हे ! सीमंधर भगवान शरण ली तेरीबस ज्ञाता दृष्टा रहे परिणति मेरी ॥टेक॥निज को बिन जाने नाथ फिरा भव वन में ।सुख की आशा से झपटा उन विषयन में ॥ज्यों कफ में मक्खी बैठ पंख लिपटावे,तब तड़फ-तड़फ दुःख में ही प्राण गमावे ॥त्यों इन विषयन में मिली, दुखद भवफेरी बस ज्ञाता दृष्टा रहे परिणति मेरी ॥१॥मिथ्यात्व राग वश दुखित रहा प्रतिपल ही,अरु कर्म बंध भी रुक न सका पल भर भी ।सौभाग्य आज हे प्रभो तुम्हें लख पाया,दुःख से मुक्ति का मार्ग आज मैं पाया ॥हो गयी प्रतीति नहीं मुक्ति में देरी बस ज्ञाता दृष्टा रहे परिणति मेरी ॥२॥सार्थक सीमंधर नाम आपका स्वामी ।सीमित निज में हो गये आप विश्रामी ॥करते दर्शन कर भव सीमित भवि प्राणी ।फिर आवागमन विमुक्त बने शिवगामी ॥चिरतृप्ति प्रदायक शांति छवि प्रभु तेरी बस ज्ञाता दृष्टा रहे परिणति मेरी ॥३॥आत्माश्रय का फल आज प्रभो लख पाया ।निज में रमने का भाव मुझे उमगाया ॥निज वैभव सन्मुख तुच्छ सभी कुछ भासा ।दर्शन से पलट गया परिणति का पासा ॥चैतन्य छवि अंतर में आज उकेरी बस ज्ञाता दृष्टा रहे परिणति मेरी ॥४॥हे ! ज्ञायक के ज्ञायक चैतन्य विहारी ।मैं भाव वंदना करूँ परम उपकारी ॥अपनी सीमा में रहूँ यही वर पाऊँ ।प्रभु भेद भक्ति तज निज अभेद को ध्याऊँ ॥अब अंतर में ही दिखे मुझे सुख ढेरी बस ज्ञाता दृष्टा रहे परिणति मेरी ॥५॥