हे मन तेरी को कुटेव यह, करनविषय में धावै है ॥टेक॥इनही के वश तू अनादितैं, निजस्वरूप न लखावै है ।पराधीन छिन छीन समाकुल, दुर्गति विपति चखावै है ॥१॥फरस विषय के कारन बारन, गरत परत दुख पावै है ।रसना-इन्द्री वश झष जल में, कंटक कंठ छिदावै है ॥२॥गन्धलोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपावै है ।नयन-विषय वश दीप-शिखा में, अंग पतंग जरावै है ॥३॥करन विषयवश हिरन अरनमें, खलकर प्रान लुनावै है ।'दौलत' तज इनको जिन को भज, यह गुरु सीख सुनावै है ॥४॥