री न्यारे करौ, मन और विचारौ ।विषय विकार सबै मिटैं, सहजैं सुख धारौ ॥१॥वाहिरतैं मन रोककैं, जब अन्तर आया ।चित्त कमल सुलट्यो तहाँ, चिनमूरति पाया ॥२॥पूरक कुंभक रेचतैं, पहिलैं मन साधा ।ज्ञान पवन मन एकता, भई सिद्ध समाधा ॥३॥जिनि इहि विध मन वश किया, तिन आतम देखा ।'द्यानत' मौनी व्है रहे, पाई सुखरेखा ॥४॥