मान ले या सिख मोरी, झुके मत भोगन ओरी ॥टेक॥भोग भुजंगभोग सम जानो, जिन इनसे रति जोरी ।ते अनन्त भव भीम भरे दु:ख, परे अधोगति पोरी ॥ बँधे दृढ़ पातक डोरी, मान ले या सिख मोरी ॥१॥इनको त्याग विरागी जे जन, भये ज्ञानवृषधोरी ।तिन सुख लह्यो अचल अविनाशी, भवफांसी दई तोरी ॥रमें आतम रस बोरी, मान ले या सिख मोरी ॥२॥भोगन की अभिलाष हरन को, त्रिजग सम्पदा थोरी ।यातैं ज्ञानानन्द 'दौल' अब, पियो पियूष कटोरी । मिट भवव्याधि कठोरी, मान ले या सिख मोरी ॥३॥
अर्थ : अरी आत्मा ! हमारी एक सीख मान । तू भोगों की ओर कभी भी अपनी प्रवृत्ति न कर ।
देखो, यह पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी भोग भुजङ्ग के भोग -- (साँप के शरीर जैसे) हैं । यह भी आपातत: भोगकाल में बड़े मनोहारी और प्रिय लगते हैं और जो व्यक्ति इन भोगों से स्नेह-बन्धन जोड़ते हैं, वे अनन्त दु:खों से आकीर्ण संसार की अधोगति रूपी पौर में डेरा डालते हैं और वहाँ वे पाप-जाल में इतनी बुरी तरह से फंस जाते हें कि उनका वहाँ से निकलना ही कठिन हो जाता है ।
जो मनुष्य इन भोगों से विरक्त हो गये हैं और जिन्होंने इन भोगों से अपना नाता तोड़ लिया है, वे सम्पूर्ण ज्ञानी (केवलज्ञानी) हो गये हैं और उन्होंने संसार के बन्धन को तोड़कर अविनश्वर एवं अविचल सुख प्राप्त कर लिया है । उनके साथ मुक्ति-लक्ष्मी विलास करती है ।
भोगों की चाह साधारण चाह नहीं है । इस चाह को उपशान्त करने के लिए तीनों लोक की सम्पत्ति भी पर्याप्त नहीं है । इसलिए आत्मा, तू तो ज्ञानानन्दरूपी अमृत को कटोरी भर-भर कर पी, जिससे तेरी कठोर भव-व्याधि मिट जाय और तू निराकुल हो सके ।