आपा नहिं जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे ॥देहाश्रित करि क्रिया आपको, मानत शिवमगचारी रे ॥१॥निज निवेद बिन घोर परीषह, विफल कही जिन सारी रे ॥२॥शिव चाहै तो द्विविधकर्म तें, कर निज परिणति न्यारी रे ॥३॥'दौलत' जिन निजभाव पिछान्यौ, तिन भवविपति विदारी रे ॥४॥
अर्थ : हे मनुष्य ! तू अपने आपको नहीं जान सका, अपना स्वरूप नहीं पहचान सका तो तू कैसा ज्ञानी है ?
देह से सम्बन्धित क्रिया करके तू अपने आपको मोक्ष मार्गी मानता रहा । तूने आत्मा को नहीं जाना... ॥१॥
अपने में विरक्ति बिना घोर परीषह सहना, जिनेन्द्र देव कहते हैं कि ये तेरे किसी अर्थ के नहीं, सब विफल, फलरहित या उल्टा फल देनेवाले हैं । तूने आत्मा को नहीं जाना... ॥२॥
यदि तुझे मोक्ष की चाह है तो द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के कर्म से अपनी परिणति न्यारी देख, अलग-अलग जान व समझ। तूने आत्मा को नहीं जाना... ॥३॥
दौलतरामजी कहते हैं कि जिन्होने अपने आपको भगवान देखा उन्होंने ही संसारभ्रमण की विपत्ति को दूर किया, उससे छूट गये । तूने आत्मा को नहीं जाना... ॥४॥