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अरिरजरहस हनन प्रभु
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अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन, जैवंतो जग में ।
देव अदेव सेव कर जाकी, धरहिं मौलि पगमें ॥टेक॥

जो तन अष्टोत्तरसहसा लक्खन लखि कलिल शमें ।
जो वच दीपशिखातैं मुनि विचरैं शिवमारगमें ॥
अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन, जैवंतो जग में ॥२॥

जास पासतैं शोकहरन गुन, प्रगट भयो नगमें ।
व्यालमराल कुरंगसिंघको, जातिविरोध गमें ॥
अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन, जैवंतो जग में ॥३॥

जा जस-गगन उलंघन कोऊ, क्षम न मुनी खग में ।
'दौल' नाम तसु सुरतरु है या, भव मरुथल मग में ॥
अरिरजरहस हनन प्रभु अरहन, जैवंतो जग में ॥४॥



अर्थ : अरहंत प्रभु, जगत में सदा जयवन्त रहें, जिनने मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इन घातियाकर्मों का नाश किया है! देव वे अन्यजन, सभी जिनके चरणों में अपना शीश झुकाकर, चरणों में मुकुट रखकर वन्दना करते हैं, सेवा करते हैं ॥1॥

जिनके शरीर में १००८ सुलक्षण देखकर सारे पापों का शमन हो जाता है। जिनकी दिव्यध्वनि के आलोक (प्रकाश) में मुनिजन मोक्ष की राह में बढ़ते हैं ॥2॥

जिनकी समीपता से वृक्ष में सारे खेद-शोक का नाश करने का गुण प्रकट हो जाता है और वह 'अशोक' वृक्ष कहलाने लगती है, जिनकी समीपता में शरण में सर्प व मोर, हरिण व सिंह सभी अपना जातिगत विरोध भूलकर गमन करते हैं, विचरण करते हैं ॥3॥

जिनका यश सारे आकाश में, जगत में फैल रहा है। उस यश-गगन अर्थात् यश के विस्तार का पार पाने में मुनिरूपी पक्षी भी सक्षम नहीं हैं। दौलतराम कहते हैं कि इस भवरूपी रेगिस्तान की राह में वे कल्पवृक्ष के समान हैं ॥4॥
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