देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया हैकर ऊपरि कर सुभग विराजै, आसन थिर ठहराया है ॥टेक॥जगत-विभूति भूतिसम तजकर, निजानन्द पद ध्याया हैसुरभित श्वासा, आशा वासा, नासादृष्टि सुहाया है ॥१॥कंचन वरन चलै मन रंच न, सुरगिर ज्यों थिर थाया हैजास पास अहि मोर मृगी हरि, जातिविरोध नसाया है ॥२॥शुध उपयोग हुताशन में जिन, वसुविधि समिध जलाया हैश्यामलि अलकावलि शिर सोहै, मानों धुआँ उड़ाया है ॥३॥जीवन-मरन अलाभ-लाभ जिन, तृन-मनिको सम भाया हैसुर नर नाग नमहिं पद जाकै, 'दौल' तास जस गाया है ॥४॥
अर्थ : हे भाई, देखो ! भगवान आदिनाथ स्वामी ने कैसा अद्भुत ध्यान लगा रखा है । एक हाथ के ऊपर दूसरा हाथ सुंदरतापूर्वक विराजमान है और आसन स्थिरता पूर्वक जमा हुआ है ।
श्री आदिनाथ स्वामी जगत की विभूति को राख के समान त्यागकर निजानन्द स्वरूप का ध्यान कर रहे है । उनकी श्वास सुगंधित है, उन्होंने दिशारूपी वस्त्र धारण कर रखे है अर्थात् वे नग्न दिगम्बर मुद्रा में है और नासादृष्टिपूर्वक विराजमान हैं ॥१॥
उनके शरीर का वर्ण कंचन जैसा है, उनका मन ध्यान से रंचमात्र भी चलायमान नहीं है, सुमेरु पर्वत की तरह अचल है । उनके पास सर्प-मोर, हिरन-शेर आदि जन्मजात विरोधी जीवों की भी शत्रुता समाप्त हो गयी है ॥२॥
श्री आदिनाथ स्वामी ने शुद्धोपयोगरूपी अग्नि में अष्टकर्मरूपी ईंधन को जला दिया है । तथा उनके सिर पर काली लटें इसप्रकार सुशोभित हो रही हैं, मानो उसी का धुआं उड़ रहा हो ॥३॥
कविवर दौलतराम जी कहते है कि जो जीवन और मरण, हानि और लाभ तथा तृण और मणि आदि सबको समान दृष्टि से देखते हैं, मैं भी उन श्री आदिनाथ स्वामी का यशोगान करता हूँ ॥४॥