आतम रूप अनूपम अद्भुत, याहि लखैं भव सिंधु तरो ॥टेक॥अल्पकाल में भरत चक्रधर, निज आतमको ध्याय खरो केवलज्ञान पाय भवि बोधे, ततछिन पायौ लोकशिरो ॥या बिन समुझे द्रव्य-लिंगमुनि, उग्र तपनकर भार भरो नवग्रीवक पर्यन्त जाय चिर, फेर भवार्णव माहिं परो ॥सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, येहि जगत में सार नरो पूरव शिवको गये जाहिं अब, फिर जैहैं,यह नियत करो ॥कोटि ग्रन्थको सार यही है, ये ही जिनवानी उचरो 'दौल' ध्याय अपने आतमको, मुक्तिरमा तब वेग बरो ॥
अर्थ : आत्मा का स्वरूप अनुपम है , इसका ही चिंतवन कर इस संसार - सागर से तिर जाओ , पार हो जाओ ।
भरत चक्रवर्ती ने अपनी शुद्ध आत्मा का चिंत्वन कर केवलज्ञान प्राप्त किया और भव्यजनों को संबोधकर थोड़े समय में ही मोक्षगामी हो गए ॥1॥
इसके ( आत्मा के) स्वरूप को समझे बिना , द्रव्यलिंगी मुनि घोर तप कर के भी कर्मों का बोझ ही बढ़ाते हैं , कर्म निर्जरा नहीं कर पाते । वे नव ग्रैवेयक तक जाकर भी इस संसार समुद्र में पड़े रहते हैं अर्थात् भव भ्रमण करते रहते हैं ॥2॥
जो अब तक मोक्ष को गए हैं , जा रहे हैं व जाएंगे उन्होंने निश्चित रूप से यह जान लिया है और बताया है कि इस जगत में सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र और तप ही अत्यंत सारवान है ॥3॥
यह ही करोड़ों ग्रंथों का सार हैं । जिनवाणी इस तथ्य का ही वर्णन करती है । दौलतराम कहते हैं कि अपनी आत्मा का ध्यान करो तब ही शीघ्रता से मोक्ष लक्ष्मी का वरण हो सकेगा ॥4॥