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जय श्री वीर जिनेन्द्र
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जय श्री वीर जिनेन्द्र चन्द्र, शत इन्द्र वन्द्य जगतारं ।

सिद्धारथ कुल कमल अमल रवि, भव-भूधर पवि भारं ।
गुन-मनि-कोष अदोष मोखपति, विपिन-कषाय-तुषारं ॥

मदन-कदन शिव-सदन पद नमति, नित अनमित यति सारं ।
रमा-अनन्त-कन्त अन्तक-कृत-अन्त जन्‍तु-हितकारं ॥

फन्‍द चन्दना कन्दन दादुर, दुरित तुरित निर्वारं ।
रुद्ररचित अतिरुद्र उपद्रव, पवन अद्विपति सारं ॥

अन्तातीत अचिन्त्य सुगुन तुम, कहत लहत को पारं ।
हे जगमौल ! 'दौल' तेरे क्रम, नमें शीश कर धारं ॥



अर्थ : सौ इन्द्रों द्वारा वन्दनीय और जगत को तारनेवाले श्री महावीर जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा जयवन्त रहें ।
वे राजा सिद्धार्थ के कुलरूपी स्वच्छ कमल के लिए सूर्य है, संसाररूपी पर्वत के लिए मजबूत वज्र हैं, गुणरूपी मणियों के भण्डार हैं, निर्दोष मोक्ष के स्वामी हैं और कषायरूपी जगल के लिए बर्फ के समान हैं ।
वे कामदेव को नष्ट करनेवाले हैं और कल्याण के घर है। उनके चरणों में नित्य अगणित श्रेष्ठ यति नमस्कार करते है। वे अनन्त लक्ष्मी के पति हैं, मृत्यु का अन्त करनेवाले है और प्राणिमात्र का हित करनेवाले हैं ।
वे चन्दना के बन्धनों को काटनेवाले हैं और मेंढक के पापों को तुरन्त मिटानेवाले हैं । रुद्र द्वारा किये गये महाभयकर उपद्रव की पवन के समक्ष वे श्रेष्ठ पर्वतराज हैं ।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि है जगत-शिरोमणि महावीर जिनेन्द्र ! आपके सुगुण अनन्त और अचिन्त्य हैं। उन्हें कहने में कौन पार पा सकता है ? मैं आपके चरणों मे हाथ जोडकर मस्तक झुकाता हूँ ।