जानत क्यों नहिं रे, हे नर आतमज्ञानीरागद्वेष पुद्गल की संगति, निहचै शुद्धनिशानी ॥टेक॥जाय नरक पशु नर सुर गतिमें, ये परजाय विरानी ।सिद्ध-स्वरूप सदा अविनाशी, जानत विरला प्रानी ॥१॥कियो न काहू हरै न कोई, गुरु सिख कौन कहानी ।जनम-मरन-मल-रहित अमल है, कीच बिना ज्यों पानी ॥२॥सार पदारथ है तिहुँ जगमें, नहिं क्रोधी नहिं मानी ।'द्यानत' सो घटमाहिं विराजै, लख हूजै शिवथानी ॥३॥