भला कोई या विध मन को लगाओ जाके लगावत शिव सुख पाओ ॥टेक॥जैसे नटनी चढ़त बरत पर चहुं दिश ढ़ोल बजावे ।नाचत गावत लोग रिझावै तो सूरत बरत पे लगावे ॥भला कोई या विध मन को लगाओ ॥१॥जैसे पनरिया सिर पे गगरिया तो गगर ढुलन नहीं पावे । चितवत जात करत बहु बातें तो सूरत गगर पे लगावे ॥भला कोई या विध मन को लगाओ ॥२॥जैसे पतंगा दीप शिखा पर झपट दिवल पर जावे ।जगमग जोत देख दीपक की तो बाहिने प्राण गमावे ॥ भला कोई या विध मन को लगाओ ॥३॥ये विध धर्म कहौ जिनवर ने तो मन वच तन कर ध्यावे ।'दास भवानि' दोउ कर जोड़े तो वोही शिव सुख पावे ॥भला कोई या विध मन को लगाओ ॥४॥