मेरो मन खेलत ऐसी होरी ॥टेक॥मन मिरदंग साजि कर त्यारी, तन को तमूरा बनो री ।सुमति सुरंग सरंगी बजाई, ताल दोऊ कर जोरी ॥राग पांचो पद को री,मेरो मन खेलत ऐसी होरी ॥१॥समकित रूप नीर भर झारी, करुना केशर घोरी ।ज्ञानमई लेकर पिचकारी, दोउ कर मांहि सम्होरी ॥इन्द्रिय पांचों सखि बोरी,मेरो मन खेलत ऐसी होरी ॥२॥चतुर दान को है गुलाल सो, भर-भर मूंठ चलो री ।तप मेवा सों भर निज झोरी, यश को अबीर उड़ो री ॥रंग जिनधम मचो री,मेरो मन खेलत ऐसी होरी ॥३॥'दौलत' बाल खेलें अस होरी, भव-भव दुःख टलो री ।शरना लै इक श्री जिन को री, जग में लाज रहे तोरी ॥मिलै फगुआ शिवगोरी,मेरो मन खेलत ऐसी होरी ॥४॥
अर्थ : अहो, मेरा मन ऐसी होली खेल रहा है ।
मैंने अपने मन को मृदंग के रूप में सजा रखा है, मेरे दोनों हाथ मंजीर बने हुये हैं और मेरा शरीर ही तानपूरा बना हुआ है। मैं इन बाजों के साथ सुबुद्धिरूपी सुन्दर सारंगी बजा रहा हूँ, दोनों हाथों को जोड़कर ताल दे रहा हूँ और पंच परमेष्ठी के राग का गायन कर रहा हूँ।
मेरे पास सम्यक्त्वरूपी जल से भरी हुई झारी है जिसमें करुणारूपी केशर घुली हुई है। मैंने अपने दोनों हाथों से ज्ञानमयी पिचकारी को सावधनी पूर्वक पकड़ रखा है और उससे पाँचों इन्द्रियरूपी सखियों को पूरी तरह डुबा दिया है, पराजित कर दिया है।
मेरे पास चार दान रूपी गुलाल है, जिसे मुट्ठी भर-भर कर चलाया जा रहा है। इसके पश्चात् तपरूपी मेवा से मैंने अपनी झोली भर ली है। चारों ओर यशरूपी अबीर उड़ रहा है। ऐसा यह होली का उत्सव जिनेन्द्रदेव के मन्दिर में मनाया जा रहा है।
कविवर दौलतराम कहते हैं कि हे जिनेन्द्रदेव! मैं बालक एक आपकी ही शरण लेकर ऐसी होली खेल रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि इससे मेरे जन्म-जन्म के दुःख दूर हो जाएँगे, आपका यश बच जाएगा और मुझे पफगुआ के रूप में मुक्तिरूपी स्त्राी भी मिल जाएगी।