भव भव के दुखड़े हजार सहे, कभी यहाँ गिरा कभी वहाँ गिरा ॥गतियों में अकेला भ्रमता फिरा, कभी यहाँ गिरा कभी वहाँ गिरा ॥टेक॥शुभ कर्म उदय हो जाने से, मानव का जीवन पाया था ।जीवन के थपेड़े सह न सका,कभी यहाँ गिरा कभी वहाँ गिरा ॥१॥मलमूत्र भरे उस बिस्तर पर, जीवन के वे दिन बीत गए ।पैरों के बल जब खड़ा हुआ,कभी यहाँ गिरा कभी वहाँ गिरा ॥२॥अलमस्त जवानी पाते ही, मैं भूल गया सब अपनापन ।तरुणाई की मदहोशी में,कभी यहाँ गिरा कभी वहाँ गिरा ॥३॥यौवन की हरियाली बीती, और शुष्क बुढ़ापा आतम का काया का पतझड़ कूप हुआ,कभी यहाँ गिरा कभी वहाँ गिरा ॥४॥ झूठे विषयों में फंस करके, जीवन का तमाशा कर डालाथा रत्न वही, कंकर बनके,कभी यहाँ गिरा कभी वहाँ गिरा ॥५॥