शिवपुर की डगर समरस सों भरी ।सो विषय-विरस रचि चिर विसरी ।सम्यकदरश-बोध-व्रतमय भव-दुख दावानल मेघ-झरी ॥ताहि न पाय तपाय देह बहु, जनम-जरा करि विपति भरी ।काल पाय जिनधुनि सुनि मैं जब, ताहि लहूँ सोई धन्य घरी ॥ते जन धनि या माँहि चरत नित, तिन कीरति सुरपति उचरी ।विषयचाह भवराह त्याग अब, 'दौल' हरी रज रहस अरी ॥
अर्थ : अहो, मोक्षरूपी नगर का मार्ग समतारूपी रस से भरा हुआ है। यह समतारूपी रस सांसारिक विषयों के रस से अत्यन्त भिन्न है और अनादिकाल से विस्मृत है।
मोक्षरूपी नगर का मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता रूप है और संसार-दुःख की भयंकर अग्नि को बुझाने के लिए जल-वर्षा के समान है। किन्तु अनादिकाल से आज तक कभी इस जीव ने उस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं किया है और व्यर्थ ही देह को बहुत तपाया है, अतः जन्म-मरण करके घोर दुःखों को ही सहन किया है।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि वह घड़ी धन्य होगी, जब मैं काल पाकर अथवा भगवान की वाणी सुनकर इस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय मोक्षमार्ग को प्राप्त करूँगा। धन्य हैं वे जीव जो नित्य इसी मोक्षमार्ग में विचरण करते हैं। इन्द्र भी उनकी कीर्ति का उच्चारण करता है ।
कविवर दौलतराम स्वयं से कहते हैं कि हे दौलतराम ! अब तू विषयचाह के संसारमार्ग का त्याग करके अरि, रज व रहस्य (समस्त घातिया कर्मों) को नष्ट कर दे ।