चेतन कौन अनीति गही रे, न मानैं सुगुरु कही रे ।जिन विषयनवश बहु दुख पायो, तिनसौं प्रीति ठही रे ॥१ चेतन॥चिन्मय ह्वै देहादि जड़नसौं, तो मति पागि रही रे ।सम्यग्दर्शनज्ञान भाव निज, तिनकौं गहत नहीं रे ॥२ चेतन॥जिनवृष पाय विहाय रागरुष, निजहित हेत यही रे ।'दौलत' जिन यह सीख धरी उर, तिन शिव सहज लही रे ॥३ चेतन॥
अर्थ : हे चेतन ! तू यह कैसा अनीतिपूर्ण आचरण कर रहा है कि सद्गुरु ने जो सीख दी है , जो तेरे हित की बात कही है , जो उपदेश दिया है तू उसको नहीं मानता ! जिन इन्द्रिय विषयों के कारण तूने बहुत दुखों का उपार्जन किया है , उनमें ही तू प्रीति लगा रहा है , उनसे अपनापन जोड़ रहा है।
तू चैतन्य स्वरूप होकर भी पुद्गल जड़ वस्तुओं में अपनापन जोड़ रहा है , उनको अपना मान रहा है , उनमें मन लगा रहा है । तेरे अपने भाव - स्वभाव तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है, जिन्हे तू स्वीकार नहीं कर रहा है ।
जैनधर्म पाकर तू राग द्वेष को छोड़ दे , तेरा हित इसी में है । दौलतराम कहते है कि जिनने इस सीख को, उपदेश को हृदय में धारण किया, स्वीकार किया उनको मुक्ति का मार्ग सहज हो गया अर्थात वे सुगमता से मुक्त हो गए ।