(तर्ज :- नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे ढूंढू रे) वीर जिनेश्वर अब तो मुझको मुक्तिमार्ग बताओ,निज को भूल बहुत दु:ख पाये, अब मत देर लगावो ॥टेक॥जाना नहीं आपको मैंने, पंच पाप में लीन हुआ,आतम हित में रहा आलसी, विषयन मांहि प्रवीण हुआ,छूटे विषय, कषाय प्रभो, ऐसा पुरुषार्थ जगावो ॥१॥पर में इष्ट, अनिष्ट मानकर, हर्ष विषाद सु माना,पर निरपेक्ष सहज आनंदमय, ज्ञायक तत्त्व ना जाना,महिमावंत परम ज्ञायक, प्रभु अब मुझको दरसावो ॥२॥आश्रव-अंध है दु:ख के कारण, संवर-निर्जरा सुख के,चतुर्गति दु:खरूप अवस्था, सुख मुक्ति में प्रगटे,अब तो स्वामी शिवपथ में, मुझको भी शीघ्र लगावो ॥३॥ऐसी स्तुति करते-करते, इक दिन मन में आई,कैसे अन्तस्तत्त्व आत्मन, बाहर देख दिखाई,प्रभो आपकी मुद्रा कहती, अन्तर्दृष्टि लगावो ॥४॥मुक्ति की सच्ची युक्ति पा, अपनी और निहारा,प्रभुसी प्रभुता निज में लखकर, आनन्द हुआ अपारा,जागी यह भावना आत्मन, निज में ही रम जावो ॥५॥