हो तुम शठ अविचारी जियरा, जिनवृष पाय वृथा खोवत हो ॥टेक॥पी अनादि मदमोहस्वगुननिधि, भूल अचेत नींद सोवत हो ।स्वहित सीखवच सुगुरु पुकारत, क्यों न खोल उर-दृग जोवत हो ।ज्ञान विसार विधयविष चाखत, सुरतरु जारि कनक बोवत हो ॥१॥स्वारथ सगे सकल जनकारन, क्यों निज पापभार ढोवत हो ।नरभव सुकुल जैनवृष नौका, लहि निज क्यों भवजल डोवत हो ॥२॥पुण्यपापफल वातव्याधिवश, छिनमें हँसत छिनक रोवत हो ।संयमसलिल लेय निजउर के, कलिमल क्यों न 'दौल' धौवत हो ॥३॥
अर्थ : अरे जियरा ! जो तुमने यह जैनधर्म पाया है, इस अवसर को दुष्ट व अविचारी अर्थात् विवेकहीन होकर तुम व्यर्थ ही खो रहे हो। अनादि काल से मोहरूपी वारुणी शराब पीकर मोहवश अपने निज स्वरूप को / गुण को भूलकर अचेत सोये पड़े हो। अपने हृदय की आँख खोलकर अर्थात् विवेकसहित क्यों नहीं देखते कि सत्गुरु अपने ही हित का उपदेश दे रहे हैं ।
कल्पवृक्ष को जलाकर वहाँ धतूरा उगाने के समान तुम ज्ञान को भूलकर विषयरूपी विष को चख रहे हो। अपने-अपने स्वार्थ के कारण सब सगे हो जाते हैं; फिर तुम क्यों पाप का भार अपने ऊपर ढोते हो। यह मनुष्य जन्म, अच्छा कुल जैनधर्मरूपी नौका पाकर भी तुम अपने को क्यों इस भव-समुद्र में डुबा रहे हो ! पुण्य-पाप के फल से और वात के समान चंचल व्याधि के वशीभूत हो उनके वश होकर तुम कभी हँसते हो, कभी प्रसन्न होते हो और कभी दु:खी होकर रोते हो। अरे दौलतराम ! तुम संयमरूपी जल से हृदय के मैल को क्यों नहीं धोते हो ।