कहाँ तक ये मोह के अंधेरे छ्लेंगे ।सम्यक्त्व दीपक कभी तो जलेंगे ॥टेक॥ये नरकों के दु:ख सब, निगोदों की आयुये स्वर्गों में जीवन, ये पशुओं का कृंदनएकेन्द्रिय से पंचेंद्रिय तक दु:ख ही है पाया कभी सुख न पायाजन्म-मरण दु:ख कभी तो टलेंगेभव के किनारे कभी तो मिलेंगे ॥कहाँ तक ये मोह के अंधेरे छ्लेंगे ।सम्यक्त्व दीपक कभी तो जलेंगे ॥१॥हाथ कमंडल बगल में पीछी हो दिगम्बर वेष हो, वन विचरण हो महाव्रत पालें, निज को अराधें,समता श्रंगारें, निजपद धारेंसंयम के पथ पर कभी तो बढ़ेंगे मुनियों के मारग कभी तो चलेंगे ॥कहाँ तक ये मोह के अंधेरे छ्लेंगे ।सम्यक्त्व दीपक कभी तो जलेंगे ॥२॥निमित्तों के आधीन चलती ये दुनियांक्षणिक सुख के पीछे दौड़ती दुनियाँकर्तृत्व बोझ से दबी है ये दुनियाँपर में ही सुख को खोजती ये दुनियाँकभी तो स्वयं की ओर ढलेंगेसम्यक्त्व दीपक कभी तो जलेंगे ॥कहाँ तक ये मोह के अंधेरे छ्लेंगे ।सम्यक्त्व दीपक कभी तो जलेंगे ॥३॥