जम आन अचानक दाबेगा ॥टेक॥छिन छिन कटत घटत थिति ज्यों जल, अंजुलि का झर जावेगा ॥जन्म-ताल-तरु तें पर जिय-फल, कों लग बीच रहावेगा । क्यों न विचार करै नर आखिर, मरन-मही में आवेगा ॥जम आन अचानक दाबेगा ॥1॥ सोवत मृत जागत जीवत ही, श्वासा जो थिर थावेगा ।जैसें कोऊ छिपै सदा सौं, कबहूँ अवसि पलावेगा ॥जम आन अचानक दाबेगा ॥2॥कहूँ कबहूँ कैसे हू कोऊ, अन्तक से न बचावेगा ।सम्यग्ज्ञान पियूष पिये सों, 'दौल' अमर पद पावेगा ॥जम आन अचानक दाबेगा ॥3॥
अर्थ : हे भाई ! यमराज तुझे एक दिन अचानक अपने तले दबा लेगा । समय क्षण-क्षण करके उसी तरह कटता जा रहा है, आयुकर्म की स्थिति शनैः-शनैः उसी तरह घटती जा रही है, जिस तरह अंजुलि का जल निकलता है।
हे भाई ! तू इसका विचार क्यों नहीं करता है कि जन्मरूपी ताड के वृक्ष से गिरा हुआ जीवरूपी फल वीच मे कब तक रहेगा ? आखिर तो मृत्युरूपी भूमि पर आएगा ही।
जैसे कोई व्यक्ति कहीं छुपा हुआ हो, तो वह कभी-न-कभी अवश्य भाग ही जाता है, उसी प्रकार यह श्वास भी एक दिन अवश्य रुक जाएगी।
हे भाई ! तुझे कहीं थी, कभी भी, कैसे भी और कोई भी मृत्यु से नहीं बचा सकेगा । कविवर दौलतरम कहते है कि सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत का पान करने से ही जीव को अमरपद की प्राप्ति होती है।