निरखत जिनचन्द्र-वदन, स्वपदसुरुचि आई ॥टेक॥प्रगटी निज आनकी, पिछान ज्ञान भानकीकला उदोत होत काम, जामिनी पलाई ॥१॥शाश्वत आनन्द स्वाद, पायो विनस्यो विषाद आन में अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई ॥२॥साधी निज साधकी, समाधि मोह व्याधिकीउपाधि को विराधिकैं, आराधना सुहाई ॥३॥धन दिन छिन आज सुगुनि, चिंतें जिनराज अबैसुधरे सब काज 'दौल', अचल ऋद्धि पाई ॥४॥
अर्थ : चन्द्रमा के समान सुन्दर जिनेन्द्र के रूप के दर्शन से स्वपद की रुचि जागृत हुई है अर्थात् पुद्गल से भिन्न अपने चैतन्य स्वरूप की बोधि हुई है ।
स्व की व पर-अन्य की पहचान व अनुभूतिरूपी ज्ञान सूर्य के उदित होते ही कामनाओं -इच्छाओंरूपी रात्रि भाग गई और निजस्वरूप की बोधि हुई है ।
अपने अखण्ड व नित्य आत्मानुभूति के स्वाद से सब प्रकार के विषाद मिट गये हैं और पर अर्थात् पुद्गल के प्रति हो रही इष्ट व अनिष्ट की सारी कल्पनाएँ नष्ट हो गई हैं ।
अपने आत्म-स्वभाव की साधना से, चिंतन से मोहरूपी व्याधि समाधि में अंतर्लीन हो गई है, समा गई है । सभी उपाधियों को छोड़कर, स्वभाव की आराधना भली लगने लगी है ।
आज का यह क्षण, यह दिन अत्यंत शुभ है, धन्य है, गुण सहित है कि जिनराज के स्वरूप का चिंतन होने लगा है । दौलतराम जी कहते हैं कि मैंने यह अचल व स्थायी सिद्धि पा ली है, अब मेरे सभी कार्य सिद्ध हो जायेंगे, सुधर जायेंगे, ठीक हो जायेंगे ।