कहाँ चले ओ पर में चेतन, निज से नाता तोड़ केनश्वर सुख के कारण ही, यूं शाश्वत सुख को छोड़ के ॥तोड़ दे सारे बंधन सदा के लिए,यह मुश्किल नहीं आत्मा के लिएज्ञान से भी जरूरी निज ध्यान है,ध्यान चेतन का कर स्वात्म सुख के लिए ॥टेक॥तू अनादि से कर्मों के संग रहाकर्म फिर भी तुझे तो छुए ही नहींपर पदार्थों को तुम अपना कहते रहेपर कभी ये तुम्हारे हुए ही नहींनिज में भण्डार है स्वात्म गुण-धाम काकर ले दृष्टि स्वयं में स्वयं के लिए ॥१॥इष्ट संयोग में राग क्यों कर रहाइन विकारों में सुख की सुगंधी नहींशुद्ध निश्चय से तू ही है परमात्माअपनी महिमा को क्यों जानता नहींकाल नन्ता गया यों ही भ्रमते हुएआ पुकारे गुरु आत्म-हित के लिए ॥२॥